ये लेख "2024 से क्या-क्या उम्मीदें" सीरीज़ का हिस्सा है.
वैश्विक भू-राजनीति एक निर्णायक मोड़ पर है. शीत युद्ध के बाद इस समय दुनिया सबसे ज़्यादा सैन्य संघर्ष का सामना कर रही है. दुनिया भर में तनाव में ये बढ़ोतरी महसूस की जा रही है और इसकी वजह से हर महाद्वीप में अंतर्राष्ट्रीय संबंधों पर असर पड़ रहा है. दो बड़े संघर्ष इस परिदृश्य में और ज़्यादा हावी होंगे: पहला संघर्ष है रूस की तरफ से शुरू यूक्रेन में चल रहा युद्ध और दूसरा मध्य पूर्व में इज़रायल-हमास का टकराव. वैसे तो इन संघर्षों का अंत निकट भविष्य में नज़र नहीं आता लेकिन संभावित कूटनीतिक बातचीत और 2024 में युद्ध विराम को लेकर पहली वार्ता के संकेत उभर रहे हैं. बढ़ता अंतर्राष्ट्रीय दबाव, ख़ास तौर पर चीन और रूस के समर्थन से अरब देशों का दबाव, मिडिल ईस्ट में दो देशों के समाधान की वकालत करता है. यूक्रेन को पूरी तरह झुकाने की रूस की अडिग महत्वाकांक्षा यूरोपीय महादेश की क्षेत्रीय स्थिरता के लिए ख़तरा बनी रहेगी. पश्चिमी देशों के द्वारा यूक्रेन को सैन्य सहायता और वित्तीय समर्थन में कमी से 2024 में रूस का और क्षेत्रीय विस्तार होगा. मध्य पूर्व में दो देशों के समाधान की तरफ एक संभावित कूटनीतिक हल भी गज़ा पट्टी में ख़ौफ़नाक मानवीय स्थिति को कम नहीं करेगा. इस तरह फिलिस्तीन को आने वाले वर्षों में पुनर्निर्माण की बहुत बड़ी चुनौती से दो-चार होना होगा.
मध्य पूर्व में दो देशों के समाधान की तरफ एक संभावित कूटनीतिक हल भी गज़ा पट्टी में ख़ौफ़नाक मानवीय स्थिति को कम नहीं करेगा. इस तरह फिलिस्तीन को आने वाले वर्षों में पुनर्निर्माण की बहुत बड़ी चुनौती से दो-चार होना होगा.
इसके अलावा 2023 ने नागोर्नो-काराबाख में जातीय संहार की भयानक घटना को भी देखा. जातीय रूप से आर्मेनिया के क्षेत्र में अज़रबैजान की सैन्य कार्रवाई की वजह से आर्मेनिया के लगभग 1,20,000 लोग विस्थापित हो गए. हालांकि 2024 में आर्मेनिया-अज़रबैजान के संबंधों के सामान्य होने की संभावना भू-राजनीति में एक दुर्लभ सकारात्मक घटनाक्रम की तस्वीर पेश करेगी. ये वैश्विक व्यापार के रूट के लिए फायदेमंद है, ख़ास तौर पर ईरान और मध्य एशिया के ज़रिए रूस तक इंटरनेशनल नॉर्थ साउथ ट्रांसपोर्ट कॉरिडोर (INSTC) के लिए. ये रूट इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि इंडिया-मिडिल ईस्ट-यूरोप कॉरिडोर (IMEC) परियोजना को इज़रायल-हमास संघर्ष के बाद खाड़ी क्षेत्र में सैन्य तनाव की वजह से रोक दिया गया है और लाल सागर में बाब अल-मंदाब में भीड़-भाड़ के कारण रुकावट है.
इसके अलावा इंडो-पैसिफिक में अमेरिकी असर और विश्वसनीयता को चुनौती देने के लिए चीन और रूस के द्वारा तीसरा मोर्चा खोलने की संभावना ज़्यादा है, ख़ास तौर पर अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव के पहले. यूक्रेन में अपने युद्ध के लिए गोला-बारूद के बदले रूस की तरफ से उत्तर कोरिया को रॉकेट और सैटेलाइट तकनीक की सप्लाई जारी रहेगी. इस बीच में चीन दक्षिण और पूर्व चीन सागर में सैन्य तनाव बढ़ा रहा है जिससे भू-राजनीतिक स्थिति मुश्किल हो जाएगी. ये जटिल पृष्ठभूमि शीत युद्ध 2.0 जैसे परिदृश्य का इशारा कर रही है जिसमें अमेरिका, चीन और रूस शामिल होंगे. हालांकि सीधे तौर पर सैन्य भिड़ंत का ख़तरा कम है. इस तरह की भू-राजनीतिक परिस्थिति राजनीतिक अर्थव्यवस्था, तकनीकी परिदृश्य और वैश्विक मानदंडों, नियमों एवं मानकों के विकास पर बहुत ज़्यादा असर डालेगी जो 2024 में वैश्विक साझेदारी और गठबंधन को और नया आकार देगी.
