Author : Amit Thadani

Published on Mar 18, 2021 Updated 0 Hours ago

परंपरागत और वैकल्पिक चिकित्सा पद्धति के बीच अंतर को अंतत: ख़त्म करना चाहिए ताकि जो चिकित्सा पद्धति काम करती है वो सभी चिकित्सकों के लिए उपलब्ध हो.

आधुनिक चिकित्सा पद्धति और आयुष के बीच नीतिगत चुनौतियां: समाधान क्या है?

जनवरी महीने में भारतीय चिकित्सा केंद्रीय परिषद (सीसीआईएम) की एक राजपत्रित अधिसूचना के तहत एक लिस्ट बनाई गई जिसमें 58 ऐसी सर्जरी का ज़िक्र था जो आयुर्वेदिक डॉक्टर कर सकते हैं. ऐसे आयुर्वेदिक डॉक्टर पोस्ट ग्रैजुएट होने चाहिए जिनमें एमएस (आयुर्वेद), एमएस (गायनेकोलॉजी), एमएस (ईएनटी) और एमएस (ओप्थेल्मोलॉजी) शामिल हैं. इस अधिसूचना की वजह से “एलोपैथिक” डॉक्टर और उनका संगठन बेहद नाराज़ हैं. इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (आईएमए) ने अपनी आपत्तियों को लेकर अभियान चला रखा है. उसने सार्वजनिक प्रदर्शन किया और एक दिन के हड़ताल की अपील की. महाराष्ट्र मेडिकल काउंसिल ने 15 दिसंबर 2020 के अपने सर्कुलर के ज़रिए कहा कि “किसी भी दूसरी चिकित्सा प्रणाली में क्वालिफिकेशन हासिल करने वाले व्यक्ति को किसी भी रूप में आधुनिक चिकित्सा प्रणाली की प्रैक्टिस करने की इजाज़त नहीं है” और “चिकित्सकों को इलाज की ऐसी पद्धति की प्रैक्टिस करनी चाहिए जो वैज्ञानिक आधार पर स्थापित है और उन्हें ऐसे किसी भी व्यक्ति के साथ पेशेवर तौर पर नहीं जुड़ना चाहिए जो इस सिद्धांत का उल्लंघन करता है.” काउंसिल ने ये चेतावनी भी दी कि ऐसे किसी व्यक्ति के साथ जुड़ना नैतिकता का उल्लंघन होगा. इंडियन मेडिकल एसोसिएशन सीसीआईएम की तरफ़ से जारी स्पष्टीकरण से संतुष्ट नहीं हुआ है कि ऊपर बताई गई राजपत्रित अधिसूचना स्पष्टता के लिए है.

सरकार के पास अब दो विकल्प हैं: परंपरागत और आधुनिक चिकित्सा को अलग-अलग रखकर दोनों की शुद्धता को बरकरार रखे या उन्हें पूरी तरह से मिला दे और चिकित्सकों को इस बात का फ़ैसला लेने की इजाज़त दे कि वो इलाज के लिए किस तौर-तरीक़े का इस्तेमाल करेंगे.

ऊपर बताए गए सर्जिकल कोर्स पिछले कई वर्षों से अस्तित्व में हैं. इलाज की अलग-अलग पद्धति के साथ जुड़ी समस्याएं चिंता के उचित कारण हैं. 2018 के एक रिसर्च पेपर में बताया गया है कि “ग़ैर-एलोपैथिक डॉक्टरों द्वारा एलोपैथिक प्रैक्टिस को उचित बताने वाली सरकार की मौजूदा नीतियां गांव के ग़रीबों को गंभीर बीमारियों का सही इलाज हासिल करने में मदद नहीं करती हैं” या “इलाज की देसी पद्धति की विश्वसनीयता को नहीं बढ़ाती हैं.” लेकिन ये बात भी समान रूप से सही है कि आधुनिक चिकित्सा पद्धति ने परंपरागत चिकित्सा पद्धति से दवाइयों के साथ-साथ सर्जरी की तकनीक के मामले में भी खुलकर मदद ली है- क्षारसूत्र को “सेटन” के रूप में शामिल किया गया है और सुश्रुत के द्वारा नाक की पुनर्रचना के लिए माथे और गाल के लटकते हुए हिस्से को इस्तेमाल करने को आधुनिक प्लास्टिक सर्जरी में भी इस्तेमाल किया जाता है. सैकड़ों वर्षों के दौरान परंपरागत और आधुनिक इलाज के बीच अंतर काफ़ी हद तक ख़त्म हो गया है. सरकार के पास अब दो विकल्प हैं: परंपरागत और आधुनिक चिकित्सा को अलग-अलग रखकर दोनों की शुद्धता को बरकरार रखे या उन्हें पूरी तरह से मिला दे और चिकित्सकों को इस बात का फ़ैसला लेने की इजाज़त दे कि वो इलाज के लिए किस तौर-तरीक़े का इस्तेमाल करेंगे.

