Published on Dec 27, 2022 Updated 0 Hours ago

ईडब्ल्यूएस कोटा पर सुप्रीम कोर्ट के हाल के निर्णय से भारत में सकारात्मक कार्रवाई के विमर्श की प्रक्रिया आगे बढ़ने के साथ-साथ आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए अनुकूल वातावरण उपलब्ध होने की उम्मीद है.

EWS Quota: आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्ग का नया कोटा; सकारात्मक कार्रवाई का परिवर्तित विचार!
EWS Quota: आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्ग का नया कोटा; सकारात्मक कार्रवाई का परिवर्तित विचार!

हाल ही में सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) की पांच सदस्यीय बेंच ने जनहित अभियान बनाम भारत संघ (2019 का WP 55) केस में 3:2 के बहुमत से सुनाए गए अपने निर्णय में ईडब्ल्यूएस कोटा (EWS Quota) क़ानून को संवैधानिक रूप से सही ठहराया है. जनवरी 2019 में संसद ने 103वां संशोधन अधिनियम, 2019 पारित किया था, जिसमें आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्गों (EWS) के लिए नौकरियों और शिक्षा में 10 प्रतिशत सीटों के आरक्षण का विशेष प्रावधान किया गया है. ये लोग पहले से मौजूद जाति आधारित आरक्षण यानी अनुसूचित जाति (SC), अनुसूचित जनजाति (ST) और अन्य पिछड़ा वर्ग OBC) के लिए योग्य नहीं हैं. इस संशोधन में संविधान के अनुच्छेद 15 और 16 में बदलाव शामिल हैं, जिसमें समानता का अधिकार सम्मिलित है और इसी से आरक्षण के लिए क़ानूनी आधार तैयार किया गया है. यह नीति उन लोगों को आरक्षण का लाभ प्रदान करेगी, जिनकी वार्षिक पारिवारिक आय 8 लाख रुपये से कम है, हालांकि जिनके पास 5 एकड़ से अधिक कृषि भूमि या 1,000 वर्ग फुट आवासीय भूमि है, उन परिवारों को ईडब्ल्यूएस कोटे के अंतर्गत आरक्षण का लाभ नहीं मिलेगा.

संसद में विधेयक पारित होने के दौरान, अधिकांश राजनीतिक दलों ने क़ानून का समर्थन किया, हालांकि विपक्षी दलों ने केंद्र सरकार पर बिना किसी बहस और परामर्श के ज़ल्दबाजी में विधेयक पारित करने का आरोप लगाया.

संसद में विधेयक पारित होने के दौरान, अधिकांश राजनीतिक दलों ने क़ानून का समर्थन किया, हालांकि विपक्षी दलों ने केंद्र सरकार पर बिना किसी बहस और परामर्श के ज़ल्दबाजी में विधेयक पारित करने का आरोप लगाया. इसके बाद, इस क़ानून की संवैधानिक वैधता को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट में कई याचिकाएं दायर की गईं. अधिनियम के ख़िलाफ़ विपक्ष के प्रमुख बिंदुओं में जो बातें शामिल हैं, उनमें सबसे पहले, एक आशंका यह है कि यह आरक्षण की 50 प्रतिशत के ऊपरी बैरियर का उल्लंघन करता है, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने इंद्रा साहनी (1992) के जजमेंट में सुनाया था. दूसरा, संविधान ने स्पष्ट रूप से सिर्फ़ आर्थिक मानदंड के आधार पर आरक्षण का कोई प्रावधान प्रदान नहीं किया है. तीसरा, इस क़ानून पर भेदभावपूर्ण होने का आरोप लगाया गया है, क्योंकि एससी, एसटी और ओबीसी को इसके दायरे से बाहर रखा गया है. तर्क दिया गया है कि ये सभी वर्ग पहले से ही मौज़ूदा जाति-आधारित आरक्षण नीति में शामिल हैं. हालांकि, सुप्रीम कोर्ट द्वारा केंद्र सरकार की तरफ से पारित ईडब्ल्यूएस आरक्षण क़ानून पर अपनी हालिया मुहर का भारत में सकारात्मक कार्रवाई के विचार-विमर्श पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ा है, और इस तथ्य पर विशेष तौर पर ध्यान देना ज़रूरी है.

