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संयुक्त राष्ट्र ने वर्ष 2015 में सतत विकास लक्ष्यों (SDGs) को अपनाया था. संयुक्त राष्ट्र द्वारा पेश किए गए ये 17 सतत विकास लक्ष्य एक दूसरे पर निर्भर हैं और इनका मकसद वर्ष 2030 तक ग़रीबी, असमानता, जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण को हो रहे नुक़सान जैसी तमाम वैश्विक चुनौतियों से निपटना है. ज़ाहिर है कि इन सतत विकास लक्ष्यों का उद्देश्य बहुत व्यापक है, बावज़ूद इसके इनमें तमाम विरोधाभास भी हैं, जिनकी वजह से इन्हें लागू करने में दिक़्क़तों का सामना करना पड़ता है. उदाहरण के तौर पर एसडीजी 8 में जहां तेज़ी से आर्थिक प्रगति की बात कही गई है, वहीं एसडीजी 13 में जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों का मुक़ाबला करने के लिए बगैर समय गंवाए क़दम उठाने पर ज़ोर दिया गया है. ज़ाहिर है कि अलग-अलग एसडीजी के बीच यह टकराव विकास, पारिस्थितिक स्थिरता और जन कल्याण के बीच संतुलन स्थापित करने के दौरान आने वाली मुश्किलों को सामने लाता है.
भारत ग्लोबल साउथ के देशों की एक मुखर आवाज़ बनकर उभरा है और सतत विकास लक्ष्यों को हासिल करने में आने वाली दिक़्क़्तों को दूर करने एवं इन्हें पाने में तेज़ी लाने में उसकी भूमिका बेहद अहम है.
देखा जाए तो कुल सतत विकास लक्ष्यों में से सिर्फ़ 16 प्रतिशत एसडीजी में ही प्रगति दिखाई दे रही है. कई महत्वपूर्ण मुद्दों को लेकर निर्धारित किए गए एसडीजी जैसे कि भूख (एसडीजी 2), टिकाऊ शहर (एसडीजी 11), जैव विविधता (एसडीजी 14 और 15) और न्याय (एसडीजी 16) अपने लक्ष्यों को हासिल करने में नाक़ाम साबित हो रहे हैं. इसके अलावा जैव विविधता को पहुंच रहे नुक़सान, मोटापे की बढ़ती समस्या, प्रेस की स्वतंत्रता में आ रही कमी और कोविड-19 महामारी की वजह से मनुष्य की औसत आयु में आई कमी यानी जीवन प्रत्याशा पर पड़ते प्रभाव (एसडीजी 3) जैसी चुनौतियों ने इन सतत विकास लक्ष्यों की प्रगति में और ज़्यादा रुकावटें पैदा करने का काम किया है. इसके अलावा, एक तथ्य यह भी है कि नॉर्डिक देश एसडीजी के लक्ष्यों को हासिल करने में सबसे आगे हैं, जबकि ब्रिक्स देशों में भी इस दिशा में संतोषजनक प्रगति दिखाई दे रही है, लेकिन कम विकसित देशों की हालत बहुत बदतर है और वे इन लक्ष्यों को पाने में पिछड़ते जा रहे हैं. इस वजह से वैश्विक स्तर पर असमानता लगातार बढ़ती जा रही है. इन सतत विकास लक्ष्यों को वर्ष 2030 तक प्राप्त करने की समय सीमा तय की गई है और जैसे-जैसे यह निकट आती जा रही है, वैसे-वैसे इन लक्ष्यों को प्रभावशाली तरीक़े से हासिल करने में नई रणनीतियों को लागू करने ज़रूरत बढ़ रही है. भारत ग्लोबल साउथ के देशों की एक मुखर आवाज़ बनकर उभरा है और सतत विकास लक्ष्यों को हासिल करने में आने वाली दिक़्क़्तों को दूर करने एवं इन्हें पाने में तेज़ी लाने में उसकी भूमिका बेहद अहम है.
