Author : Shivam Shekhawat

Published on Jul 26, 2023 Updated 0 Hours ago

हुकूमत और सेना पर इमरान के लगातार हमलों ने पाकिस्तान में अस्थिरता बढ़ा दी है.

Pakistan’s Imran problem: राजनीतिक बवंडर में पाकिस्तान और सत्ताधीशों की इमरान से अदावत!
Pakistan’s Imran problem: राजनीतिक बवंडर में पाकिस्तान और सत्ताधीशों की इमरान से अदावत!

नवंबर का महीना पाकिस्तान (Pakistan) के लिए चुनौतीपूर्ण होने की आशंका है. इमरान ख़ान (Imran Khan) के लॉन्ग मार्च के सातवें दिन वज़ीराबाद में उनकी हत्या करने की नाकाम कोशिश ने देश में तनाव को बढ़ा दिया है. वैसे तो PTI के अध्यक्ष इमरान ख़ान की हालत ख़तरे से बाहर है लेकिन इस हरकत के इरादतन और ग़ैर-इरादतन नतीजे भविष्य के लिए ठीक संकेत नहीं देते. सैन्य आलाकमान (military) में बदलाव होने वाला है. मौजूदा चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ (COAS) के नवंबर के आख़िर में रिटायर होने की उम्मीद है और सेना एवं सरकार पर इमरान के लगातार हमले पाकिस्तान के लोकतंत्र (democracy) के लिए एक चुनौती से भरे समय की तरफ़ इशारा करते हैं. वैसे तो नागरिक नेतृत्व का एक-दूसरे के साथ गतिरोध होना कोई असामान्य बात नहीं है लेकिन मौजूदा संकट इस मायने में अलग है कि इसमें सेना शामिल है और इसकी वजह से हालात और भी बिगड़ सकते हैं. 

इस प्रेस कॉन्फ्रेंस का मक़सद साफ़ तौर पर शरीफ़ की हत्या को लेकर आशंकाओं को दूर करना था लेकिन इसका इस्तेमाल सेना के द्वारा इमरान ख़ान की तरफ़ से राजनीति को अस्थिर करने की उनकी कुटिल चाल की निंदा करने में किया गया. साथ ही प्रेस कॉन्फ्रेंस के ज़रिए सेना के भीतर कथित बंटवारे को शांत करने की कोशिश की गई.

इस साल अप्रैल में जब से इमरान ख़ान को सत्ता से हटाया गया तब से पाकिस्तान में अस्थिरता कायम है लेकिन पिछले कुछ दिनों की घटनाओं ने तो हालात को और भी जटिल बना दिया है. अरशद शरीफ़ नाम के एक पत्रकार की मौत, जो कीनिया में एक शूटिंग में रहस्यमय हालात में मारे गए, को सरकार के अलग-अलग हिस्सों ने अपनी सोच को आगे बढ़ाने के लिए इस्तेमाल किया है.  वैसे तो पाकिस्तान में राजनीतिक फ़ैसलों पर असर डालने में सेना का ‘अदृश्य हाथ’ अब सबकी जानकारी में है लेकिन ‘सत्ता’ के साथ हमेशा से एक रहस्य का माहौल जुड़ा रहा है. ये माहौल और इस संस्थान की तथाकथित कभी हार न मानने वाली छवि नवंबर के पहले हफ़्ते में पूरी तरह तहस-नहस हो गई. सेना के अधिकारियों और सेना प्रमुख के ख़िलाफ़ इमरान ख़ान की लगातार मुहिम के जवाब में पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी इंटर-सर्विसेज़ इंटेलिजेंस (ISI) के प्रमुख और सेना के प्रवक्ता (इंटर-सर्विसेज़ पब्लिक रिलेशंस यानी ISPR के प्रमुख) ने अपनी तरह की पहली प्रेस कॉन्फ्रेंस का आयोजन किया. इस प्रेस कॉन्फ्रेंस का मक़सद साफ़ तौर पर शरीफ़ की हत्या को लेकर आशंकाओं को दूर करना था लेकिन इसका इस्तेमाल सेना के द्वारा इमरान ख़ान की तरफ़ से राजनीति को अस्थिर करने की उनकी कुटिल चाल की निंदा करने में किया गया. साथ ही प्रेस कॉन्फ्रेंस के ज़रिए सेना के भीतर कथित बंटवारे को शांत करने की कोशिश की गई. 

