Author : Utkarsh Amitabh

Published on Dec 04, 2020 Updated 0 Hours ago

इलाज ढूंढे जाने के बाद भी कोविड-19 महामारी का संकट हमारी यादों में लंबे वक्त तक बसा रहेगा, लेकिन जो बात हमें सबसे ज्यादा याद रहेगी कि इस दौर में हमने क्या महसूस किया, क्या किया और किसकी सेवा की. 

कोविड-19 के दौर में पूर्णकालिक रोज़गार: डिजिटल फ़र्स्ट रिमोट वर्क-स्पेस की परिकल्पना
गेटी

साल 2020 की दूसरी तिमाही (अप्रैल-जून) में कोविड-19 महामारी के कारण दुनिया में 40 करोड़ फुलटाइम रोज़गार ख़त्म हो गए. यह जानकारी इंटरनेशनल लेबर ऑर्गनाइजेशन (ILO) ने दी है. [1]ILO ने यह भी बताया कि अकेले एशिया-प्रशांत क्षेत्र में इनमें से 59 फीसदी रोज़गार ख़त्म हुए.

भारत में हालात और भी गंभीर हैं. यहां 12.2 करोड़ लोग बेरोज़गार हैं, जिन्हें जल्द बढ़िया नौकरी नहीं मिलने जा रही और बड़ी कंपनियों में छंटनी तेज़ हो गई है. [2]हुआवेई ने भारत में 2020 के आमदनी के अनुमान को 50 फीसदी घटा दिया है और आधे से अधिक लोगों की छुट्टी कर दी है. [2] रिलायंस ने कुछ ऑयल, गैस डिविजन के कर्मचारियों के वेतन में 50 फीसदी तक की कटौती की है.[4] हाई ग्रोथ यानी तेज़ी से बढ़ रही कंपनियों में स्विगी ने 1,000 से अधिक लोगों को निकाला है, ओला 1,400 की छंटनी कर रही है, शेयरचैट को 100 लोगों को निकालना पड़ा है तो जोमैटो ने 13 फीसदी कर्मचारियों को हटा दिया है.

[5] जो रोज़गार ख़त्म हो रहे हैं, क्या उनके मौके फिर से बनेंगे? अभी इस सवाल का जवाब देना मुश्किल है. स्टार्टअप में भर्तियों को लेकर स्थिति कुछ सुधर सकती है, लेकिन जो लोग इनमें रोज़गार तलाश रहे हैं, उन सबको खपाना मुश्किल होगा. दूसरी तरफ, अर्थव्यवस्था की हालत खराब है. इसके साथ स्वास्थ्य क्षेत्र पर जिस तरह से दबाव बना है, उसे देखते हुए लगता है कि दूसरे क्षेत्रों के लिए सरकारी राहत पैकेज देना आसान नहीं होगा.

अर्थव्यवस्था की हालत खराब है. इसके साथ स्वास्थ्य क्षेत्र पर जिस तरह से दबाव बना है, उसे देखते हुए लगता है कि दूसरे क्षेत्रों के लिए सरकारी राहत पैकेज देना आसान नहीं होगा. इसलिए करोड़ों लोगों को अपना इंतज़ाम खुद देखना होगा. उन्हें अपने संपर्कों के ज़रिये खुद के लिए नए रोल तलाशने और अपने लिए अवसर पैदा करने होंगे. 

इसलिए करोड़ों लोगों को अपना इंतज़ाम खुद देखना होगा. उन्हें अपने संपर्कों के ज़रिये खुद के लिए नए रोल तलाशने और अपने लिए अवसर पैदा करने होंगे. पिछली मंदियों में कई कंपनियों की बुनियाद पड़ी, जिनसे आगे चलकर अकूत संपत्ति बनी. ये कंपनियां आने वाले दशकों में नौकरी ढूंढने वालों का चहेता ठिकाना बनीं, लेकिन आज क्या लोग इसके लिए इंतज़ार करने की हालत में हैं?

हमें आने वाले कुछ वक्त तक अपनी स्किल का इस्तेमाल करके पैसा कमाना होगा. अपने लिए गैर-पारंपरिक आर्थिक अवसर ढूंढने होंगे क्योंकि कोविड-19 के युग में नौकरी के लिए अर्थव्यवस्था के पटरी पर लौटने का इंतज़ार करना ठीक नहीं होगा. पहले जो मामूली काम थे, अब वे फुलटाइम एंप्लॉयमेंट के मौके बन सकते हैं. छोटे उद्यमियों (माइक्रो-आंत्रेप्रेन्योर्स) को इनमें वाजिब बिज़नेस मॉडल तैयार करना होगा, जो आसान नहीं होगा. हाई-ग्रोथ सॉफ्टवेयर स्टार्टअप्स को हाइपर-लोकल (यानी क्षेत्र विशेष के लिए) या कुछ खास सेग्मेंट या छोटे उद्यमियों जैसे नए अवसर जोड़ने होंगे. इस दौर में एक इंसान को एक साथ कई काम करने पड़ सकते हैं. हो सकता है कि कोई दिन में उबर ड्राइवर हो और शाम को डिजिटल मीडिया स्ट्रैटिजिस्ट बन जाए. और डिनर के बाद वह लिखने, संगीत या गेमर होने के हुनर का इस्तेमाल करके पैसे बनाए.

पैशन इकॉनमी में मौके की तलाश

इस सिलसिले में कॉस मार्टे (Coss Marte) से सीखा जा सकता है, जो कॉनबॉडी के संस्थापक हैं. यह प्रिजन-स्टाइल बूटकैंप है. यह कंपनी सज़ायाफ्त़ा लोगों की भर्ती करती है और उन्हें फिटनेस क्लास की ट्रेनिंग देती है. कोविड-19 के बाद की दुनिया में हमारे पास ऐसी कंपनियों से सीखने के मौके होंगे. डोमिनियन रिपब्लिक के ग़रीब प्रवासी माता-पिता के घर में जन्मे कॉस जब किशोर थे, तब वह ड्रग्स बेचते थे. पकड़े जाने से पहले तक इस काम से वह 20 लाख डॉलर सालाना से अधिक कमा रहे थे.[6] चार साल तक जब वह जेल में थे, तब उन्हें फिटनेस के प्रति अपनी चाहत का पता चला और उन्होंने इसे कमाऊ पेशे में बदल डाला. 21वीं सदी के इकॉनमिक इंजन में इस तरह के रोज़गार की अहम भूमिका होगी.

