Author : Daphne Willems

Published on Feb 24, 2021 Updated 0 Hours ago

अगर इन नदियों में रहने वाली डॉल्फ़िनों के लिए ख़तरे बढ़ते हैं तो उन नदियों और उनपर निर्वाह करने वाली इंसानी आबादी पर भी ख़तरा मंडराने लगता है.

हमारी नदियां, हमारी डॉल्फ़िन, हम सबका भविष्य

इस समय जिन चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों में हम रह रहे हैं उसके मद्देनज़र ये एक सकारात्मक ब्लॉग है. पिछले कई महीनों से अपने घर पर बने अस्थायी दफ़्तर में बैठकर मैं घंटों तक पास बहती राइन नदी को निहराता रहा हूं. ऐसा लगता है मानो इस नदी पर महामारी का कोई प्रभाव नहीं पड़ा है. लेकिन हर बार जब मैं खिड़की के बाहर देखता हूं तो मुझे उन नदियों का ख्याल आता है जिनकी सेहत और ताक़त पर इस महामारी का भारी दुष्प्रभाव पड़ा है. ख़ास तौर से मैं दुनियाभर में ख़तरे का सामना कर रही मीठे पानी की डॉल्फ़िन पर इस महामारी के प्रभावों को लेकर चिंतित हूं. इन डॉल्फ़िनों का संरक्षण और उनका आशियाना समझी जाने वाली आठ प्रमुख नदियों का स्वास्थ्य- वो विषय हैं जिनपर मैंने अपना पूरा पेशेवर जीवन लगा दिया है. ये नदियां हैं- दक्षिण अमेरिका की अमेज़न और ओरिनोको; और एशिया की गंगा, सिंधु, मेकॉन्ग, इरावदी, यांग्त्ज़ी और महाकम नदी.

इस महामारी के चलते लागू पाबंदियों की बहुत बुरी मार पड़ी है. ऐसे में अवैध रूप से किए जाने वाले शिकार, मछली पकड़ने, लकड़ी इकट्ठा करने के काम और खनन गतिविधियों पर नज़र बनाए रखने में उन्हें कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है.

मीठे पानी की डॉल्फ़िन इन नदियों की सेहत का एक अहम पैमाना होती हैं. ये नदियां यहां की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं की जीवनरेखा हैं. अगर इन नदियों में रहने वाली डॉल्फ़िनों के लिए ख़तरे बढ़ते हैं तो उन नदियों और उनपर निर्वाह करने वाली इंसानी आबादी पर भी ख़तरा मंडराने लगता है. मेरे साथियों द्वारा इन इलाक़ों से जुटाई गई ख़बरें चिंताजनक हैं. उनके मुताबिक ये महामारी मीठे पानी की डॉल्फ़िनों और उनके आशियानों पर बुरा असर डाल रही है. औपचारिक और अनौपचारिक अर्थव्यवस्थाओं की गति मंद पड़ने की वजह से लाखों लोगों को अपनी आमदनी के वैकल्पिक स्रोतों की तलाश के लिए मजबूर होना पड़ा है. क़ानूनी तौर पर ये गतिविधियां सही हो सकती हैं, लेकिन इसके बावजूद इनकी वजह से मीठे पानी की डॉल्फ़िन समेत तमाम वन्यजीवों की रिहाइश पर और भी ज़्यादा दबाव पड़ा है. सरकारी विभागों और क़ानून का पालन कराने वाले तंत्र की गतिविधियों पर इस महामारी के चलते लागू पाबंदियों की बहुत बुरी मार पड़ी है. ऐसे में अवैध रूप से किए जाने वाले शिकार, मछली पकड़ने, लकड़ी इकट्ठा करने के काम और खनन गतिविधियों पर नज़र बनाए रखने में उन्हें कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है. मिसाल के तौर पर हाल के महीनों में म्यांमार में इरावदी नदी में मरी हुए सात डॉल्फ़िन पाई गई. इरावदी नदी की ये डॉल्फ़िन बेहद लुप्तप्राय प्रजाति की हैं और इनकी तादाद सिर्फ़ 79 है. स्थानीय विशेषज्ञ इन मौतों को यहां अवैध रूप से मछली पकड़ने की गतिविधियों में हुई बढ़ोतरी से जोड़कर देख रहे हैं. दूसरी नदियों से भी ऐसी ही ख़बरें सामने आई हैं. इनसे पता चलता है कि मीठे पानी की डॉल्फ़िन की सभी पांच प्रजातियां ख़तरे में हैं. इस प्रकार कोविड-19 ने पहले से ही भारी पारिस्थितिकीय दबाव का सामना कर रहे तंत्र की समस्याएं और बढ़ा दी हैं.