सोच का युद्ध 

शहबाज़ शरीफ़ के नेतृत्व में PPP और PML-N के सत्ताधारी गठबंधन के ख़िलाफ़ इमरान ख़ान लगातार हमले जारी रखे हुए हैं. वो बांटने वाले बयानों और बड़ी-बड़ी रैलियों के ज़रिए लोगों को इकट्ठा कर रहे हैं. ‘भ्रष्टाचार में डूबे’ दोनों दलों की असरहीन पारिवारिक राजनीति के ख़िलाफ़ लोगों को एकजुट कर रहे हैं और उनसे पाकिस्तान में नया सवेरा लाने के लिए PTI का समर्थन करने की गुज़ारिश कर रहे हैं. वैसे तो ये उम्मीद जताई जा रही थी कि जैसे-जैसे समय बीतता जाएगा, वैसे-वैसे उनकी ये मुहिम सुस्त पड़ती जाएगी लेकिन हाल के उपचुनावों में इमरान की जीत, जहां नेशनल असेंबली में उनकी पार्टी को सात में से छह सीटों पर जीत मिली, उन्हें अभी भी मिल रहे समर्थन का संकेत देती है. इमरान की तरफ़ से बार-बार शरीफ़ परिवार के भ्रष्टाचार और उनकी ओछी राजनीति का ज़िक्र करना असामान्य बात नहीं है लेकिन उनके द्वारा पाकिस्तान की सेना की आलोचना ने तेज़ी ने हालात बदल दिए हैं. 

नये ISI प्रमुख की नियुक्ति को लेकर इमरान ख़ान के संकोच और मौजूदा सेना प्रमुख को हटाने की उनकी कोशिशों को लेकर अटकलों की वजह से सेना से उनकी दूरी की ख़बरें पिछले साल से आ रही हैं लेकिन जिस ढंग से सेना के ख़िलाफ़ वो ज़हर उगल रहे हैं, वो अभूतपूर्व है.

वैसे तो 2018 में सत्ता के शिखर तक इमरान ख़ान की पहुंच को सेना के समर्थन का नतीजा माना गया था लेकिन अप्रैल 2022 में ख़ुद के सत्ता से हटने में सेना की भूमिका को लेकर इमरान ख़ान पिछले कुछ महीनों से निशाना साधते रहे हैं. एक तरफ़ तो इमरान ने अमेरिका पर सत्ता बदलने की साज़िश का आरोप लगाया, वहीं दूसरी तरफ़ समर्थन वापस लेने और विपक्ष का साथ देने के लिए परोक्ष रूप से सेना पर भी हमले किए. नये ISI प्रमुख की नियुक्ति को लेकर इमरान ख़ान के संकोच और मौजूदा सेना प्रमुख को हटाने की उनकी कोशिशों को लेकर अटकलों की वजह से सेना से उनकी दूरी की ख़बरें पिछले साल से आ रही हैं लेकिन जिस ढंग से सेना के ख़िलाफ़ वो ज़हर उगल रहे हैं, वो अभूतपूर्व है. शुरुआत में इमरान ने ‘तटस्थ’, इत्यादि जैसे इशारे किए लेकिन जल्द ही वो सीधे सेना का नाम लेने लगे और देश की मौजूदा अराजकता के लिए सेना पर आरोप लगाने लगे. अपनी सत्ता बचाने के लिए सेना से प्यार दिखाने वाले अतीत के प्रधानमंत्रियों के साथ ख़ुद को रखने से इनकार करते हुए इमरान ने सेना को अपनी नीतियों पर फिर से विचार करने को कहा. उन्होंने अपनी नाराज़गी को सेना को और मज़बूत बनाने के लिए ‘रचनात्मक आलोचना’ के तौर पर सही बताया. 