अर्थशास्त्री एडम डेविडसन और वेंचर कैपिटल कंपनी एंडरसीन होरोविज की हालिया फ़्यूचर ऑफ वर्क रिपोर्ट के मुताबिक, [7] गिग इकॉनमी और ‘उबर फॉर एक्स’ मॉडल को एक हद तक पैशन इकॉनमी के लिए रास्ता बनाना होगा, जहां कॉस जैसे छोटे उद्यमी अपनी काबिलियत से पैसा बना सकेंगे.

मार्टे की फिटनेस क्लास अच्छी हैं. उनके सब्सक्रिप्शन वाले बिज़नेस मॉडल में भी अक्लमंदी दिखती है, लेकिन इस कामयाबी की वजह सिर्फ़ यही बातें नहीं हैं. इस इकॉनमी की ख़ास बात कहानी बताने का हुनर भी है. कॉस अपने बिज़नेस की दास्तां दिलचस्प अंदाज़ में सुनाते हैं. इससे उनके ग्राहकों और इंस्ट्रक्टर्स के बीच मजबूत रिश्ता बनता है. ऐसे में बिज़नेस सिर्फ़ ग्राहकों के फिट होने तक सीमित नहीं रह जाता, वे इंस्ट्रक्टर्स का भी भला चाहते हैं. कॉस का बिज़नेस दूसरे जिम से अलग है, जहां आपको घंटे के हिसाब से भुगतान करना पड़ता है और इंस्ट्रक्टर्स भी कुछ महीने बाद बदल जाते हैं. कॉनबॉडी के इंस्ट्रक्टर्स ज़िंदगी भर के लिए होते हैं. कॉस का कमाल यह है कि उन्होंने नकारात्मक तथ्यों को लेकर प्रामाणिक तरीके से एक सच्ची कहानी बताने का तरीका ढूंढ निकाला है (हममें से कई लोगों को यह सीखने की ज़रूरत है, ख़ासतौर पर अगर आप नौकरी से निकालें गए हों या अस्थायी तौर पर कंपनी ने आपको छुट्टी पर भेजा हो).

कई और मिसालें हैं, जिनसे पैशन इकॉनमी में किस्सागोई की ताक़त का पता चलता है. 15 बरस जेल में काटने के बाद डेव डाल ने ऑर्गेनिक ब्रेड कंपनी की शुरुआत की. जिसे उन्होंने 2015 में 27.5 करोड़ डॉलर में बेचा[8] पैशन इकॉनमी में बड़ी बात यह है कि, हमारी ज़िंदगी के कुछ सख्त़, बेहद दर्दनाक पहलू (मिसाल के लिए, महामारी के दौरान नौकरी जाना या जूम पर की गई छंटनी) भी हमारी बिज़नेस रणनीति की बुनियाद बन सकते हैं. हमें हमेशा हर किसी से फरियाद करने की ज़रूरत नहीं है. चाहिए तो कुछ लोगों का साथ, जो समझ सकें कि हम क्या कर रहे हैं और वे सब्सक्रिप्शन और छोटे दान देकर हमारी मदद करें.

एंडरसन होरोविज के पूर्व निवेशक ची लिन बताते हैं कि ये कहानियां एक बड़े ट्रेंड की ओर इशारा कर रही हैं कि किस तरह से ‘कंज्यूमर एक एंटरप्राइज’ में बदल रहे हैं.[9] जहां गिग इकॉनमी ने दो वर्कर्स के बीच का फर्क मिटा दिया है, वहीं पैशन इकॉनमी किसी वर्कर को उसके ख़ास कौशल या हुनर से पैसा बनाने का मौका देगी.

पैशन इकॉनमी के प्लेटफॉर्म

पेट्रियॉन एक मेंबरशिप प्लेटफॉर्म है, जो यूट्यूबर्स, पॉडकास्टर्स, म्यूजिशियंस और ऐसे ही अन्य क्रिएटर्स को एक्सक्लूसिव कंटेंट के ज़रिये पैसा कमाने का मौका देता है. इस कंटेंट को पेड सब्सक्राइबर्स को बेचा जाता है. ऐसे कई प्लेटफॉर्म हैं, जो दुनियाभर में बेहद छोटे उद्यमियों की ताकत बढ़ा रहे हैं.

अब मिसाल के लिए, विकी बेनिसन को ही लीजिए, जिन्होंने कॉलेज में ज़ूओलॉजी पढ़ी, फिर यूनिवर्सिटी ऑफ़ बेथ से एमबीए में ग्रेजुएशन किया. इसके बाद इंटरनेशनल डेवेलपमेंट के क्षेत्र में काम किया. आज उनकी पहचान ‘पास्ता ग्रेनीज’ के कारण है. यह एक यूट्यूब चैनल है, जो इटली की असल ग्रेनीज (दादी-नानी) का पता लगाता है, ये औरतें हाथ से जो पास्ता बनाती हैं, उनका वीडियो बनाकर प्लेटफॉर्म पर डाला जाता है और इससे कमाई की जाती है. [10] बेनिसन की ज़िंदगी नेटवर्क कैपिटल के एक मेंबर के लिए भी मिसाल बनी. वह एक बड़े बैंक में काम करती थीं और महामारी के दौरान उनकी नौकरी चली गई. उन्होंने केक और ब्रेड के लिए एक यूट्यूब चैनल शुरू किया. कुछ ही हफ्तों में ख़ास मिलेनियल्स (जिनका जन्म 1986 के बाद हुआ है) के बीच यह सबसे मशहूर चैनल बन गया. आज वह बैंक की नौकरी के मुक़ाबले दोगुनी कमाई करती हैं. [11]

पैशन इकॉनमी क्रिएटर्स के लिए बहुत फ़ायदेमंद तो हो सकता है, लेकिन यह काम आसान नहीं है, न ही यह खेल है. इसके लिए डिसिप्लिन और कड़ी मेहनत का जज्ब़ा होना चाहिए. लगातार प्रयोग करने और नए कंटेंट डालने की ज़रूरत भी इसमें पड़ती है. पैशन इकॉनमी में क्रिएटर्स को एकाउंटिंग, कर्मचारियों और कानूनी मसलों से खुद जूझना पड़ता है. ‘कंपनी ऑफ़ वनः वाय स्टेइंग स्मॉल इज़ द नेक्स्ट बिग थिंग फॉर बिज़नेस’ क़िताब लिखने वाले पॉल जारविस बताते हैं कि आज क्रिएटर्स 50 फ़ीसदी वक्त इधर-उधर के काम पर ख़र्च कर रहे हैं, इससे उन्हें नुकसान हो रहा है क्योंकि वे अपनी क्षमता का पूरा इस्तेमाल नहीं कर पा रहे.[12]