पहले से ही भारी दबाव झेल रहा तंत्र

डब्ल्यूडब्ल्यूएफ़ के लिविंग प्लानेट रिपोर्ट 2020 में मीठे पानी की जैवविविधता में आए मौजूदा संकट की विस्तार से जानकारी दी गई है. 1970 के बाद से मीठे पानी में निवास करने वाली प्रजातियों की आबादी औसतन 84 प्रतिशत की दर से कम होती जा रही है. मीठे पानी के बड़े जलीय जीव जैसे बड़ी मछलियों और डॉल्फ़िन के मामले में तो ये आंकड़ा और भी अधिक है. इनकी आबादी में तो 88 प्रतिशत की बेहद भारी गिरावट दर्ज की गई है. इन परिस्थितियों में इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि आईयूसीएन की रेड लिस्ट में मीठे पानी के डॉल्फ़िन की सभी पांच प्रजातियों को लुप्तप्राय प्रजातियों की श्रेणी में रखा गया है. पिछले एक दशक के दौरान हम मीठे पानी की डॉल्फ़िन की एक प्रजाति- चीनी बेजी को पहले ही गंवा चुके हैं. अब दूसरी प्रजातियां भी लुप्त होने की कगार पर हैं.

जैसे एक सकारात्मक तरंग आती है ठीक वैसे ही, सौभाग्य से हमें ये मालूम है कि इस हालात को बदलने के लिए क्या करने की ज़रूरत है. हाल ही में जारी ग्लोबल बायोडायवर्सिटी आउटलुक में आपात स्वास्थ्य सुधार योजना को लागू करने के लिए उठाए जाने वाले ज़रूरी क़दमों को रेखांकित किया गया है. इनके ज़रिए मीठे पानी की प्रजातियों की तेज़ी से घटती आबादी को रोकने में मदद मिल सकती है. ये क़दम सरकारों, नागरिक और सामाजिक संगठनों, समुदायों, कंपनियों और निवेशकों द्वारा उठाए जाने ज़रूरी हैं.

सरकारों, कारोबारियों और तमाम संबद्ध पक्षों को सिर्फ़ काग़ज़ी वचनबद्धताओं से इतर ठोस क़दम उठाने की ज़रूरत है ताकि ये बात सामने आ सके कि वो संयुक्त राष्ट्र के सतत विकास लक्ष्यों (एसडीजी) के प्रति वाकई गंभीर हैं.

हमारे सामने खड़ी इस विशाल चुनौती के बावजूद सकारात्मक रूप से मेरा ये विचार है कि हम एक ऐसी दुनिया बना सकते हैं जिसमें इंसान और प्रकृति आपस में सद्भाव के साथ निबाह कर सकें. साल 2021 जलीय भूभाग पर रामसर सम्मेलन का 50वां वर्ष है. ऐसे में दुनिया के देश जैविक विविधता सम्मेलन के तहत प्राकृतिक संरक्षण के नए लक्ष्यों के बारे में बातचीत करने के लिए एकजुट होंगे. हमें इस मौके को हाथ से नहीं जाने देना चाहिए. सरकारों, कारोबारियों और तमाम संबद्ध पक्षों को सिर्फ़ काग़ज़ी वचनबद्धताओं से इतर ठोस क़दम उठाने की ज़रूरत है ताकि ये बात सामने आ सके कि वो संयुक्त राष्ट्र के सतत विकास लक्ष्यों (एसडीजी) के प्रति वाकई गंभीर हैं. ऐसे में अगर हम मीठे पानी की डॉल्फ़िनों को बचाने में कामयाब हो जाते हैं तो हम ऐसी ही अनेक दूसरी प्रजातियों को भी बचा पाएंगे.

