पांच नवम्बर, 2016 को लखनऊ के जनेश्वर मिश्र पार्क में उत्सव का माहौल था। दूर-दराज के राज्यों से लोहिया के समाजवादी चेले इक्ठ्ठा हुए थे। कुछ चौधरी चरण सिंह की किसान विरासत के वारिस थे, कुछ जय प्रकाश नारायण की सम्पूर्ण-क्रान्ति के दिनों के संगी-साथी। कुछ जनता पार्टी-जनता दल के भग्नावशेष। देश के सबसे बडे राज्य में सत्तारूढ समाजवादी पार्टी के रजत जयंती समारोह का अवसर जो ठहरा। विषयवस्तु एक थी-गैर भाजपाई गठबंधन की मृगमरीचिका। ऐतिहासिक गैर कांग्रेस-वाद एक अशक्त विरोधी था, जिसे चुनौती नहीं अपितु दया की दृष्टि से ही देखा जा सकता था।
विभिन्न प्रकार के जनता दल, लालू-नीत ‘’आरजेडी’’, अजित सिंह की ‘’रालोद’’ सभी ने नेता जी मुलायम सिंह को अयाचित ही गठबन्धन की कमान सौंपने की पेशकश की। सभी ने एक सुर से कहा कि मुलायम सिंह इस गठबंधन को राष्ट्रीय स्तर पर नेृत्तव प्रदान करें। कांग्रेस भी गठबंधन की संभावनाओं के प्रति उत्सुक थी। कांग्रेसी रणनीतिकार प्रशान्त किशोर भी बहती गंगा में हाथ धोने के लिए व्याकुल थे। कुछ गुप्त-कुछ प्रकट मीटिंगों के सिलसिले। समीक्षकों ने चैनलों एवं पत्र-पत्रिकाओं से आसन्न महागठबंधन की तिथि तक घोषित कर दी।
8 नवम्बर की नोटबंदी के घोषित लक्ष्य चाहे जो भी रहे हो, उसके परिणाम राजनैतिक गलियारों में भिन्न-भिन्न दिखे। सपा-बसपा के सुप्रीमों की प्रतिक्रिया से स्पष्ट रूप से गहरी निराशा झलक रही थी। सोशल मीडिया एवं अखबारों में तरह-तरह के वृतान्त छपे। लोगों ने चटखारे लेकर कुछ सही कुछ कल्पित बातें साझा की। विश्लेषकों एवं समीक्षकों ने सत्ता की इन दावेदार पार्टियों के चुनावी सफलता पर नोटबंदी के दुष्परिणाम का विस्तृत रेखांकन किया। यह महज एक संयोग ही नहीं हो सकता कि नोटबंदी की घोषणा के बाद से न तो अखिलेश यादव की ‘’विकास से विजय की रथयात्रा’’ चली एवं न ही बसपा सुप्रीमों की कोई रैली ही आयोजित हो सकी। हो सकता है यह महज इत्तेफाक हो, प्रदेश में केवल भाजपा परिवर्तन यात्राएं ही चल रही हैं। प्रदेश में बडी रैलियों में आगरा में प्रधानमंत्री मोदी की ‘’परिवर्तन रैली’’ भर गिनायी जा सकती है। केन्द्रीय राज्यमंत्री संजीव बलियान की यह टिप्पणी कि ‘’विपक्ष नोट बदलवाने में जुटा एवं भाजपा चुनाव में’’ अर्थपूर्ण हो जाती है।
नोटबन्दी का एक साइड इफेक्ट सम्भवत: यह भी रहा कि मुलायम सिंह ने महागठबंधन से चुप-चाप कन्नी काट ली। उन्होंने महागठबंधन के लिए विलय जैसी असंभव शर्त रख दी। अखिलेश यादव गठबंधन के पक्ष में प्रारम्भ से नहीं थे तथा गठबंधन का उपक्रम सपा की अंदरूनी कलह एवं जोर-अजमाईश से अधिक कुछ नहीं था, यह नोटबंदी के फैसले के कारण कुछ ज्यादा जल्दी स्पष्ट हो गया। आनन-फानन में सपा से निष्कासित महासचिव एवं पार्टी संस्थापक सदस्य प्रो0 रामगोपाल यादव की पार्टी एवं घर वापसी की घोषणा होती है। प्रो0 रामगोपाल यादव भी सदाशयता का परिचय देते हुए मात्र इतना भर कहते हैं कि मैं समाजवादी पार्टी से गया ही कब था जो कि ‘’वापसी’’ हुई। समाजवादी सुप्रीमों के ‘’दल’’ में तो नहीं किन्तु ‘’दिल’’ में रहने वाले तथा हाल ही में पार्टी में उठे इस भूचाल के केन्द्र बिन्दु राज्य सभा सांसद ने ठेठ गंवाई अंदाज में बताया कि भले ही भाइयों के चूल्हे अलग जलते हो, बाहरी दुश्मन (भाजपा) के खिलाफ सब एक जुट हो जाते हैं। रही-सही कसर ‘’लखनऊ-आगरा’’ के सिक्सलेन हाइवे ने पूरी कर दी। उद्घाटन के अवसर पर जुटे समाजवादी कुनबे ने पूरी एकजुटता दिखाई। भाई शिवपाल ने बडे भाई रामगोपाल का पैर छूकर आशीर्वाद लिया। कुछ समीक्षकों ने इस ‘’भरत-मिलाप’’ को भी नोटबंदी से जोडकर देखा। लाजिमी भी है, बिना केन्द्र सरकार की सदाशयता के मिराज एवं सुखोई विभाग करतब दिखाने को थोडे ही मिल जाते हैं।
