Author : R V Bhavani

Expert Speak Health Express
Published on Apr 11, 2025 Updated 7 Days ago

बच्चे के उज्जवल और स्वस्थ जीवन के लिए मां का उत्तम स्वास्थ्य होना बेहद ज़रूरी है. लेकिन महिलाओं के स्वास्थ्य को ज़्यादा तवज्जो नहीं दी जाती है. वर्तमान में इस दिशा में गंभीरता के साथ तत्काल प्रभाव से क़दम उठाने की ज़रूरत है.

उज्जवल भविष्य की कामना: मां और बच्चे की अच्छी देखभाल ही एकमात्र उपाय

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यह लेख "स्वस्थ शुरुआत, आशापूर्ण भविष्य" शृंखला का हिस्सा है.


माना जाता है कि एक बच्चे के जीवन में शुरुआती 1000 दिन बेहद अहम होते हैं. ज़ाहिर है कि एक स्वस्थ बच्चे के जन्म के लिए गर्भवती मां की अच्छी सेहत सबसे महत्वपूर्ण होती है. अफ़सोस की बात यह है कि दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में बड़ी संख्या में महिलाओं और लड़कियों के साथ दोयम दर्ज़े का बर्ताव किया जाता है. पुरुष प्रधान व्यवस्था और लैंगिक पूर्वाग्रहों से ग्रसित समाज इस सच्चाई को स्वीकार नहीं करता है कि महिलाओं एवं लड़कियों का बेहतर स्वास्थ्य कितना ज़रूरी होता है.

संयुक्त राष्ट्र की ओर से महिलाओं को समाज में बराबरी का स्थान दिलाने और उनके स्वास्थ्य को तवज्जो देने के लिए अपने कई सतत विकास लक्ष्यों (SDGs) में इस विषय को शामिल किया है. एसडीजी 5 जहां लैंगिक समानता की बात करता है, वहीं एसडीजी 3 में महिलाओं के अच्छे स्वास्थ्य और कल्याण की बात कही गई है. इसी प्रकार से एसडीजी 2 में भुखमरी को समाप्त करने एवं एसडीजी 1 में ग़रीबी उन्मूलन का लक्ष्य निर्धारित किया गया है. दुर्भाग्य की बात यह है कि महिलाओं के स्वास्थ्य और कल्याण से जुड़े से सभी SDGs अपने लक्ष्य को हासिल करने में बहुत पीछे चल रहे हैं.

गौरतलब है कि जब कम उम्र में और कुपोषण की शिकार महिला बच्चे को जन्म देती है, तो उस बच्चे का वजन कम होने की संभावना भी बहुत अधिक होती है. नवजात का वजन कम होने से उसके बीमार होने का ख़तरा अधिक होता है, साथ ही उनकी मृत्यु दर भी ज़्यादा होती है. 

दुनिया के कई क्षेत्रों में लड़कियों की शादी 18 साल की आयु से पहले ही कर दी जाती है. ज़ाहिर है कि इस उम्र में न तो लड़कियों का शारीरिक विकास पूरी तरह से हो पाता है और न ही वे मानसिक और भावनात्मक रूप से मज़बूत होती हैं. कम उम्र में शादी की वजह से बच्चे के जन्म के समय और उसके बाद लड़कियों को तमाम दिक़्क़तों से जूझना पड़ता है. संयुक्त राष्ट्र बाल कोष के मुताबिक़ दक्षिण एशिया में चार में से एक लड़की की शादी 18 वर्ष से पहले कर दी जाती है. इतना ही नहीं, इनमें से एक तिहाई से ज़्यादा लड़कियां 18 साल की आयु पूरी होने से पहले ही मां बन जाती हैं. गौरतलब है कि जब कम उम्र में और कुपोषण की शिकार महिला बच्चे को जन्म देती है, तो उस बच्चे का वजन कम होने की संभावना भी बहुत अधिक होती है. नवजात का वजन कम होने से उसके बीमार होने का ख़तरा अधिक होता है, साथ ही उनकी मृत्यु दर भी ज़्यादा होती है

