Author : Vidur Ji Sharma

Expert Speak Raisina Debates
Published on Mar 14, 2024 Updated 0 Hours ago

अगर ताइवान के खिलाफ चीन कोई भी आक्रमणकारी नीति अपनाता है तो भारत को ताइवान की मदद करनी चाहिए. समर्थन किस तरह का हो, ये उस वक्त की स्थितियों पर निर्भर करेगा लेकिन निष्पक्ष रहना सही विकल्प नहीं होगा.

पार्टी बड़ी या नेता : क्या ताइवान पर कब्जे के लिए सैनिक कार्रवाई करेंगे जिनपिंग?

अगस्त 2000 में फुजियान प्रांत का गवर्नर बनने के बाद शी जिंगपिंग ने ज़ोगहुआ मैगज़ीन को इंटरव्यू दिया. इसमें उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया था कि एक नेता को अपने कार्यकाल के पहले ही साल में अपना एजेंडा तय कर लेना चाहिए. हालांकि जिनपिंग ने ये भी कहा कि वो पहले के लीडर्स के कामों को पूरी तरह बदलने के पक्ष में नहीं हैं. रिले रेस की तरह उनके अच्छे कामों को आगे बढ़ाते हुए अपना अलग एजेंडा लागू करना चाहिए. 2012 में जब जिनपिंग चीन के राष्ट्रपति बने तो चीन का कायाकल्प करने का संकल्प लेते हुए उन्होंने अपनी ये बातें फिर दोहराई

जिस तरह शी जिनपिंग ने गवर्नर रहते हुए अपने पूर्ववर्ती नेताओं से अलग रणनीति बनाई उसी तरह चीन के राष्ट्रपति के तौर पर भी वो अलग राह पकड़ रहे है. जिनपिंग ने जो रास्ता चुना है, उसने चीन के चार दशक पुराने उस बनावटी मुखौटे को उतार फेंका है, जिसमें ये कहा जाता था कि चीन शांतिपूर्ण विकास चाहता है.

जिनपिंग ने जो रास्ता चुना है, उसने चीन के चार दशक पुराने उस बनावटी मुखौटे को उतार फेंका है, जिसमें ये कहा जाता था कि चीन शांतिपूर्ण विकास चाहता है. 


जिनपिंग के सत्ता संभालने के एक साल के भीतर ही चीन के दूसरे सबसे बड़े मीडिया संगठन, चाइना न्यूज़ सर्विस, ने एक लेख प्रकाशित किया. इस लेख का शीर्षक था ‘6 युद्ध : जो चीन को अगले 50 साल में ज़रूर लड़ने चाहिए ’. इनमें से पहला युद्ध था ताइवान को चीन में मिलाना (2020-2025). दूसरा, दक्षिण चीन सागर के द्वीपों पर फिर से कब्जा करना (2025-2030), तीसरा, दक्षिणी तिब्बत (अरुणाचल प्रदेश) को फिर से जीतना (2035-2040). चौथा, डायुताई (Diaoyutai) और राइक्यू (Ryukyu) द्वीपों पर कब्जा (2040-45). पांचवां, आउटर मंगोलिया को चीन से जोड़ना (2045-55). छठा, रूस के कब्जे से चीनी इलाकों को वापस हासिल करना (2055-2060). चीन ने जितने स्पष्ट शब्दों में 

अपने इरादे ज़ाहिर किए और जिस तरह इसके लिए निश्चित समय सीमा तय की, उसके बाद चीन की नीयत पर किसी तरह का संदेह नहीं रहना चाहिए. ताइवान को फिर से चीन में मिलाना उसका सबसे बड़ा सपना रहा है

