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नई अमेरिकी नीति को लेकर अफ्रीकी देशों को सावधान रहते हुए उम्मीद लगाने के कई कारण हैं.
इस वक़्त दुनिया का मंज़र ऐसा है कि एक तरफ़ तो अमेरिका के नेतृत्व में लोकतांत्रिक देश एकजुट हो रहे हैं, तो दूसरी तरफ़ चीन की अगुवाई में तानाशाही शासन वाले देशों की गोलबंदी हो रही है. अमेरिकी संसद के निचले सदन की स्पीकर नैंसी पेलोसी के ताइवान दौरे के बाद से तो चीन और अमेरिका के संबंधों में तनाव और बढ़ गया है. पेलोसी के दौरे के बाद चीन ने एक विशाल प्रचार अभियान शुरू किया है, ताकि वो ‘वन चाइना पॉलिसी’ के लिए समर्थन जुटा सके और अपना पक्ष मज़बूत कर सके. चीन इसके लिए अफ्रीका समेत दुनिया के तमाम विकासशील देशों से समर्थन जुटाने पर ख़ास तौर से ज़ोर दे रहा है. चीन ने नैंसी पेलोसी के ताइवान दौरे को पश्चिम की दख़लंदाज़ी के तौर पर पेश किया है और ख़ुद को एक पीड़ित पक्ष बता रहा है. चीन के इस संदेश से अफ्रीका के कई देश इत्तिफ़ाक़ रख रहे होंगे. ख़ास तौर से 2011 में लीबिया में नेटो के नाकाम अभियान के बाद तो अफ्रीकी देश पश्चिमी जगत को लेकर और सशंकित हो गए हैं.
मिस्र, ज़िम्बाब्वे, दक्षिण अफ्रीका और ट्यूनिशिया के राजनीतिक दलों ने नैंसी पेलोसी के ताइवान दौरे पर विरोध जताया था. वहीं सोमालिया ने एक क़दम आगे बढ़कर प्रतिक्रिया दी थी क्योंकि ताइवान का मसला, ख़ुद सोमालिया से काफ़ी मिलता–जुलता है. जिस तरह चीन, ताइवान को अपना बाग़ी सूबा मानता है, ठीक उसी तरह सोमालिया भी सोमालीलैंड के अलग हो चुके इलाक़े को अपने देश का अटूट अंग मानता है. इसी वजह से सोमालिया हाल के वर्षों में सोमालीलैंड और ताइवान के बीच बढ़ती नज़दीकी को लेकर आशंकित रहा है.
अफ्रीका में अमेरिका और चीन के संपर्क को अक्सर एक पक्ष के फ़ायदे से दूसरे को नुक़सान के तौर पर पेश किया जाता रहा है. फिर चाहे बात प्रभाव की हो या मूलभूत ढांचे के विकास में निवेश की. अफ्रीकी देश बड़ी तेज़ी से भू-राजनीतिक शतरंज की बिसात पर बड़ी ताक़तों के बीच बढ़ते जा रहे मुक़ाबले में शह और मात के मोहरे बनते जा रहे हैं. इसे ‘अफ्रीका के लिए छीना झपटी का नया दौर’ कहा जा रहा है. अफ्रीकी देश वैसे तो बार-बार ये जता चुके हैं कि वो बड़ी ताक़तों के बीच मुक़ाबले में न तो मोहरा बनना चाहते हैं और न ही किसी का सिपाही. फिर भी अफ्रीकी देशों के नेताओं के लिए कोई पक्ष न लेना और ख़ामोश रहना दिनों–दिन मुश्किल होता जा रहा है. यूक्रेन पर रूस के हमले की खुलकर निंदा करने से बचने और रूस के ख़िलाफ़ मतदान में अलग अलग रुख़ अपनाकर अफ्रीकी देश अपनी इस दुविधा का बार–बार प्रदर्शन कर रहे हैं. धीरे–धीरे अफ्रीकी देशों के लिए पश्चिम और पूरब दोनों के साथ अपने रिश्तों में संतुलन बनाए रखना मुश्किल होता जा रहा है.
