Author : Samir Saran

Published on Sep 25, 2023 Updated 0 Hours ago
भारत का G20 सम्मेलन और क्रांतिकारी बदलाव: क्या ये नया स्वेज़ लम्हा है?

उस दिन को 14 साल बीत चुके हैं, जब दुनिया के बड़े नेता पिट्सबर्ग में इकट्ठा हुए थे और उन्होंने एलान किया था कि G20 ‘अंतरराष्ट्रीय आर्थिक सहयोग का प्रधान मंच है’. उसके बाद के 14 वर्षों के दौरान G20 ने अपना दायरा भी बढ़ाया है और अधिकार क्षेत्र भी. लेकिन G20 ने, भारत की अध्यक्षता से पहले कभी भी बहुपक्षीय आर्थिक प्रशासन के लिए एक नया नज़रिया पेश नहीं किया था. ये कोई हैरानी वाली बात नहीं है. पिट्सबर्ग शिखर सम्मेलन, 2008 के वित्तीय संकट के साये में हुआ था. उसका ध्यान सिर्फ़ मुंबई और मोम्बासा से बहुत दूर स्थित एक वित्तीय व्यवस्था को बचाना था. अब जो संगठन संकट से उबरने के लिए बनाया गया हो, उससे ये अपेक्षा की ही नहीं जा सकती कि वो वैश्विक प्रशासन के एक नए नज़रिए को बढ़ावा देगा.

नई दिल्ली के शिखर सम्मेलन ने न केवल G20 का रुख़, दोबारा उसकी असली ज़िम्मेदारी की तरफ़ मोड़ा है, बल्कि इस सम्मेलन ने G20 को नया जीवनदान भी दिया है.

हाल के वर्षों में G20 एक उदासीन मंच बनकर रह गया था, जहां राजनेता बातें करने के लिए इकट्ठा हुआ करते थे. G20 के संकट से उबरने की विरासत को देखते हुए, फरवरी 2022 के बाद से इस बात का जोखिम वाक़ई बहुत बढ़ गया था कि ये यूक्रेन में युद्ध से निपटने का मंच बना दिया जाएगा. नई दिल्ली के शिखर सम्मेलन ने न केवल G20 का रुख़, दोबारा उसकी असली ज़िम्मेदारी की तरफ़ मोड़ा है, बल्कि इस सम्मेलन ने G20 को नया जीवनदान भी दिया है. अब ‘बैंकरों के G20’ की जगह, हमेशा के लिए ‘जनता के G20’ ने ले ली है.

आज अगर सभी सदस्यों के बीच आम सहमति बनाकर, सम्मेलन की घोषणा जारी करने के लिए भारत की कामयाबी की तारीफ़ हो रही है, तो वो बिल्कुल उचित है. G20 भले ही एक राजनीतिक और सुरक्षा संबंधी वार्ता का मंच न हो. लेकिन, जैसा कि नेताओं के शिखर सम्मेलन से पहले हुई सभी बैठकों से लग रहा था कि इस सम्मेलन में भी यूक्रेन के मसले से मुंह नहीं मोड़ा जा सकेगा. भारत और प्रधानमंत्री मोदी इस चुनौती के लिए तैयार थे. केवल पांच वीटो अधिकार वाले सदस्यों की संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद भी संयुक्त राष्ट्र के चार्ट के बुनियादी उसूलों आम सहमति से दोहरा पाने में नाकाम रही थी. लेकिन, भारत के नेतृत्व में एक दोन नहीं, पूरे 20 वोट वाले G20 को इस बात के लिए राज़ी कर लिया गया कि वो हमें याद दिलाए कि, ‘सभी देशों को दूसरे की क्षेत्रीय अखंडता और संप्रभुता का उल्लंघन करने, और किसी देश के इलाक़ों पर क़ब्ज़ा करने की धमकी देने, या ताक़त के बल पर उसे हासिल करने से बाज़ आना चाहिए.’

लेकिन, G20 शिखर सम्मेलन में एक घोषणा पर आम सहमति बनाने से भी बड़ी भारत की उपलब्धि तो ये है कि उसने वैश्विक प्रशासन को अधिक मानवीय बनाया है. जलवायु वित्त से लेकर महिलाओं के नेतृत्व में विकास तक, भारत ने ऐसे मुद्दों को उठाया जिसके लिए न जाने कितने लोग संघर्ष कर रहे हैं, और उनके समाधानों की मज़बूती से वकालत भी की. आज के दौर में जब जनवाद कुलीन भू-मंडलीकरण को अपशिष्ट कहकर उसे सिरे से ख़ारिज किया जा रहा है, तो भारत ने बहुपक्षीय सहयोग के उसी माध्यम का इस्तेमाल करते हुए दुनिया के हाशिए पर पड़े तबक़ों की मदद करने की कोशिश की है.