AI और पैशन इकॉनमी

आर्टिफिशियल इंटेंलिजेंस (AI) से क्या कोविड-19 के इस दौर में नौकरियां और घटेंगी? इन चीज़ों पर बहस करने के बजाय हमें क्रिएटर्स और बेहद छोटे उद्यमियों की प्रोडक्टिविटी यानी उत्पादकता बढ़ाने पर ध्यान देना चाहिए, जो इस महामारी के बाद की दुनिया में अर्थव्यवस्था के स्तंभ साबित होंगे. क्रिएटर्स को असल काम के लिए वक्त मिलना चाहिए, वह काम जिसमें उनका मन लगता है और जिसकी काबिलियत उनके अंदर है. इसी से पैशन इकॉनमी तरक्की करेगी और अगली इकॉनमिक ग्रोथ की लहर शुरू होगी.

क्या AI से नौकरियों के मौके कम होंगे? बिल्कुल कम होंगे. क्या दुनिया में मिलने वाली नौकरियों की कोई तय संख्य़ा है? ऐसा बिल्कुल नहीं है. आने वाले वर्षों में संस्थागत नौकरियों की संख्य़ा कम होगी. सरकारें और कंपनियां कम लोगों को भर्ती करेंगी. कुछ नौकरियां रोबोट और एल्गोरिद्म की भेंट चढ़ जाएंगी.

आने वाले वर्षों में संस्थागत नौकरियों की संख्य़ा कम होगी. सरकारें और कंपनियां कम लोगों को भर्ती करेंगी. कुछ नौकरियां रोबोट और एल्गोरिद्म की भेंट चढ़ जाएंगी. आज हमें बेमकसद अगली नई टेक्नोलॉजी या बड़ी चीज़ की तरफ नहीं भागना चाहिए. इससे तनाव बढ़ने का ख़तरा है. 

आज हमें बेमकसद अगली नई टेक्नोलॉजी या बड़ी चीज़ की तरफ नहीं भागना चाहिए. इससे तनाव बढ़ने का ख़तरा है. लेकिन अगर क्रिएटिव टैलेंट की बेहतरी के साथ नए दौर की टेक्नॉलजी पर ध्यान दिया जाए तो पैशन इकॉनमी से बेइंतहा मौके बन सकते हैं, जैसा कि मार्टे, बेनिसन और डाल के साथ हुआ.

सबके लिए हो एक कैटेगरी

पेपाल के सह-संस्थापक और निवेशक पीटर थिएल कहते हैं, ‘कॉम्पिटिशन तो सिर्फ़ हारने वालों के लिए होता है.[13]’ नॉवेल ‘अन्ना कैरेनिना’ में लियो टॉलस्टॉय ने एक मशहूर डायलॉग लिखा है, जिसे अपने अंदाज़ में पेश करते हुए थिएल लिखते हैं कि हर नाकाम कंपनी में एक बात कॉमन होती है कि वह कॉम्पिटिशन से आगे नहीं बढ़ पाती. थिएल का यह विश्लेषण बिज़नेस के साथ महामारी के बाद की दुनिया में कामकाज और करियर के लिए भी सही है.

डिमांड और सप्लाई (मांग और आपूर्ति) का बुनियादी सिद्धांत बताता है कि जो चीज़ भारी मात्रा में मिल रही है, उसमें आपके लिए बाज़ार बचाना मुश्किल होगा. इसलिए आपको हटकर सोचना होगा. अपनी अलग कैटेगरी बनानी होगी, जिसमें आपका अनोख़ापन ही लोगों को आपतक खींच लाए. इसलिए पारंपरिक नौकरियों के लिए पदों की संख्य़ा से कहीं अधिक आवेदन होंगे, जबकि पैशन इकॉनमी में आप कॉम्पिटिशन से बचते हुए अपनी खुद की एक कैटेगरी बना सकते हैं.

बेन थॉमसन ने केलॉग स्कूल ऑफ मैनेजमेंट से एमबीए किया[14] फिर माइक्रोसॉफ्ट में नौकरी की और आज वह दक्षिण-पूर्व एशिया में बड़े आराम से टेक्नोलॉजी ट्रेंड्स पर न्यूज़लेटर लिखकर हर साल 30 लाख़ डॉलर बटोर रहे हैं.[15] इस न्यूज़लेटर के लिए वह 2015 में हरेक सब्सक्राइबर से 100 डॉलर ले रहे थे और तब उनके पास 2,000 मंथली सब्सक्राइबर्स थे. नीचे दी गई तस्वीर से आप उनकी ग्रोथ का अंदाज़ा लगा सकते हैं, जो असल आंकड़ों से कम हो सकता है क्योंकि उन्होंने 2015 के बाद से इस सिलसिले में कुछ नहीं कहा है.महामारी के बीच थॉमसन जैसे उद्यमियों के न्यूजलेटर की संख्या में बढ़ोतरी हुई है और इनकी क्वॉलिटी भी सुधरी है. यह भी सच है कि इनमें से हरेक व्यक्ति लाखों डॉलर नहीं कमा सकेगा, लेकिन मुमकिन है कि कइयों को इससे ऐसा करियर मिल जाए, जो उनकी वित्तीय सुरक्षा के लिहाज़ से काफी हो.

पैशन इकॉनमी और रिमोट-फ़र्स्ट कल्चर

यह बात आपको पसंद आए या न आए, क्रिएटर्स, पैशन इकॉनमी के भागीदारों और दुनियाभर की कंपनियों के लिए घर से काम करना अब सामान्य हो सकता है. पिछले साल तक ऑर्गनाइजेशन साइकोलॉजिस्ट मानते थे कि 10 साल में 90 फ़ीसदी कंपनियां कर्मचारियों को घर से काम करने की सहूलियत देंगी और ये लोग दुनियाभर में फैले होंगे. कोविड-19 संकट के कारण यह दौर काफी पहले आ गया है.