नदियों और उनमें निवास करने वाली डॉल्फ़िनों की सुरक्षा के उपाय करने से हम एसडीजी 14- जल के अंदर जीवन के लक्ष्य की प्राप्ति की ओर आगे बढ़ सकते हैं. हालांकि, इसके कुछ और फ़ायदे भी सामने आ सकते हैं. जैसे ग़रीबी निवारण (एसडीजी 1), पूरी तरह से भुखमरी की रोकथाम (एसडीजी 2), स्वास्थ्य और अच्छी सेहत (एसडीजी 3), जलवायु परिवर्तन के प्रति लचीलापन (एसडीजी 13), ज़मीन पर जीवन (एसडीजी 15) और बेशक, पानी और सबके लिए स्वच्छता (एसडीजी 6). आप और ज़्यादा समझना चाहते हैं? तो चलिए हम एक उदाहरण लेते हैं: मीठे पानी की डॉल्फ़िन और मछली पालन के बीच का संपर्क.

विश्व में मछली पालन व्यवसाय के बारे में खाद्य और कृषि संगठन (एफएओ) की ताज़ा रिपोर्ट के मुताबिक 2018 में ताज़े पानी की मछली का कारोबार रिकॉर्ड एक करोड़ 20 लाख टन के बराबर था. इससे स्पष्ट है कि करोड़ों लोगों की खाद्य सुरक्षा और आजीविका के लिए ताज़े पानी की मछलियों की कितनी अहमियत है. निश्चित तौर पर ये आंकड़ा सच्चाई से कहीं कम है क्योंकि ताज़े पानी की करोड़ों टन मछलियां आधिकारिक आंकड़ों में कभी दर्ज ही नहीं हो पाती हैं. इंसानों की ही तरह डॉल्फ़िन भी इन्हीं मछलियों को अपना आहार बनाती हैं, इस तरह दोनों ही एक-दूसरे पर निर्भर हैं.

मछली व्यवसाय के बेहतर सरकारी प्रबंधन और नियमन के अलावा मीठे पानी की डॉल्फ़िन और इंसानी आबादी के हित में कई विशेष क़दम उठाए जा सकते हैं. इस सिलसिले में कंबोडिया का उदाहरण लिया जा सकता है, और वो है: मत्स्य पालन, पर्माकल्चर और मीठे पानी की डॉल्फ़िन पर आधारित इकोटूरिज़्म के ज़रिए आजीविका के साधनों में विविधता लाना. सामुदायिक नदी भंडार की स्थापना, इनके ज़रिए थाईलैंड में मछली व्यवसाय में प्रचुरता और विविधता लाने में मदद मिली है. नई नई खोजों से इन प्रयासों को और बल मिल सकता है और उन्हें ज़्यादा कामयाबी मिल सकती है. भारत में ऐसा ही देखा गया है. यहां मछुआरे मछली पकड़ने के जाल में ‘पिंगर्स’ बांध देते हैं ताकि डॉल्फ़िन उनसे दूर रहें और अवांछित रूप से दुर्घटनावश इन जालों में फंसने से बच जाएं.