भारत और अमेरिका: लोकतंत्र के साझीदार

भारत का नेतृत्व और जिस तरह उसने G20 को नई दिशा दी है, उसे देखकर किसी को हैरानी नहीं होनी चाहिए. 2023 में दुनिया का रंग-रूप उस दुनिया से बिल्कुल अलग है, जो 2009 में थी. और, वैश्विक स्तर पर सबको राज़ी करने में सक्षम बने आज के उभरते भारत का असर दुनिया की अन्य बड़ी ताक़तों, जैसे कि अमेरिका, चीन और उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं वाले भारत के समकक्ष देशों पर भी देखने को मिलेगा.

पिट्सबर्ग सम्मेलन की मेज़बानी दुनिया की इकलौती महाशक्ति ने की थी. उसके बाद से एक पीढ़ी गुज़र चुकी है. देशों के रुख़ रवैये बदल चुके हैं.

पिट्सबर्ग सम्मेलन की मेज़बानी दुनिया की इकलौती महाशक्ति ने की थी. उसके बाद से एक पीढ़ी गुज़र चुकी है. देशों के रुख़ रवैये बदल चुके हैं. जिस महाशक्ति ने, अपने जलन पैदा करने वाले आत्मविश्वास के साथ पिट्सबर्ग सम्मेलन का एजेंडा तय किया था, उसने अंतरराष्ट्रीयवाद से मुंह मोड़ लिया है. उस महाशक्ति ने व्यापार की राह में दरवाज़े बना लिए हैं और अप्रवासियों के ख़िलाफ़ दीवारें खड़ी कर ली हैं, और आज वही महाशक्ति अपने धन और ऊर्जा को दुनिया का सफ़र करने देने के बजाय अपने यहां रोककर रखती है.

लेकिन, नेतृत्व हो या विचार, वैश्विक व्यवस्था को ख़ालीपन से सख़्त चिढ़ है. वक़्त ख़ुद-ब-ख़ुद अपने विकल्प तैयार कर लेता है. और, इसीलिए एक और विशाल लोकतंत्र ये ज़िम्मेदारी साझा करने के लिए उठ खड़ा हुआ है. आज जब अमेरिकी लोकतंत्र अपना दायरा समेट रहा है, तो भारत का गणतंत्र उसकी जगह लेने के लिए आगे आया है. यक़ीन जानिए, भारत के इस उभार को अमेरिका अपने संरक्षण में ही बढ़ावा दे रहा है. हालांकि, अभी उसे कुछ हिचक है, जिससे सभी मौजूदा शक्तियों को जूझना ही होगा.

ये सत्ता का दुर्लभ हस्तांतरण है, जिसमें नए वारिस का स्वागत वो ताक़तें ही कर रही हैं, जो उससे पहले सत्ता में थीं. लेकिन, बहुपक्षीयवाद को लेकर भारत का जो विज़न है, उसका स्वागत अमेरिका भी करता है. क्योंकि भारत का दृष्टिकोण ख़ुद अमेरिका के भले के लिए भी है. दुनिया के दो सबसे बड़े लोकतांत्रिक देशों का ये अनूठा तालमेल, नई दिल्ली में G20 सम्मेलन के दौरान खुलकर देखने को मिला था. अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन ने जब भी मुमकिन हुआ, प्रधानमंत्री मोदी के साथ खड़े होकर एक संदेश दिया.

ऐसा क्यों हुआ, ये समझना आसान है. प्रेसिडेंट ट्रंप ने जिस तरह बहुपक्षीयवाद पर हमला किया, उससे यूरोप में अमेरिका के सबसे पुराने साथी अपमानित महसूस कर रहे थे; ट्रंप के खुले तिरस्कार ने विकासशील देशों को भी अमेरिका से दूर कर दिया था. अमेरिका अभी भी ट्रंप के चार साल के शासन के असर से जूझ रहा है. वो अब भी पुरानी और नई वैश्विक शक्तियों से संबंध सुधारने में जुटा हुआ है. ऐसा लगता है कि अब उसे एक रास्ता दिख गया है.

आज अमेरिका ने भी ये बात अच्छे से समझ ली है कि दुनिया के कई देश और शक्तियां ये चाहते हैं कि भारत, अग्रणी भूमिका निभाए. इस लिहाज़ से दिल्ली घोषणा वैश्विक मामलों में आने वाले बड़े बदलाव की अभिव्यक्ति है.

