Published on Nov 20, 2021 Updated 0 Hours ago

बिजली उत्पादन के लिए पारंपरिक और नवीकरणीय ऊर्जा क्षमताओं के उपयुक्त संयोजन या मिश्रण की दरकार पर निष्पक्ष रूप से सोच-विचार करने और उचित अनुपात में वित्तीय और नीतिगत तवज्जो दिए जाने की ज़रूरत है.

बिजली उत्पादन: भारत में कोयले के भंडार से जुड़ा हालिया संकट और उसके मायने!

वस्तुस्थिति

केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण (CEA) के मुताबिक 24 अक्टूबर 2021 को कोयले पर आधारित 101 बिजली संयंत्रों के पास 8 दिनों से भी कम का कोयला भंडार बच गया था. इन संयंत्रों की कुल बिजली उत्पादन क्षमता तक़रीबन 121 गीगा वाट (GW) है. 27 गीगा वाट क्षमता वाले 22 प्लांटों के पास तो एक दिन से भी कम की ज़रूरत का कोयला स्टॉक शेष था. कोयले की किल्लत झेल रहे इन 101 प्लांटों में से वैसे संयंत्र भी शामिल थे जो कोयला खदानों के नज़दीक स्थित हैं. कोयला खदानों के क़रीब के ऐसे ही दो प्लांटों के पास 5 दिन से भी कम की ज़रूरत का कोयला मौजूद था, जबकि तीन अन्य संयंत्रों के पास तो तीन दिन से भी कम का भंडार बचा था. क़ायदे के मुताबिक कोयला खदानों के नज़दीक स्थित इन संयंत्रों के पास 15 दिनों की ज़रूरत पूरा करने लायक कोयले का भंडार मौजूद होना ज़रूरी है. दूसरी ओर कोयला खदानों से दूर स्थित संयंत्रों में से 37 के पास 7 दिन की ज़रूरत से भी कम, जबकि 49 प्लांटों के पास 4 दिन से भी कम का भंडार बच गया था. नियमों के मुताबिक कोयला खदानों से दूर स्थित इन संयंत्रों के पास हर वक़्त 20-25 दिन की ज़रूरत का कोयला मौजूद होना चाहिए. कोयला खदानों से 1500 किमी से भी ज़्यादा दूर स्थित प्लांटों में से 2 के पास 9 दिन से भी कम का कोयला भंडार मौजूद था. ऐसे ही 8 अन्य प्लांटों के पास तो 5 दिनों की ज़रूरत पूरी करने लायक कोयला भी नहीं बचा था. प्रचलित नियमों के अनुसार इन संयंत्रों के पास 30 दिनों की ज़रूरत पूरी करने वाला भंडार होना आवश्यक है. इन तमाम आंकड़ों से साफ़ है कि कोयला आधारित बिजली उत्पादन का 70 फ़ीसदी हिस्सा मुहैया कराने वाले संयंत्र 24 अक्टूबर 2021 क

