Author : Ramanath Jha

Published on Jan 23, 2021 Updated 0 Hours ago

अपने जीवनकाल में महात्मा गांधी पूरी तरह से गांवों के प्रशंसक बने रहे. उनकी इस सोच में कभी कोई मुलम्मा नहीं चढ़ा. महात्मा को इस बात का विश्वास बड़ी मज़बूती से था कि ‘भारत का भविष्य गांवों में बसता’ है.

आज़ादी के बाद भारतीय शहरों के साथ किये गए हमारे बर्ताव पर महात्मा गांधी का कितना प्रभाव?

अगर भारत के सबसे कद्दावर और सबसे प्रभावशाली नेता ने पुरजोश तरीक़े और पूरे आत्मविश्वास के साथ किसी विचार को प्रस्तुत किया, तो ज़ाहिर है कि इसका व्यापक असर, उस नेता के बाद आने वाले नीति निर्माताओं की कई पीढ़ियों पर पड़ना तय था. ये बात हमारे देश के शहरों के बारे में तो और भी सच साबित हुई है. शहरों के बारे में महात्मा गांधी का नज़रिया बेहद आलोचनात्मक रहा था. वहीं, वो हमारे देश के ग्रामीण परिवेश और गांवों की तारीफ़ करते नहीं थकते थे. शहरों और गांवों को लेकर, महात्मा गांधी के इन विचारों ने न सिर्फ़ उनके अनुयायियों, बल्कि भारत के नीति निर्माताओं पर भी कई दशकों तक गहरा प्रभाव डाला. हालांकि, हमारे शहरों की बदहाली वाली मौजूदा स्थिति के लिए कई और कारण भी ज़िम्मेदार हैं. लेकिन, देश के योजनाकार अगर लगातार शहरों की अनदेखी करते आए हैं, तो इसकी जड़ें हमें शहरों को लेकर महात्मा गांधी के विचारों और अभिव्यक्तियों की ओर ले जाती हैं.

महात्मा गांधी, शहरों द्वारा गांवों का शोषण बढ़ने को लेकर बेहद चिंतित थे. वो शहरों को सभ्यता की दृष्टि से ऐसे केंद्रों के रूप में देखा करते थे, जो भारत की मिट्टी से कटे हुए हैं. गांधी की नज़र में शहरों का विकास, भारतीय सभ्यता के पतन की निशानी था. 

अपने जीवनकाल में महात्मा गांधी पूरी तरह से गांवों के प्रशंसक बने रहे. उनकी इस सोच में कभी कोई मुलम्मा नहीं चढ़ा. महात्मा को इस बात का विश्वास बड़ी मज़बूती से था कि ‘भारत का भविष्य गांवों में बसता’ है. अपने ये ख़यालात दोहराते हुए उन्होंने वर्ष 1947 में पत्रिका हरिजन में लिखा था कि, ‘वास्तविक भारत, देश के सात लाख से ज़्यादा गांवों मे बसता है. अगर भारत की सभ्यता को स्थायी विश्व व्यवस्था के निर्माण में अपना बहुमूल्य योगदान देना है, तो इसके लिए भारत के गांवों में बसने वाले करोड़ों लोगों की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है…हमें इन लोगों के जीवन को बेहतर बनाना होगा.’ गांधी जी की इच्छा थी कि भारत, गांवों के एक ऐसे देश के रूप में विश्व पटल पर उभरे, जहां का हर गांव अपने आप में एक गणतांत्रिक इकाई हो, जो आत्मनिर्भर हो, सशक्त हो और कुशलता से अपने मसलों का निपटारा कर सकें. उन्होंने लिखा था कि, ‘शहर अपना ख़याल ख़ुद रखने में सक्षम हैं. असल में ये हमारे गांव हैं, जिन्हें हमें सबसे ज़्यादा तवज्जो देनी होगी.’