अकादमिक कड़ाई

आयुर्वेदिक चिकित्सकों का ग्रैजुएशन कोर्स अक्सर घटिया होता है और ज़्यादातर संस्थानों में पढ़ाया जाने वाला पोस्ट-ग्रैजुएट कोर्स तो बेहद ख़राब क्वालिटी का होता है. एमबीबीएस और पोस्ट-ग्रैजुएट मेडिकल कॉलेज में जो कड़ाई अपनाई जाती है, उसकी आयुर्वेद की पढ़ाई में कमी होती है. एक के बाद एक सरकारों ने आयुष मेडिकल कॉलेज को स्थापित करना आसान बना दिया है. 2011 के एक रिसर्च पेपर में बताया गया था कि बीएएमएस कोर्स में “गंभीर कमियां” हैं जिसकी वजह से ज़्यादातर छात्रों के पास मूलभूत क्लिनिकल हुनर की कमी है. एमबीबीएस मेडिकल कॉलेज के मामले में नियमों को लेकर जिस तरह की कठोर जांच-पड़ताल होती है, उसी तरह की पड़ताल अगर आयुष संस्थानों के मामले में की गई तो ज़्यादातर आयुष संस्थानों को बंद करना पड़ेगा. वास्तव में आयुष मेडिकल संस्थान अगर अभी तक बचे हुए हैं तो इसकी वजह राजनीतिक संरक्षण है. 2019 में केंद्र सरकार ने 352 मेडिकल कॉलेज को सशर्त मंज़ूरी दी. सरकारी अस्पतालों से एमबीबीएस ग्रैजुएट और पोस्ट-ग्रैजुएट करने वाले छात्रों को जहां अनिवार्य रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में एक निश्चित समय के लिए काम करना पड़ता है वहीं आयुष के सरकारी अस्पतालों से ग्रैजुएट और पोस्ट-ग्रैजुएट करने वाले छात्रों को इस तरह के बंधन का सामना नहीं करना पड़ता है. आधुनिक चिकित्सा पद्धति वाले अस्पतालों को जहां बीमा कंपनियों और सरकारी योजनाओं की सूची में शामिल करने के लिए मान्यता हासिल करना ज़रूरी है वहीं पूरे  देश में सिर्फ़ तीन ऐसे अस्पताल हैं जिन्हें पिछले 10 वर्षों में मान्यता मिली है.

रिसर्च आउटपुट

काफ़ी हद तक बेहद कम आयुर्वेदिक इलाजों को सफलतापूर्वक रैंडमाइज़्ड कंट्रोल्ड ट्रायल्स (आरसीटी) में सही बताया गया है. इसकी वजह से आयुर्विज्ञान की व्यापक संभावना का पूरी तरह उपयोग नहीं किया जा सका है. कुछ आरसीटी किए गए हैं जैसे कि एक ट्रायल जिसमें कि परंपरागत डायबिटीज़ के इलाज की तुलना आयुर्वेदिक प्रणाली से की गई है जिससे पता चला कि डायबिटीज़ के लक्षण के नियंत्रण में एक समान नतीजा आया. जर्नल ऑफ क्लिनिकल रूमेटोलॉजी में प्रकाशित आरसीटी में रूमेटोइड आर्थराइटिस के इलाज में परंपरागत, आयुर्वेदिक और मिश्रित इलाज के नतीजों की तुलना की गई. साथ ही हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन से इलाज की तुलना आयुर्वेद की कई दवाओं के साथ की गई. इसके नतीजे से पता चला कि आयुर्वेदिक इलाज में कम ख़राब असर हैं. दूसरी तरफ़, एक और आरसीटी में पता चला कि डायरिया प्रीडोमिनेंट इरिटेबल बॉवेल सिंड्रोम (आईबीएस) के इलाज में आयुर्वेदिक पद्धति और आधुनिक पद्धति के नतीजों में कोई अंतर नहीं है. मौजूदा समय में इलाज के वैध तरीक़े के तौर पर स्वीकार होने के लिए सदियों पुरानी चिकित्सा पद्धति को भी कठिन प्रक्रिया से गुज़रना पड़ता है और उन्हें ख़ुद को साबित करना पड़ता है.