ग्लोबल साउथ में एसडीजी के लिए वित्तीय आवश्यकताओं का समाधान
बुनियादी ढांचा, स्वास्थ्य सेवाओं और तकनीक़ी क्षमता के क्षेत्रों में देखा जाए तो विकसित और विकासशील देशों के बीच बहुत ज़्यादा अंतर होता है. इसी वजह से ग्लोबल साउथ के देशों में एसडीजी को लागू करने और नतीज़े हासिल करने में तमाम मुश्किलें आती हैं. इनमें एसडीजी के लिए वित्तपोषण सबसे बड़ी मुश्किलों में से एक है. कोविड-19 महामारी से पहले के आंकड़ों पर नज़र डालें, तो विकासशील देशों में सालान आधार पर एसडीजी वित्तपोषण का अंतर लगभग 2.5 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर था. संयुक्त राष्ट्र के अनुमानों के मुताबिक़, कोरोना महामारी के बाद इस मामले में हालात बदतर होते चले गए और एसडीजी के लिए वित्तपोषण में ये कमी 4.2 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर प्रतिवर्ष तक पहुंच गई है. इस कमी को दूर करने में भारत महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है, ख़ास तौर पर भारत जी20 समूह के ज़रिए सस्टेनेबल डेवलपमेंट बॉन्ड गारंटी की बात ज़ोरदार तरीक़े से उठा सकता है. अगर ऐसा होता है, तो मल्टीलेटरल विकास बैंकें विकासशील देशों में एसडीजी को केंद्र में रखकर चलाई जा रही परियोजनाओं के लिए क्रेडिट गारंटी उपलब्ध करा सकते हैं.
चित्र 1: प्रमुख सतत विकास लक्ष्यों के लिए पूंजीगत व्यय की ज़रूरत (ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर)
Source: World Economic Forum, 2023
यूनाइटेड नेशन्स कॉन्फ्रेंस ऑन ट्रेड एंड डेवलपमेंट (UNCTAD) के अनुमानों के मुताबिक़ वर्ष 2021 से 2022 के बीच विकासशील देशों के लिए आधिकारिक विकास सहायता (ODA) में 2 प्रतिशत की कमी आई है, जबकि अफ्रीका, एशिया, ओशिनिया एवं सबसे कम विकसित देशों के लिए आधिकारिक विकास सहायता में 3.5 प्रतिशत से ज़्यादा की कमी दर्ज़ की गई है. अफ्रीकी और इंडो-पैसिफिक देशों के साथ भारत द्वारा संयुक्त विकास परियोजनाओं के ज़रिए जो साझेदारियां की गई हैं, वो बताती हैं कि इस तरह के गठबंधन कितने फायदेमंद साबित होते हैं. लेकिन विकासशील देशों के साथ जो सबसे बढ़ी समस्या, उनका अर्थिक और तकनीक़ी लिहाज़ से अधिक मज़बूत नहीं होना है. इस वजह से उन्हें इस तरह की साझेदारियां करने में मुश्किल होती है.
विश्व बैंक के अनुमानों के मुताबिक़ जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों की वजह से वर्ष 2030 तक 13.2 करोड़ लोग ग़रीबी की गिरफ़्त में आ सकते हैं, सबसे बड़ी बात यह है कि इनमें से ज़्यादातर लोग विकासशील देशों में निवास करते हैं. भारत की बात की जाए, तो खेती-किसानी करने वाले 60 प्रतिशत से अधिक लोग बारिश पर निर्भर हैं.