अफ्रीकी देशों की नज़र से देखें, तो किसी के पक्ष लेने की क़ीमत बहुत अधिक है. मान लीजिए कि चीन आने वाले समय में ताइवान पर हमला कर देता है, तो जो अफ्रीकी देश अमेरिका का साथ देता है, उसके लिए चीन के साथ अपने रिश्ते ख़राब कर लेने का जोखिम होगा. ये हालात उन अफ्रीकी देशों के लिए और मुश्किल हैं, जिन पर चीन के क़र्ज़ का भारी बोझ है. वहीं दूसरी ओर, चीन के अड़ियल रवैये और नियम आधारित व्यवस्था की मुख़ालफ़त को देखते हुए अगर अफ्रीकी देश खुलकर चीन का साथ देते हैं तो उनके ऊपर अमेरिका और अन्य बहुपक्षीय संस्थाओं द्वारा पाबंदी लगाने का डर होगा.
इन अनिश्चितताओं के बीच अमेरिका के विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकेन ने 7 से 12 अगस्त के बीच तीन अफ्रीकी देशों का दौरा किया था. ब्लिंकेन ने इसकी शुरुआत जोहानिसबर्ग से की. उसके बाद वो कॉन्गो लोकतांत्रिक गणराज्य और रवांडा के दौरे पर भी गए. अमेरिकी विदेश मंत्री के इस दौरे की सबसे बड़ी उपलब्धि ‘उप–सहारा देशों के लिए अमेरिका की नई रणनीति’ से पर्दा उठना रही. इस रणनीति में ‘अमेरिका की राष्ट्रीय सुरक्षा के हितों के लिहाज़ से अफ्रीका को दोबारा अहम जताने’ पर ज़ोर दिया गया है. इसके अलावा इस नई अमेरिकी रणनीति में अफ्रीका को चीन और अमेरिका के बीच बड़ी ताक़तों के मुक़ाबले का मैदान बताने से परहेज़ किया गया है. कई मामलों में अमेरिका की ये रणनीति ट्रंप प्रशासन की ‘समृद्ध अफ्रीका’ नीति से बिल्कुल अलग है. जबकि ट्रंप प्रशासन की रणनीति का पूरा ज़ोर अफ्रीका में चीन के बढ़ते प्रभाव का मुक़ाबला करना था.
अफ्रीका के बारे में बात करते हुए, अमेरिका की नई रणनीति कई महत्वपूर्ण मसलों पर सटीक बातें कहती नज़र आती है. इस रणनीति में ये स्वीकार किया गया है कि अफ्रीका महाद्वीप, अमेरिका के राष्ट्रीय हितों के लिहाज़ से बेहद अहम है और अफ्रीका दुनिया की भलाई वाले सामान मुहैया कराने और विकास की साझा चुनौतियों का समाधान करने में बेशक़ीमती भूमिका निभा रहा है. इससे पहले अफ्रीका को समाधान मुहैया कराने की भूमिका में देखने के बजाय उसे ख़तरे का स्रोत माना जाता था. ज़ाहिर है, अमेरिका ने अपनी नई रणनीति बनाने में अफ्रीका में तेज़ी से हो रहे सामाजिक– आर्थिक, राजनीतिक और सुरक्षा संबंधी बदलावों को ध्यान में रखा है.
इस रणनीति में जो एक और अहम बात ध्यान देने लायक़ है वो अफ्रीका के उप-सहारा क्षेत्र (SSA) के लिए अलग नीति रखना है. इसका मतलब ये है कि उत्तरी अफ्रीका को अमेरिका, मध्य पूर्व/ उत्तरी अफ्रीका (MENA) का हिस्सा मानता है. इस रणनीति में MENA क्षेत्र के लिए अमेरिका की अलग पहल और प्राथमिकताएं नज़र आती हैं.
ये रणनीति बनाकर अमेरिका ने एक तरह से ये मान लिया है कि वो अफ्रीका में हाल के वर्षों में चीन से बराबरी का मुक़ाबला कर पाने में नाकाम रहा है. अफ्रीका में अरबों डॉलर लगाने और मानवीय पूंजी में निवेश के बावजूद, अमेरिका की ‘सैन्य विकल्प को तरज़ीह देने’ की मानसिकता अपेक्षित नतीजे दे पाने में असफल रही है. इसीलिए अब बाइडेन प्रशासन उन क्षेत्रों में सहयोग को प्राथमिकता दे रहा है, जिनमें अमेरिका को ये लगता है कि वो अपने अफ्रीकी साझीदारों से बेहतर स्थिति में है. मसलन प्रशासन, आर्थिक विकास और जलवायु परिवर्तन. अमेरिकी रणनीति में चार प्राथमिक स्तंभों की पहचान की गई है. इनके नाम हैं;
इस रणनीति में कुछ चिह्नित अफ्रीकी शहरों के साथ मिलकर अमेरिका में रह रहे अफ्रीकी मूल के लोगों से संपर्कों को मज़बूत बनाना और मिलकर कोविड-19 महामारी का मुक़ाबला करने का भी ज़िक्र किया गया है. हालांकि साझा संपर्क के ज़रिए सहयोग के इन नए क्षेत्रों के लिए कोई नया मंच बनाया जाएगा या नहीं, ये बात साफ़ नहीं है.