SDG 3 के दो बिंदु मातृ और शिशु मृत्यु दर पर ध्यान केंद्रित करते हैं. वर्ष 2024 की संयुक्त राष्ट्र SDG रिपोर्ट के मुताबिक़ वर्ष 2030 के लिए मातृ मृत्यु दर (MMR) कम करने का जो लक्ष्य निर्धारित किया गया गया है, मौज़ूदा औसत मातृ मृत्यु दर उससे तीन गुना अधिक है. इसके अलावा प्रति 1,000 जीवित जन्मों पर नवजात मृत्यु दर 17 है और 1,000 जीवित जन्मों पर 5 साल से कम उम्र के बच्चों की मृत्यु दर 37 है. 2030 के लिए निर्धारित लक्ष्यों की बात की जाए, तो वर्ष 2030 तक प्रति 1,00,000 जीवित जन्मों पर मातृ मृत्यु दर को कम से कम 70 तक लाने, प्रति 1,000 जीवित जन्मों पर नवजात मृत्यु दर को 12 तक लाने और प्रति 1,000 जीवित जन्मों पर 5 वर्ष से कम आयु के बच्चों की मृत्यु दर को 25 तक लाने का लक्ष्य तय किया गया है. फिलहाल, जो हालात हैं, उन्हें देखते हुए इस लक्ष्य को पाना बेहद मुश्किल लग रहा है. ऐसे में अगले पांच वर्षों में निर्धारित लक्ष्य को हासिल करने के लिए तत्काल प्रभाव से गंभीर प्रयास करने की ज़रूरत है.

पौष्टिक खाने की कमी

बचपन के शुरुआती वर्षों में ही मस्तिष्क का विकास होता है, यानी यह समय बच्चों के लिए बहुत महत्वपूर्ण होता है. इसलिए शुरुआती वर्षों में बच्चों को न केवल अच्छे पोषण की ज़रूरत होती है, बल्कि उनके स्वास्थ्य की समुचित देखभाल भी आवश्यक है. अगर इससे समझौता किया जाता है और इन चीज़ों पर ध्यान नहीं दिया जाता है, तो बच्चे के शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक विकास पर असर पड़ता है और जिसका प्रभाव उम्र बढ़ने के साथ बढ़ता जाता है. आंकड़ों के अनुसार नवजात बच्चों को शुरुआती महीनों में मां के दूध के अलावा, दूसरे पूरक पौष्टिक आहार नहीं मिल पाते हैं. भारत में राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS-5) के पांचवें दौर की रिपोर्ट के मुताबिक़ देश में 6 से 23 महीने के सिर्फ़ 23 प्रतिशत बच्चों को ही अलग-अलग तरह के पौष्टिक ठोस और तरल खाद्य पदार्थ मिल पाए और इनमें केवल 11 प्रतिशत बच्चे ही ऐसे थे, जिन्हें न्यूनतम स्वीकार्य खाद्य सामग्री दी गई. ज़ाहिर है कि खान-पान में विविधता नहीं होने और ज़रूरी मिनरल्स, विटामिन्स व पोषक तत्वों की कमी होने से बच्चे का संज्ञानात्मक विकास यानी उसके सोचने, समझने और प्रतिक्रिया देने की क्षमता पर असर पड़ता है. कहने का मतलब है कि आहार में पोषक तत्वों की कमी से बच्चे का समग्र विकास, यानी संपूर्ण शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक विकास नहीं हो पाता है.

खाद्य सुरक्षा और पोषण पर जारी ताज़ा रिपोर्ट के मुताबिक़ दुनिया के 28 देशों, जिनमें एशिया के भी सात देश शामिल हैं, में 15 से 49 साल की महिलाओं में खाद्य असुरक्षा बहुत ज़्यादा है और इसके पीछे कहीं न कहीं महिलाओं को भरपेट गुणवत्तापूर्ण भोजन यानी पोषक तत्वों से भरपूर भोजन की कमी है.