वर्डप्रेस के सीईओ मैट मुलनवेग ऐसा कामकाजी माहौल तैयार करने वालों में अगुआ रहे हैं. उनका कहना है कि- ‘हर जगह प्रतिभाशाली लोग हैं, लेकिन सभी जगह काम के बेहतरीन मौके नहीं.’ टैलेंट और अवसर के इस फासले को मिटाने के लिए उन्होंने सोच-समझकर 20 लोगों को मिले बिना काम पर रखा. यानी जिसमें भी काम करने की क्षमता हो, वह उनकी कंपनी को जॉइन करने के लिए आवेदन कर सकता है. यह पहल मिलेनियल्स और उन डिजिटल पेशेवरों को ध्यान में रखकर की गई, जो एक जगह टिककर काम करना पसंद नहीं करते. आज वर्डप्रेस की मालिक कंपनी ऑटोमैटिक के पास एक हज़ार कर्मचारी हैं, जो 67 देशों में फैले हुए हैं.[17]

वर्डप्रेस और ऐसी कुछ कंपनियों की कामयाबी के बावजूद काम के इस तरीके के नफ़ा-नुकसान पर बड़ी बहस चल रही है. इस सिलसिले में 2014 में आए रिसर्च पेपर, ‘डज़ वर्किंग फ्रॉम होम वर्क? एविडेंस फ्रॉम अ चाइनीज एक्सपेरिमेंट[18] से संकेत मिला कि ऑफ़िस से बाहर से काम करने वाले ऑफ़िस से काम करने वालों की तुलना में 13 फ़ीसदी अधिक प्रोडक्टिव होते हैं. [19] लेकिन काम का मतलब सिर्फ़ प्रोडक्टिविटी ही नहीं होती.

इसमें विचारों का लेनदेन और क्रिएटिविटी भी शामिल होती है. दूसरों से तालमेल, क्रिएटिविटी और आइडिया को आगे ले जाने के लिहाज़ से ऑफ़िस से बाहर से काम करने वाले उतने सक्षम नहीं होते. इसलिए उनकी अधिक प्रोडक्टिविटी बेअसर हो सकती है. इसलिए कामकाज के सही माहौल में इन दोनों का बैलेंस ज़रूरी है.

प्रोडक्टिव और क्रिएटिव रिमोट वर्कस्पेस तैयार करना

कोई कंपनी कैसे ऐसा वर्क कल्चर तैयार करे? पैशन इकॉनमी के भागीदार और क्रिएटर्स किस तरह से काम करें कि उससे क्रिएटिविटी भी बढ़े? पांच क़दम उठाकर ऐसा किया जा सकता है:

पहला, जो भी लोग जुड़े हों, उन्हें साफ़-साफ़ लक्ष्य बताया जाए. लक्ष्य और टास्क में काफी गैप होता है. हम ऐसे लक्ष्य तो तय कर सकते हैं, जिन पर नज़र रखी जा सकती है, लेकिन कई बार हम फिज़ूल के टास्क में उलझे रहते हैं, जिससे हमें बिज़ी होने का भ्रम हो सकता है. ऑफिस से बाहर से काम करने की संस्कृति बनाने के लिए स्पष्ट लक्ष्य तय करने के साथ सभी भागीदारों को समझना होगा कि इसमें उनकी भूमिका क्या होगी.

दूसरा, हर चीज़ का काग़ज़ी प्रमाण रखें. जब लोग घर या कहीं और से काम करते हैं तो वे ऑफ़िस में होने वाली सामान्य बातचीत की संस्कृति से कट जाते हैं. इसलिए बाहर से काम करने वालों को साफ़-साफ़ बताना होगा कि उनके क्या उम्मीद की जाती है ताकि अलग-अलग टाइम ज़ोन में काम करने वाले उसे आगे ले जा सकें. मुलनवेग का कहना है कि इस काग़ज़ी प्रक्रिया से कंपनी को कामकाज बढ़ाने और बाद में उससे जुड़ने वालों को भी मदद मिलती है. [20]

तीसरा, असरदार तरीके से लिखना सीखिए. इससे सबका समय बचता है. जब कंपनियां रिमोट-फ़र्स्ट कल्चर को अपना रही हैं, तब बार-बार मेसेज करके किसी के काम में रुकावट डालने से बचना होगा.

चौथा, ऑफ़िस सिर्फ़ वह जगह नहीं होती, जहां आप काम करते हैं. दफ्त़र काम करने वालों के लिए सामाजिक मेलजोल और दोस्ती का बहाना भी बनता है. जहां लोग बाहर से काम कर रहे हों, उसमें इसे ऑनलाइन करना होगा.

पांचवां, बाहर से काम करने वालों को इंसेंटिव यानी इनाम भी दिया जाना चाहिए. कर्मचारियों, पार्टनरों और फ्रीलांसर्स को मनचाही जगह से काम करने की आज़ादी के मुकाबले किराये पर ऑफ़िस लेना काफी महंगा पड़ता है. लेकिन सिर्फ़ इसी वजह से बाहर से काम करने को बढ़ावा नहीं दिया जाना चाहिए. जब आप किसी को घर या कहीं और से काम करने की आज़ादी देते हैं तो आप उस कर्मचारी, पार्टनर और स्टेकहोल्डर पर भरोसा भी जताते हैं.

औरतों के लिए रिमोट वर्क

महामारी के शुरुआती दौर में इंस्टिट्यूट फॉर फिस्कल स्टडीज एंड यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन ने 3,500 परिवारों से बातचीत करके पता लगाया कि घर से काम करने के दौरान औरत और मर्द के बीच घरेलू कामकाज का बंटवारा किस तरह से हुआ.[21] इस सर्वे के नतीजे उन परिवारों पर भी लागू होते हैं, जिनमें माता-पिता दोनों काम करते हैं और उन पर भी, जिनमें दोनों की अस्थायी तौर पर कंपनी से छुट्टी या छंटनी हो गई हो. सर्वे के नतीजे ग़ौर करने के काबिल है.