तात्कालिक कारण

कोयले की किल्लत झेल रहे इन संयंत्रों ने इस संकट का ठीकरा उम्मीद से कम कोयले की आपूर्ति पर फोड़ा. शायद इसके पीछे की वजह मॉनसून  के आने में देरी रही. तय समय के बाद आए मॉनसून के चलते कोयले के उत्पादन और ढुलाई पर असर पड़ा. बिजली संयंत्रों में कोयले का भंडार कम होने की एक अन्य वजह घरेलू कोयले की ऊंची मांग भी रही है. दरअसल सरकार की ‘आत्मनिर्भर’ नीति के चलते घरेलू कोयले की मांग बढ़ गई है. घरेलू और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कारोबार होने वाले कोयले की ख़रीद-बिक्री की क़ीमतों का अंतर काफ़ी ज़्यादा हो गया. लिहाज़ा आमतौर पर आयातित कोयले पर निर्भर रहने वाले पावर प्लांटों से भी घरेलू कोयले की मांग में बढ़ोतरी दर्ज की जाने लगी. महामारी और लॉकडाउन के प्रभावों से बाहर आ रही अर्थव्यवस्था के दोबारा पटरी पर आने और उसके चलते उपभोक्ता मांग में हुई बढ़ोतरी भी कोयले के भंडार को लेकर पैदा हुई इस संकट के पीछे ज़िम्मेदार रहे. जुलाई 2021 में बिजली की अधिकतम मांग (peak demand) अपने अबतक के उच्चतम स्तर 200,570 मेगावाट (MW) तक पहुंच गई. कोविड से पहले के उच्चतम स्तर (182,533 MW) से ये तक़रीबन 9 फ़ीसदी ज़्यादा है. बिजली की मांग में कोविड-19 की पहली लहर के बाद से लगातार बढ़ोतरी देखी जाती रही है. कोविड की दूसरी लहर के दौरान थोड़े समय के लिए इस मांग में गिरावट आई थी लेकिन उसके बाद दोबारा बिजली की मांग में तेज़ उछाल दर्ज की गई है.

ढांचागत वजहें

निश्चित रूप से कोयला क्षेत्र में संकट का दौर कोविड-19 महामारी के पहले ही शुरू हो चुका था. महामारी ने इस समस्या को और विकराल बना दिया. कोयले से संचालित होने वाले बिजली संयंत्रों को 2020 में लॉकडाउन के चलते बिजली की मांग में आई गिरावट का सामना करना पड़ा. दूसरी ओर सोलर पीवी (फ़ोटोवोल्टेक) और दूसरे नवीकरणीय ऊर्जा (RE) संसाधनों को ग्रिड से जुड़ाव पाने में वरीयता मिलती रही. इसके अलावा 2020 के वसंत और गर्मियों में LNG (लिक्विड नैचुरल गैस) की अंतरराष्ट्रीय क़ीमतों में रिकॉर्ड गिरावट आई. इस वजह से गैस आधारित बिजली उत्पादन को ज़बरदस्त बढ़ावा मिला. ताप बिजली घरों का प्लांट लोड फ़ैक्टर (PLF यानी किसी संयंत्र की अधिकतम बिजली उत्पादन क्षमता के मुक़ाबले वास्तविक रूप से पैदा की जा रही बिजली) अप्रैल 2019 में 64 प्रतिशत था. ये आंकड़ा अप्रैल 2020 में गिरकर 42 फ़ीसदी पर आ गया. ग़ौरतलब है कि नवीकरणीय ऊर्जा संसाधनों द्वारा पैदा की जाने वाली बिजली का स्तर उतार-चढ़ावों से भरा होता है. इनके साथ तालमेल बिठाने के लिए ताप बिजलीघरों के उत्पादन स्तर को भी ऊपर-नीचे किया जाने लगा है. इससे न्यूनतम लोड फ़ैक्टर पर असर पड़ा. कोयले से बिजली उत्पादन करने वाले संयंत्रों के लिए ये हालात ख़ासतौर से नुकसानदेह साबित हुए हैं. 2000 के शुरुआती वर्षों में इन संयंत्रों का PLF 75-80 प्रतिशत के दायरे में रहा करता था. दूसरी तरफ़ बिजली के क्षेत्र में कोयला-आधारित निर्माण प्रक्रिया में सालाना निवेश में भी ज़बरदस्त गिरावट देखी गई है. 2010 में ये निवेश अपने उच्चतम स्तर (28 अरब अमेरिकी डॉलर) पर था. 2019 में निवेश घटकर 11 अरब अमेरिकी डॉलर पर आ गया. आने वाले दशकों में इसमें और भी गिरावट आने का अनुमान है. जनवरी 2021 में सरकार ने घोषणा की थी कि मौजूदा दशक में सार्वजनिक क्षेत्र और निजी कंपनियां मिलकर कोयला सेक्टर में 4 खरब रुपए का निवेश करेंगे. सरकार के मुताबिक 5 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर की अर्थव्यवस्था बनने के लक्ष्य की पूर्ति के रास्ते में कोयला सेक्टर का सबसे बड़ा योगदान रहने वाला है. बहरहाल मौजूदा दशक में कोयला क्षेत्र में निवेश का लक्ष्य पूरा हो जाए तो भी 2010 में इस सेक्टर में हुए निवेश के रिकॉर्ड के मुक़ाबले उसका स्तर काफ़ी नीचे ही रहेगा.