एसडीजी की प्रगति में सबसे बड़ी बाधा जलवायु परिवर्तन से जुड़ी चुनौतियां
कई सतत विकास लक्ष्यों को पाने में जलवायु परिवर्तन व्यापक स्तर पर चुनौती पेश करता है, विशेष रूप से दक्षिण एशिया के विकासशील देशों में यह एक कड़वी सच्चाई है. इन देशों में खाद्य सुरक्षा (एसडीजी 2), साफ पानी तक सभी की पहुंच (एसडीजी 6) और ग़रीबी उन्मूलन (एसडीजी 1) के लक्ष्यों को हासिल करने में जलवायु परिवर्तन बड़ी रुकावट बनकर उभरा है. विश्व बैंक के अनुमानों के मुताबिक़ जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों की वजह से वर्ष 2030 तक 13.2 करोड़ लोग ग़रीबी की गिरफ़्त में आ सकते हैं, सबसे बड़ी बात यह है कि इनमें से ज़्यादातर लोग विकासशील देशों में निवास करते हैं. भारत की बात की जाए, तो खेती-किसानी करने वाले 60 प्रतिशत से अधिक लोग बारिश पर निर्भर हैं. निश्चित तौर पर जलवायु परिवर्तन की वजह से जिस प्रकार से बारिश के समय में बदलाव हो रहा है, चरम मौसमी घटनाओं में वृद्धि हो रही है और तापमान बढ़ रहा है, उससे खेती करने वालों पर असर पड़ना लाज़िमी है. भारत में नवीकरणीय ऊर्जा के क्षेत्र में काफ़ी काम किया जा रहा है, लेकिन जलवायु अनुकूलन के क्षेत्र में और ज़्यादा ध्यान देने की ज़रुरत है, कहने का मतलब है कि देश के ग्रामीण और संवेदनशील क्षेत्रों में रहने वाले कमज़ोर लोगों पर पड़ने वाले जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से निपटने के लिए गंभीरता से कार्य करने की ज़रूरत है.
सतत विकास लक्ष्यों को पाने के लिए व्यापक स्तर पर निवेश की ज़रूरत है और इसे पूरा करने में निजी सेक्टर बेहद महत्वपूर्ण है. ख़ास तौर पर इंफ्रास्ट्रक्चर एवं टिकाऊ शहरी विकास से संबंधित एडीजी के लिए ज़रूरी निवेश में निजी सेक्टर की भूमिका बेहद अहम है. स्मार्ट सिटीज मिशन और सरकारी-निजी भागीदारी (PPP) से संचालित अन्य परियोजनाओं के ज़रिए भारत ने इन लक्ष्यों को पाने में ज़बरदस्त क़ामयाबी हासिल की है. हालांकि, कई मामलों में शहरी विकास से जुड़ी इन परियोजनाओं को समुचित नियम-क़ानूनों के आभाव, जोख़िमों के बारे सटीक जानकारी नहीं होने और स्पष्ट दिशानिर्देशों की कमी जैसी समस्याओं का भी सामना करना पड़ता है. इन समस्याओं के कारण बड़ी परियोजनाओं के लिए निवेशकों को आकर्षित करने में परेशानी होती है. विशेष रूप से स्वच्छ ऊर्जा और टिकाऊ परिवहन जैसे सेक्टरों से जुड़ी परियोजनाओं में निवेश आकर्षित करना बहुत कठिन हो जाता है. ज़ाहिर है कि इन सेक्टरों में शुरूआत में बहुत अधिक पूंजी की ज़रूरत होती है और तुलनात्मक रूप से वित्तीय रिटर्न मिलने में काफ़ी वक़्त लग सकता है.
जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों एवं पर्यावरण को हो रहे नुक़सान की वजह से दुनिया भर में लोगों को अपने रिहाइशी क्षेत्रों को छोड़कर दूसरी जगह पर विस्थापित होने के लिए विविश होना पड़ रहा है. विश्व बैंक ने अनुमान जताया है कि जलवायु परिवर्तन के कारण वर्ष 2050 तक उप-सहारा अफ्रीका, दक्षिण एशिया और लैटिन अमेरिका के देशों में 14.3 करोड़ लोगों को विस्थापित होना पड़ सकता है. भारत की बात करें, तो यहां सूखे और बाढ़ जैसी आपदाओं की वजह से पहले से ही ग्रामीण इलाक़ों में रहने वालों को शहरी क्षेत्रों में विस्थापित होने के लिए मज़बूर होना पड़ रहा है. इससे भारत के शहरी क्षेत्रों के इंफ्रास्ट्रक्चर पर दबाव बढ़ा है और कहीं न कहीं शहरों में असमानता भी बढ़ी है. इस हालातों में एक नेशनल क्लाइमेट माइग्रेशन पॉलिसी काफ़ी कारगर साबित हो सकती है, क्योंकि इसके ज़रिए देश के भीतर विस्थापित होने वालों की सहायता की जा सकती है. कहने का मतलब है कि अगर ऐसी कोई नीति होगी तो जलवायु अनुकूलन उपायों को सामाजिक कल्याण से संबंधित कार्यक्रमों के साथ जोड़ा जा सकता है और इस प्रकार विस्थापित आबादी की मदद की जा सकती है.
अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) ने अनुमान जताया है कि वर्ष 2030 तक दुनिया के तमाम देशों को हरित अर्थव्यवस्थाओं में बदलने से जहां 2.4 करोड़ रोज़गारों का सृजन हो सकता है, वहीं इसकी वजह से कोयला, तेल एवं विनिर्माण जैसे पारंपरिक क्षेत्रों में 60 लाख नौकरियां समाप्त भी हो सकती हैं. भारत देखा जाए तो अपनी ऊर्जा ज़रूरतों को पूरा करने के लिए कोयले पर बहुत अधिक निर्भर है और बेहद असमंजस्य में है. भारत की चिंता यह है कि पर्यावरण को होने वाले नुक़सान को कम करते हुए किस प्रकार से औद्योगिकीकरण को बढ़ाया जाए और अधिक से अधिक रोज़ागार पैदा किए जाएं. भारत को घरेलू स्तर पर कार्बन प्राइसिंग मैकेनिज़्म को भी अमल में लाना चाहिए, ताकि विभिन्न कंपनियों को हरित या स्वच्छ टेक्नोलॉजी अपनाने के लिए प्रोत्साहित किया जा सके. ज़ाहिर है कि यह क़दम पर्यावरण संरक्षण में बहुत सहायक सिद्ध हो सकता है.
टिकाऊ भविष्य के लिए डिजिटल टेक्नोलॉजी की सभी तक पहुंच
एसडीजी के लक्ष्यों को तेज़ी के साथ हासिल करने में तकनीक़ की भूमिका बहुत अहम है, लेकिन टेक्नोलॉजी तक सभी की समान पहुंच नहीं है, इससे कई मुश्किलें पैदा होती है. इंटरनेशनल टेलीकम्युनिकेशन यूनियन (ITU) के मुताबिक़ दुनिया में आज भी 2.7 बिलियन लोग ऐसे हैं, जिनके पास इंटरनेट की सुविधा उपलब्ध नहीं है. इंटरनेट से वंचित ज़्यादातर लोग विकासशील देशों में रहते हैं. ज़ाहिर है कि सभी तक डिजिटल सुविधाएं पहुंचाकर कई सतत विकास लक्ष्यों को आसानी से प्राप्त किया जा सकता है. उदाहरण के तौर पर सभी को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा (SDG 4) और सभी तक बेहतर स्वास्थ्य सेवा (SDG 3) जैसे लक्ष्यों को तेज़ी से हासिल करने में इंटरनेट की पहुंच कारगर साबित हो सकती है. अगर समाज के सभी वर्गों में डिजिटल सुविधाओं की असमान पहुंच का समाधान नहीं किया जाता है, तो निश्चित रूप से बड़ी आबादी इससे वंचित रह जाएगी और एसडीजी की प्रगति भी तेज़ नहीं हो पाएगी.
भारत में इंटरनेट की पहुंच की बात की जाए, तो देश में 50 प्रतिशत से ज़्यादा ग्रामीण परिवारों का डिजिटल दुनिया से कोई संपर्क नहीं है. इस वजह से ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले लोगों की ऑनलाइन शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा और वित्तीय सेवाओं तक पहुंच बहुत कम है. ज़ाहिर है कि एसडीजी की प्रगति में ऑनलाइन कनेक्टिविटी बेहद महत्वपूर्ण है.
