Author : Manoj Joshi

Published on Dec 14, 2023 Updated 0 Hours ago

ट्रंप के दूसरे कार्यकाल के दुनिया पर कई तरह के असर पड़ेंगे. लेकिन, ट्रंप का फिर से राष्ट्रपति बनना निश्चित रूप से अमेरिका और बाक़ी दुनिया के लिए उनके पहले कार्यकाल से कहीं ज़्यादा ख़राब साबित होगा.

ट्रंप फिर राष्ट्रपति बने तो पहले से ही उथल-पुथल की शिकार दुनिया में हाहाकार मच जाएगा!

अब जबकि अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव का माहौल बन रहा है, तो ऐसा लग रहा है कि दुनिया एक निर्णायक मोड़ पर खड़ी है. अमेरिकी सीनेट में विपक्षी रिपब्लिकन पार्टी ने यूक्रेन और इज़राइल को सहायता देने वाले बिल रोक रखे हैं. रिपब्लिकन पार्टी की मांग है कि बाइडेन प्रशासन अमेरिका में सीमा पर नियंत्रण लगाने वाले नए उपाय लागू करे. जो विधेयक सीनेट में अटके हैं, उनसे यूक्रेन और इज़राइल को 64 अरब डॉलर की सहायता दी जानी है.

इस बीच, यूरोपीय संघ का 50 अरब यूरो का प्रस्तावित सहायता पैकेज भी अभी पारित होने का इंतज़ार कर रहा है, क्योंकि EU के सदस्य देशों के बीच इस बात पर मतभेद हैं कि इन पैसों को किस रूप में दिया जाए. हालांकि, सहायता की राशि वाले ये पैकेज जारी होने की पूरी उम्मीद है. लेकिन, इन्हें लेकर जिस तरह की अनिश्चितता और अनिच्छा दिख रही है, वो भविष्य के लिए शुभ संकेत नहीं हैं. ये अनिश्चितता और खींचतान ऐसे मौक़े पर देखने को मिल रही है, जब यूक्रेन की हालत पतली है. चूंकि गर्मियों में उसका बहुचर्चित पलटवार का अभियान बहुत कामयाब नहीं हुआ. ऐसे हालात में अब यूक्रेन को नई ऊर्जा से लबरेज़ रूस की फौजी मशीन से करना पड़ रहा है, जो जंग के मैदान में अपने सैनिकों की बड़ी तादाद में मौत होने के बावजूद यूक्रेन में लगातार अपना अभियान जारी रखे हुए है. 

प्यू रिसर्च के मुताबिक़, अब रिपब्लिकन पार्टी के 50 प्रतिशत समर्थक कह रहे हैं कि अमेरिका, यूक्रेन को कुछ ज़्यादा ही मदद दे रहा है. पोलैंड और स्लोवाकिया में नाकेबंदी की वजह से यूक्रेन के ट्रक अब यूरोपीय संघ के देशों से सामानों की वो आपूर्ति नहीं कर पा रहे हैं, जिसकी उनके देश को सख़्त ज़रूरत है.

यूक्रेन के दोनों प्रमुख समर्थक यूरोपीय संघ और अमेरिका, दोनों ही उसको उम्मीद से कहीं कम सहायता दे रहे हैं. दोनों ही यूक्रेन को बस उतने ही हथियार और पैसे दे रहे हैं जिससे यूक्रेन, रूस से लड़ाई जारी रखे. अब ऐसे अहम मोड़ पर भी अमेरिका और यूरोप, यूक्रेन की उम्मीदों पर खरे उतरते नहीं दिख रहे हैं. लेकिन, इससे भी बुरी बात तो ये है कि अटलांटिक महासागर के दोनों छोरों पर यूक्रेन के लिए जो समर्थन होना चाहिए था, वो अब लगातार कम होता जा रहा है और अब उस पर सियासी खींचतान ज़्यादा हो रही है. प्यू रिसर्च के मुताबिक़, अब रिपब्लिकन पार्टी के 50 प्रतिशत समर्थक कह रहे हैं कि अमेरिका, यूक्रेन को कुछ ज़्यादा ही मदद दे रहा है. पोलैंड और स्लोवाकिया में नाकेबंदी की वजह से यूक्रेन के ट्रक अब यूरोपीय संघ के देशों से सामानों की वो आपूर्ति नहीं कर पा रहे हैं, जिसकी उनके देश को सख़्त ज़रूरत है. इन देशों को शिकायत ये है कि यूक्रेन के ट्रक चालकों की वजह से उन्हें नुक़सान झेलना पड़ रहा है.

