यदि कोविड-19, पूरी दुनिया के लिए एक बेहद बड़ी चुनौती थी तो दुनिया भर की महिलाओं के लिए यह ऐसा था मानो वो अचानक किसी ऊंचे चट्टान से नीचे ज़मीन पर गिर गई हों, क्योंकि उनके जीवन में अचानक आया ये बदलाव न सिर्फ़ चुनौतीपूर्ण बल्कि त्वरित था. इस मायने में आगे का रास्ता अब और भी अनिश्चित और अव्यवस्थित दिखाई दे रहा है. महामारी ने न केवल लोगों की ज़िंदगी ली है, बल्कि लाखों, करोड़ों लोगों की आजीविका भी छीन ली है. दुनिया भर में बेरोज़गारी की दर बढ़ी है. कुल मिलाकर, साल 2019 के मुक़ाबले साल 2020 में 114 मिलियन नौकरियां ख़त्म होने के साथ, अभूतपूर्व रूप से वैश्विक बेरोज़गारी सामने आई.
इसके अलावा, साल 2019 के संबंध में, पुरुषों की तुलना में महिलाओं के लिए रोज़गार का नुकसान (5 प्रतिशत) अधिक था. जाहिर है, यह महिलाओं के लिए सबसे कठिन रहा है. अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन, आईएलओ (International Labour Organisation, ILO) के मुताबिक लगभग सभी जी-20 अर्थव्यवस्थाओं में, जिनके लिए ताज़ा आंकड़े उपलब्ध हैं, साल 2012 और 2019 के बीच 15 से 64 आयु वर्ग की महिलाओं की श्रमिक बल में भागीदारी में वृद्धि हुई है. भारत एकमात्र अपवाद था जहां था महिलाओं की श्रम शक्ति में भागीदारी में गिरावट दर्ज हुई. यह स्थानीय आंकड़ों द्वारा भी समर्थित है. सेंटर फ़ॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी, सीएमआईई (Centre for Monitoring Indian Economy, CMIE) ने नोट किया है कि साल 2019-20 में कार्यबल में महिलाओं का प्रतिशत 10.7 था, लेकिन अप्रैल 2020 में उन्हें नौकरियों में 13.9 प्रतिशत का नुकसान हुआ (जो लॉकडॉउन का पहला महीना था). नवंबर 2020 तक, पुरुषों ने अपनी अधिकांश खोई हुई नौकरियों को पुनः प्राप्त कर लिया लेकिन महिलाएं कम भाग्यशाली रहीं. नवंबर 2020 तक नौकरियों में आई कमी में 49 प्रतिशत की कमी महिलाओं द्वारा की जाने वाली नौकरियों में थी.
महामारी का महिलाओं पर असमान प्रभाव
सभी प्रकार के संकट महिलाओं पर असमान रूप से प्रभाव डालते हैं; कोविड-19 ने एक स्वास्थ्य आपातकाल की स्थिति बनाई और अर्थव्यवस्थाओं पर भी कहर बरपाया. इतिहास से पता चलता है कि इस तरह की आर्थिक उठा-पटक व अव्यवस्था के बाद महिलाएं कम कमा पाती हैं. उनके पास बचत के संसाधन भी कम रहते हैं, और अक्सर सामाजिक सुरक्षा तक उनकी पहुंच प्रभावित होती है. विडंबना यह है कि जो महिलाएं रोज़गार बनाए रखने में कामयाब रही हैं, वे भी अवैतनिक देखभाल और घरेलू काम के बोझ से दबी हुई थीं; इसलिए, उन्हें श्रम बल से बाहर निकालने के लिए मजबूर किया गया. इसके साथ असमान सामाजिक ढांचे को जोड़ें, जो शुरू से ही महिलाओं को कार्यबल से बाहर रखने का काम करता है, तो स्थिति और भयावह हो जाती है. मीडिया संस्थान द इकॉनोमिस्ट इस वास्तविकता को नोट करते हुए लिखता है कि, “जहां एक ओर दूसरे देशों में महिलाएं उस वक़्त कार्यबल से हटती हैं, जब उन पर बच्चे के लालन पालन और मातृत्व का बोझ पड़ता है, वहीं भारत में महिलाएं शादी के बाद ससुराल और पति के बोझ के चलते काम छोड़ देती हैं.”
साल 2019 के संबंध में, पुरुषों की तुलना में महिलाओं के लिए रोज़गार का नुकसान (5 प्रतिशत) अधिक था. जाहिर है, यह महिलाओं के लिए सबसे कठिन रहा है.