व्यक्तिगत पहचान और सकारात्मक कार्रवाई

सबसे पहले, एससी, एसटी और ओबीसी के लिए पहले से मौज़ूद आरक्षण उनके समूह की पहचान पर आधारित है, जबकि ईडब्ल्यूएस आरक्षण के लिए बना नया अधिनियमित क़ानून उन लोगों के आर्थिक मानदंडों पर आधारित है, जो अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग श्रेणियों से संबंधित नहीं हैं. इसलिए, नए क़ानून ने न केवल भारत में सकारात्मक कार्रवाई के दायरे को बढ़ाने का काम किया, जिसमें अब जाति-आधारित और वर्ग-आधारित दोनों ही सुरक्षा शामिल हैं, बल्कि यह एक समूह-केंद्रित नज़रिए से एक ऐसी आरक्षण नीति की ओर भी बढ़ गया है, जो व्यक्तियों के इनकम पैरामीटर के आधार पर उनकी आरक्षण ज़रूरतों को पूरा करता है. ज़ाहिर है कि जाति-आधारित आरक्षण जन्म-आधारित सामूहिक जाति पहचान पर ज़ोर देता है, जो कि काफ़ी हद तक अपरिवर्तनीय है और जिसे सामाजिक रूप से लागू किया गया है. देखा जाए तो इस तरह के लक्षित समूह की पहचान करना ज़्यादा सहज रहा है, जिसे कल्याण और उत्थान के लिए सकारात्मक कार्रवाई की ज़रूरत है.

ज़ाहिर है कि जाति-आधारित आरक्षण जन्म-आधारित सामूहिक जाति पहचान पर ज़ोर देता है, जो कि काफ़ी हद तक अपरिवर्तनीय है और जिसे सामाजिक रूप से लागू किया गया है. 

इसके अलावा, जाति-आधारित आरक्षण ने एकरूपता या सजातीयता की स्थिति का पालन किया है, जिसके लिए यह आवश्यक है कि जो समूह लाभ का हक़दार है, वो एक तरह का नुकसान भी साझा करता है. हालांकि, नई ईडब्ल्यूएस कैटेगरी एक प्रवाही आर्थिक श्रेणी के लोगों को लक्षित करती है, यानी ऐसे लोगों को लक्षित करती है जिनकी आय बदलती रहती है. दूसरे आसान शब्दों में कहा जाए तो चूंकि व्यक्तियों की आय और वित्तीय स्थिति अलग-अलग समय पर अलग-अलग हो सकती है, इसलिए इस आरक्षण नीति के लिए वास्तविक लक्षित क्षेत्रों एवं लोगों की पहचान करना एक बड़ी चुनौती हो सकती है. इसके अलावा, इसमें शामिल 8 लाख रुपये की वार्षिक आय कट-ऑफ का औचित्य, जो राष्ट्रीय स्तर पर सालाना प्रति व्यक्ति आय से बहुत ज़्यादा है. 8 लाख रुपये वार्षिक आय की सीमा जनसंख्या के एक बड़े हिस्से को इस श्रेणी में शामिल करेगी. इसके अलावा, प्रत्यक्ष आय को लेकर आंकड़ों की कमी और लोगों द्वारा गलत इनकम घोषित करने की संभावना, इस आरक्षण नीति को प्रभावी ढंग से लागू करने में और भी ज़्यादा व्यवधान पैदा कर सकती है. इसलिए, ज़्यादा सटीक लक्ष्य समूहों की पहचान करने के लिए अधिक विस्तृत आंकड़े और दिशानिर्देश यह सुनिश्चित करने के लिए बेहद अहम हो सकते हैं कि अत्यंत ज़रूरतमंद लोगों को ही इस आरक्षण नीति का लाभ मिले.