नेपथ्य में एक घटना और घटी। जदयू, रालोद एवं बीएस-4 नामक दलों ने ‘’महागठबंधन’’ का एलान किया। गठबंधन का घोषित उद्देश्य ‘’समान शत्रु’’ भाजपा को सत्ता में आने से रोकना था। भाजपा को सत्ता में आने से रोकने में अडंगेबाजी करने के लिए सपा सुप्रीमों मुलायम सिंह को खूब खरी-खोटी सुनायी गयी। ‘’रालोद’’ के मुखिया चौधरी अजित सिंह ने मुलायम पर लोहिया एवं चौधरी चरण सिंह के आदर्शो से भटकने का आरोप लगाया। जदयू के राष्ट्रीय नेता शरद यादव ने भी अजित सिंह की सुर में सुर मिलाया और कहा कि इतिहास मुलायम सिंह को ही गठबंधन न बनाने का दोष देगा।
रालोद, जदयू एवं बीएस-4 का गठजोड अभी एक मोर्चे के तौर पर उभरा है। गठजोड करने वाले दलों ने अभी इसे कोई नाम भी नहीं दिया है। शायद यह ठीक भी है। इन तीनों दलों की सम्मिलित ताकत का आकलन किया जाये तो शायद तीनों मिलकर भी उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव में एक चौथाई उम्मीदवार भी नहीं खडा कर पाने लायक होंगे। सीटों के बटवारे के हिसाब से इस मोर्चे के पास अन्य दलों को देने के लिए सीटें ही सीटें हैं। सम्भावना है कि यदि प्रियंका भी कांग्रेस को संजीवनी नहीं पिला सकी तो शायद कांग्रेस ही इस सेम्यूलर मोर्चे का नेतृत्व सम्भाले। दलों की संख्या के दृष्टिकोण से इस मोर्चे की सम्भावना अपार है, परन्तु कितनी सीटें जीत पायेंगी, यह तस्वीर फिलहाल तो निराश ही करती दिख रही है।
अपने स्वभाव के विपरीत बसपा सुप्रीमों केवल पत्रकार वार्ता एवं प्रेसनोट तक सिमट गयी हैं। शायद ही कोई दिन बीतता हो जिस दिन निशाने पर मोदी की नोटबंदी एवं सपा का अन्तर्कलह न हो। बिना सपा या बसपा के भाजपा विरोधी गठबंधन की कल्पना ही बेमानी है। सपा के सत्ता संघर्ष में लगता है अखिलेश का नेतृत्व स्पष्ट रूप से विजयी होकर उभरा है। भावी चुनाव परिणाम चाहे जो कुछ भी हो, सपा ‘’महागठबंधन’’ से बंधती नहीं दिख रही है। बसपा का तो ‘’गठबंधन’’ चुनाव के बाद ही प्रारम्भ होता है।
उत्तर प्रदेश के चुनावी विसात पर चतुष्कोणीय संघर्ष की गोटियां बिछ चुकी हैं। प्रमुख दावेदार सपा-बसपा ‘’नोटबंदी’’ से आहत है। दोनों के चुनावी रणनीति में धनबल एक सशक्त हथियार था। अचानक हुई नोटबंदी ने नयी रणनीति बनाने की बाध्यता सामने खडी कर दी है। उससे भी विकराल समस्या है मतदाताओं का एक नया वर्ग-जिसमें जात-पॉंत से दूर निर्धन, किसान, मजदूर, निम्न मध्यम वर्ग, शिक्षक, सैनिक, केवल वेतन पर आश्रित नौकरी पेशा वर्ग, जो अपनी परेशानियों को भूल कर, स्थानीय दबंगों, माफियाओं, नेताओं के पिछलग्गुओं, नवधनाढ्यों तथा कलाबाजरियों के नोटबंदी से उपजे दर्द से आहलादित हैं। जो भ्रष्ट नेताओं एवं छोटे-मझोले एवं बडे नौकरशाहों की व्यथा-कथा के सही-गलत कल्पित किस्सों को रस ले ले कर सुन-सुना रहे हैं। यह मतदातावर्ग जाति-सम्प्रदाय के बंधन तोडकर मोदी की बीन के पीछे झूम रहा है। एटीएम के पीछे धैर्य से खडी लाईनों में आजाद भारत की सम्भवत: सबसे बडी क्रान्ति हो रही है। लाखों-करोडों गरीब-गुरबॉ भारतीयों को न जाने ऐसा क्यों लग रहा है कि वे हरे-लाल नोट जमा करके राष्ट्र-रक्षा के यज्ञ में आहुति डाल रहे हैं। यही अनुभूति उन्हें अचानक आम से खास बना रही है। शायद टोक्यों में मोदी ने इसी ‘’गरीबों की अमीरी’’ का जिक्र किया था। खेल अभी बाकी है मेरे दोस्त।
लेखक आब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन नयी दिल्ली में रिसर्च इंटर्न हैं।
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