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नवाज़ शरीफ़ की पाकिस्तान वापसी हो चुकी है और इस पूरे घटनाक्रम को जिस प्रकार से पाकिस्तानी सेना की मौन स्वीकृति हासिल हुई है, उससे पाक राजनीति में उस दौर की वापसी का स्पष्ट संकेत मिलता है, जब नवाज़ को पाक आर्मी का पूरा समर्थन मिला हुआ था.
पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ आख़िरकार स्वदेश लौट आए हैं और इस प्रकार से उनका चार साल का आत्म-निर्वासन भी समाप्त हो गया है. पिछले कई महीनों से पाकिस्तान में नवाज़ शरीफ़ की वापसी को लेकर चर्चाओं का बाज़ार गर्म था और उनके लौटने की अटकलें लगाई जा रही थीं. हालांकि नवाज़ शरीफ़ की वापसी कई मुद्दों पर टिकी हुई थी, लेकिन उनमें सबसे बड़ा मुद्दा देश की राजनीतिक परिस्थितियां थीं. पहला मुद्दा यह था कि क्या पाकिस्तान में चुनाव होंगे, या सेना द्वारा भविष्य में भी कार्यवाहक सरकार चलाई जाती रहेगी? दूसरा यह था कि अगर नवाज़ शरीफ़ वापस लौटे, तो उन्हें किस प्रकार की न्यायिक प्रक्रिया का सामना करना पड़ेगा? दरअसल, नवाज़ शरीफ़ अपनी पाकिस्तान वापसी के लिए माकूल वक़्त का इंतज़ार कर रहे थे और वे अपनी वापसी तब करना चाहते थे, जब देश के मुख्य न्यायाधीश उमर अता बंदियाल रिटायर हो जाएं, क्योंकि ऐसा कहा जाता है कि बंदियाल इमरान ख़ान के क़रीबी थे. बंदियाल के बाद पाकिस्तान के मुख्य न्यायाधीश बने फ़ैज़ ईसा को इमरान ख़ान और सेना के पीछे दुम हिलाने वाले नहीं माना जाता है, इसीलिए नवाज़ शरीफ़ को उनके कार्यकाल में पाकिस्तान लौटना ज़्यादा मुफ़ीद लगा. तीसरा मुद्दा यह है कि नवाज़ शरीफ़ को वापसी के लिए सेना की किन शर्तों को मानना पड़ा है? यानी कि उन्हें पाकिस्तान में आकर क्या करना है और क्या नहीं करना है, इसको लेकर सेना ने क्या हिदायत दी है? आख़िरकार देखा जाए तो नवाज़ शरीफ़ की वतन वापसी उनकी व्यक्तिगत सुरक्षा और आज़ादी की गारंटी के साथ ही राजनीतिक माहौल कैसा है, उस पर भी निर्भर था.
नवाज़ शरीफ़ अपनी पाकिस्तान वापसी के लिए माकूल वक़्त का इंतज़ार कर रहे थे और वे अपनी वापसी तब करना चाहते थे, जब देश के मुख्य न्यायाधीश उमर अता बंदियाल रिटायर हो जाएं, क्योंकि ऐसा कहा जाता है कि बंदियाल इमरान ख़ान के क़रीबी थे.
नवाज़ शरीफ़ के पाकिस्तान आने की मंज़ूरी निसंदेह तौर पर किसी और ने नहीं, बल्कि पाकिस्तानी आर्मी ने ही दी है. तकनीक़ी तौर पर देखा जाए तो नवाज़ शरीफ़ पाकिस्तानी क़ानून की नज़र में भगोड़े हैं. इसके बावज़ूद जब वे पाकिस्तान लौटे, तो उन्हें प्राइम मिनिस्टर इन वेटिंग यानी आगामी संभावित प्रधानमंत्री के तौर पर प्रोटोकॉल दिया गया है. ऐसा लगा कि पूरा पाकिस्तान, वहां की सेना, वहां की सरकार सभी उनकी अगवानी के लिए पलक पांवड़े बिछाए हुए थे. नवाज़ शरीफ़ का ऐसा स्वागत सत्कार किया गया कि लग रहा था वे आने वाले दिनों में प्रधानमंत्री बनने ही वाले हैं. पाकिस्तान की अदालतें भी, जो कभी नवाज़ शरीफ़ की सबसे बड़ी दुश्मन थीं और वर्ष 2017 में न्यायिक तख़्तापलट के ज़रिए ही उन्हें बाहर का रास्ता दिखा गया था, वे भी नवाज़ की वतन वापसी को लेकर न केवल सहज दिखाई दीं, बल्कि यह सुनिश्चित करने के लिए पूरी तरह से तत्पर थीं कि जब नवाज़ पाकिस्तान लौटें तो उन्हें किसी भी सूरत में गिरफ़्तार नहीं किया जाए.