इससे पता चला कि जहां मां बिना किसी रुकावट के एक घंटे ही काम कर पा रही थी, वहीं पिता के कामकाज में तीन घंटे तक कोई बाधा नहीं आती थी. सर्वे में शामिल एक औरत ने बताया, ‘मेरे पति को अस्थायी तौर पर नौकरी से हटा दिया गया है, इसके बावजूद दफ्त़र के कामकाज को लेकर जो भी फोन मेरे पास आते हैं, उस दौरान बच्चों के सवाल पूछने से मेरे काम में बाधा आती है, जबकि उस वक्त उनके पिता नेटफ्लिक्स देख रहे होते हैं.’[22] पिता की तुलना में मां पर बच्चों की देखरेख और घरेलू कामकाज की ज़िम्मेदारी कहीं ज्य़ादा है, जबकि दोनों का वर्क अरेंजमेंट एक जैसा है.

सिर्फ़ उन्हीं परिवारों में माता-पिता दोनों बराबर की ज़िम्मेदारी बांट रहे थे, जिनमें पहले दोनों ही काम कर रहे थे, लेकिन अब पिता ने पेड वर्क बंद कर दिया है और मां पगार की ख़ातिर काम कर रही हैं. हालांकि, ऐसे परिवार में भी मां दिन में औसतन पांच घंटे ही पेड वर्क कर रही थीं. इसके साथ उन्हें अपने पार्टनर के बराबर घरेलू कामकाज भी करना पड़ रहा था. सिर्फ़ दो फ़ीसदी नई माताएं और पिता ने पेरेंटल लीव (अभिभावक बनने पर मिलने वाली छुट्टी) का बंटवारा किया था. इसमें अक्सर मांओं पर एक रूटीन बनाने और कैसे अभिभावक बनना है, तय करने की ज़िम्मेदारी आ गई, जिसे उन्होंने बार-बार ग़लतियां करके सीखा.

ऑर्गनाइजेशनल साइकोलॉजिस्ट्स हर्मिनिया इबारा[23], जूलिया जिलार्ड [24] और टोमास शामोरो प्रीमूजिक[25] ने घर से काम करने वाली औरतों के लिए छह सुझाव दिए, जिससे उनकी ख़ातिर यह काम आसान हो जाए.[26] इनमें से ज्य़ादातर सुझाव कंपनियों के लिए हैं, लेकिन कुछ ऐसे आइडिया भी हैं, जो पैशन इकॉनमी के भागीदारों, फ्रीलांसर्स और बहुत छोटे उद्यमियों पर लागू होते हैं. इससे उन्हें ग्राहकों, पार्टनरों और दूसरे भागीदारों से डील करने में मदद मिलती है.

पहला, मन में कोई धारणा न बनाएं. इसके बजाय पूरा ध्यान डेटा जुटाने और उसे समझने पर दें. डेटा से आपकी अपनी ग़लतियों का पता लगता है. इसलिए कंपनियों के ह्यूमन रिसोर्स यानी एचआर डिपार्टमेंट को अपनी राय साक्ष्य या सबूत देखकर बनानी चाहिए, न कि किसी धारणा के आधार पर. इसकी शुरुआत वह अलग-अलग लेवल पर घर से होने वाले काम को देखकर कर सकता है..उसे पूछना चाहिए कि क्या इससे एंट्री लेवल, मिड करियर और एग्जिक्यूटिव लेवल को पेशे में आगे बढ़ने के एक-समान मौके मिलते हैं?

दूसरा, कंपनियों को अपने कल्चर को बदलना चाहिए. मान लीजिए कि किसी कंपनी में कहा जाता हो- यहां हम इसी तरह से काम करते हैं, इसलिए तुम भी ऐसे ही करो. कंपनियों को इस मामले में कुछ ढील देनी चाहिए. उसे अपने मैनेजमेंट एंप्लॉयीज से पूछना चाहिए कि यहां हम घर से किस तरह से काम करें? इस सवाल का जो जवाब मिले, उसमें कंपनियों को लैंगिक समानता और इस तरह की दूसरी विविधता का ख़्याल भी रखना चाहिए. याद रखिए कि यह किसी के लिए काम करने का नया तरीक़ा है. इसलिए यहां कंपनी की पुरानी नीतियों का कोई मतलब नहीं, जिसे ऑफ़िस में काम करने को ध्यान में रखकर बनाया गया था. जहां ज़ूम जैसी तकनीक ने कंपनियों और कर्मचारियों, दोनों की ही ज़िंदगी आसान बनाई है, लेकिन ऐसी तकनीक तब और कारगर साबित होंगी, जब कंपनियां इसे अपने वर्क कल्चर का हिस्सा बनाएं.

तीसरा, यह बात भी समझनी होगी कि रिमोट वर्किंग (ऑफ़िस में काम करने के उलट) बिना रुकावट के नहीं होती. कंपनियों में मां और पिता के घर से काम करने को लेकर जो पुरानी सोच बनी हुई है, उसे भी बदलना होगा. ताकि मर्द और औरत के लिए घर से काम करना – कैसा होता है, इस पूर्वाग्रह का मैनेजर और सहकर्मी शिकार न हों.

चौथा, कंपनियों के अंदर तालमेल की भावना बनी रहनी चाहिए और सबके साथ बराबरी का सलूक हो. अगर ज्य़ादातर लोग घर से काम कर रहे हैं और कुछ ऑफ़िस आना चाहते हैं तो मैनेजमेंट को देखना चाहिए कि दफ्त़र तब किसी क्लब का वीआईपी एरिया या बिज़नेस लाउंज का फ़र्स्ट क्लास सेक्शन न बन जाए. आज किसी भी संस्थान या कंपनी में बेहतर ढंग से तभी काम हो सकता है, जब एक संतुलन बनाया जाए. इसके तहत घर पर औरत और मर्द के बीच काम का ठीक बंटवारा होना चाहिए. दफ्त़र में भी यही बैलेंस रखना होगा, जहां इनदिनों पहले से कम भीड़ है. इससे हर किसी को बराबर की आज़ादी मिलेगी और काम करने का दफ्तर-घर का मिला-जुला मॉडल सबके लिए होगा.

पांचवां, कंपनियों या संस्थानों को पक्का करना होगा कि सभी (टॉप मैनेजमेंट को भी) को ‘कंपनी के नियमों’ के बारे में पता हो. अगर कंपनी घर से काम करने को हर किसी के लिए मजेदार बनाना चाहती है तो उसे मैनेजरों और सहकर्मियों को जवाबदेही का अहसास कराना होगा. सभी कर्मचारियों को वर्कशॉप/सेशंस में शामिल करना होगा. काम के दबाव को कम करने की सलाह, वर्क-लाइफ बैलेंस और कामकाज के समावेशी तरीक़े पर जोर देना होगा. इससे कर्मचारियों को निजी और कामकाज के वक्त में फर्क का अहसास होगा. साथ ही वे घर से काम करने वाले सहकर्मियों के प्रति सहानुभूति भी रखेंगे.