निश्चित रूप से ये नये स्वेज़ लम्हा है. जैसे 1956 में एक पुरानी महाशक्ति को लगा था कि उसे दुनिया में बदलाव लाने के लिए एक नई शक्ति की ज़रूरत है. उसी तरह आज अमेरिका ने भी ये बात अच्छे से समझ ली है कि दुनिया के कई देश और शक्तियां ये चाहते हैं कि भारत, अग्रणी भूमिका निभाए. इस लिहाज़ से दिल्ली घोषणा वैश्विक मामलों में आने वाले बड़े बदलाव की अभिव्यक्ति है. कम से कम बाइडेन तो इस नतीजे पर पहुंच गए हैं कि भारत के अगुवाई करने में, अमेरिका का भी भला है. इस विचार पर अपने देशवासियों को राज़ी करना उनके लिए ज़्यादा मुश्किल नहीं होगा. हो सकता है कि बाइडेन की अपनी पार्टी के कुछ प्रगतिशील नेता, मीन-मेख निकालें. लेकिन, भारत को अमेरिकी राजनीति के बड़े व्यापक तबक़े का समर्थन हासिल है.

अमेरिका को एहसास होगा कि भारत के साथ मिलकर न केवल 21वीं सदी के मसलों पर काम करना उपयोगी है, बल्कि उसे इस साझेदारी से बीसवीं सदी के भी अपने उन रिश्तों को साधने में मदद मिलेगी, जो अब कमज़ोर पड़ गए हैं. सऊदी अरब के साथ अमेरिका का संबंध इसकी एक शानदार मिसाल है; भारत दोनों को जोड़ने वाली भूमिका अदा करता है, जिससे मूलभूत ढांचे और कनेक्टिविटी के क्षेत्र में नए समझौते होते हैं. और, किसी मंच पर भारत की मौजूदगी से अमेरिका को, ब्राज़ील और दक्षिणी अफ्रीका जैसे दोस्त देशों के साथ भी बातचीत का मौक़ा मिलता है.

जो बाइडेन ये साबित कर रहे हैं कि बराक ओबामा के राष्ट्रपति काल में जो विचार महज़ जुमले बनकर रह गए थे, उन्हें वो अमली जामा पहना सकते हैं. बाइडेन के नेतृत्व में निश्चित रूप से अमेरिका, ‘पीछे से नेतृत्व प्रदान कर रहा है’. दस साल पहले ये जुमला शायद दबदबा जताने वाला रहा हो या फिर साम्राज्यवादी शक्ति दिखाने का एक मुखौटा. लेकिन, आज जबकि दुनिया बदल चुकी है, तो ये जुमला प्रभावी अंतरराष्ट्रीय संबंधों का असली और कारगर नुस्खा बन गया है.

भारत की G20 अध्यक्षता: सबका विकास

बहुपक्षीयवाद के भारत के फॉर्मूले का ब्राज़ील से लेकर मिस्र और दक्षिण अफ्रीका तक उभरती अर्थव्यवस्थाओं ने स्वागत किया है. उन्हें ये यक़ीन है कि बहुपक्षीयवाद को उनकी प्राथमिकताओं वाली दिशा की ओर ले जा सकने के लिए भारत पर भरोसा किया जा सकता है. भारत का नेतृत्व अकेले जमा करके क़ब्ज़ा की गई ताक़त वाला नहीं है. न ही ये वो शक्ति है, जिसका प्रदर्शन भारत ने 1950 के दशक में उस समय किया था, जब वो दो महाशक्तियों की खींचतान के बीच संतुलन साध रहा था. कुछ लोगों को लग रहा था कि ट्रंप के दौर में बहुपक्षीयवाद के पतन और अमेरिका के अंदर की ओर रुख़ कर लेने से अंतरराष्ट्रीय सहयोग का अंत तय है. इसके बजाया आपसी सहयोग की गतिविधियां आज आसमान छू रही हैं. हालांकि, इनका स्वरूप पारंपरिक बहुपक्षीयवाद से अलग और नए तालमेल वाला है.

आज के वैश्विक नेतृत्व को दुनिया की अर्थव्यवस्था को इस तरह ढालने की ज़िम्मेदारी लेनी होगी, जो अभी भी भूमंडलीकरण के नए अवतार से लाभ उठाने की आकांक्षा रखते हैं.

वक़्त ने जो विश्व में नई रूप-रेखा तैयार की है और जिसे भारत ने अपनाया है, वो न तो अमेरिका के इशारों पर नाचने वाली है और न ही चीन का ग़ुलाम बनने वाली है. ये ढांचा कई असंगठित, सबके लिए फ़ायदेमंद और मक़सद पर केंद्रित साझेदारियों वाला है, जो संप्रभु सरकारों के बीच समझौते पर आधारित है. ये समझौते सिद्धांतों और उन देशों की जनता की ज़रूरतों पर केंद्रित हैं. एक तरह से ये ख़ूबियां, पिछले कुछ वर्षों के दौरान  भारत की विदेश नीति के नज़रिए को ही प्रतिबिंबित करती हैं. पिछले एक दशक के दौरान भारत ने एक ऐसे बहुपक्षीयवाद को आगे बढ़ाया है, जो सीमित जवाबदेही और लचीली साझेदारियों के इर्द-गिर्द खड़ा किया गया है; फिर चाहे क्वाड और I2U2 हो या फिर ब्रिक्स (BRICS).