एमबीबीएस मेडिकल कॉलेज के मामले में नियमों को लेकर जिस तरह की कठोर जांच-पड़ताल होती है, उसी तरह की पड़ताल अगर आयुष संस्थानों के मामले में की गई तो ज़्यादातर आयुष संस्थानों को बंद करना पड़ेगा. वास्तव में आयुष मेडिकल संस्थान अगर अभी तक बचे हुए हैं तो इसकी वजह राजनीतिक संरक्षण है. 

दवाओं का उत्पादन और दुकान में बिक्री

आयुर्वेदिक इलाज की क्वालिटी सुनिश्चित करने के लिए पिछले कुछ वर्षों में दिशा-निर्देश प्रकाशित हुए हैं और उन्हें मज़बूत किया गया है. आयुर्वेदिक दवाइयों के बड़े पैमाने पर उत्पादन के लिए गुड मैन्युफैक्चरिंग प्रैक्टिस (जीएमपी) प्लांट के सिद्धांत को अपनाया गया है. लेकिन इसके बावजूद कई कमियां अभी भी बनी हुई हैं. बिना डॉक्टर की पर्ची और नियमों से बचने को सेहत के लिए फ़ायदेमंद चीज़ के तौर पर आयुर्वेदिक दवाओं की बिक्री को बढ़ावा नहीं दिया जाना चाहिए. कुछ दवाओं को छोड़कर इस परंपरा को पूरी तरह ख़त्म कर देना चाहिए. इससे आयुर्वेदिक चिकित्सकों के नुस्खे का सम्मान भी बहाल होगा.

सरकार को आयुष की शिक्षा और प्रैक्टिस के साथ बच्चों जैसा व्यवहार बंद करना होगा और इसके साथ भी वही कड़े नियम और ज़रूरतों को लागू करना होगा जैसा कि आधुनिक चिकित्सा की प्रैक्टिस करने वालों के साथ होता है. 

मौजूदा समय में आयुर्वेदिक स्टोर में दवाओं की बिक्री के लिए फार्मासिस्ट होने की क़ानूनी ज़रूरत भी नहीं है. वहीं आधुनिक दवाओं को बेचना वाली दुकानों को कड़े नियमों से गुज़रना पड़ता है और उन दुकानों में हर वक़्त एक क्वालिफाइड फार्मासिस्ट की मौजूदगी होना ज़रूरी है. ये वक़्त की ज़रूरत है कि देश भर में हज़ारों आयुष स्टोर में दवाई बेचने के लिए कोर्स बनाना चाहिए जो ऐसा फार्मासिस्ट तैयार करे जो आयुष औषधकोश में प्रशिक्षित हो. सेहत के लिए फ़ायदेमंद चीज़ की धारणा को भी दरवाज़ा दिखाना चाहिए. अगर किसी बीमारी के लिए किसी उत्पाद के प्रभावी होने का दावा किया जाता है तो कंपनी के लिए ये पर्याप्त नहीं होगा कि वो उत्पाद के पैकेट पर डिस्क्लेमर लिख कर उपभोक्ताओं को मूर्ख बनाए. बाज़ार में उत्पाद की बिक्री के लिए उस उत्पाद का गुण निश्चित रूप से साबित होना चाहिए.

ज़्यादातर लोगों के बीच एक सामान्य ग़लतफ़हमी है कि आयुष उत्पादों का कोई “साइड इफेक्ट” नहीं होता. ये पूरी तरह से ग़लत है और इसका असर ख़राब ढंग से रेगुलेटेड बाज़ार में ख़ुद के नुस्खे के प्रचलन की वजह से और बढ़ जाता है. हर्बल दवाओं के इस्तेमाल से पूरी तरह से लिवर के ख़राब होने और दूसरे अंगों के काम नहीं करने की कई ख़बरें आई हैं. आयुष दवाओं के हर फॉर्मूलेशन में एक पैम्फलेट होना चाहिए जिसमें ये लिखा हो कि किन चीज़ों से दवा बनी है, उसका क्या काम है, क्या लक्षण हैं, क्या अंतर्विरोध हैं, क्या साइड इफेक्ट हैं, क्या ख़राब असर हैं और दूसरी ज़रूरी सूचनाएं जैसा कि आधुनिक दवाओं के लिए आवश्यक हैं. ख़ुद से इलाज करने को हतोत्साहित किया जाना चाहिए.