एक तरह से देखें, तो नवाज़ शरीफ़ की जिस प्रकार से एक विजेता के रूप में वतन वापसी हुई है, उससे लगता है कि हालात पूरा गोल चक्कर लगाकर एक बार फिर पुराने समय में लौट आए हैं और पाकिस्तानी राजनीति भी लौट कर पुराने समय में आ चुकी है.
एक तरह से देखें, तो नवाज़ शरीफ़ की जिस प्रकार से एक विजेता के रूप में वतन वापसी हुई है, उससे लगता है कि हालात पूरा गोल चक्कर लगाकर एक बार फिर पुराने समय में लौट आए हैं और पाकिस्तानी राजनीति भी लौट कर पुराने समय में आ चुकी है. ज़ाहिर है कि वर्ष 2017 में जिस नवाज़ शरीफ़ को संदेहात्मक हालातों में निष्कासित किया गया था और उसमें कहीं न कहीं पाक सेना की बहुत बड़ी भूमिका थी. आज वही नवाज़ शरीफ़ एक बार फिर पाक सेना के दुलारे प्रतीत हो रहे हैं. ज़ाहिर है कि 1980 के दौरान एक समय ऐसा भी था, जब नवाज़ पाक आर्मी से सबसे पसंदीदा राजनेता थे. नवाज़ ने अपने राजनीतिक करियर की शुरुआत ही सेना के समर्थन से की थी. उस समय आर्मी ने ही उन्हें बेनजीर भुट्टो के विरुद्ध अपने आदमी के तौर पर आगे बढ़ाने का काम किया था. वर्ष 1988 के चुनावों में इंटर-सर्विसेज इंटेलिजेंस (ISI) ने इस्लामी जम्हूरी इतिहाद (IJI) नाम के एक राजनीतिक गणबंधन का न केवल गठन किया था, बल्कि उसका पालन-पोषण भी किया था और इस क़वायद का मकसद राजनीतिक हवा का रुख नवाज़ शरीफ़ की तरफ मोड़ना था. पाकिस्तान की राजनीति में ज़बरदस्त तरीक़े से वापसी करने वाले नवाज़ शरीफ़, जिनकी उम्र अब 70 साल से अधिक है, चौथी बार पाकिस्तान का प्रधानमंत्री बनने के लिए और संभवित रूप से आख़िरी बार पीएम बनने के लिए अपनी किस्मत अजमा रहे हैं. देखा जाए तो नवाज़ शरीफ़ एक बार फिर सेना द्वारा उसके (और उनके) धुर विरोधी इमरान ख़ान से मुक़ाबला करने के लिए चुने गए व्यक्ति हैं. पाकिस्तान में इन दिनों राजनीतिक माहौल काफ़ी हद तक नवाज़ शरीफ़ की पाकिस्तान मुस्लिम लीग (PML-N) के पक्ष में झुका हुआ है. जेल में बंद इमरान ख़ान की पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ (PTI) को चुनाव मैदान से दूर रखने के लिए हर संभव कोशिश की जा रही है और सुनिश्चित किया जा रहा है कि वे किसी भी लिहाज़ से चुनाव के दौरान अपनी मौज़ूदगी दर्ज़ नहीं करा पाएं.