आरक्षण यानी कल्याण का माध्यम

सबसे अहम बात यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने ईडब्ल्यूएस आरक्षण नीति को बरक़रार रखते हुए इस विचार को अपनी स्वीकृति दे दी है कि जाति-पहचान से परे भी सुरक्षा देने के लिए आरक्षण प्रदान किया जा सकता है, साथ ही आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्गों के लिए अलग आरक्षण की व्यवस्था की जा सकती है. इसने भारत में सकारात्मक कार्रवाई के तर्क का एक लिहाज़ से विस्तार किया है. ज़ाहिर है कि आज़ादी के बाद से ही आरक्षण नीति को केवल ऐतिहासिक रूप से हाशिए पर रहने वाले जाति-आधारित समुदायों के सामाजिक शोषण, भेदभाव के मिटाने और कमज़ोर जाति समूहों के पिछड़ेपन को दूर करने के लिए एक सबसे बहेतर उपाय के रूप में माना जाता रहा है.

अब, ईडब्ल्यूएस के अधिनियमन के साथ आरक्षण को ग़रीबी, आर्थिक अभाव और बेरोज़गारी की मौज़ूदा समस्याओं को दूर करने के लिए इंडियन स्टेट्स के कल्याणवाद के सशक्त माध्यम के रूप में देखा जा सकता है. इसलिए, आरक्षण नीति, जिसे अब तक सिर्फ़ समावेशी प्रतिनिधित्व एवं ऐतिहासिक रूप से हाशिए पर पड़ी जातियों के लिए समान अवसर उपलब्ध कराने के तौर पर माना जाता था, अब यह नीति एक समूह के बजाए व्यक्तियों से जुड़ी आर्थिक असमानताओं से लड़ने के लिए कथित रूप से सामाजिक या राजनीतिक स्वतंत्रता और अधिकार देने का साधन बन गई है. कल्याणकारी राजनीति के क़दमों ने पहले से ही भारत में चुनावी लामबंदी के लिए अपनी क्षमताओं को बखूबी दिखाया है. ईडब्ल्यूएस आरक्षण नीति के माध्यम से लोगों के कल्याण से जुड़े विचार का विस्तार, जो पिछड़ी जातियों से अलग एक नए समूह को लक्षित करता है, सकारात्मक कार्रवाई के अन्य रूपों के प्रति लगों को एकजुट करने के लिए एवं और ज़्यादा आवश्यकताओं, इच्छाओं के लिए दरवाजे खोल सकता है. इसके भारत की लोकतांत्रिक राजनीति और शासन की संरचना के प्रतिस्पर्धी माहौल पर अप्रत्यक्ष प्रभाव हो सकते हैं.

आरक्षण नीति, जिसे अब तक सिर्फ़ समावेशी प्रतिनिधित्व एवं ऐतिहासिक रूप से हाशिए पर पड़ी जातियों के लिए समान अवसर उपलब्ध कराने के तौर पर माना जाता था, अब यह नीति एक समूह के बजाए व्यक्तियों से जुड़ी आर्थिक असमानताओं से लड़ने के लिए कथित रूप से सामाजिक या राजनीतिक स्वतंत्रता और अधिकार देने का साधन बन गई है.

इसलिए, यह कहना उचित होगा कि ईडब्ल्यूएस क़ानून से भारत में सकारात्मक कार्रवाई के संवाद की प्रकिया आगे बढ़ने के साथ ही आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए अनुकूल वातावरण उपलब्ध होने की उम्मीद है. इस संदर्भ में, यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि अवसर की समानता का अधिकार, शिक्षा का अधिकार और सम्मानजनक सामाजिक-आर्थिक जीवन के लिए रोज़गार तक पहुंचने की परिस्थियां, भारत की संवैधानिक कल्पना का मूल आधार रही हैं. इतना ही नहीं, इन्हीं सबने मिलकर भारत में प्रतिनिधि लोकतंत्र की नींव रखी है. इसलिए, गहराती आर्थिक असमानता एवं पहचान, आकांक्षाओं और संसाधनों तक पहुंच के इर्द-गिर्द लगातार बढ़ती राजनीति के साथ-साथ सामाजिक-आर्थिक न्याय पर आधारित राजनीति का एक नया पहलू भारत में सकारात्मक कार्रवाई के विचार-विमर्श को ना केवल और आगे बढ़ा सकता है, बल्कि उसे एक नया आकार भी दे सकता है.

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