महामारी और लॉकडाउन के प्रभावों से बाहर आ रही अर्थव्यवस्था के दोबारा पटरी पर आने और उसके चलते उपभोक्ता मांग में हुई बढ़ोतरी भी कोयले के भंडार को लेकर पैदा हुई इस संकट के पीछे ज़िम्मेदार रहे. 

बिजली घरों में कोयला आपूर्ति से जुड़े संकट के पीछे एक और बड़ा ढांचागत मसला है. दरअसल  पिछले कुछ समय से नवीकरणीय उर्जा (RE), ख़ासतौर से सौर ऊर्जा को लेकर बेसमझी भरा उत्साह देखने को मिल रहा है. कई लोगों को लगता है कि बिजली की लगातार बदलती और बढ़ती मांगों को पूरा करने में ये रामबाण साबित होगा. बहरहाल आंकड़े बताते हैं कि नवीकरणीय उर्जा में निवेश के लिए दी जा रही तमाम सहूलियतों के बावजूद भारत में बिजली उत्पादन में कोयले से पैदा होने वाली बिजली का हिस्सा 1990 के बाद से कमोबेश 70 फ़ीसदी के स्तर पर बरकरार है. नवीकरणीय ऊर्जा में हुई अभूतपूर्व बढ़ोतरी ने कोयले से बिजली की उत्पादन क्षमता में इज़ाफ़े की रफ़्तार को धीमा तो किया है पर उसे रोकने में अब भी कामयाबी नहीं पाई है. 2012 से 2021 के बीच नवीकरणीय ऊर्जा की क्षमता में बढ़ोतरी की दर औसतन 17 प्रतिशत रही है. दूसरी ओर इसी कालखंड में कोयले से बिजली उत्पादन क्षमता में इज़ाफ़े की दर क़रीब 7 फ़ीसदी रही है. इसी अवधि में कोयले से बिजली उत्पादन में क़रीब 7 फ़ीसदी जबकि नवीकरणीय ऊर्जा उत्पादन में तक़रीबन 13 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई. निश्चित रूप से नवीकरणीय ऊर्जा संसाधनों से पैदा होने वाली बिजली ने कोयला-आधारित बिजली उत्पादन संयंत्रों की जगह लेना शुरू कर दिया है. हालांकि नवीकरणीय संसाधनों से बिजली के उत्पादन और बिजली की अधिकतम मांग (peak demand) के बीच अब भी बहुत बड़ा अंतर है. नवीकरणीय संसाधनों से पैदा होने वाली बिजली की क्षमता को बढ़ाने के लिए अब भी ज़रूरत के मुताबिक काम नहीं हो सका है. लिहाज़ा कोयला से बिजली पैदा करने वाले संयंत्रों की उत्पादन क्षमता से जुड़ी ज़रूरत में अब भी कमी नहीं लाई जा सकी है. विस्तृत अध्ययनों के मुताबिक दुनिया के दूसरे क्षेत्रों में नवीकरणीय ऊर्जा क्षेत्र ने कोयले से बिजली निर्माण की क्षमता में जिस दर से गिरावट लाने में कामयाबी पाई है उसके मुक़ाबले भारत के नवीकरणीय उर्जा सेक्टर की सफलता का स्तर काफ़ी नीचे है.