सिर्फ़ बच्चों का ही नहीं, बल्कि महिलाओं का पोषण भी उतना ही अहम है. खाद्य सुरक्षा और पोषण पर जारी ताज़ा रिपोर्ट के मुताबिक़ दुनिया के 28 देशों, जिनमें एशिया के भी सात देश शामिल हैं, में 15 से 49 साल की महिलाओं में खाद्य असुरक्षा बहुत ज़्यादा है और इसके पीछे कहीं न कहीं महिलाओं को भरपेट गुणवत्तापूर्ण भोजन यानी पोषक तत्वों से भरपूर भोजन की कमी है. खाद्य असुरक्षा से ग्रसित महिलाओं में से 50 प्रतिशत से भी कम महिलाएं ऐसी हैं, जिन्हें न्यूनतम आहार विविधता मिल पाती है, यानी उन्हें बहुत कम मात्रा में अलग-अलग प्रकार का पोषक भोजन मिल पाता है. ज़ाहिर है कि ऐसी महिलाएं, जिन्हें पोषक तत्वों से भरपूर भोजन नहीं मिल पाता है और जो कुपोषण की शिकार होती हैं, उन्हें गर्भावस्था के दौरान और बच्चे को जन्म देने के समय कई स्वास्थ्य ख़तरों को झेलना पड़ता है. अंतर्राष्ट्रीय खाद्य नीति अनुसंधान संस्थान (IFPRI) द्वारा भारत के उत्तर प्रदेश राज्य में किए गए एक अध्ययन में पाया गया है कि गर्भवती महिलाओं को गर्भावस्था के दौरान अलग-अलग तरह के पोषक खाद्य पदार्थों की उपलब्धता नहीं होने और पोषक तत्वों की कमी होने से, इसके दीर्घकालिक दुष्परिणाम तो होते ही हैं, साथ ही मातृ और शिशु मृत्यु दर पर भी इसका बुरा असर पड़ता है.

महिलाओं और बच्चों में लगातार बढ़ती एनीमिया की बीमारी भी एक बड़ी चुनौती बनकर उभरी है. राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 (2019-21) के आंकड़ों पर गौर करें, तो भारत में 15 से 49 वर्ष की क़रीब 57 प्रतिशत लड़कियां और महिलाएं एनीमिया से पीड़ित हैं. ज़ाहिर है कि यह आंकड़ा एनएफएचएस-4 (2015-16) के 53 प्रतिशत से अधिक है. हालांकि, किशोर लड़कियों (15-19) में एनीमिया पर कुछ हद तक कमी दर्ज़ की गई है. वर्ष 2019-21 के राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण में 59 प्रतिशत किशोर लड़कियां एनीमिया से पीड़ित थीं. इसके अलावा, अगर गर्भवती महिलाओं (15-49 वर्ष) की बात की जाए, तो आधे से अधिक यानी 52.2 प्रतिशत गर्भवती महिलाएं एनीमिया से पीड़ित थीं, जबकि 6 से 23 महीने के बच्चों में एनीमिया की स्थिति देखें, तो सर्वेक्षण के आंकड़ों के अनुसार इस आयु वर्ग के 67 प्रतिशत बच्चे भी एनीमिया से पीड़ित पाए गए. विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के अनुसार अगर गर्भवती महिलाएं एनीमिया से पीड़ित होती हैं, तो इससे बहुत सारी दिक़्क़तें पैदा होती हैं. इसका न केवल मातृ और नवजात बच्चे के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर पड़ता है, बल्कि प्रीमैच्योर डिलीवरी यानी समय से पूर्व बच्चे के जन्म की संभावना बढ़ जाती है, साथ ही एनीमीया के कारण कम वजन वाले बच्चों के जन्म लेने और प्रसव के समय मां की मृत्यु होने और नवजात बच्चे की मृत्यु का ख़तरा भी बढ़ जाता है. गर्भवती महिलाओं और नवजात बच्चों में एनीमिया की समस्या समाप्त करने की दिशा में अगर उचित रणनीतिक क़दम उठाए जाते हैं और नीतियों को ज़मीनी स्तर पर कार्यान्वित किया जाता है, तो इस पर काबू पाया जा सकता है.

भारत में वर्ष 2018 में राष्ट्रीय पोषण अभियान भी शुरू किया गया था. इसके तहत मां के गर्भ में बच्चे के आने से लेकर उसके दूसरे जन्मदिन तक, यानी जीवन के पहले 1,000 दिनों में बच्चे के स्वास्थ्य देखभाल पर ध्यान केंद्रित किया जाता है. ज़ाहिर है कि बच्चों के स्वास्थ्य देखभाल से जुड़ी यह योजना बहुत कारगर है.