और ज़्यादा जड़ी-बूटियों और चिकित्सकीय फ़ायदे वाले पौधों की पहचान के लिए नये अध्ययन की भी ज़रूरत है ताकि आयुर्वेदिक औषधकोष का विस्तार हो सके.

दिमाग़ और शरीर की दवाई

पहले आयुर्वेद की विशेषता थी कि इससे एक साथ दिमाग़ और शरीर का समग्र रूप से इलाज होता है. लेकिन मनोविज्ञान और मनोचिकित्सा के अलग-अलग शास्त्र की वजह से इस विशेषता को भी चुनौती मिल रही है. मनोचिकित्सा की लोकप्रिय तकनीक भगवत गीता में समझाए गए सिद्धांत से मिलती-जुलती हैं. योग तेज़ी से दुनिया भर में फैला है और ये अब परंपरागत भारतीय शास्त्र का ही हिस्सा नहीं रह गया है. परंपरागत चिकित्सा को इन चुनौतियों का सीधे समाधान करना होगा. हालांकि ये एक आसान काम नहीं है.

ज़्यादातर लोगों के बीच एक सामान्य ग़लतफ़हमी है कि आयुष उत्पादों का कोई “साइड इफेक्ट” नहीं होता. ये पूरी तरह से ग़लत है और इसका असर ख़राब ढंग से रेगुलेटेड बाज़ार में ख़ुद के नुस्खे के प्रचलन की वजह से और बढ़ जाता है.

आगे का रास्ता

अपनी किताब, किलिंग अस सॉफ्टली: द सेंस एंड नॉनसेंस ऑफ अल्टरनेटिव मेडिसीन में डॉक्टर पॉल ऑफिट लिखते हैं, “परंपरागत या वैकल्पिक या अनुपूरक या संपूर्णात्मक या समग्र रूप से दवाई जैसी कोई चीज़ नहीं है. सिर्फ़ दो तरह की दवाएं हैं- एक वो जो काम करती हैं और दूसरी वो जो काम नहीं करती हैं.” इस बात को तार्किक निष्कर्ष तक पहुंचाते हुए परंपरागत और वैकल्पिक चिकित्सा पद्धति के बीच अंतर को भी अंतत: ख़त्म करना चाहिए ताकि जो चिकित्सा पद्धति काम करती है वो सभी चिकित्सकों के लिए उपलब्ध हो. इन विज्ञानों के बीच विरोध को तभी ख़त्म किया जा सकता है जब इन्हें सभी मायनों में अनुपूरक बना दिया जाए. इसकी सफलता के लिए सरकार को आयुष की शिक्षा और प्रैक्टिस के साथ बच्चों जैसा व्यवहार बंद करना होगा और इसके साथ भी वही कड़े नियम और ज़रूरतों को लागू करना होगा जैसा कि आधुनिक चिकित्सा की प्रैक्टिस करने वालों के साथ होता है. इस लेखक का दृढ़ दृष्टिकोण है कि होम्योपैथी को आयुष से अलग करना चाहिए क्योंकि होम्योपैथी के पीछे कोई वैज्ञानिक औचित्य नहीं हैं और ये चिकित्सा की भारतीय प्रणाली नहीं है. आयुष के तहत होम्योपैथी की मौजूदगी दूसरे उचित विज्ञानों के महत्व को कम करती है. साथ ही वैकल्पिक चिकित्सा और उनके इलाज की दूसरी अलग-अलग शाखाओं की धारणा को आधुनिक चिकित्सा कोर्स में बिना किसी दिक़्क़त के मिलाकर ऐसे डॉक्टर बनाए जा सकते हैं जो उन दवाओं के इस्तेमाल के लिए स्वतंत्र हो जो काम करते हैं और जो दवा काम नहीं करते हैं उन्हें ठुकरा दें.

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