चीन की ताइवान पर नज़र 

ऐतिहासिक तौर पर देखें तो चीन की कोशिश शांतिपूर्ण तरीके से ताइवान के एकीकरण की रही है. इसकी तीन मुख्य वजहें हैं. पहली, अमेरिका के साथ ताइवान का 1979 में हुआ समझौता. इसके तहत अगर ताइवान पर चीन सैनिक हमला करता है तो फिर अमेरिका भी ताइवान को सैन्य मदद मुहैया कराएगा. दूसरा, समंदर और ज़मीन के रास्ते ताइवान पर हमले से पैदा होने वाली जटिलताएं. तीसरी, अगर एक बार ये कार्रवाई नाकाम हो जाएगी तो चीन का ताइवान को फिर से पाने का सपना ना सिर्फ हमेशा के लिए टूट जाएगा बल्कि वैश्विक तौर पर उसकी छवि को भी ज़बरदस्त नुकसान पहुंचेगा

यही वजह है कि ताइवान को हासिल करने के अपने लक्ष्य को पाने के लिए चीन चार स्तरीय रणनीति पर काम कर रहा है. पहली, तेज़ विकास के लिए पश्चिमी देशों के लोकतांत्रिक मॉडल की बजाए चीन के मॉडल को बेहतर बताना. दूसरा, व्यापारिक रिश्ते बढ़ाकर ताइवान को आर्थिक रूप से चीन पर निर्भर बनाना और स्वतंत्र सोच रखने वाले ताइवान के नागरिकों को ये भरोसा दिलाना कि एक देश दो व्यवस्था की नीति के तहत उनकी स्वायत्तता बरकरार रखी जाएगी. तीसरी, दुष्प्राचर के सहारे अमेरिका मदद को लेकर ताइवान के लोगों के दिमाग में भ्रम पैदा करना और अपनी सैनिक ताकत का प्रदर्शन करके ताइवान की आज़ादी के समर्थकों के मन में डर पैदा करना. चौथी, चीन की सैनिक और आर्थिक ताकत के प्रभाव का इस्तेमाल करके ताइवान को राजनयिक तौर पर अलग-थलग करना

अगर एक बार ये कार्रवाई नाकाम हो जाएगी तो चीन का ताइवान को फिर से पाने का सपना ना सिर्फ हमेशा के लिए टूट जाएगा बल्कि वैश्विक तौर पर उसकी छवि को भी ज़बरदस्त नुकसान पहुंचेगा. 

वैसे चीन की इन रणनीतियों के सफल होने की उम्मीद कम है. अगर हम इन दोनों की तुलना करें तो ताइवान ज्यादातर मामलों में चीन से आगे है. 2022 में जीडीपी पर कराए आईएमएफ के डेटा के मुताबिक ताइवान की प्रति व्यक्ति आय 33,775 डॉलर है, जो चीन की 12,259 डॉलर की तुलना में करीब तीन गुना ज्यादा है. इतना ही नहीं ज्यादातर मानवीय सूचकांकों में भी ताइवान की स्थिति चीन से बेहतर है. इसकी वजह से चीन के मॉडल को लोकतांत्रिक मॉडल से अच्छा बताने की चीन की चाल नाकाम हो जाती है. चीन जिसएक देश दो व्यवस्थाएं कासपना ताइवान के लोगों को दिखाता है, उसकी पोल भी 2019 में खुल गई. हांगकांग में चले प्रत्यर्पण विरोधी आंदोलन को चीन ने जिस बर्बरता से कुचला, उसका ताइवान के लोगों पर काफी असर पड़ा. यही वजह है कि जनवरी 2020 में ताइवान में हुए चुनाव में आज़ादी समर्थक डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी को ज़बरदस्त जीत मिली