तय समय से पहले चुनाव की ज़ोरदार मांग करते हुए इमरान ने ‘हक़ीक़ी आज़ादी के लिए जिहाद’ के मक़सद से 28 अक्टूबर से लाहौर से “लॉन्ग मार्च” का एलान किया. चुनाव की नई तारीख़ के एलान की मांग और मारे गए पत्रकार के लिए इंसाफ़ की लड़ाई लड़ने के मक़सद के साथ इमरान ख़ान ने लॉन्ग मार्च और इस दौरान आयोजित होने वाली रैलियों के मंच से आदर्शवादी भाषण दिए. इस दौरान इमरान ने नये पाकिस्तान और ‘बिना किसी ख़ून-खराबे के इंक़लाब’ का सपना लोगों को दिखाया. इमरान ख़ान की पार्टी उनकी रैलियों की लोकप्रियता का राग अलाप रही है, इन रैलियों को मौजूदा हुकूमत से लोगों के असंतोष के संकेत और सत्ता में बैठे लोगों को ज़िम्मेदार ठहराने की अवाम की इच्छा के तौर पर पेश किया जा रहा है. सत्ताधारी गठबंधन और सेना पर ज़िम्मेदारी डालने में इमरान ख़ान एक हद तक कामयाब रहे हैं. वहीं दूसरी तरफ़ उन्होंने ख़ुद को अवाम के रक्षक के तौर पर पेश किया है, ऐसा रक्षक जिसे अगर खुली छूट मिली तो वो देश को नये रास्ते पर ले जाएगा. 

पाकिस्तान में पहले से ख़राब हालात उस वक़्त और बदतर हुए जब इमरान ख़ान की हत्या करने की कोशिश की गई. इमरान के पैर में गोली लगी और अब वो ख़तरे से बाहर हैं जबकि फायरिंग करने वाले को पकड़ लिया गया है. इमरान की हत्या करने की कोशिश के 24 घंटे के भीतर ही पूरे देश में प्रदर्शन शुरू हो गए.

इस तरह इमरान ख़ान के द्वारा ख़ुद से आगे बढ़ने वाली शख़्सियत बनाना, जिसके पास पाकिस्तान की क़िस्मत बदलने की इच्छाशक्ति और क्षमता है लेकिन जिसे बार-बार ‘सत्ता में बैठी ताक़तों’ के द्वारा अपना फ़र्ज़ निभाने से रोका जाता है, अपनी चुनावी सफलता को पुख़्ता करने की एक रणनीति है. तय समय से पहले चुनाव इमरान ख़ान के लिए एक मौक़ा है जिसके ज़रिए वो अपनी रणनीति का फ़ायदा उठा सकते हैं. वो ये भी दिखा रहे हैं कि जल्द चुनाव से ही देश की आर्थिक मुश्किलों का समाधान करने के लिए ‘स्थायित्व’ लाया जा सकता है. उन्होंने सत्ताधारी गठबंधन के साथ काम करने की संभावना से पूरी तरह इनकार कर दिया. इस बीच पाकिस्तान की मौजूदा सरकार पूरी तरह नाकाम साबित हुई है. एक तरफ़ जहां वो लोगों के असंतोष को रोकने में विफल साबित हुई है तो दूसरी तरफ़ देश को स्थिर रखने में भी असफल रही है. 

राजनीतिक दबाव 

इमरान ख़ान के लॉन्ग मार्च से ठीक पहले एक अभूतपूर्व क़दम उठाते हुए ISI के महानिदेशक (DG) नदीम अंजुम ने पाकिस्तानी सेना के प्रवक्ता लेफ्टिनेंट जनरल बाबर इफ़्तिख़ार के साथ एक प्रेस कॉन्फ्रेंस की. इस प्रेस कॉन्फ्रेंस का मक़सद पत्रकार अरशद शरीफ़ की हत्या का सहारा लेकर सत्ता में वापसी के लिए इमरान ख़ान के द्वारा बनाई और फैलाई गई झूठी सोच का मुक़ाबला करना था. लेकिन सेना के द्वारा प्रेस कॉन्फ्रेंस आयोजित करना एक नई बात थी और यही वजह है कि इसको लेकर पाकिस्तान और पाकिस्तान के बाहर ज़ोरदार चर्चा होने लगी. ये सवाल भी पूछे जाने लगे कि क्या सेना कमज़ोर हो गई है. साथ ही सेना की एकजुटता और मज़बूती को इमरान ख़ान की बयानबाज़ी से चोट पहुंचने की बातें भी होने लगीं. 

