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संसद को जनता के प्रति जवाबदेह होना चाहिए और इसे सुनिश्चित करने की ज़रूरत है.
देश में गवर्नेंस को लेकर अक्सर जो बहस होती है, उसमें कार्यपालिका और न्यायपालिका की भूमिकाओं पर तो काफी ज़ोर दिया जाता है, लेकिन संसदीय लोकतंत्र की तीसरी इकाई यानी विधायिका के रोल की शायद ही कभी चर्चा होती है. हालांकि, यह शायद देश के गवर्नेंस इंफ्रास्ट्रक्चर (प्रशासनिक ढांचे) का सबसे महत्वपूर्ण स्तंभ है. आखिर, संसद ही सरकार की जवाबदेही सुनिश्चित करती है, प्रस्तावित क़ानूनों की पड़ताल और सरकार के ख़र्च को मंजूरी देती है. इसलिए जब तक संसद और गवर्नेंस पर उसके असर पर राजनीतिक दल ध्यान नहीं देंगे, तब तक सरकार से जुड़े दूसरे क्षेत्रों में सुधार की बात करना फ़िजूल है.
16वीं लोकसभा (2014–19) के बारे में आम धारणा यह है कि विपक्षी सांसदों के लगातार सदन की कार्यवाही में बाधा डालने से बहुत कम काम हुआ. लेकिन पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च के आंकड़ों से पता चलता है कि उसने 32 प्रतिशत समय कानून बनाने संबंधी कामकाज में लगाया. यह पिछली लोकसभाओं की तुलना में इस पर ख़र्च किया गया दूसरा सबसे अधिक समय है, जबकि सभी लोकसभाओं के लिए इसका औसत 25 प्रतिशत रहा है. इसके अलावा, 16वीं लोकसभा में सांसदों ने 13 प्रतिशत समय प्रश्नकाल, 10 प्रतिशत छोटी अवधि की चर्चाओं और 0.7 प्रतिशत ध्यानाकर्षण प्रस्ताव में लगाया. इन आंकड़ों को देखने से इस तथ्य पर परदा पड़ जाता है कि पिछली लोकसभाओं की तुलना में 16वीं लोकसभा काम के घंटों के लिहाज से नीचे से दूसरे नंबर पर रही. इसमें 15वीं लोकसभा की तुलना में 20 प्रतिशत अधिक काम हुआ, लेकिन यह सारी पूर्ण लोकसभाओं में हुए औसत काम के घंटों की तुलना में 40 प्रतिशत कम है. अगर कानून बनाने की बात की जाए तो 16वीं लोकसभा में अधिक विधेयकों पर ज्यादा समय तक चर्चा हुई, लेकिन समितियों ने कम (25 प्रतिशत) विधेयकों की जांच की.
16वीं लोकसभा के कार्यकाल के दौरान राज्यसभा का प्रदर्शन बेहद खराब रहा. जहां लोकसभा की एवरेज प्रॉडक्टिविटी 80.3 प्रतिशत (देखें फिगर 1) रही, वहीं राज्यसभा के लिए यह सिर्फ 58 प्रतिशत थी. राज्यसभा में 18 सत्र और 329 सिटिंग्स हुईं और उसने 154 विधेयक पास किए. इसका मतलब यह है कि हर दो सिटिंग में औसतन एक से कम विधेयक पास हुआ. 2009–14 के बीच राज्यसभा ने 188 विधेयक पास किए थे. इसका मतलब यह है कि 2019 तक के पिछले पांच साल में 34 कम विधेयक पास हुए. 2014–19 के बीच राज्यसभा के पास जितना वक्त था, उसमें से 60 प्रतिशत का ही इस्तेमाल हुआ और 40 प्रतिशत समय कार्यवाही बाधित होने की भेंट चढ़ गया. पिछले पांच साल के 18 सत्रों में राज्यसभा की प्रॉडक्टिविटी संबंधित 8 सत्रों में पांच साल के 60 प्रतिशत के औसत से कम रही. इसका मतलब यह नहीं है कि पिछले पांच साल में राज्यसभा का योगदान कम रहा. 2014 से 2019 के बीच ऊपरी सदन ने कई महत्वपूर्ण विधेयक पास किए, जिनकी जानकारी नीचे दी जा रही है:
कुल मिलाकर, 16वीं लोकसभा ने 133 विधेयक पास किए, जबकि 15वीं लोकसभा ने 179 विधेयक पास किए थे. फ़िक्र की बात यह है कि लोकसभा और राज्यसभा दोनों ने ज्यादातर वक्त नॉन–लेजिस्लेटिव कामकाज में जाया किया. निचले सदन और ऊपरी सदन में क्रमशः 34 प्रतिशत और 39 प्रतिशत वक्त कानून बनाने के अलावा दूसरे कामों पर ख़र्च हुआ. मॉनसून और शीत सत्र में लोकसभा ने वित्तीय मामलों को सबसे कम समय दिया. राज्यसभा का भी उस दौरान यही हाल था.
फिगर 2 में पिछले पांच वर्षों में संसद के कामकाज के कुछ संकेतक ही हैं. बड़ी संख्या में विधेयकों के लैप्स होने को देखते हुए लोकसभा में पर्याप्त चर्चा और संशोधन के बावजूद राज्यसभा के इन्हें बाधित करने के अधिकार की समीक्षा की जरूरत है. कानून बनाने की प्रक्रिया को संतुलित रखने की भूमिका को व्यवस्था का बंधक नहीं बनने दिया जा सकता क्योंकि इसी वजह से सरकार को अध्यादेश लाने पड़ते हैं. यह आदर्श लोकतंत्र नहीं है. इस संदर्भ में नई सरकार को विधेयकों को पर्याप्त चर्चा और संभव हो तो सर्वसम्मति से पास कराने की जरूरत है. उसे ऐसे बदलाव करने होंगे, जिनसे लोकतांत्रिक प्रक्रिया मजबूत हो और कार्यपालिका के फ़ैसलों और प्रदर्शन की गहन पड़ताल हो सके. संसद के कामकाज में सुधार के लिए नीचे दिए गए सुझावों पर अमल किया जा सकता हैः
देश की संसद को अधिक प्रॉडक्टिव और असरदार बनाने के लिए तुरंत जो कदम उठाए जाने चाहिए, ये उनमें से कुछ हैं. संसद को जनता के प्रति जवाबदेह होना चाहिए और इसे सुनिश्चित करने की जरूरत है.
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