छठा, लॉकडाउन के दौरान कर्मचारियों की क्या हालत थी, इसका ख़्याल रखते हुए आउटपुट यानी उत्पादकता को देखना होगा. कर्मचारियों के कामकाज की समीक्षा की ख़ातिर तय मानकों को भी बदलना होगा और इसमें कुल उत्पादकता पर ज़ोर देना सही होगा. इसके अलावा, मैनेजमेंट को भी लॉकडाउन के दौरान कर्मचारियों के संघर्ष को समझना होगा. अच्छा होगा, वे उस दौरान के कामकाज को अप्रेज़ल का हिस्सा न बनाएं.

किसी के साथ भेदभाव न हो

कई दफ्तरों में उम्र, लिंग और दूसरे तरह के भेदभाव होते हैं. वहां अपनी-अपनी टोलियां भी होती हैं, जो इसका आधार बनती हैं. इन्हें ख़त्म करने के लिए बुनियादी बदलाव करने होंगे, नहीं तो महामारी के बाद ऐसे भेदभाव में और बढ़ोतरी हो सकती है.

आर्थिक मंदी के दौर में उम्रदराज कर्मचारियों के साथ भेदभाव बढ़ जाता है. कुछ कंपनियां कोविड-19 को सीनियर लोगों को हटाने का बहाना बना रही हैं, जिनकी पगार ज्य़ादा है. उनकी जगह वे कम पगार पर नौजवान कर्मचारियों को रख रही हैं, जो किसी भी सैलरी पर काम करने को तैयार हैं. नेशनल ब्यूरो ऑफ इकॉनमिक रिसर्च के मुताबिक बेरोज़गारी दर और उम्र आधारित भेदभाव के बीच सीधा रिश्ता है. [27] उम्रदराज कर्मचारियों की छंटनी सबसे पहले होती है और उन्हें सबसे आख़िर में नौकरी मिलती है.

कोरोना वायरस इकॉनमी में महिलाओं की नौकरी जाने का ख़तरा सबसे ज्य़ादा है. ख़ासतौर पर सर्विस इंडस्ट्री में काम करने वाली औरतों के लिए. ऐसा देखा गया है कि मर्दों की तुलना में इस बीच औरतों की छंटनी या उन्हें अस्थायी तौर पर निकाले जाने के वाकये अधिक हुए हैं.[28] रिसर्च से यह भी पता चला है कि औरतें काम करते हुए घरेलू ज़िम्मेदारियां भी ज्य़ादा निभाती हैं, जबकि मर्द प्रायोरिटी के साथ काम करते हैं और वे अपने काम का दायरा बढ़ाते हैं.[29]

शादीशुदा कामकाजी महिलाओं के लिए एक और ख़तरा यह है कि कई बार वे घर देखने के लिए नौकरी छोड़ देती हैं. आजकल बच्चे स्कूल नहीं जा रहे हैं, ऐसे में परिवारों का घरेलू कामकाज बढ़ गया है. इन हालातों में मर्द की तुलना में औरत अपने करियर की कुर्बानी दे रही हैं और ऐसा करने वाली औरतों की दर काफी अधिक है. बीबीसी के मुताबिक, अगर औरतें नौकरी या आमदनी को लेकर कंफ़र्टेबल भी महसूस करती हैं, तब भी उनके लिए लंबे समय तक इसे जारी रखना संभव नहीं है. [30] औरतें आमतौर पर ऑफ़िस का काम ख़त्म होने के बाद घर में ‘दूसरी शिफ्ट़’ करती आई हैं. अब ज्य़ादातर औरतों को एक साथ दो शिफ्ट़ करनी पड़ रही है. इससे उन पर जो ज़ेहनी दबाव बना है, उस वजह से कइयों को महामारी के दौरान नौकरी छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा है.[31]

कॉग्निटिव डायवर्सिटी को अपनाएं

यह मानी हुई बात है कि वैचारिक विविधता, भरोसे और क़दम उठाने से मसलों का हल निकलता है. हम अक्सर कॉग्निटिव डायवर्सिटी यानी अलग-अलग लोगों के आइडिया या सूचनाओं का मतलब निकालने से इसमें मिलने वाली मदद की अनदेखी कर देते हैं. नई चुनौतियों से जूझने के लिए आप जो जानते हैं, उसके साथ जो नहीं जानते, उसे सीखते हुए तेज़ी से मसले का हल निकालना होता है. ब्रिटेन के प्रोफेसर एलिसन रेनल्ड्स और डेविड लुईस[32] का कहना है कि कॉग्निटिव डायवर्सिटी ज्य़ादा हो तो नए, अनिश्चित और पेचीदा हालात में तेज़ी से सीखने का मौका मिलता है और परफॉरमेंस में सुधार होता है. आज जब महामारी से उबरने पर ज़ोर है तो कॉग्निटिव डायवर्सिटी और उसमें मददगार स्किल्स आधुनिक दफ्तरों को आने वाली मुश्किल चुनौतियों से निपटने में मदद कर सकते हैं.

लेकिन इसे अपनाना आसान नहीं है. इसलिए महामारी से उबरने के दौर में इसे कामकाज का अनिवार्य हिस्सा बनाना होगा. सच यह भी है कि कई स्टार्टअप (उभरती हुई कंपनियां) और कंपनियां इसकी कोशिश करती हैं, लेकिन दो चीज़ें इनमें रुकावट डालती हैं. पहली, बाहर से कॉग्निटिव डायवर्सिटी का पता लगाना मुश्किल होता है. रेनल्ड्स और लुईस बताते हैं कि इसकी भविष्यवाणी नहीं की जा सकती या न ही आसानी से ऐसा किया जा सकता है. अलग देश या पीढ़ी का होने पर यह पता लगाना मुश्किल होता है कि सामने वाला किसी सूचना को कैसे समझता है और बदलाव के प्रति उसका नज़रिया क्या है. दूसरा, कॉग्निटिव डायवर्सिटी में कल्चरल बाधाएं भी आती हैं. लोग किसी कंपनी के वर्क कल्चर को अपनाना पसंद करते हैं, न कि उसे चुनौती देना

कंपनियां भर्ती करते वक्त सबसे बड़ी ग़लती यही करती हैं कि वे अपने कल्चर में फिट बैठने वाले को नौकरी देती हैं. इसके बजाय उन्हें ऐसे लोगों को काम देना चाहिए, जो उनके कल्चर में योगदान कर सकें. 