इसके अतिरिक्त, महिलाओं पर परिवार के सदस्यों की देखभाल और उनके खाने-पीने आदि का इंतजाम करने की ज़िम्मेदारी भी होती है, इस वजह से भी वे अपने स्वास्थ्य का ख्याल नहीं रख पाती हैं और बीमारियों को नज़रंदाज़ कर देती हैं. महिलाएं अपने समय का उपयोग कैसे करती हैं, इसको लेकर किए गए सर्वेक्षणों में सामने आया है कि ज़्यादातर रोज़मर्रा के घरेलू कार्यों में महिलाओं की भूमिका सबसे अधिक होती है. अक्सर देखने में आता है कि ग्रामीण इलाकों में जब फसल की कटाई का समय होता है, तो महिलाएं अपनी घरेलू ज़िम्मेदारियों को ठीक से नहीं निभा पाती है, क्योंकि उन्हें खेती-बाड़ी से जुड़े कार्यों में समय देना पड़ता है. इतना ही नहीं, इस दौरान महिलाओं के स्वास्थ्य पर भी बुरा असर पड़ता है और उनका वजन भी घट जाता है. कुल मिलाकर, इन सभी वजहों से न केवल उनके पेट में पल रहे बच्चे के स्वास्थ्य पर विपरीत असर पड़ता है, बल्कि घर में मौज़ूद दूसरे छोटे बच्चों की उचित देखरेख नहीं हो पाने से उनकी सेहत भी प्रभावित होती है.

जीवन के पहले एक हज़ार दिन...

महिलाओं और बच्चों के स्वास्थ्य से जुड़े ये सारे विषय बताते हैं कि भविष्य में बेहतर स्वास्थ्य हासिल करने के लक्ष्य की राह में तमाम चुनौतियां हैं, जिनका मुक़ाबला करना बेहद आवश्यक है. ज़ाहिर है कि ये चुनौतियां कोई नई नहीं हैं, यही वजह है कि कई देशों ने ख़ास तौर पर महिलाओं और बच्चों के बेहतर स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुए समाजिक सुरक्षा से जुड़ी विशेष योजनाएं बनाई और चलाई हैं. उदाहरण के तौर पर भारत में एकीकृत बाल विकास सेवा (ICDS) नाम का एक 50 साल पुराना राष्ट्रीय कार्यक्रम है, जिसके अंतर्गत गर्भवती महिलाओं, स्तनपान कराने वाली माताओं और छह साल से कम उम्र के बच्चों की स्वास्थ्य देखरेख का काम किया जाता है. 

भारत में वर्ष 2018 में राष्ट्रीय पोषण अभियान भी शुरू किया गया था. इसके तहत मां के गर्भ में बच्चे के आने से लेकर उसके दूसरे जन्मदिन तक, यानी जीवन के पहले 1,000 दिनों में बच्चे के स्वास्थ्य देखभाल पर ध्यान केंद्रित किया जाता है. ज़ाहिर है कि बच्चों के स्वास्थ्य देखभाल से जुड़ी यह योजना बहुत कारगर है. हालांकि, जिस प्रकार से इस पोषण अभियान पर पैसा ख़र्च किया जा रहा है और सरकारी स्तर पर इसे लागू करने के लिए जितनी ज़्यादा क़वायद की जा रही है, उसके परिणाम संतोषजन हैं भी या नहीं, इसके बारे में गहराई से पड़ताल किए जाने की ज़रूरत है. उदाहरण के तौर पर वर्ष 2025-26 के बजट में सक्षम आंगनवाड़ी और पोषण 2.0 के लिए 21,960 करोड़ रुपये आवंटित किए गए हैं, जो कि इस मद में वर्ष 2024-25 के बजट में आवंटित 21,810 करोड़ रुपये से केवल 0.7 प्रतिशत ही ज़्यादा है. वर्ष 2024-25 में सक्षम आंगनवाड़ी और पोषण 2.0 के लिए जो रकम आवंटित की गई थी, वो पूरी ख़र्च नहीं हो पाई थी और 8 प्रतिशत राशि बच गई थी.