सिर्फ़ मछली पालन से कहीं आगे

एसडीजी 14 (और सतत विकास के दूसरे लक्ष्यों) की प्राप्ति के रास्ते में आगे बढ़ने के लिए हमें एक समग्र दृष्टिकोण की दरकार है जिससे समूचे नदी क्षेत्र का ध्यान रखा जा सके. प्रकृति के लिए पर्याप्त स्वच्छ जल की उपलब्धता सुनिश्चित करने के साथ-साथ सिंचाई, पेय जल, धुलाई और उद्योग के लिए जलापूर्ति को वैश्विक प्राथमिकता मिलनी चाहिए. ये हम सबकी सामूहिक ज़िम्मेदारी है.

अगर हम नदियों के लिए ज़रूरी प्राकृतिक उतार-चढ़ाव सुनिश्चित करते हुए पर्यावरण के हिसाब से आवश्यक प्रवाह सुनिश्चित कर सकें तो हम मौजूदा बांधों और बराजों के बुरे प्रभावों की रोकथाम कर सकते हैं.

इसके लिए व्यवस्था के स्तर पर सोचने की ज़रूरत है. ख़ासतौर से पनबिजली डैम और बराज के मामलों में गहन सोच-विचार की आवश्यकता है क्योंकि इनसे किसी भी नदी की बुनियादी क्रियाओं पर सीधा असर पड़ता है. ये मछलियों और डॉल्फ़िन के आवागमन का रास्ता रोक देती हैं. डैम की वजह से नदी में गाद इकट्ठा होने लगती है जिससे नदी के तट और डेल्टा वाले इलाक़ों में कटाव की समस्या पैदा होने लगती है. इनसे पानी की मात्रा कम हो जाती है और उसकी गुणवत्ता को नुकसान पहुंचता है. पोषक तत्वों के बहाव में भी कमी आती है. अगर हम चतुराई से योजनाएं बनाएं तो इन नुक़सानदेह प्रभावों से बच सकते हैं. जैसे हम पनबिजली की बजाए दूसरे नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों (सौर और पवन) का चयन कर सकते हैं. ये कम लागत, कम कार्बन-उत्सर्जन और नदियों और समुदायों के लिहाज से कम टकराव भरे हैं. अगर हम नदियों के लिए ज़रूरी प्राकृतिक उतार-चढ़ाव सुनिश्चित करते हुए पर्यावरण के हिसाब से आवश्यक प्रवाह सुनिश्चित कर सकें तो हम मौजूदा बांधों और बराजों के बुरे प्रभावों की रोकथाम कर सकते हैं. मिसाल के तौर पर चीन में तीन गॉर्जेस डैम की वजह से आर्थिक रूप से अहम मछली की एक प्रजाति (कार्प) लगभग ख़त्म हो गई थी लेकिन ई-प्रवाह पद्धति पर अमल के बाद ये प्रजाति फिर से खड़ी हो गई. मैक्सिको की सरकार पानी के भंडार की पद्धति पर अमल कर रही है. इसके तहत प्रकृति को अपनी गतिविधियों के लिए जितने पानी की आवश्यकता होती है उसको संचित और सुरक्षित करने के साथ-साथ इंसानी आबादी के लिए भी पानी की आपूर्ति सुनिश्चित की जाती है.

हमें दुनिया भर में अपनाए गए इन बेहतरीन तरीकों से प्रेरित होकर इनसे सीखते हुए अपने यहां सुधार के प्रयास करने चाहिए. हो सके तो इनको और बड़े स्तर पर अपनाने की कोशिश करनी चाहिए. एक ऐसे समाज का निर्माण होना चाहिए जो पहले से बेहतर हो और जिससे हम सभी लाभान्वित हो सकें. इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए विभिन्न तबकों के बीच सहयोग की आवश्यकता है. बेशक ये काम चुनौतियों से भरा है. अगर ये काम आसान होता तो हम काफ़ी पहले ही ऐसा कर चुके होते. लेकिन मुझे विश्वास है कि वो घड़ी अब आ गई है. #TogetherPossible.

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