महात्मा गांधी, शहरों द्वारा गांवों का शोषण बढ़ने को लेकर बेहद चिंतित थे. वो शहरों को सभ्यता की दृष्टि से ऐसे केंद्रों के रूप में देखा करते थे, जो भारत की मिट्टी से कटे हुए हैं. गांधी की नज़र में शहरों का विकास, भारतीय सभ्यता के पतन की निशानी था. उन्होंने लिखा था कि, ‘मेरे लिए, कलकत्ता और बंबई जैसे शहरों का विकास बेहद दुख का विषय है, न कि ये बधाई के पात्र हैं. भारत ने अपने ग्रामीण तंत्र को तहस-नहस करके अपना ही नुक़सान किया है.’ महात्मा गांधी ने शहरों की सबसे कड़ी आलोचना शायद इन शब्दों के ज़रिए की थी: ‘मैं शहरों के विकास को बहुत बुरी बात मानता हूं, जो मानवता और पूरी दुनिया के लिए दुर्भाग्य की बात है. ये इंग्लैंड के लिए भी बदक़िस्मती की बात है और भारत के लिए तो ये निश्चित रूप से दुर्भाग्यपूर्ण है. अंग्रेज़ों ने भारत का शोषण इन्हीं शहरों के माध्यम से किया है. शहरों ने गांवों का शोषण किया है. आज शहरों की भव्य और ऊंची इमारतें बनाने में जो सीमेंट इस्तेमाल किया जा रहा है, वो असल में हिंदुस्तान के गांवों का ख़ून है.’ महात्मा गांधी, शहरों को लेकर ऐसे ही विचारों को कई दशकों तक, कभी लिखकर तो कभी अपने भाषणों के ज़रिए, व्यक्त करते रहे थे. डॉक्टर अंबेडकर को छोड़ दें, तो गांधी के दौर में देश के किसी अन्य नेता ने उनके इन विचारों को चुनौती नहीं दी.

जाति व्यवस्था की आलोचना

लगभग 17 वर्षों तक देश के प्रधानमंत्री रहे पंडित नेहरू की गांवों के बारे में राय बिल्कुल अलग थी. वो भारत के ग्रामीण क्षेत्रों की कमज़ोरियों, ख़ास तौर से समाज में गहरी जड़ें जमाए बैठी जाति व्यवस्था की चुनौतियों को अच्छे से समझते थे. पंडित नेहरू, देश की पारंपरिक सामाजिक व्यवस्था के कड़े आलोचक थे. अपनी किताब, डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया में उन्होंने बिना किसी लाग-लपेट के ये विचार बयां किए थे. उन्होंने लिखा था कि, ‘आज के समाज के संदर्भ में कहें तो मौजूदा जाति व्यवस्था और इससे जुड़ी बातों का कोई मेल नहीं है. ये प्रतिबंधात्मक है, प्रतिक्रियावादी है और प्रगति की राह में बाधक है. जाति व्यवस्था के ढांचे के भीतर कभी भी बराबरी के अवसर नहीं मिल सकते, और न ही जाति व्यवस्था से राजनीतिक लोकतंत्र आ सकता है, आर्थिक लोकतंत्र की तो बात ही छोड़ दीजिए.’

अंबेडकर ने दलितों को प्रोत्साहित किया कि वो गांवों की अपमान भरी ज़िंदगी से बचने के लिए शहरों की ओर कूच करें. अंबेडकर शहरों को दलितों के लिए जाति व्यवस्था और जाति आधारित पेशों से आज़ाद कराने के अवसर के तौर पर देखा करते थे.

भले ही गांवों को लेकर पंडित नेहरू का विश्लेषण, महात्मा गांधी से बिल्कुल अलग रहा हो. लेकिन, उनका भी यही मानना था कि गांवों को विकास की प्राथमिकताओं के केंद्र में रखा जाना चाहिए. पंडित नेहरू शहरीकरण के ख़िलाफ़ तो नहीं थे. उन्होंने चंडीगढ़ के रूप में एक नए शहर के विकास का समर्थन किया था. वो इसे भारत की आज़ादी और अच्छे भविष्य में देश के विश्वास का प्रतीक मानते थे. हालांकि, वो अपने गुरू महात्मा गांधी के उस विचार से बिल्कुल सहमत थे कि शहरों को देख-भाल की ज़रूरत नहीं है. सितंबर 1963 को सामाजिक कल्याण पर आयोजित एक सेमिनार में पंडित नेहरू ने कहा था कि, ‘शहर तो अपने आप ही प्रगति के पथ पर आगे बढ़ रहे हैं, और वो आगे बढ़ते रहेंगे. लेकिन गांवों पर अधिक ध्यान दिए जाने की ज़रूरत है.’ विकास की प्राथमिकताओं को लेकर पंडित नेहरू ने अपने विचारों को और स्पष्ट करते हुए कहा कि, ‘हालांकि मैं दिल्ली शहर में रहता हूं, लेकिन मेरे दिमाग़ में हमेशा भारत के गांवों का ही ख़याल रहता है और मैं ये सोचता रहता हूं कि गांवों को कैसे जीवन की बुनियादी ज़रूरतें पूरी करने वाली सुविधाएं दी जाएं और कैसे उन्हें आत्मनिर्भर बनाया जाए.’ 1963 में ही स्थानीय निकायों के स्वायत्त शासन की केंद्रीय परिषद की बैठक में बोलते हुए, पंडित नेहरू ने कहा था कि, ‘आज नगर निगम कार्यकुशलता की चमकती मिसालें नहीं पेश कर रहे हैं. वो कोई अच्छा काम नहीं कर रहे हैं. ऐसे में जब पंचायती राज व्यवस्था के तहत, नई परिषदों का चुनाव हो रहा है, तो हम एक नई ख़तरनाक स्थिति की ओर बढ़ रहे हैं. सवाल ये है कि हमारी तीसरे दर्ज़े की नगर पालिकाओं की तरह क्या ये परिषदें भी पतन की राह पर चल पड़ेंगी?’ आज हमारे देश के नगर निकायों की जैसी हालत है, वैसे में हम पंडित नेहरू के नगर निकायों के तब के हालात व्यक्त किए गए विचारों को ग़लत नहीं ठहरा सकते हैं. लेकिन, सवाल ये है कि पंडित नेहरू ने नगर निकायों को सुधारने के लिए किया क्या? साफ़ है कि कुछ ख़ास नहीं किया. पंडित नेहरू के विचारों का कुल जमा निष्कर्ष यही था कि इसके चलते, शहरों के विरोध वाले गांधी के जो विचार, देश के नीति नियंताओं के ज़हन पर हावी थे, उनको और मज़बूती ही मिली.