विस्तृत अध्ययनों के मुताबिक दुनिया के दूसरे क्षेत्रों में नवीकरणीय ऊर्जा क्षेत्र ने कोयले से बिजली निर्माण की क्षमता में जिस दर से गिरावट लाने में कामयाबी पाई है उसके मुक़ाबले भारत के नवीकरणीय उर्जा सेक्टर की सफलता का स्तर काफ़ी नीचे है. 

मुद्दे

मौजूदा रणनीति के तहत कुल उत्पादित बिजली में सौर ऊर्जा को बहुत बड़ा हिस्सा देने पर ज़ोर दिया जा रहा है. इसमें कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) के स्तर को हल्का करने की लागत कार्बन की सामाजिक लागत (SCC) से जुड़े अनुमानों से या तो ज़्यादा या बराबर पाई गई है. अगर भारत तीव्र गति से शहरीकरण के रास्ते पर चल पड़े तो कार्बन डाइऑक्साइड के स्तर और प्रभाव को हल्का करने की लागत में कमी आ सकती है. अगर भारत में राष्ट्रीय मांग का मिज़ाज दिल्ली और मुंबई जैसे महानगरों की मांग के समान हो जाए तो ये लागत कम हो सकती है. इसकी वजह ये है कि दिल्ली और मुंबई की मांग का स्वभाव हर लिहाज़ से नवीकरणीय ऊर्जा उत्पादन से संबंधित तमाम मिश्रणों और लक्ष्यों से बेहतर तरीक़े से मेल खाता है. ऐसे माहौल में नवीकरणीय ऊर्जा के ज़रिए पारंपरिक तौर पर ऊर्जा निर्माण से जुड़ी क्षमताओं में नए इज़ाफ़ों में कटौती लाई जा सकती है. साथ ही पारंपरिक ऊर्जा क्षमता के मौजूदा स्तर में कटौती की ज़रूरत भी काफ़ी कम रह जाएगी. हालांकि भविष्य की ऐसी किसी तस्वीर में बिजली की अधिकतम मांग (peak demand) के अपेक्षाकृत ऊंचे स्तर पर रहने का ही अनुमान है. इससे कोयले के ज़रिए बिजली पैदा करने की नई क्षमताओं में बढ़ोतरी की आवश्यकता बनी रहेगी. ये अजीब विडंबना है कि अगर भारत में बिजली की मांग में बढ़ोतरी की दर नीची रहती है तो भले ही कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन का स्तर नीचा हो लेकिन कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन को हल्का करने से जुड़ी लागत ज़्यादा रहती है.

ये अजीब विडंबना है कि अगर भारत में बिजली की मांग में बढ़ोतरी की दर नीची रहती है तो भले ही कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन का स्तर नीचा हो लेकिन कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन को हल्का करने से जुड़ी लागत ज़्यादा रहती है. इसकी वजह ये है कि इन हालातों में नवीकरणीय ऊर्जा के स्तर में ज़्यादा कटौती होती है. 

इसकी वजह ये है कि इन हालातों में नवीकरणीय ऊर्जा के स्तर में ज़्यादा कटौती होती है. बहरहाल मांग के इस निचले स्तर पर भी बिजली की अधिकतम मांग को को पूरा करने के लिए कोयले और गैस से बिजली उत्पादन की नई क्षमताओं की ज़रूरत रहती है. इसकी वजह ये है कि पवन और सौर ऊर्जा स्रोतों की क्षमता निम्न-स्तर वाली होती है. निश्चित रूप से आज नीति-निर्माताओं और लोगों में वैचारिक स्तर पर सौर ऊर्जा को वरीयता दिए जाने की प्रवृत्ति है. इसके बावजूद  बिजली उत्पादन के लिए पारंपरिक और नवीकरणीय ऊर्जा क्षमताओं के उपयुक्त संयोजन या मिश्रण की दरकार पर निष्पक्ष रूप से सोच-विचार करने और उचित अनुपात में वित्तीय और नीतिगत तवज्जो दिए जाने की ज़रूरत है.

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