भारत में इंटरनेट की पहुंच की बात की जाए, तो देश में 50 प्रतिशत से ज़्यादा ग्रामीण परिवारों का डिजिटल दुनिया से कोई संपर्क नहीं है. इस वजह से ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले लोगों की ऑनलाइन शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा और वित्तीय सेवाओं तक पहुंच बहुत कम है. ज़ाहिर है कि एसडीजी की प्रगति में ऑनलाइन कनेक्टिविटी बेहद महत्वपूर्ण है. ऐसे में भारत में नेशनल डिजिटल लिटरेसी एंड एक्सिस प्रोग्राम यानी राष्ट्रीय डिजिटल साक्षरता और पहुंच कार्यक्रम शुरू करने से वंचित क्षेत्रों में सस्ते डिजिटल डिवाइस, जैसे कि सस्ते स्मार्टफोन आदि उपलब्ध कराए जा सकते हैं, साथ ही ग्रामीण इलाक़ों में ब्रॉडबैंड कनेक्टिविटी की सुविधा भी पहुंचाई जा सकती है. इसके साथ ही ग्रामीण क्षेत्रों में कौशल विकास की पहलें भी चलाई जा सकती हैं. इन क़दमों से देश में वंचित समूहों तक इंटरनेट की सुविधा सुनिश्चित होगी और इससे वे ऑनलाइन उपलब्ध अवसरों का लाभ उठा सकेंगे.
वैश्विक विकास के भविष्य का निर्माण
सतत विकास लक्ष्यों की प्रगति का आकलन करने के लिए आंकड़े बहुत अहम होते हैं. संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (UNDP) के मुताबिक़ वैश्विक स्तर पर एसडीजी से जुड़े आंकड़े उपलब्ध नहीं होने की वजह से क़रीब आधे लक्ष्यों की प्रगति के बारे में सटीक जानकारी हासिल करने में दिक़्क़तें आती हैं. सतत विकास लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए उनसे जुड़ी हर जानकारी पर पैनी नज़र रखना और जवाबदेही सुनिश्चित करना ज़रूरी है. लेकिन एसडीजी से जुड़े सटीक आंकड़े उपलब्ध नहीं होना, विशेष रूप से विकासशील देशों में एसडीजी की प्रगति से जुड़े सही डेटा नहीं मिलना, एसडीजी हासिल करने की राह में बड़ी चुनौती बन गया है. भारत की बात की जाए, तो एसडीजी इंडिया इंडेक्स के ज़रिए राज्यों के स्तर पर सतत विकास लक्ष्यों की प्रगति पर नज़र रखी जाती है. पारदर्शिता एवं जवाबदेही को बढ़ावा देने के लिहाज से यह एक सराहनीय क़दम है.
चित्र 2: एसडीजी इंडिया इंडेक्स 2023 पर एक नज़र
Source: SDG India Index Report, 2023
आख़िर में, सतत विकास लक्ष्यों को हासिल करने की समय सीमा यानी वर्ष 2030 जैसे-जैसे पास आता जा रहा है, वैसे-वैसे इन लक्ष्यों को प्राप्त करने की राह में आने वाली रुकावटें भी उभर कर सामने आ रही हैं. इन बाधाओं को दूर करने के लिए सोच-समझकर एवं भविष्य में पैदा होने वाली परिस्थितियों का आकलन करते हुए रणनीतियां बनाने और उन्हें लागू करने की ज़रूरत है. वर्तमान में डिजिटल समावेशन यानी सभी तक डिजिटल सुविधाओं की पहुंच, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) का बेहतर उपयोग और शहरीकरण के दौरान लचीले दृष्टिकोण को ध्यान में रखना बेहद अहम होते जा रहे हैं. एसडीजी को हासिल करने में आने वाली रुकावटों को दूर करने में भारत द्वारा जिस प्रकार से परिवर्तनाकारी नज़रिया अपनया जा रहा है, वो कहीं न कहीं उसे टिकाऊ विकास के क्षेत्र में विश्व के अग्रणी देशों में शुमार करता है. ऐसे में भारत अंतर्राष्ट्रीय सहयोग को बढ़ावा देकर, नई-नई पहलों को कार्यान्वित करके और वर्ष 2030 के बाद उभरने वाली चुनौतियों के लिए अभी से कमर कस कर एक अधिक समावेशी और लचीले भविष्य को सुनिश्चित करने में अपनी भूमिका को सशक्त कर सकता है.
सौम्या भौमिक ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन के सेंटर फॉर न्यू इकोनॉमिक डिप्लोमेसी (CNED) में वर्ल्ड इकोनॉमिक्स एंड सस्टेनेबिलिटी की फेलो और प्रमुख हैं.
(रिसर्च में सहयोग के लिए लेखक ORF इंटर्न तनिषा पॉल को धन्यवाद देते हैं.)
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