वहीं, दूसरी ओर डॉक्टर अंबेडकर के विचार बिल्कुल ही ग्रामीण विरोधी थी. अंबेडकर गांवों को ‘असमानता का गढ़’ मानते थे. उन्होंने लिखा था कि ‘इस गणराज्य में’ ‘लोकतंत्र के लिए कोई स्थान नहीं है. समानता के लिए भी कोई जगह नहीं है और यहां भाई-चारे का भी कोई स्थान नहीं है. भारत के गांव असल में गणराज्य की मूल भावना की हर तरह से नकारात्मक अभिव्यक्ति हैं.’ अंबेडकर ने कभी भी गांवों की संस्था को मज़बूती देने के विचार का समर्थन नहीं किया. उनका विश्वास था कि ‘विकेंद्रीकरण से शक्तिशाली लोग और भी सशक्त हो जाएंगे और इससे कमज़ोर तबक़े के लोगों का और खुलकर शोषण होगा, क्योंकि गांवों के विकेंद्रीकरण से जो पहले से शक्तिशाली है वो और भी ज़्यादा शक्तिशाली हो जाएगा, क्योंकि वहां किसी बाहरी और उनसे ज़्यादा ताक़तवर सत्ता का हस्तक्षेप नहीं होगा. इससे गांवों में रहने वाले कमज़ोर तबक़े के लोगों के लिए कोई भी संरक्षण नहीं होगा.’

इसीलिए, अंबेडकर ने दलितों को प्रोत्साहित किया कि वो गांवों की अपमान भरी ज़िंदगी से बचने के लिए शहरों की ओर कूच करें. अंबेडकर शहरों को दलितों के लिए जाति व्यवस्था और जाति आधारित पेशों से आज़ाद कराने के अवसर के तौर पर देखा करते थे. उन्हें लगता था कि शहरों में काम करने पर दलितों को बेहतर मज़दूरी मिलने के अवसर बढ़ेंगे. अंबेडकर का विश्वास था कि ये शहर ही हैं, जो आर्थिक और सामाजिक-सांस्कृतिक बराबरी की ओर ले जाएंगे. हालांकि, दलितों के बीच अंबेडकर के विचारों का प्रभाव तो लगतार बढ़ता गया है और बड़ी तादाद में दलितों ने शहरों में जाकर बसने का फ़ैसला किया है, ख़ास तौर से महाराष्ट्र में. लेकिन, अंबेडकर द्वारा गांवों की कड़ी आलोचना भी शहर विरोधी उस विचारधारा को जड़ से नहीं उखाड़ पायी है, जिसे गांधीवादी विचारों के ज़रिए पाला-पोसा गया है.