नवाज़ शरीफ़ ने वर्ष 2019 में जिस पाकिस्तान को छोड़ा था और आज वे जिस पाकिस्तान में लौट कर आए हैं, उन दोनों में ज़मीन आसमान का अंतर है. आज का पाकिस्तान अत्यधित ध्रुवीकृत हो चुका है, यानी धड़ों में बंटा हुआ है, आर्थिक तौर दिवालिया हो चुका और बुरी तरह से जिहादी मानसिकता से ग्रसित है. PTI और इमरान ख़ान की तुलना में देखा जाए तो PML-N ने अपना जनाधार खो दिया है और इसके समर्थन का दायरा भी संकरा हो गया है. हालात ऐसे हैं कि अगर इमरान ख़ान को आगामी चुनावों में खुली छूट दे दी जाए, तो वो चुनावों में एकतरफा जीत हासिल कर लेंगे. हाल में किए गए एक सर्वेक्षण के मुताबिक़ इमरान ख़ान लोकप्रियता के मामले में नवाज़ शऱीफ़ के काफ़ी आगे निकल चुके हैं और PTI ने PML-N का सूपड़ा साफ कर दिया है. हालांकि, नवाज़ शरीफ़ को ख़ास तौर पर उम्मीद है कि पंजाब में उनका जो सबसे बड़ा जनाधार रहा है, वो फिर सक्रिय होगा, लेकिन सच्चाई यह है कि उनकी राजनीतिक ज़मीन खिसक चुकी है. सबसे बड़ी बात यह है कि आज भले ही पाक आर्मी नवाज़ शरीफ़ को पाकिस्तान की सत्ता में स्थापित करने के लिए लालायित दिखाई दे रही है, लेकिन कहीं न कहीं उसे इस बात का भी डर है कि नवाज़ सत्ता में आने के बाद फिर से चालबाज़ी पर न उतर आएं और सेना को उसकी औकात दिखाने की कोशिश न करने लगें. इस संदेह की पुख़्ता वजह भी है, अपनी पिछली तीनों पारियों में नवाज़ शरीफ़ को इसलिए सत्ता से बाहर होना पड़ा था, क्योंकि उनका सेना के जनरलों से मनमुटाव हो गया था. नवाज़ शरीफ़ ने जिन सेना प्रमुखों के साथ काम किया और जिनमें से ज़्यादातर जनरलों को उन्होंने ने ही इस पद पर बैठाया था, उनके साथ नवाज़ के संबंध हमेशा तल्खी वाले रहे हैं. इसका कारण यह है कि प्रधानमंत्री के तौर पर नवाज़ हमेशा से ही सरकार पर अपना पूरा नियंत्रण रखना चाहते थे और अपने मन मुताबिक़ फैसले लेना चाहते थे, लेकिन सेना के अफ़सरों को यह कतई मंज़ूर नहीं था और यही बात नवाज़ को सेना के ख़िलाफ़ कर देती है.
हाल में किए गए एक सर्वेक्षण के मुताबिक़ इमरान ख़ान लोकप्रियता के मामले में नवाज़ शऱीफ़ के काफ़ी आगे निकल चुके हैं और PTI ने PML-N का सूपड़ा साफ कर दिया है. हालांकि, नवाज़ शरीफ़ को ख़ास तौर पर उम्मीद है कि पंजाब में उनका जो सबसे बड़ा जनाधार रहा है, वो फिर सक्रिय होगा, लेकिन सच्चाई यह है कि उनकी राजनीतिक ज़मीन खिसक चुकी है.
ज़ाहिर की पूर्व के ऐसे अनुभव से सीख लेते हुए इस बार सेना यह सुनिश्चित करेगी कि अगर नवाज़ शरीफ़ को चौथी बार सत्ता की बागडोर मिलती है, तो उन्हें राजनीतिक तौर पर पूरी शक्तियां नहीं दी जाएं, साथ ही उन्हें गठबंधन सरकार का नेतृत्व करने के लिए मज़बूर किया जाएगा. इतना ही नहीं इस सरकार की लगाम रावलपिंडी में सेना मुख्यालय यानी GHQ के हाथों में होगी. इमरान ख़ान की PTI को छोड़ने वाले तमाम नेता, जिनमें से ज़्यादातर सांसद हैं, पंजाब में इस्तेकाम-ए-पाकिस्तान पार्टी (IPP) और ख़ैबर पख़्तूनख़्वा में PTI-पार्लियामेंटीरियन में एक साथ शामिल हो गए हैं. इन दोनों ही पार्टियों का नेतृत्व इमरान ख़ान के दो सबसे क़रीबी सिपहसलार जहांगीर तरीन और परवेज़ खट्टक के हाथों में है. इन दोनों पार्टियों से उम्मीद की जाती है कि वे आने वाले चुनावों में इस तरह के नतीज़े लाने की कोशिश करेंगी कि केंद्र, पंजाब और ख़ैबर पख़्तूनख़्वा, तीनों ही जगह पर सत्ता का संतुलन बना रहे. पाकिस्तान में बहुत से लोगों का मानना है कि इस तरह की सरकार बहुत लंबे समय तक नहीं चल पाएगी, या फिर थोड़े दिनों में ही गिर जाएगी, क्योंकि जो भी सरकार बनेगी उसे देश को फिर से पटरी पर लाने के लिए बहुत कड़े फैसले लेने पड़ेंगे.