ताइवान के पब्लिक ओपिनियन फाउंडेशन ने अगस्त 2021 में एक सर्वे कराया, जिसमें 73 प्रतिशत नागरिक ताइवान की आज़ादी/यथास्थिति बनाए रखने के पक्षधर थे. सिर्फ 11.1 फीसदी लोगों ने ही चीन के साथ एकीकरण का समर्थन किया. ज्यादातर लोग खुद की पहचान ताइवानी नागरिक के तौर पर रखना चाहते थे. चीन ने इन चुनावों में काफी दुष्प्रचार का सहारा लिया. चुनावी प्रक्रिया में दखल दिया. चीन समर्थक वोटरों की तादाद बढ़ाने की कोशिश की लेकिन फिर भी जनवरी 2024 में हुए चुनाव में जिस तरह आज़ादी की समर्थक डीपीपी को तीसरी बार शानदार जीत मिली, उसने चीन को ये दिखा दिया कि शांतिपूर्ण तरीके से ताइवान को पाने की उसकी चाल कामयाब नहीं होगी

ताइवान ने दक्षिण एशियाई देशों और ऑस्ट्रेलिया से अपने रिश्ते बेहतर के लिए नई नीति अपनाई है. ताइवान की कोशिश अपनी अर्थव्यवस्था को चीन की अर्थव्यवस्था से अलग करने की भी है, इससे भी चीन का असर कम हो रहा है. 2022 में ताइवान पॉलिसी एक्ट के तहत अमेरिका ने ताइवान को ये भरोसा दिया कि वो उसकी आज़ादी के प्रति प्रतिबद्ध है. इस लिहाज से देखें तो चीन को ताइवान के मामले में जो थोड़ी बहुत कामयाबी मिली है, वो सिर्फ ताइवान को राजनयिक स्तर पर अलग-थलग करने के मामले में मिली है. सिर्फ 13 छोटे देश ही ताइवान को राजनयिक मान्यता देते हैं.

चीन खुद को एक वैश्विक ताकत साबित करना चाहता है. ऐसे में वो इस बात को नहीं पचा पा रहा है कि जिस इलाके को वो अपना मानता है, उसे चीन में नहीं मिला पा रहा है. जहां तक अमेरिकी की बात है तो अगर ताइवान पर चीन का कब्जा हो जाता है कि तो इससे अमेरिकी की उस छवि को धक्का लगेगा, जिसके मुताबिक अमेरिका दुनियाभर में स्वतंत्र और लोकतांत्रिक देशों की रक्षा करने वाला अगुआ देश बना हुआ है. इतना ही नहीं ताइवान पर चीन के कब्जे से इंडो-पैसिफिक इलाके में अमेरिकी हितों को नुकसान पहुंचेगा. यही वजह है कि ताइवान का मामला चीन और अमेरिका के बीच साख का सवाल बन गया है. रशिया-यूक्रेन युद्ध से सबक लेते हुए चीन भी इस बात को समझ गया है कि ताइवान पर अचानक हमला करके उसे हासिल करना मुमकिन नहीं है.

 अगर ताइवान के मामले में भारत उसे समर्थन देगा तो भारतीय सीमा में चीन की तरफ से होने वाले किसी भी हमले के वक्त पश्चिमी देशों से मदद मिलने की उम्मीद तो रहेगी ही, साथ ही तिब्बत पर चीन के कब्जे से भारत की छवि को जो धक्का लगा था, उसमें भी सुधार होगा.

चीन के सामने एक रास्ता ये है कि ताइवान पर सैन्य कार्रवाई करने से पहले वो उसकी ज़मीन और समुद्र के अलावा, आर्थिक और डिजिटल तौर पर नाकेबंदी कर ले. चीन ने सैनिक कार्रवाई को लेकर जो संकेत दिए उसने भी ताइवान को सुरक्षात्मक कदम उठाने पर मजबूर किया है. ताइवान ने अपने नागरिकों के लिए अनिवार्य सैनिक भर्ती की अवधि चार महीने से बढ़ाकर एक साल कर दी है. ताइवान अपनी युद्धक क्षमता भी बढ़ा रहा है. अमेरिका से हथियारों की खरीदारी बढ़ी है. यूक्रेन युद्ध ने अमेरिका और ताइवान को ये समझा दिया है कि अगर सही हथियार हों तो फिर कम सैनिक होने के बावजूद बड़ी सेना को हराया जा सकता है. शी जिनपिंग भी इस बात को समझ रहे हैं. ताइवान की बढ़ती सैनिक और आर्थिक ताकत ने उसके खिलाफ चीन की सैनिक कार्रवाई की आशंका को कम किया है