अफ्रीका के लिए इस नई अमेरिकी रणनीति की एक महत्वपूर्ण बात ये भी है कि अमेरिका अब हिंद प्रशांत की परिचर्चा में अफ्रीकी देशों को भी शामिल करने का इच्छुक है. लंबे समय से हिंद प्रशांत को लेकर अमेरिका का नज़रिया बहुत सीमित और संकुचित रहा है. अमेरिका, हिंद प्रशांत क्षेत्र को ‘बॉलीवुड से हॉलीवुड’ तक का विस्तार मानता आया है. इस अमेरिकी नज़रिए के तहत अक्सर पश्चिमी हिंद महासागर क्षेत्र की अनदेखी की जाती रही थी- जबकि ये इलाक़ा हिंद महासागर का सामरिक रूप से बेहद अहम उप-क्षेत्र रहा है, और ये बड़ी हिंद प्रशांत रणनीति के दायरे में ही आता है. अब जाकर अमेरिका ने ये माना है कि अफ्रीकी देश अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा की व्यापक रणनीति में समुद्री सुरक्षा नीतियों को भी शामिल कर रहे हैं. इसी को देखते हुए अब अमेरिका भी ‘नए भौगोलिक गठबंधन बनाने में सहयोग’ के लिए तैयार है और वो ‘अफ्रीकी देशों को हिंद महासागर और हिंद प्रशांत के मंचों से जोड़ने’ के लिए भी राज़ी है. ये अमेरिका का स्वागतयोग्य क़दम है.
सामरिक रणनीति निर्माण की ये कमी दूर करके अब अमेरिका ने अपने क़रीबी साझीदारों जैसे भारत, जापान और फ्रांस को ये संदेश दिया है कि वो पश्चिमी हिंद महासागर में समुद्री सुरक्षा को बढ़ावा देने और अफ्रीका के आस–पास के समुद्र को सुरक्षित बनाने के लिए सहयोग करने को तैयार है.
अमेरिकी विदेश मंत्री ब्लिंकेन ने अफ्रीका का ये दौरा उस वक़्त किया, जब अमेरिका की ये कहते हुए आलोचना हो रही थी कि वो बहुत ज़्यादा भाषण देता है और अन्य साझीदारों से अफ्रीकी देशों के संबंधों में भी ख़ूब ताक–झांक करता है. आज इस सोच में बदलाव वक़्त की मांग है क्योंकि अफ्रीकी देशों को लेकर अमेरिका के संकुचित नज़रिए से अपेक्षित नतीजे नहीं निकले हैं, और न ही चीन की तुलना में उसकी छवि ही बेहतर बन पाई है. इसके उलट, अफ्रीकी देशों की नज़र में अमेरिका विश्वसनीयता के संकट से जूझ रहा है और पूंजी निवेश को प्रभाव में तब्दील कर पाने में मुश्किलें झेल रहा है. इसके अलावा, मानव अधिकारों के ख़राब रिकॉर्ड के चलते, अफ्रीका की नज़र में अमेरिका के लोकतंत्र का आकर्षण भी धीरे धीरे कम हो रहा है. इसी के चलते, अफ्रीकी देशों में किसी बड़ी ताक़त की ग़ैरमौजूदगी का चीन और रूस जैसे अमेरिकी प्रतिद्वंदी देश फ़ायदा उठाने की कोशिश कर रहे हैं और वो अफ्रीका में अपने सामाजिक आर्थिक विकास के मॉडल को बढ़ावा दे रहे हैं.