भू-राजनीतिक परिदृश्य
इस भू-राजनीतिक परिदृश्य में भारत संभावित रूप से बहुत ज़्यादा लाभ उठाने वाले देश के तौर पर उभर रहा है. वो रणनीतिक तौर पर अमेरिका, चीन और रूस के हितों के टकराव के बीच मौजूद है. 2024 के चुनाव के बाद घरेलू और क्षेत्रीय स्थिरता पर भारत का ध्यान बढ़ने की उम्मीद है. ग्लोबल सप्लाई चेन में रुकावट और अमेरिका-चीन के एक-दूसरे से अलग होने के बीच दुनिया भर की पूंजी, नए तकनीकी निवेश और वैश्विक एवं क्षेत्रीय साझेदारी में बढ़ोतरी के उद्देश्य से भारत एक प्रमुख मंज़िल बनने के लिए तैयार है. भारत के राजनीतिक नेतृत्व के बारे में पूर्वानुमान में आसानी और स्थिरता के साथ ब्रिक्स एवं G20 जैसे संगठनों के भीतर पश्चिमी देशों का अधिक जुड़ाव भारत की स्थिति को और मज़बूत करेगा. हालांकि भारत के सामने आने वाले वर्षों में आतंकवाद और जलवायु से जुड़ी घटनाओं का ख़तरा है.
एशिया की बड़ी ताकतों, ख़ास तौर पर चीन और भारत, के बीच संबंध को ज़्यादा भू-राजनीतिक और भू-आर्थिक महत्व हासिल होगा
इसके विपरीत यूरोप अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में मौजूदा बदलाव, जिसकी विशेषता वैश्विक प्रणाली का विभाजन है, के प्रमुख भू-राजनीतिक शिकार के रूप में लग रहा है. साल 2022 में यूरोप के लिए सबसे उथल-पुथल भरे दौर की शुरुआत हुई. ये ऐसा रुझान है जिसके बारे में अनुमान लगाया जा रहा है कि आने वाले वर्षों में इसमें और बढ़ोतरी होगी. इसका कारण एक साथ मौजूद जनसांख्यिकीय (डेमोग्राफिक), संरचनात्मक और व्यवस्थात्मक चुनौतियां हैं. इसके अलावा 2024 के चुनावी चक्र के दौरान यूरोप में और ज़्यादा राजनीतिक ध्रुवीकरण होना तय है. इस दौरान लोगों को लुभाने के लिए दक्षिण और वामपंथी राजनीतिक दृष्टिकोण में तेज़ी आने की उम्मीद है, साथ ही यूरोप के संस्थानों के भीतर महत्वपूर्ण बदलाव आएगा. ये अवधि दबदबा रखने वाली परंपरागत और मध्यमार्गी पार्टियों, जिन्होंने ऐतिहासिक रूप से मध्यम वर्ग के एक बड़े हिस्से की नुमाइंदगी की है, के युग के निश्चित अंत का संकेत देती है. इन राजनीतिक उथल-पुथल को और बढ़ाते हुए यूरोप एक बिगड़ती आर्थिक स्थिति का भी सामना करेगा. आर्थिक स्थिति में गिरावट का कारण सुरक्षा के हालात में ख़राबी के साथ-साथ चीन के साथ जटिल संबंध भी है. ये गिरावट उस वक्त आ रही है जब 2024 में एक नये ‘आयरन कर्टेन’ (दूसरे विश्व युद्ध के बाद से शीत युद्ध के ख़त्म होने तक यूरोप को दो भागों में बांटने वाली राजनीतिक उपमा) का उदय हो रहा है जो स्कैंडिनेवियन देशों से बाल्टिक, मध्य एवं पूर्वी यूरोप से होते हुए काला सागर और तुर्की तक फैला है. ये एक महत्वपूर्ण भू-राजनीतिक बदलाव को दिखाता है.