लेकिन किसी भी रूप और संरचना का काम, महिलाओं के जीवन में इतना मायने क्यों रखता है? मुख्य रूप से इस का कारण है कि रोज़गार अपने साथ आर्थिक स्वतंत्रता लाता है, और वित्तीय स्वतंत्रता का मतलब है पुरुषों के समान महिलाओं के पास उनकी अपनी आवाज़ – एक ऐसी आवाज़ जिसे घर पर, समुदाय के भीतर और देशव्यापी रूप में सुना जा सकता है. हार्वर्ड कैनेडी स्कूल में पब्लिक पॉलिसी की प्रोफेसर रोहिणी पांडे द्वारा किए गए शोध से पता चलता है कि, जिन महिलाओं ने अपने स्वयं के बैंक खातों में मेहनताना व सैलरी प्राप्त की, उन्होंने अधिक काम किया और अधिक बचत भी की. प्रोफेसर पांडे के मुताबिक बैंक खाते का उपयोग करने के बाद, इन महिलाओं में आत्मविश्वास की भावना पैदा हुई. उन्होंने कहा कि इन महिलाओं ने खुद को अपने व्यवसाय व काम के अनुसार संबोधित करते हुए खुद को वर्कर के रूप में देखना शुरु किया, बजाय इसके कि वो खुद को “गृहिणी” मानें. लेकिन यह केवल पहला क़दम है. जो महिलाएं खुद के लिए कमाती हैं, वे उस पैसे को अपने परिवार की बेहतर स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा और जीवन स्तर के लिए खर्च करने की संभावना रखती हैं. लड़कियां और महिलाएं अपनी कमाई का 90 प्रतिशत अपने परिवारों पर खर्च करती हैं.
यह सवाल पैदा करता है कि विशेष रूप से महामारी की दुनिया में कि साल 2021 में क्या हम महिलाओं को अपनी मेहनत की कमाई को बचाने की दिशा में प्रोत्साहित करने के लिए पर्याप्त प्रयास कर रहे हैं. ऐसे प्रयास जो उनकी मदद करें और उनकी अनोखी जरूरतों को पूरा करें? इंडियाफर्स्ट लाइफ इंश्योरेंस (IndiaFirst Life Insurance) द्वारा 5,000 से अधिक कम आय वाली महिलाओं को शामिल करने वाले एक राष्ट्रव्यापी सर्वेक्षण में पाया गया कि 26 से 41 वर्ष की आयु में अधिकांश यानी 75 प्रतिशत महिलाएं बचत बैंक खातों में अपना पैसा रखती थीं, जबकि केवल 12 प्रतिशत ने जीवन बीमा पॉलिसियों का चुनाव किया. महिलाओं ने कहा कि वे बैंक खातों को प्राथमिकता देती हैं, क्योंकि वे चाहती हैं कि उन्हें जब भी धन की आवश्यकता हो वह अपनी बचत के पैसे को निकाल सकें. न तो उन्हें बीमा के बारे में पर्याप्त जानकारी थी और न ही उन्हें जीवन, सामान्य या स्वास्थ्य बीमा और उनके अंतिम लाभों के बीच अंतर को लेकर कोई स्पष्टता थी.
वित्तीय स्वतंत्रता का मतलब है पुरुषों के समान महिलाओं के पास उनकी अपनी आवाज़ – एक ऐसी आवाज़ जिसे घर पर, समुदाय के भीतर और देशव्यापी रूप में सुना जा सकता है.
ऐसे में, क्या वित्तीय दुनिया, निवेश की संरचना या निवेश उत्पादों को बढ़ावा देने के बारे में सोच रही है? क्या उद्योग, महिलाओं को समर्थन देने और उन्हें शिक्षित करने की कोशिश करता है, विशेष रूप से उन महिलाओं को जो निम्न-आय वर्ग से हैं और उनके पास उपलब्ध विकल्प सीमित हैं, ताकि वह यह समझ सकें कि एक वित्तीय साधन दूसरे से बेहतर क्यों हो सकता है?
पैसा बचाने को लेकर हिचकिचाहट क्यों?
आइए उसी प्रश्न पर एक बार फिर लौटें कि महिलाएं निवेश करने में क्यों हिचकिचाती हैं? इस का एक उत्तर यह है कि भारत में एक जटिल सामाजिक-सांस्कृतिक जंजाल है जहां महिलाओं को निवेश संबंधी चर्चा या निर्णयों में भाग लेने से हतोत्साहित किया जाता है. पैसे के मामलों को अक्सर “पुरुषों का क्षेत्र समझा जाता है” और उसे इसी रूप में चित्रित किया जाता है. साथ ही महिलाओं से इस बारे में न तो सलाह ली जाती है और न ही उन्हें इन निर्णयों में शामिल किया जाता है, जबकि वित्तीय निर्णय घर या संयुक्त परिवार के ढांचे पर लागू होने वाले मिले-जुले निर्णय होते हैं.