जब कोरोना की महामारी उरूज पर थी तो अफ्रीकी देशों के पास वैक्सीन नहीं थी और वो ‘वैक्सीन के रंगभेद’ के शिकार हुए थे. उसकी याद अफ्रीकी नेताओं और जनता के ज़हन में अब तक ताज़ा है. अफ्रीकी देशों ने जीवन रक्षक दवाएं, उपकरण और वैक्सीन हासिल करने में आ रही दिक़्क़तों को लेकर दु:ख जताया था. निश्चित रूप से अफ्रीका को संकट से उबारने के किसी भी अमेरिकी मदद के एलान से राहत तो होगी, मगर अफ्रीकी देश सशंकित भी होंगे. इसके अलावा, पिछले साल ग्लासगो में जलवायु परिवर्तन पर हुए सम्मेलन (COP26) में अफ्रीकी नेताओं ने पश्चिम की इस बात के लिए आलोचना की थी कि वो 2020 तक विकासशील देशों को जलवायु परिवर्तन के संकट से निपटने के लिए 100 अरब डॉलर की रक़म जुटाने का वादा पूरा कर पाने में नाकाम रहे थे. पश्चिमी देशों का ये वादा 2023 में भी पूरा होने की उम्मीद कम ही है. अमेरिका द्वारा घोषित अन्य योजनाओं जैसे कि ब्लू डॉट नेटवर्क और बिल्ड बैक बेटर वर्ल्ड (B3W) भी कम से कम अब तक तो अफ्रीका में किसी अहम परियोजना के लिए पूंजी मुहैया करा पाने में असफल ही रहे हैं.
हालांकि, अफ्रीका के लिए नई अमेरिकी रणनीति को लेकर अफ्रीकी देशों के सावधान रहते हुए उम्मीद लगाने का एक कारण तो है. पहले तो ये रणनीति इस सोच के साथ शुरू होती है कि अफ्रीका इस वक़्त वैश्विक भू–राजनीतिक बदलावों का केंद्र है और अमेरिका की विदेश नीति की धुरी है. रणनीति में अफ्रीका के स्वाभिमान को स्वीकार किया गया है और ये माना गया है कि अफ्रीकी देश महत्वपूर्ण वैश्विक संवादों में बराबर के साझीदार के तौर पर शरीक़ हो सकते हैं. दूसरा चीन और रूस पर ज़ोर न देनार और अफ्रीका के बड़ी ताक़तों के बीच होड़ का मैदान होने की बात से किनारा करना भी सकारात्मक क़दम है. अमेरिका के विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकेन ने अफ्रीका का दौरा उस वक़्त किया, जब उससे ठीक पहले रूस के विदेश मंत्री ने दौरा किया था. अफ्रीका में रूस की बढ़ती ताक़त, अमेरिका के लिए चिंता की बड़ी वजह बनी हुई है. अमेरिका को लगता है कि रूस ये राजनीतिक दांव पेंच न सिर्फ़ अफ्रीका में अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए चल रहा है, बल्कि वो दुनिया को ये संदेश देने की कोशिश भी कर रहा है कि दुनिया के कई हिस्सों में उसके साथी देश अभी भी मौजूद हैं.
आख़िर में, अमेरिकी रणनीति से अफ्रीकी देशों के लिए उम्मीद लगाने की एक वजह ये भी है कि अमेरिका अब अफ्रीका के साथ रिश्तों में नस्लवाद को लेकर संवेदनशील है, और वो अश्वेत लोगों को अपनी नई रणनीति के केंद्र में रखकर चल रहा है. ये बात बाइडेन प्रशासन द्वारा कुछ पदों पर नियुक्त किए गए राजनीतिज्ञों से भी ज़ाहिर होती है, जिसमें अफ्रीका समर्थकों और अफ्रीकी मूल के अमेरिकी नागरिक शामिल हैं. जैसे कि जुड डेवरमॉन्ट जिन्हें अमेरिकी राष्ट्रपति का विशेष सहायग और व्हाइट हाउस की राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद में अफ्रीकी मामलों का स्पेशल डायरेक्टर नियुक्त किया गया है. इसी तरह मोंडे मुयांग्वा को अमेरिका की एजेंसी फॉर इंटरनेशनल डेवेलपमेंट (USAID) में सहायक प्रशासक नियुक्त किया गया है.
अफ्रीका को लेकर अमेरिका की नई रणनीति निश्चित रूप से दोनों के रिश्तों को लेकर नई शुरुआत की प्रतीक है. हालांकि आगे चलकर इस रणनीति की कामयाबी बहुत हद तक इस बात पर निर्भर करेगी कि अमेरिका ज़रूरी बजट और संसाधनों का आवंटन करके अपने वादे पूरे करने में किस हद तक कामयाब रहता है.
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Abhishek Mishra is an Associate Fellow with the Manohar Parrikar Institute for Defence Studies and Analysis (MP-IDSA). His research focuses on India and China’s engagement ...
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