चीन में 1949 से ही ये परंपरा चली रही थी कि कोई भी नेता दो कार्यकाल से ज्यादा राष्ट्रपति नहीं रहेगा और अपने दूसरे कार्यकाल में उत्तराधिकारी का ऐलान कर देगा. सत्ता के इस नियमित और शांतिपूर्ण हस्तांतरण का मकसद तानाशाही और कल्ट पर्सनालिटी के ख़तरों को कम करना और सामूहिक नेतृत्व का बढ़ावा देना था. लेकिन शी जिनपिंग चीन के इस सबसे महत्वपूर्ण राजनीतिक सुधार की अनदेखी करते हुए आगे भी चीन के राष्ट्रपति बने रहेंगे. 2049 तक चीन के कायाकल्प का जो मिशन रखा गया, हो सकता है जिनपिंग तब तक राष्ट्रपति ना रहें लेकिन ताइवान को चीन से मिलाने के अपने सपने को अपने कार्यकाल में पूरा करने की कोशिश ज़रूर करेंगे. ऐसा करके वो माओ और डेंग जैसे महान नेताओं की सूची में अपना नाम दर्ज कराना चाहेंगे. अमेरिका इस वक्त यूक्रेन, गाज़ा, लाल सागर और इराक में संघर्ष में उलझा है. पश्चिमी देश भी इस वक्त किसी नए राजनीतिक और सैनिक संकट में नहीं फंसना चाहते. ऐसे में जिनपिंग के पास मौका है कि वो ‘Go Big, Go Early’ नीति को अपनाते हुए ताइवान पर सैनिक कार्रवाई की योजना बनाएं.

आगे की राह

अगर ताइवान पर कोई सैन्य कार्रवाई होती है तो दुनिया पर उसका असर यूक्रेन युद्ध से ज्यादा पड़ेगा. अगर चीन किसी तरह ताइवान पर कब्जा करने में कामयाब हो गया तो फिर वह दूसरे पड़ोसी देशों के साथ भी ऐसा करने की कोशिश करेगा. दो मोर्चों पर जंग की चीन की दुविधा खत्म हो जाएगी तो फिर वो पाकिस्तान के साथ मिलकर अरुणाचल प्रदेश, जिसे चीन साउथ तिब्बत कहता है, पर भी हमला कर सकता है. ऐसे में भारत को वैसी ऐतिहासिक गलती नहीं करनी चाहिए, जैसी पचास के दशक में की थी. तिब्बत पर चीन के कब्जे के दूरगामी असर के बारे में नहीं सोचा. तिब्बत पर चीन के कब्जे से बफर ज़ोन से मिलने वाली सुरक्षा तो खत्म हुई ही साथ ही चीन को भारत की उत्तरी सीमाओं तक आसानी से प्रवेश मिल गया. ऐसे में अगर ताइवान के खिलाफ चीन कोई भी आक्रमणकारी नीति अपनाता है तो भारत को ताइवान की मदद करनी चाहिए. समर्थन किस तरह का हो, ये उस वक्त की स्थितियों पर निर्भर करेगा लेकिन निष्पक्ष रहना सही विकल्प नहीं होगा. अगर ताइवान के मामले में भारत उसे समर्थन देगा तो भारतीय सीमा में चीन की तरफ से होने वाले किसी भी हमले के वक्त पश्चिमी देशों से मदद मिलने की उम्मीद तो रहेगी ही, साथ ही तिब्बत पर चीन के कब्जे से भारत की छवि को जो धक्का लगा था, उसमें भी सुधार होगा.

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