शहरों का अव्यवस्थित विकास

इन विचारों का स्पष्ट प्रभाव हम देश की शुरुआती पंचवर्षीय योजनाओं के नीतिगत बयानों के रूप में देखते हैं. इन योजनाओं के अंतर्गत वित्तीय आवंटन के बारे में चर्चा का समापन ये कहते हुए होता है कि, ‘शहरीकरण की प्रक्रिया मोटे तौर पर ऐसी समस्या नहीं नज़र आती, जिस पर ध्यान देने की ज़रूरत है.’ जबकि इन्हीं दस्तावेज़ों में ये टिप्पणी भी की जाती थी कि शहरों का विकास बड़े ‘अव्यवस्थित’ तरीक़े से हो रहा है. इसके बाद, कई पंचवर्षीय योजनाओं में शहरों को लेकर यही रवैया अपनाया जाता रहा. विकास की योजनाओं में उन्हें हाशिए पर ही रखा जाता रहा. ये तो मनमोहन सिंह थे, जिन्होंने पहली बार खुलकर शहरों की अहमियत को स्वीकार किया था. 15 अगस्त 2004 को लाल क़िले से अपने पहले भाषण में मनमोहन सिंह ने एलान किया था कि आने वाले वर्षों में शहरीकरण की प्रक्रिया, भारतीय अर्थव्यवस्था के सात प्रमुख स्तंभों में से एक होगी. मनमोहन सिंह ने ही पहली बार केंद्र सरकार की ओर से पहले शहरी कार्यक्रम, जवाहरलाल नेहरू नेशनल अर्बन रिन्यूअल मिशन (2005-2012), की शुरुआत भी की थी, जो गिने चुने शहरों के लिए थी. हालांकि, मनमोहन सिंह का ये प्रयास भी बहुत देर से उठाया गया छोटा सा क़दम ही साबित हुआ था. इस कार्यक्रम के अंत तक भारत के शहरों की आबादी 1951 में 6.24 करोड़ से बढ़ कर 2011 में 37.7 करोड़ हो चुकी थी. इसी दौरान भारत में क़स्बों की संख्या 2843 से बढ़कर 7935 पहुंच चुकी थी. भारत के नगरों की संख्या 5 से बढ़कर 52 हो गई थी. इनमें से कई शहर तो बढ़कर महानगरों में तब्दील हो चुके थे, और इनमें विशाल झुग्गी बस्तियां आबाद हो चुकी थीं, जिनमें समस्याओं का ऐसा अंबार लग चुका था, जिनसे पार पाना असंभव सा लगने लगा था.

पिछले कई वर्षों से भारतीय नागरिकों में गांवों को छोड़ कर, शहरी बस्तियों में जा बसने की प्रवृत्ति बढ़ती गई है.  इसके कारण भी वो सुनहरा ख़्वाब टूटता चला गया कि एक दौर ऐसा आएगा जब भारत अपने गांवों में आबाद होगा

नीति निर्माताओं और फ़ैसला लेने वालों द्वारा शहरों की जान-बूझकर की गई अनदेखी का एक नतीजा तो ये हुआ कि भारत के शहरों के अव्यवस्थित तरीक़े से विकास हुआ. वहीं, शहरों के बेतरतीब विकास का दूसरा नतीजा ये हुआ कि हमारे देश के संस्थापकों ने गांवों को सभी सुविधाओं से संपन्न और सशक्त बनाने का जो सपना देखा था, वो भी अधूरा ही रह गया. पिछले कई वर्षों से भारतीय नागरिकों में गांवों को छोड़ कर, शहरी बस्तियों में जा बसने की प्रवृत्ति बढ़ती गई है.  इसके कारण भी वो सुनहरा ख़्वाब टूटता चला गया कि एक दौर ऐसा आएगा जब भारत अपने गांवों में आबाद होगा. अब तो जल्द ही ऐसा समय आने वाला है, जब भारत की ज़्यादातर आबादी शहरों और क़स्बों में रह रही होगी. अनदेखी और उपेक्षा के बावजूद, आज भारत में नित नए शहरों और क़स्बों का विकास हो रहा है. बहुत से गांव ऐसे हैं, जो शहरी बस्तियों में तब्दील हो रहे हैं. दुखद बात तो ये है कि देश के शहर उन कई गांधीवादी सिद्धांतों से दूर जा चुके हैं, जो हमारे लिए बुनियादी मूल्य होने चाहिए. आज भारत के शहरों में बहुत असमानता है, भयंकर गंदगी और ज़बरदस्त प्रदूषण है. भारत के शहर, घटिया रहन सहन की मिसाल बन चुके हैं. आज के राजनीतिक अनुयायी अपने गुरू के सिखाए रास्ते पर चलते हुए शहरों की अनदेखी का सिलसिला जारी रखे हुए हैं. वहीं उन्होंने, स्थानीय सशक्तिकरण के महात्मा गांधी के बताए सबक़ को भुला दिया है. आज भी हमारे देश के शहर अपने अपने राज्यों की सरकारों के शिकंजे में कसे हुए हैं, जहां उनका स्वायत्तता की सांस लेना भी दूभर हो चुका है.

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