पाकिस्तान में किसी भी ऐसे चुनाव की प्रमाणिकता को लेकर हमेशा सवाल उठाए जाएंगे, जिसमें इमरान ख़ान को हिस्सा लेने की अनुमति नहीं मिलेगी, लेकिन वहां जितने भी दल हैं उन्हें इससे कोई मतलब नहीं है. पाकिस्तान की राजनीति में सच्चाई, ईमानदारी और क़ानूनी तौर-तरीक़ों की बात करना ,वहां के लिए एकदम अनोखा है, क्योंकि वहां जो सत्ता में होता है, वही अपना क़ानून चलाता है. बलूचिस्तान के पूर्व मुख्यमंत्री असलम रायसानी ने एक बार कहा था कि ग्रेजुएशन की डिग्री एक डिग्री है, फिर चाहे वो असली हो या नकली. इसी प्रकार से पाकिस्तान के चुनाव में जीत हासिल करना ही सबसे बड़ी बात है, फिर चाहे वो जीत लोगों के समर्थन से मिली हो, या फिर चुनाव में हेरफेर करने से मिली है. पाकिस्तान के चुनावी इतिहास पर नज़र डालें तो ऐसे कई चुनाव हुए हैं, जिनमें पासा किसी न किसी पार्टी के ख़िलाफ़ फेंका गया था. लेकिन उन चुनावों में जिसने भी जीत हासिल की, उसने नियम-क़ानून के मुताबिक़ ही जीत मिलने का दावा किया. इतना ही नहीं उसके जबरन या धोखाधड़ी से सत्ता हथियाने के कृत्य का न तो किसी ने विरोध किया और जनता ने भी कोई आक्रोश जताया.
राजनीतिक प्रक्रिया की प्रणामिकता नवाज़ शरीफ़ के लिए उतनी बड़ी चिंता का मुद्दा नहीं है, जितना कि अपनी पार्टी का गिरता जनाधार है. हालांकि, इसका मतलब यह कतई नहीं है कि नवाज़ की पार्टी का जनाधार समाप्त हो गया है. उनकी पार्टी का समर्थन तो है, लेकिन वैसा ज़बरदस्त समर्थन नहीं है, जैसा पांच साल पहले था. ज़ाहिर है कि ऐसे में नवाज़ शरीफ़ को सत्ता में आने के लिए सबसे पहले अपने इस जनाधार को दोबारा हासिल करने के लिए मेहनत करनी होगी. हालांकि, उनकी वतन वापसी पर लाहौर में जो जनसभा आयोजित की गई थी, उमसें ज़बरदस्त भीड़ उमड़ी थी. देखा जाए तो मीनार-ए-पाकिस्तान मैदान पर यह अब तक की सबसे अधिक भीड़ तो नहीं थी, फिर भी जो भीड़ उमड़ी थी, वो इनती तो थी ही कि PML-N दावा कर सके की नवाज़ शरीफ़ की वापसी से कार्यकर्ताओं में जोश और ऊर्जा का संचार हुआ है.
लेकिन सच्चाई यह है कि नवाज़ की लाहौर रैली में जो भीड़ जमा हुई थी, उसमें वो ऊर्जा और जोश नदारद था, जो कि इमरान ख़ान की रैलियों में नज़र आता था. हालांकि नवाज़ ने रैली में देश के ज्वलंत मुद्दों को उठाने की भरपूर कोशिश की, जैसे कि उन्होंने पाकिस्तान के आर्थिक हालात पर काफ़ी कुछ बोला और सत्ता मिलने पर देश की अर्थव्यवस्था को दुरुस्त करने का वादा किया. नवाज़ ने यह भी कहा कि वह अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों के प्रति बदले की भावना से काम नहीं करेंगे. (यह पता नहीं है कि नवाज़ का यह दावा पंजाब में किस प्रकार लिया जाएगा, ज़ाहिर है कि पंजाब में जब तक आप विरोधी को धूल नहीं चटा देते हैं, तब तक लगता नहीं है कि आप सत्ता में आए हैं.) इसके अलावा उन्होंने अपने भाषण के दौरान न तो उन न्यायाधीशों का नाम लिया और न ही उन सैन्य जनरलों का जिक्र किया, जिन्होंने चार साल पहले उनके विरुद्ध साज़िश रचने का काम किया था. साथ ही नवाज़ ने ऐसे अधिकारियों के बारे में भी एक शब्द नहीं बोला, जिन्होंने जेल में रहने के दौरान उनके और उनकी बेटी के साथ दुर्व्यवहार किया था. रैली को संबोधित करते हुए नवाज़ ने इमरान ख़ान पर जमकर हमला बोला और उन्हें पाकिस्तान में ज़बरदस्त महंगाई के लिए ज़िम्मेदार ठहराने की कोशिश की. उन्होंने देश में आर्थिक अराजकता के लिए शहबाज शरीफ़ की लचर नीतियों एवं विनाशकारी वूडू इकोनॉमी, यानी अव्यावहारिक और ग़लत आर्थिक नीतियों का बचाव करने की कोशिश की, साथ ही इशाक डार के क़दमों का बचाव करते हुए, उनके लापरवाही वाले रवैये पर एक शब्द नहीं बोला. इस सबकी जगह पर नवाज़ शरीफ़ के खुद को एक पीड़ित के तौर पर पेश किया, साथ ही उनके परिवार एवं सहयोगियों को बीते वर्षों में जिस पीड़ा से गुजरना पड़ा, उसका बख़ान किया और लोगों के दिलों को छूने का प्रयास किया. लेकिन ऐसा लगा कि रैली के दौरान नवाज़ शरीफ़ के बातों पर लोगों की जो प्रतिक्रिया थी, वो स्वाभाविक नहीं थी, बल्कि बनावटी थी.