कंपनियां भर्ती करते वक्त सबसे बड़ी ग़लती यही करती हैं कि वे अपने कल्चर में फिट बैठने वाले को नौकरी देती हैं. इसके बजाय उन्हें ऐसे लोगों को काम देना चाहिए, जो उनके कल्चर में योगदान कर सकें. कहने का मतलब यह है कि कर्मचारियों के विकास में मदद की जाए ताकि वे कल्चरल नॉर्म्स को नई शक्ल दे सकें. इससे कंपनियों को मौजूदा चुनौतियों को नई नज़र से देखने में भी मदद मिलती है.

यहां तक कि बहुत छोटे उद्यमियों, अकेले कंपनी चलाने वालों और पैशन इकॉनमी के भागीदारों को भी अपना नज़रिया बढ़ाने, नए ग्राहकों तक पहुंचने और अलग सोच रखने वालों के साथ भागीदारी के लिए कॉग्निटिव डायवर्सिटी की मदद लेनी चाहिए.

कोविड-19 के बाद सैलरी: तनख़्वाह़ सार्वजनिक की जाए

अधिकांश विकसित देशों में एक ही काम के लिए औरत को मर्द से कम पगार मिलती है. यूरोपियन यूनियन के स्टैटिस्टिकल ऑफ़िस के मुताबिक, जर्मनी में अगर किसी काम के लिए पुरुष को 100 डॉलर मिलते हैं तो औरत को उसी के लिए 78.50 डॉलर, ब्रिटेन में 79 डॉलर और अमेरिका में 79 डॉलर. यूरोपियन यूनियन के दूसरों मुल्कों में भी औरतों को मर्द के 100 डॉलर के मुकाबले औसतन 83.80 डॉलर दिए जाते हैं.[33] OECD में शामिल हर देश में मर्दों को औरतों की तुलना में औसतन 13.5 फ़ीसदी अधिक सैलरी मिलती है. दक्षिण कोरिया में यह फासला 36.7 फ़ीसदी और लग्जमबर्ग में 3.4 फ़ीसदी है. इस पर काफी बहस हुई है, इसके बावजूद पगार में लैंगिक असमानता बनी हुई है और कई मामलों में यह बढ़ रही है[34]

कोविड-19 के कारण बड़े पैमाने पर छंटनी और लोगों की तनख्वाह में कटौती हुई है. लोग आज पहले से कम सैलरी पर काम करने को तैयार हैं. यह बात पारंपरिक नौकरी तलाश करने वालों से लेकर फ्रीलांसर्स तक, सब पर लागू होती है. ऐसे में कोविड-19 से पहले औरतों और मर्दों के बीच सैलरी में जो फर्क़ था, वह महामारी के जाने के बाद और बढ़ सकता है. आज जो घर से काम करने की आज़ादी मिल रही है, वह शायद औरतों की पगार की क़ीमत पर ही है.

इसमें पारदर्शिता लाकर इस असमानता को ख़त्म करने में मदद मिल सकती है. स्वीडेन में[35] सिर्फ़ एक फोन करके आप किसी की भी सैलरी पता कर सकते हैं. वहां 25 या उससे अधिक कर्मचारियों वाली कंपनियों को मर्द-औरतों के पगार में समानता का एक्शन प्लान लागू करना होता है. जिन कंपनियों में यह गैप ज्य़ादा होता है, उन पर इस मामले की अनदेखी करने पर जुर्माना लग सकता है. कुछ लोग कह सकते हैं कि नॉर्डिक देशों के पैमाने को दूसरी जगहों के लिए ठीक नहीं माना जा सकता, लेकिन इस बारे में शोध से कुछ और ही संकेत मिले हैं.

2015 की पेस्केल स्टडी[36] में 70 हज़ार अमेरिकी कर्मचारियों का सर्वे किया गया. इससे पता चला कि जब कर्मचारियों को सहकर्मियों की तुलना में अपनी सैलरी और उसके कारणों की जानकारी हुई तो उनके इस वजह से नौकरी छोड़ने की आशंका घटी. पेस्केल के डेव स्मिथ ने कहा कि, ‘एंप्लॉयी एंगेजमेंट के लिहाज़ से दूसरी चीज़ों के मुक़ाबले सैलरी को लेकर खुली और ईमानदार चर्चा कहीं अधिक महत्वपूर्ण पायी गई.’[37]

INSEAD के प्रोफेसर मॉर्टेन बेनेडसन[38] ने कोलंबिया बिज़नेस स्कूल और कॉर्नेल के रिसर्चर्स के साथ मिलकर एक शोध किया, जिसका मकसद[39] पगार पर अनिवार्य पारदर्शिता के असर का पता लगाना था. ऐसे हरेक संदर्भ में देखा गया कि औरत और मर्द की पगार में अंतर की जानकारी सार्वजनिक करने पर इसे घटाने में मदद मिलती है. इस बारे में पारदर्शिता होने पर कर्मचारी अधिक जोश से काम करते हैं. वे ज्य़ादा मेहनत करते हैं, उनकी उत्पादकता बढ़ती है और वे सहकर्मियों के साथ बेहतर तालमेल बनाकर काम भी करते हैं. पगार पर पारदर्शिता कोई अचूक हल नहीं है, लेकिन साक्ष्य बताते हैं कि इसे अपनाने में कोई हर्ज़ भी नहीं है.

मानसिक स्वास्थ्य पर असर: रिमोट वर्क, सामाजिक और शारीरिक डिस्टेंसिंग

अब जबकि घर या कहीं और से काम करना नियम बनता जा रहा है, इसका सहकर्मियों के प्रति हमारी भावनाओं पर कैसा असर होगा? ‘द वॉर फॉर काइंडनेस’[40] के लेख़क ज़मील जकी बताते हैं कि यह ज़रूरी नहीं कि शारीरिक, सामाजिक और भावनात्मक दूरी एक साथ हो. वह कहते हैं कि हमें सामाजिक दूरी को शारीरिक दूरी कहना चाहिए ताकि इस तथ्य पर ज़ोर दिया जा सके कि हम अलग-अलग रहकर भी सामाजिक तौर पर जुड़े हो सकते हैं.