यूक्रेन में आगे चलकर जो कुछ होगा, उसका दुनिया के दूसरे छोर पर स्थित ताइवान पर भी गहरा असर पड़ेगा. यूक्रेन पर रूस के हमले के बाद से चीन के वो एलान और भी मुखर हो गए हैं कि वो ताक़त के दम पर ताइवान को अपना हिस्सा बना लेगा. यूक्रेन के मोर्चे पर लड़खड़ाते दिख रहे पश्चिमी गठबंधन का असर पूर्वी एशिया पर भी पड़ सकता है और इससे चीन को ये संकेत जाएगा कि वो ताइवान को ताक़त के बूते अपना हिस्सा बनाकर बच निकल सकेगा.

ताइवान का मसला

जनवरी महीने में ताइवान की स्वतंत्र सरकार के राष्ट्रपति चुनाव होने हैं. अभी तक के मुताबिक़, ताइवान की स्वतंत्रता की समर्थक डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी के लाई चिंग-ते उर्फ़ विलियम लाई चुनाव में आगे चल रहे हैं. हालांकि, कुओमिनतांग (KMT) के उम्मीदवार होऊ यू-इप भी उनसे बहुत ज़्यादा पीछे नहीं हैं, और उन्होंने साफ़ कर दिया है कि वो चीन के साथ बातचीत और समझौते की नीति पर चलने के पक्षधर हैं. 

विलियम लाई, ताइवान की मौजूदा राष्ट्रपति त्साई इंग-वेन के मातहत हैं और वो अपने पूर्ववर्ती की ताइवान की संप्रभुता को बनाए रखने और चीन से मुक़ाबले के लिए अपनी इच्छा से अमेरिका के साझीदार बनने की नीति पर चलने का इरादा रखते हैं. ये एक ऐसी नीति है, जिसने चीन और ताइवान के बीच ही नहीं, चीन और अमेरिका के बीच भी तनाव को बढ़ावा ही दिया है.

नवंबर महीने में जब शी जिनपिंग, जो बाइडेन से मिले थे, तो उन्होंने अमेरिका से कहा था कि वो ताइवान को हथियार देना बंद करे और ‘चीन के शांतिपूर्ण एकीकरण का समर्थन करे’.

नवंबर महीने में जब शी जिनपिंग, जो बाइडेन से मिले थे, तो उन्होंने अमेरिका से कहा था कि वो ताइवान को हथियार देना बंद करे और ‘चीन के शांतिपूर्ण एकीकरण का समर्थन करे’. वैसे तो ताइवान के साथ अमेरिका की कोई रक्षा संधि नहीं है. लेकिन, बाइडेन ने कई बार कहा है कि अगर ताइवान पर हमला होता है, तो अमेरिका उसकी हिफ़ाज़त करेगा. यूक्रेन में उठाए गए ग़लत क़दमों को देखकर, ताइवान को लगेगा कि वो अपनी स्वतंत्रता की रक्षा के लिए अमेरिका के भरोसे नहीं रह सकता है, और ऐसे में उसके लिए शायद बेहतर विकल्प यही होगा कि वो चीन के साथ समझौता कर ले.

लेकिन, वैश्विक व्यवस्था के लिए सबसे बड़ी चुनौती तो डॉनल्ड ट्रंप के दोबारा अमेरिका के राष्ट्रपति पद पर वापसी की संभावना से मिलने वाली है. अभी जो स्थिति है, उसके हिसाब से ये लगभग तय है कि आने वाले राष्ट्रपति चुनाव के लिए रिपब्लिकन पार्टी की तरफ़ से डॉनल्ड ट्रंप ही उम्मीदवार होंगे. इससे संभवत: ऐसे हालात बन सकते हैं, जिसमें ख़ुद अमेरिका की राह बदल जाए और वो उस रास्ते पर चल पड़े, जिसकी शुरुआत ट्रंप ने अपने पहले कार्यकाल में की थी.

तब राष्ट्रपति के तौर पर अपने पहले ही दिन ट्रंप ने अमेरिका को ट्रांस पैसिफिक पार्टनरशिप से अलग कर लिया था और अपने कार्यकाल के दौरान उन्होंने वैश्विक व्यवस्था के भू-मंडलीकरण समर्थक मॉडल को बार बार ख़ारिज किया और वो इस नतीजे पर भी पहुंचे कि अमेरिका के लिए चीन सबसे बड़ा प्रतिद्वंदी है. अपने कार्यकाल के आख़िरी दिनों में तो ट्रंप ने तख़्तापलट करने तक की कोशिश कर डाली थी. वैसे ऐसा नहीं था कि ट्रंप की सारी की सारी नीतियां ही ख़राब थीं; ट्रंप की नीतियों की वजह से ही यूरोप और जापान को अपने रक्षा बजट बढ़ाने को मजबूर किया, और उन्होंने चीन को अमेरिका की सैन्य स्तर की तकनीक हासिल करने से रोकने की प्रक्रिया भी शुरू की. अब ये सही हो या ग़लत लेकिन ट्रंप ने अमेरिका की घरेलू और विदेश नीतियों का रुख़ निर्णायक रूप से बदला. इस हक़ीक़त को इस बात से भी बल मिलता है, जब हम ये देखते हैं कि बाइडेन ने उनमें से ज़्यादातर को ख़ुद भी अपनाया और आगे बढ़ाया.