सेना की प्रेस कॉन्फ्रेंस के कई मक़सद थे. इसका प्रमुख उद्देश्य देश को अपनी चपेट में लेने वाली राजनीतिक बदइंतज़ामी से सेना को दूर रखना था और प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान जितना आम अवाम और मौजूदा सरकार का ध्यान रखा गया, उतना ही सेना का भी. पत्रकार की हत्या में सेना की भूमिका को ठुकराते हुए ISI ने लोगों को एक बार फिर भरोसा दिया और अपने इस फ़ैसले को दोहराया कि वो राजनीतिक मामलों में दखल नहीं देती. दोनों अधिकारियों ने इस बात के लिए इमरान ख़ान को भला-बुरा कहा कि अपनी हुकूमत को बचाने के लिए उन्होंने मौजूदा सेना प्रमुख को एक्सटेंशन देने की पेशकश की थी. उन्होंने ये दलील भी दी कि सेना के द्वारा संवैधानिक दायरे से बाहर निकलने से इनकार करने के बाद ही इमरान ख़ान ने इस संस्थान के ख़िलाफ़ अपना ग़ुस्सा प्रकट किया. 

हत्या की कोशिश और नतीजा 

पाकिस्तान में पहले से ख़राब हालात उस वक़्त और बदतर हुए जब इमरान ख़ान की हत्या करने की कोशिश की गई. इमरान के पैर में गोली लगी और अब वो ख़तरे से बाहर हैं जबकि फायरिंग करने वाले को पकड़ लिया गया है. इमरान की हत्या करने की कोशिश के 24 घंटे के भीतर ही पूरे देश में प्रदर्शन शुरू हो गए. PTI के समर्थकों की भीड़ कराची, पेशावर और रावलपिंडी की सड़कों पर जमा हो गई और टायर जलाकर उन्होंने अपना विरोध जताया. PTI समर्थकों ने सरकार के ख़िलाफ़ नारेबाज़ी भी की. PTI के आधिकारिक ट्विटर चैनल ने पेशावर में कोर कमांडर हाउस के बाहर प्रदर्शन की तस्वीरें पोस्ट की. इस तरह ये दिखाने की कोशिश की गई कि ‘ग़ैर-राजनीतिक’ लोगों के द्वारा प्रेस कॉन्फ्रेंस और उनके अध्यक्ष पर हमला रोकने में नाकामी सत्ता में बैठे लोगों के ख़िलाफ़ असंतोष का कारण बन सकती है. लोगों के द्वारा सेना की टैंक में तोड़फोड़ और अधिकारियों के घरों की तरफ़ मार्च करने की तस्वीरें सेना को लेकर सोच के मामले में एक बहुत बड़ा बदलाव है. 

आने वाले समय में पाकिस्तान को कुछ मुश्किल सवालों से जूझना होगा. वैसे तो इमरान ख़ान के अगले क़दम के बारे में अंदाज़ा लगाना मुश्किल काम होगा लेकिन नये सेना प्रमुख की नियुक्ति को लेकर राजनीति तेज़ होगी और जल्दी चुनाव के लिए मांग करने वालों की आवाज़ें भी बढ़ेंगी.

इमरान ख़ान पर हमले को ‘पाकिस्तान’ पर हमले की तरह पेश करते हुए PTI ने जल्द ही इसे तुरंत चुनाव की मांग करने का एक मुद्दा बना लिया. इस मामले में उस वक़्त और ज़्यादा राजनीतिक नौटंकी हुई जब पाकिस्तान इलेक्ट्रॉनिक एंड मीडिया रेगुलेटरी अथॉरिटी ने न्यूज़ चैनल्स को PTI के नेता असद उमर का वो वीडियो दिखाने से रोक दिया जिसमें उन्होंने ‘तीन संदिग्धों’ का नाम लिया था जिन पर इमरान ख़ान को अपने ऊपर हमला करवाने का यकीन है. अथॉरिटी ने असद उमर के वीडियो को शांति भंग करने और छानबीन में दखल देने के समान बताते हुए उनके दावे को बिना किसी सबूत के बताया और कहा कि इसका मक़सद ‘सत्ता के संस्थानों पर दाग़’ लगाना है. 