दूसरे, उनके लिए प्रासंगिक सलाह की भी कमी है. कई महिलाएं वित्तीय सलाहकारों की राय को अपने लिए असंगत पाती हैं और अपनी व्यक्तिगत ज़रूरतों या आकांक्षाओं को लेकर यह राय उनके लिए मायने नहीं रखती. अक्सर विभिन्न वित्तीय उपकरणों को लेकर दी जाने वाली राय उनके लिए शब्दजाल बन कर रह जाती है, या वह इसे खुद पर की जा रही जटिल तकनीकी बमबारी की तरह देखती हैं. इसके अलावा महिलाओँ को इन स्थितियों में हिस्सेदारी करने पर अलग नज़रिए से देखा जाता है. एक एकल माता-पिता, गृहिणी या किसी ऐसे व्यक्ति के रूप में, जो विवाहित है और नौकरी करता है, महिलाओं की वित्तीय जरूरतें और आकांक्षाएं बहुत भिन्न होती हैं – कुछ वित्तीय सलाहकार इस बात को समझने में पूरी तरह से चूक जाते हैं. महिलाओं और उनके निवेश विकल्पों के प्रति, ‘सभी के लिए एक आकार’ पर आधारित दृष्टिकोण नहीं होना चाहिए. यह सलाह का एक गलत तरीक़ा है.
अंत में, कड़ी सच्चाई यह है कि दुनिया भर में महिलाओं के पास खर्च़ करने के लिए बहुत कम है और बचाने के लिए उससे भी कम.
विश्व आर्थिक संघ यानी वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम की ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट 2020 में कहा गया है कि पुरुषों और महिलाओं में वेतन संबंधी समानता आने में 257 वर्ष लग सकते हैं! इस रिपोर्ट के तहत अध्ययन में शामिल 153 देशों में से, भारत समग्र ग्लोबल जेंडर गैप इंडेक्स में 112 वें स्थान पर है. कई महिलाओं के लिए, विशेष रूप से कम-आय वाली नौकरियों और अनौपचारिक क्षेत्र से जुड़ी महिलाओं के लिए बचत आज भी एक लग्ज़री है जो उनकी पहुंच से बाहर है.
भारत समग्र ग्लोबल जेंडर गैप इंडेक्स में 112 वें स्थान पर है. कई महिलाओं के लिए, विशेष रूप से कम-आय वाली नौकरियों और अनौपचारिक क्षेत्र से जुड़ी महिलाओं के लिए बचत आज भी एक लग्ज़री है जो उनकी पहुंच से बाहर है.
यूरोप और मध्य एशिया में महामारी की शुरुआत के बाद से, 21 प्रतिशत पुरुषों की तुलना में 25 प्रतिशत स्वरोज़गार वाली महिलाओं ने अपनी नौकरी खो दी है. यह एक ऐसी प्रवृत्ति है जो बेरोज़गारी बढ़ने के साथ जारी रहने की उम्मीद है. विश्व श्रमिक संगठन के अनुमानों के मुताबिक कोविड-19 के कारण 140 मिलियन पूर्णकालिक नौकरियां खो सकती हैं और पुरुषों की तुलना में महिलाओं के रोज़गार खत्म होने का ख़तरा 19 प्रतिशत अधिक है. खाद्य सेवा, खुदरा और मनोरंजन जैसे उद्योग कोविड-19 से सबसे अधिक प्रभावित हुए हैं और महामारी से प्रभावित इन उद्योंगों में अधिकाधिक संख्या में महिलाओं का प्रतिनिधित्व है. उदाहरण के लिए, नियुक्त की गई महिलाओं में से 40 प्रतिशत यानी विश्व स्तर पर 510 मिलियन महिलाएं, 36.6 प्रतिशत कार्यरत पुरुषों की तुलना में, उन क्षेत्रों में काम करती हैं जो महामारी से सबसे अधिक प्रभावित हैं.
यह आंकड़े भले ही नंबरों की एक भीड़ के रूप में हमारे सामने आएं, जैसे कि साल 2020 में कई और आंकड़े हमारे सामने आए, लेकिन वे ऐसे जीवन और परिवारों का प्रतिनिधित्व करते हैं जो कई मामलों में हमेशा के लिए अस्त-व्यस्त हो गए हैं. यहां तक कि इस महिला दिवस के दौरान, ‘चुनौती को चुनें’ विषय को स्पष्ट रूप में सामने रखा गया है. कोविड-19 से यह बात स्पष्ट हो गई कि महामारी के प्रभाव ने महिलाओं की वित्तीय स्वतंत्रता के मामले में हमें कई साल पीछे धकेल दिया है, और यह सुनिश्चित करने की ज़िम्मेदारी कि वह अपनी आवाज और अपने अस्तित्व को एक बार फिर से साबित करें, हर संस्था और समुदाय की है.
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