सारे मौजूदा वैश्विक संकट, आने वाले अमेरिकी चुनाव अभियान पर छाए रहने वाले हैं. ट्रंप, बाइडेन पर इल्ज़ाम लगाएंगे कि वो कमज़ोर राष्ट्रपति हैं और उनके नेतृत्व में अफ़ग़ानिस्तान से लेकर यूक्रेन, ग़ज़ा और ताइवान तक अमेरिका का पतन देखने को मिला. मौजूदा संकटों को लेकर ख़ुद ट्रंप का रवैया अराजक और विरोधाभासी रह सकता है, जिससे अमेरिका के कमज़ोर होने और उसके पतन की सोच को बल मिलेगा.

 ट्रंप अगर राष्ट्रपति बनते हैं तो...

ट्रंप के दूसरे कार्यकाल के कई मायने दिख सकते हैं, जो निश्चित रूप से न सिर्फ़ अमेरिका बल्कि पूरी दुनिया के लिए उनके पहले कार्यकाल से कहीं ज़्यादा बुरे साबित होंगे. घरेलू स्तर की बात करें, तो चूंकि ट्रंप ख़ुद ही ये संकेत देते रहे हैं कि उनके राष्ट्रपति बनने का मतलब अमेरिका में तानाशाही हो सकता है. जब, अमेरिका की अदालतें और वहां का मीडिया सत्ता से बाहर रहने के बावजूद ट्रंप की अराजकताओं पर लगाम नहीं लगा सका, तो इस बात की संभावना बहुत कम है कि वो उनके राष्ट्रपति बनने के बाद ऐसा कर पाएंगे. बाइडेन के कार्यकाल की तमाम उपलब्धियां रही हैं. फिर भी अमेरिका का मूड, अपनी राजनीतिक व्यवस्था से नाख़ुशी और चारों तरफ़ फैले निराशा के भाव का ही है.

ट्रंप के दूसरे कार्यकाल के कई मायने दिख सकते हैं, जो निश्चित रूप से न सिर्फ़ अमेरिका बल्कि पूरी दुनिया के लिए उनके पहले कार्यकाल से कहीं ज़्यादा बुरे साबित होंगे. घरेलू स्तर की बात करें, तो चूंकि ट्रंप ख़ुद ही ये संकेत देते रहे हैं कि उनके राष्ट्रपति बनने का मतलब अमेरिका में तानाशाही हो सकता है.

ट्रंप के फिर राष्ट्रपति बनने की सूरत में सबसे बुरी स्थिति ये हो सकती है कि अमेरिका, ख़ुद को नैटो से अलग कर ले, जिससे यूक्रेन को अपनी हिफ़ाज़त ख़ुद करनी पड़ेगी और ताइवान को विवाद सुलझाने के लिए चीन से बात करनी पड़ेगी. दुनिया भर में अमेरिका के दोस्त और साथी देशों को एक ऐसी दुनिया का सामना करना पड़ेगा, जहां अमेरिका उनकी सुरक्षा की गारंटी देने वाला नहीं होगा. सभी तरह के आयातों पर दस प्रतिशत का टैक्स लगाने की ट्रंप की योजना से वो खुली व्यापार व्यवस्था भी ख़त्म हो जाएगी, जिसकी दुनिया आदी हो चुकी है.

जो देश अपनी सुरक्षा के लिए अमेरिका के भरोसे हैं, उनकी हालत और पतली होगी. इससे जापान और दक्षिणी कोरिया पर परमाणु हथियार हासिल करने का दबाव बढ़ेगा. सऊदी अरब और ईरान के बीच के ताल्लुक़ किस करवट बैठते हैं, उसके हिसाब से शायद सऊदी अरब भी उसी दिशा में आगे बढ़े. यूक्रेन में रूस की कामयाबी से यूरोप की व्यवस्था हिल जाएगी. वैसी स्थिति में जर्मनी भी परमाणु हथियार हासिल करने की कोशिश करेगा या नहीं, ये तो फ्रांस और ब्रिटेन पर निर्भर करेगा.

जहां तक भारत की बात है, तो ट्रंप के सत्ता में आने से उस पर, उन देशों की तुलना में कम असर होगा, जो अपनी सुरक्षा के लिए अमेरिका के भरोसे हैं. फिर भी, भारत के लिए भी हालात अच्छे नहीं होंगे. क्योंकि, हाल के वर्षों ने भारत ने सावधानी बरतते हुए अमेरिका के साथ अपने रिश्ते बेहतर बनाने के लिए काफ़ी मेहनत की है, क्योंकि, भारत की व्यापक विश्व दृष्टि और उसकी अपनी महत्वाकांक्षाएं अमेरिका के साथ रिश्तों पर बहुत अधिक निर्भर करती हैं.

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