इस परिदृश्य में ‘मिडिल पावर’ या ‘स्विंग स्टेट’ (जो देश महाशक्ति नहीं हैं लेकिन जिनका अच्छा-ख़ासा असर और अंतर्राष्ट्रीय मान्यता है) के द्वारा अपनी सामरिक स्थिति, तकनीकी कौशल या महत्वपूर्ण कच्चे माल और दुर्लभ धातुओं तक पहुंच की वजह से अपनी भू-राजनीतिक अहमियत का बढ़ाना तय है. इनमें से कई प्रभावी देश ग्लोबल साउथ में स्थित हैं और मेक्सिको, इंडोनेशिया, ब्राज़ील एवं तुर्किए जैसे देश वैश्विक मंच पर अपनी मौजूदगी बढ़ाने के लिए तैयार हैं. जैसे-जैसे हम भविष्य की तरफ देखते हैं, वैसे-वैसे ये साफ होता है कि 2024 एक नई विश्व व्यवस्था की बुनियाद रखेगा जो कि पांच प्रमुख भू-राजनीतिक रुझानों से तय होगा. इनमें वैश्विक प्रणाली का चल रहा विभाजन और अमेरिका एवं चीन के बीच कभी न ख़त्म होने वाला अलगाव शामिल है जो वैश्विक अर्थव्यवस्था, व्यापार और महत्वपूर्ण सप्लाई चेन के रास्तों में रुकावट डालने के लिए तैयार हैं. जिन महत्वपूर्ण रास्तों पर नज़र डालने की ज़रूरत है उनमें लाल सागर, स्ट्रेट ऑफ होर्मुज, स्ट्रेट ऑफ मलक्का, काला सागर, ताइवान स्ट्रेट और पनामा एवं स्वेज़ नहर शामिल हैं. इसके अलावा मज़बूती से कोई पक्ष लिए बिना अमेरिका और चीन के बीच झूल रहे देशों का कमज़ोर भू-राजनीतिक जुड़ाव वैश्विक संगठनों और नेटवर्क की स्पष्टता को नष्ट करना जारी रखेगा. एशिया की बड़ी ताकतों, ख़ास तौर पर चीन और भारत, के बीच संबंध को ज़्यादा भू-राजनीतिक और भू-आर्थिक महत्व हासिल होगा. 2024 में कुछ तनाव पैदा हो सकता है लेकिन क्षेत्रीय स्थिरता को सुनिश्चित करने के उद्देश्य से दोनों देशों के द्वारा अपने संबंध को बनाए रखने की दिशा में कोशिश करने की उम्मीद की जाती है. आख़िर में लेकिन महत्वपूर्ण बात, ‘ड्रैगनबियर’ तौर-तरीके का उभरना एक अहम घटनाक्रम है. ये वैश्विक भू-राजनीति में चीन और रूस के बीच एक सामरिक तालमेल है जो कि इंडो-पैसिफिक में अमेरिका की सामरिक धुरी के ख़िलाफ़ तैयार की गई है. ये यूरोप के भू-राजनीतिक महत्व को और कम करता है.
अमेरिका और ‘ड्रैगनबियर’ के बीच शीत युद्ध 2.0 का नया युग मौजूदा वैश्विक प्रणाली के व्यापक तौर पर एक-दूसरे से जुड़ा होने की वजह से बहुत ज़्यादा अप्रत्याशित, अस्थिर और उथल-पुथल भरा रहने की उम्मीद है. इंटरवॉर पीरियड (पहले विश्व युद्ध के ख़त्म होने के बाद से दूसरे विश्व युद्ध के शुरू होने तक का समय) की तरह मौजूदा युग को भी पहले और दूसरे शीत युद्ध के बीच राहत की छोटी सी अवधि के तौर पर देखा जा सकता है. मौजूदा समय अपने परिवर्तन वाले स्वरूप में दूसरे विश्व युद्ध के बाद के युग की पहली अवधि की तरह दिखता है. अनिश्चितताओं के बावजूद 2024 के लिए आशावादी अनुमान हैं जैसे कि तीसरा विश्व युद्ध नहीं होना या अमेरिका, चीन एवं रूस के बीच सीधा सैन्य संघर्ष नहीं होना; ताइवान पर चीन के द्वारा सैन्य हमले का अपेक्षाकृत कम ख़तरा; और यूक्रेन के ख़िलाफ रूस के द्वारा परमाणु हथियार का इस्तेमाल नहीं.
आगे की राह
इस बंटे हुए वैश्विक परिदृश्य में वैश्विक प्रणाली को अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में एक संतुलित दृष्टिकोण अपनाना चाहिए जिसमें बीच की ताकतों (मिडिल पावर) और भारत जैसी तेज़ी से बढ़ रही भू-राजनीतिक शक्ति के गठबंधन का अहम योगदान हो. ऐसा करने में नाकामी का नतीजा बंटे हुए समाज, भू-राजनीति में ध्रुवीकरण और विभाजित आर्थिक एवं व्यापार संबंधों के रूप में निकल सकता है. मौजूदा हालात को लेकर लेनिन के ये शब्द गूंजते हैं, “कई दशक ऐसे होते हैं जिनमें कुछ नहीं होता है और कई हफ्ते ऐसे होते हैं जिनमें दशकों की चीज़ें हो जाती हैं”. 2024 महत्वपूर्ण बदलाव का साल बनने के लिए तैयार है जिसमें घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय- दोनों मोर्चों पर बहुत अधिक परिवर्तन होंगे.
वेलिना चकारोवा FACE की संस्थापक और ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में विज़िटिंग फेलो हैं.
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