इस सबसे बावज़ूद इसकी प्रबल संभावना है कि अगर नवाज़ शरीफ़ सत्ता में आते हैं, तो भारत के साथ द्विपक्षीय रिश्तों में कुछ गर्माहट पैदा हो सकती है. अगर बातचीत की कोई गंभीर पहल की जाती है, तो निश्चित तौर पर भारत उस पर प्रतिक्रिया देने और उसमें शरीक होने से इनकार नहीं करेगा.
लाहौर की रैली में नवाज़ शरीफ़ द्वारा दिए गए भाषण को ध्यान से देखा जाए, तो उन्होंने पाकिस्तान की चरमराती अर्थव्यव्स्था को लेकर बातें तो बहुत कीं, लेकिन उसे कैसे दुरुस्त किया जाएगा इसको लेकर कोई ठोस रूपरेखा पेश नहीं की. उन्होंने इसके बारे में बहुत कुछ बोला कि क्या किया जाएगा, लेकिन कैसे किया जाएगा, इसके बारे में कुछ भी नहीं बताया. उन्होंने पाकिस्तान को दोबारा से पुरानी स्थिति में लाने के लिए अपनी पार्टी के एजेंडे का जिक्र किया, लेकिन वो सिर्फ सामान्य सी बातें थीं, उसमें ऐसा कुछ विशेष नहीं था, जो ध्यान देने योग्य हो. यहां तक कि उनके एजेंडे में देशवासियों को देने के लिए भी कुछ नया नहीं था. उनके भाषण में वही पुराने और थके हुए वादे थे, जैसे कि निर्यात बढ़ाया जाएगा, देश में आईटी क्रांति लाई जाएगी, सरकारी ख़र्चों में कटौती की जाएगी, कर प्रणाली में सुधार किया जाएगा, रोज़गार के अवसर सृजित किए जाएंगे और पब्लिक सेक्टर में सुधार किया जाएगा. यह सब ऐसे वादे हैं, जिन्हें पहले भी कई किया जा चुका है और इनको लेकर ज़मीन पर कुछ भी नहीं किया गया. इस बार नवाज़ क्या अलग करेंगे? वास्तव में इसके बारे में कोई नहीं जानता है. देखा जाए तो नवाज़ शरीफ़ के विकास का मॉडल बड़ी-बड़ी दिखावटी परियोजनाओं को शुरू करने पर आधारित है, जिन्हें हर कोई देख सकता है, महसूस कर सकता है, लेकिन इन प्रोजेक्ट्स से बुनियादी स्तर पर कोई बदलाव नहीं होता है. कहने का तात्पर्य यह है कि इस पर विश्वास करने का कोई कारण नज़र नहीं आ रहा है कि अपनी चौथी पारी में नवाज़ शरीफ़ के पास देशवासियों को देने के लिए कुछ अलग चीज़ है.