महिलाओं और बच्चों के स्वास्थ्य के मुद्दे पर सफलता पाने के लिए उनके पोषण पर अधिक निवेश को प्राथमिकता में रखना होगा. विश्व बैंक की एक स्टडी के अनुसार गर्भावस्था के दौरान अगर गर्भवती महिलाओं को आयरन और आयरन-फोलिक एसिड सप्लीमेंट दिए जाते हैं, तो इससे उनमें एनीमिया को कम करने में लगभग 50 प्रतिशत क़ामयाबी हासिल होती है. इसके अलावा, अध्ययन में यह भी पता चला है कि अगर गर्भवती महिलाओं को भोजन में तमाम दूसरे सूक्ष्म पोषक तत्वों के सप्लीमेंट दिए जाते हैं, तो इससे कम वजन के बच्चों के जन्म से निजात पाने में 12 से 15 प्रतिशत तक सफलता मिलती है, वहीं मरे हुए बच्चों के जन्म में 9 प्रतिशत की कमी आती है. वर्ल्ड बैंक के इस अध्ययन में यह भी सामने आया है कि महिलाओं में एनीमिया पर काबू पाने के लिए ख़र्च किए गए प्रत्येक 1 अमेरिकी डॉलर से संभावित रूप से 12 अमेरिकी डॉलर के बराबर फायदा होता है.

निष्कर्ष

इस दिशा में ज़रूरी एवं गंभीर प्रयास करने के लिए सरकारी स्तर पर मज़बूत इच्छाशक्ति चाहिए. कहने का मतलब है कि महिलाओं और बच्चों के स्वास्थ्य देखभाल में व्यापक स्तर पर निवेश की आवश्यकता तो है ही, इसके साथ ही बहुआयामी दृष्टिकोण भी ज़रूरी है. यानी एक ऐसा नज़रिया चाहिए, जो सदियों से समाज में महिलाओं के प्रति फैले पूर्वाग्रहों को समाप्त करने में कारगर हो. इसके लिए जागरूकता फैलाने में सोशल मीडिया एक सशक्त माध्यम हो सकता है और इसके ज़रिए महिलाओं को लेकर समाज की दकियानूसी सोच को बदला जा सकता है, ठीक उसी तरह जैसे स्कूल और कॉलेज इस मंच का उपयोग करके करते हैं. इस अभियान की सफलता के लिए अगर हर जगह पर वहां के स्थानीय प्रभावशाली व्यक्तियों की मदद ली जाती है, तो इसके परिणाम काफ़ी अच्छे हो सकते हैं. 

अगर समाजिक स्तर पर विशेष रूप से इसके बारे में जागरूकता फैलाई जाए कि गर्भावस्था के दौरान और नवजात बच्चे के लालन-पालन के दौरान महिलाओं को अतिरिक्त पोषण की कितनी अधिक ज़रूरत होती है, तो इससे लोगों की सोच में एक बड़ा बदलाव लाया जा सकता है.

इसके साथ ही विकेंद्रीकृत प्रयास, यानी निर्णय लेने और कार्य करने की प्रक्रिया को शीर्ष से निचले स्तर पर ले जाना चाहिए. इन प्रयासों में सामुदायिक स्तर पर महिलाओं और पुरुषों दोनों को ही न केवल पौष्टिक भोजन के महत्व के बारे में बताना चाहिए, बल्कि उन्हें यह भी जानकारी देनी चाहिए कि जीवन के अलग-अलग चरणों में या कहें कि उम्र के अलग-अलग पड़ावों पर पोषक तत्वों से भरपूर खान-पान की क्या भूमिका होती है और यह क्यों ज़रूरी होता है. अगर समाजिक स्तर पर विशेष रूप से इसके बारे में जागरूकता फैलाई जाए कि गर्भावस्था के दौरान और नवजात बच्चे के लालन-पालन के दौरान महिलाओं को अतिरिक्त पोषण की कितनी अधिक ज़रूरत होती है, तो इससे लोगों की सोच में एक बड़ा बदलाव लाया जा सकता है. ज़ाहिर है कि इस प्रकार की गंभीर कोशिशों से ही महिलाओं और ख़ास तौर पर गर्भवती महिलाओं के प्रति सोच में परिवर्तन लाया जा सकता है और स्वस्थ एवं उज्जवल भविष्य की कामना की जा सकती है.


आर वी भवानी खाद्य एवं पोषण सुरक्षा गठबंधन में वरिष्ठ सलाहकार (खाद्य एवं पोषण) हैं.

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R V Bhavani

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Bhavani worked as an officer at the State Bank of India for a decade before shifting out in 2000 to join M. S. Swaminathan Research ...

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