दिल्ली शिखर सम्मेलन के बाद उभरते विश्व को पता है कि भारत की उपलब्धियां उनकी साझा उपलब्धियों से बख़ूबी मेल खाती हैं. आप भारत की G20 अध्यक्षता के दौरान जताई गई प्रतिबद्धताओं पर एक नज़र डालिए- जैविक ईंधन से लेकर अंतरराष्ट्रीय विकास बैंकों को सुधारने तक. इनमें से एक भी ऐसी नहीं है जो बहुत बड़ी- और कई मामलों में तो ये प्रतिबद्धताएं विकासशील देशों के अस्तित्व से जुड़ी अहमियत वाली हैं. और, इन सभी पहलों में भारत या तो उत्प्रेरक रहा है या फिर अगुवा.

आज के वैश्विक नेतृत्व को दुनिया की अर्थव्यवस्था को इस तरह ढालने की ज़िम्मेदारी लेनी होगी, जो अभी भी भूमंडलीकरण के नए अवतार से लाभ उठाने की आकांक्षा रखते हैं. ख़ुशक़िस्मती से अगले दो साल तक दुनिया के सबसे बहुपक्षीय समूह (G20) की अध्यक्षता भारत, ब्राज़ील और दक्षिण अफ्रीका (IBSA) के पास रहेगी. और इन देशों ने बहुत उत्साह से एक दूसरे का समर्थन किया है. जैसे भारत ने पिछले साल बाली में आख़िरी मौक़े पर समझौता कराने में मदद की थी. उसी तरह उभरते बाज़ारों वाली अर्थव्यवस्थाओं ने एक साथ आकर, दिल्ली में आम सहमति को संभव बनाया.

लेकिन, दुनिया में सबसे बड़ी आबादी, विशाल अर्थव्यवस्था और सबसे तेज़ विकास दर की वजह से भारत, इन देशों के बीच भी समकक्षों में अव्वल है. भारत के विशाल भूभाग की वजह से भी इसकी अनदेखी कर पाना असंभव है. ऐसे में नेतृत्व की ज़िम्मेदारी से बचा नहीं जा सकता, भारत अपना ये उत्तरदायित्व निभाने के लिए आगे आया है. भारत महत्वपूर्ण है. और, भारत ने कर दिखाया है. इस तरह से दिल्ली का G20 शिखर सम्मेलन, पिट्सबर्ग के G20 सम्मेलन का बौद्धिक और राजनीतिक उत्तराधिकारी है.

आज से एक पीढ़ी बाद, दुनिया एक बार फिर बदल चुकी होगी. लेकिन, इस बार वो उभरते हुए भारत की शुक्रगुज़ार होगी.

14 साल पहले पिट्सबर्ग सम्मेलन के वक़्त, जो GDP चीन की थी, उतनी ही आज भारत की है. वो बहुत तेज़ी से प्रगति कर रहा था. उसमें लगातार खुलापन, सुधारवाद और गतिशीलता दिख रही थी. एक पीढ़ी कितना बड़ा बदलाव ला सकती है! आज का अस्थिर और अपनी ही चुनौतियों से जूझता हुआ चीन, पूरी दुनिया के लिए चिंता का विषय बन गया है. आज ये ताक़त के स्रोत की जगह फ़िक्र का कारण बन गया है. आज गिने चुने देश ही होंगे जो आने वाले दशकों में अपने विकास में मदद के लिए लड़खड़ाते हुए चीन से सहारा मिलने की अपेक्षा करेंगे.

आज से एक पीढ़ी बाद, दुनिया एक बार फिर बदल चुकी होगी. लेकिन, इस बार वो उभरते हुए भारत की शुक्रगुज़ार होगी. दिल्ली शिखर सम्मेलन के ज़रिए गढ़ी गई दुनिया, जनता पर केंद्रित सिद्धांतों और भरोसे पर आधारित फुर्तीली साझेदारियों वाली होगी. ये ऐसी दुनिया होगी जिसमें मानवता के इतिहास में पहली बार वैश्विक प्रशासन, दुनिया की बहुसंख्यक आबादी की ज़रूरतें पूरी करने की दिशा में आगे बढ़ेगा. इस बात को भारत के विदेश मंत्री डॉक्टर एस जयशंकर ने बख़ूबी बयान किया. उन्होंने हमें बताया कि, ये G20 सम्मेलन दुनिया को भारत के लिए और भारत को दुनिया के लिए तैयार कर रहा है.


ये विश्व आर्थिक मंच में पहले प्रकाशित हो चुके लेख का अपडेटेड संस्करण है.

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