भारत के नज़रिए से देखा जाए तो एक धड़ा ऐसा भी है, जो यह मानता है कि अगर नवाज़ शरीफ़ की सत्ता में वापसी होती है, तो दोनों देशों के द्विपक्षीय संबंध सुधरने की ओर बढ़ सकते हैं. लाहौर की रैली में अपने एक घंटे लंबे भाषण में नवाज़ ने विदेश नीति और भारत के साथ संबंधों को लेकर केवल एक से दो मिनट ही चर्चा की. ज़ाहिर तौर पर इससे भारत में कुछ लोग ज़रूर उत्साहित हो गए. लेकिन भारत को लेकर नवाज़ ने आगे कुछ भी नया नहीं कहा, यानी कि उन्होंने इस बारे में जो कुछ भी कहा वो पहले भी कई बार बोला जा चुका है, फिर चाहे वो किसी नेता ने कहा हो या आर्मी चीफ ने. नवाज़ ने जो कहा, उसका लब्बोलुआब यह था कि पाकिस्तान अब अपने पड़ोसियों के साथ लड़ाई का जोख़िम नहीं उठा सकता है. पाकिस्तान को भारत सहित सभी देशों के साथ अपने संबंधों को सुधारना होगा. उन्होंने कश्मीर मुद्दे का सम्मानजनक समाधान तलाशने की बात कही, साथ ही उन्होंने भारत से होते हुए पाकिस्तान को बांग्लादेश से जोड़ने वाले एक आर्थिक गलियारे को लेकर संभावनाएं तलाशने पर भी बल दिया. ज़ाहिर है कि जहां तक कश्मीर का मुद्दा है, तो वहां पर नवाज़ शरीफ़ अगर केंद्र शासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर और लद्दाख को लेकर किए गए फैसले को उलटने की कोई उम्मीद लगाए बैठे हैं, तो वहां उनके लिए अब कुछ भी नहीं बचा है, क्योंकि इस निर्णय को अब किसी भी सूरत में पलटा नहीं जा सकता है, इसलिए लगता है कि वह अब नए विकल्पों और मुद्दों को लेकर बात कर रहे हैं.
इस सबसे बावज़ूद इसकी प्रबल संभावना है कि अगर नवाज़ शरीफ़ सत्ता में आते हैं, तो भारत के साथ द्विपक्षीय रिश्तों में कुछ गर्माहट पैदा हो सकती है. अगर बातचीत की कोई गंभीर पहल की जाती है, तो निश्चित तौर पर भारत उस पर प्रतिक्रिया देने और उसमें शरीक होने से इनकार नहीं करेगा. भारत की ओर से किसी ट्वीट, मीडिया में बयान, किसी टिप्पणी या राजनीतिक भाषण की तो उम्मीद नहीं है, लेकिन अगर स्थापित माध्यमों (आधिकारिक और बैक-चैनल दोनों) से बातचीत के गंभीर प्रयास किए जाते हैं, तो भारत उसमें ज़रूर दिलचस्पी दिखाएगा. हालांकि, इसके लिए पाकिस्तान को आज की वास्तविकताओं को अपने जेहन में रखना होगा और ध्यान रखना होगा कि पहले जो कुछ भी था, वो अब समाप्त हो चुका है. एक और अहम बात यह है कि अगर नवाज़ शरीफ़ भारत के साथ संबंधों को बढ़ाने का प्रयास करते हैं, तो इसका पाकिस्तान में उनकी स्थिति पर कैसा असर पड़ेगा, इसके बारे में जानना अभी शेष है. नवाज़ शरीफ़ का आख़िरी कार्यकाल देखा जाए तो काफी छोटा था. इसकी वजह यह थी कि वह पाकिस्तान में जिहाद फैक्ट्री पर अंकुश लगाना चाहते थे, डॉन लीक्स मामले में सौहार्दपूर्ण समाधान तलाशना चाहते थे और भारत के साथ संबंधों को सामान्य बनाने की संभावनाएं खोज रहे थे. अब यह देखना दिलचस्प होगा कि इस बार जब नवाज़ शरीफ़ ऐसे कोई क़दम उठाएंगे, तो उसका परिणाम क्या होगा, वो भी उन परिस्थितियों में जब पाकिस्तानी सेना प्रमुख कभी मौलवी-इन-चीफ की भूमिका (अपनी बात को ज़ाहिर करने के लिए कुरान के आयतों को उद्धृत करते हैं) में नज़र आते हैं और कभी चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ की भूमिका निभाते दिखते हैं?
सुशांत सरीन ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में सीनियर फेलो हैं.
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Sushant Sareen is Senior Fellow at Observer Research Foundation. His published works include: Balochistan: Forgotten War, Forsaken People (Monograph, 2017) Corridor Calculus: China-Pakistan Economic Corridor & China’s comprador ...
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