निष्कर्ष 

प्रधानमंत्री पद पर इमरान ख़ान का कार्यकाल पाकिस्तान में लोकतांत्रिक और तानाशाही सरकार के एक मिले-जुले रूप की तरह था. इस प्रणाली के तहत पर्दे के पीछे से सेना को सरकार की बागडोर संभालने की इजाज़त मिली हुई थी लेकिन हालात बिगड़ने की स्थिति में सेना की ज़िम्मेदारी नहीं होती थी. अगर PTI अध्यक्ष इमरान ख़ान और उनके समर्थकों ने चुनौती नहीं दी होती तो पाकिस्तान में सरकार ऐसे ही चलती रहती. मौक़े के मुताबिक़ उठ खड़ा होने में सरकार की नाकामी और सेना के द्वारा इमरान ख़ान के खुफिया संदेश एवं सेना प्रमुख का कार्यकाल बढ़ाने की उनकी पेशकश की निंदा ने PTI के समर्थकों की इस भावना को मज़बूत किया कि इमरान सरकार के ख़िलाफ़ अविश्वास प्रस्ताव के पीछे सेना की भूमिका है. वैसे तो पिछले कुछ हफ़्तों के घटनाक्रम ने सशस्त्र बलों को ज़रूर मजबूर किया होगा कि वो अपनी रणनीति पर फिर से विचार करें लेकिन ये कहीं से भी राजनीति से पीछे हटने की शुरुआत नहीं है, अवाम चाहे कुछ भी सोचे. लोकतांत्रिक और तानाशाही सरकार के मिले-जुले रूप के असरहीन होने को लेकर चिंताएं और एक सैन्य अधिकारी एवं राजनीतिक तौर पर नियुक्त व्यक्ति को लेकर सोच के बारे में मौलिक अंतर बना रहेगा. ये ऐसी चीज़ है जिसके बारे में सेना के अगले प्रमुख को पदभार संभालने पर ध्यान देना होगा. 

उम्मीद की जा रही थी कि लॉन्ग मार्च 4 नवंबर को इस्लामाबाद पहुंच जाएगा लेकिन ज़मीनी स्तर पर देरी और फिर इमरान ख़ान की हत्या की कोशिश ने अनिश्चितता की स्थिति पैदा कर दी है. सरकार बेहद सतर्क है और आंतरिक मंत्री ने तब तक मार्च को मंज़ूरी देने से मना कर दिया है जब तक आयोजक पूरी तरह शांति का वादा नहीं करते. अपने बयानों को हक़, इंसाफ़ और असली आज़ादी में लपेटकर इमरान ख़ान ने ख़ुद को अहम बनाये रखने और अपने पीछे जनमत को इकट्ठा करने की पूरी कोशिश की है. इंक़लाब लाने और देश की हुकूमत को पूरी तरह बदलने की उनकी बातें सुधार लाने की उनकी ईमानदार इच्छा की वजह से नहीं हैं. अपने पूर्ववर्तियों की तरह वो भी फिर से सत्ता में आने और अपने हाथ में सत्ता रखने को लेकर चिंतित हैं. लेकिन सरकार ने अगले सेना प्रमुख या चुनाव को लेकर उनके साथ किसी भी तरह की बातचीत को पूरी तरह ठुकरा दिया है. सार्वजनिक तौर पर सेना के ख़िलाफ़ इमरान की बयानबाज़ी की वजह से भारतीय मीडिया को एक मुद्दा मिलने के लिए भी सरकार ने इमरान पर आरोप लगाए हैं. 

आने वाले समय में पाकिस्तान को कुछ मुश्किल सवालों से जूझना होगा. वैसे तो इमरान ख़ान के अगले क़दम के बारे में अंदाज़ा लगाना मुश्किल काम होगा लेकिन नये सेना प्रमुख की नियुक्ति को लेकर राजनीति तेज़ होगी और जल्दी चुनाव के लिए मांग करने वालों की आवाज़ें भी बढ़ेंगी. पाकिस्तान में चुनाव 10 महीने बाद होने हैं. ऐसे में हालात स्थिर होने की संभावनाएं फिलहाल बेहद कम हैं. 

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