अगर हम शारीरिक दूरी को सामाजिक अलगाव का बहाना बनने देंगे तो इससे तन्हाई बढ़ सकती है, जिससे नींद न आने, डिप्रेशन, कार्डियोवस्कुलर प्रॉब्लम्स सामने आ सकती हैं. यह उतना ही ख़तरनाक हो सकता है, जितना ख़तरा 15 सिगरेट एक दिन में पीने से होता है[41] ये वक्त दूसरों से हमदर्दी दिखाने का है ताकि कम्युनिटी के अंदर और बाहर एकजुटता का अहसास हो. इस महामारी में हमारे दोस्त, पड़ोसी, सहकर्मी और दूसरे जानने वाले भी बहुत तकलीफ़ उठा रहे हैं, हमें इस भावना के साथ उनके साथ कनेक्ट करना होगा.

दूसरों के प्रति संवेदना या हमदर्दी का अहसास ट्रेनिंग से भी लाया जा सकता है. इसमें प्रैक्टिस, कोशिश और सजगता से मदद मिलती है. जकी इसे समझाने के लिए एक दिलचस्प मिसाल देते हैं. उनका कहना है कि हमदर्दी की यह भावना एक मांसपेशी की तरह है,[42] जो इस्तेमाल न किए जाने पर कमज़ोर होती जाती है. वहीं, जब इसे बार-बार आज़माया जाता है तो यह बढ़ती जाती है. लेकिन इसमें एक पेंच भी है. यह समय और दूरी बढ़ने पर कम होती जाती है.[43]

येल यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर पॉल ब्लूम कहते हैं कि अपने जैसे लोगों यानी जो हमारी तरह सोचते हैं, दिखते हैं, जाने-पहचाने लगते हैं, और जिनसे हम ख़तरा महसूस नहीं करते, उनके प्रति हमारी हमदर्दी सबसे अधिक होती है. कोरोना वायरस के काले साये ने समय, दूरी और वाकफ़ियत की सारी दीवारें तोड़ दी हैं. इससे हमारे सामने संवेदना जताते हुए दूसरों का हौसला बढ़ाने का मौका मिला है, क्योंकि हममें से कई लोग हैं, जो सामाजिक ताने-बाने को तोड़ने का इल्ज़ाम ऑनलाइन टेक्नोलॉजी और सोशल मीडिया पर लगाते आए हैं.[44]

यह भी पाया गया है कि जब आप बेचैन या तनावग्रस्त होते हैं, तब बेवजह फोन को स्क्रोल करते हुए काफ़ी वक्त ज़ाया करते हैं. इससे आपकी बेचैनी बेलगाम घबराहट में बदल जाती है. ऐसा हम सबके साथ होता है. लेकिन यह भी याद रखना चाहिए कि टेक्नोलॉजी को किस तरह से इस्तेमाल करना है, इसका कोई पहले से तय तरीक़ा नहीं है. इसलिए जिस तकनीक की हम बुराई करते नहीं थकते, आज दूसरे इंसान के साथ हमदर्दी और संवेदना जताने का वहीं सबसे कारगर ज़रिया है.

जब इटली के टस्कनी के सिएना शहर के लोग अपनी बालकनी से शहर का आधिकारिक गीत गाते दिखे और उसके वीडियो सोशल मीडिया पर सर्कुलेट होने शुरू हुए तो समूचे इटली में अपनी-अपनी खिड़कियों से गीत गाते हुए लोगों ने वीडियो शेयर करना शुरू कर दिया. यह सिलसिला जल्द ही बेल्जियम जा पहुंचा. वहां ऑनलाइन ग्रुप ‘बेल्जियम गा रहा है…अपनी खिड़कियों से!’ एक बड़ी कम्युनिटी बनाने में कामयाब हुआ, जिसमें हर शाम पूरे देश में लोग अपनी खिड़कियों से गाते हुए दिखे[45] दुनिया में करोड़ों लोगों ने ऐसे ऑनलाइन मेसेज बोर्ड का इस्तेमाल किया, सपोर्ट ग्रुप और स्वतंत्र वेबसाइटों के ज़रिये सूचनाएं साझा की जाने लगीं. लोगों ने आम चुनौतियों और तन्हाई को मिटाने के लिए अनोखे आइडिया पेश किए.

वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के ज़रिये, सोशल मीडिया ऐप्स और ऑनलाइन सपोर्ट ग्रुप आज हमारी न सिर्फ़ कामकाज में मदद कर रहे हैं, बल्कि इनके ज़रिये लोग डिजिटली एक दूसरे के साथ वक्त भी बिता रहे हैं. जब हम ऑफ़लाइन मुलाक़ात करते हैं तो हर एक मिनट के प्रोडक्टिव होने की उम्मीद नहीं रखते. अपना काम पूरा करने के बाद इधर-उधर की बातें करके हम अपने सामाजिक रिश्ते को मज़बूत बनाते हैं. आज इसे डिजिटल माध्यमों के ज़रिये दोहराने की ज़रूरत है.

कोविड-19 संकट अभी भी काबू में नहीं आया है. आज जब शारीरिक दूरी एक नियम बन गई है, हमें अपने निजी अकेलेपन को डिजिटल माध्यमों और सपोर्ट ग्रुप की मदद से एक सामुदायिक संवेदना में बदलना चाहिए. पहली बार ऐसा हो रहा है कि अरबों लोग एक ही तरह के दर्द से गुज़र रहे हैं. इसलिए इसकी ज़रूरत पहले से आज कहीं ज्य़ादा है.

लॉकडाउन में रिग्रेशन से मुक़ाबला

महामारी के शुरू होने पर हममें से कई लोगों ने लॉकडाउन का सामना करने के दिलचस्प तरीके ढूंढे थे, लेकिन इस दौर के लंबा खींचने के बाद वही लोग चिड़चिड़े, अलग-थलग पड़ और कम प्रोडक्टिव हो गए. लग रहा है कि आज दिशाहीन होने और उलझन का अहसास न सिर्फ़ सामान्य है बल्कि इससे बचना भी मुश्किल है. ‘बैटल माइंड’ के लेख़क मेरेट वेडेल वेडेल्सबर्ग ने [46] ऐसे कई सीईओ पर एक स्टडी की, जिन्हें बिज़नेस को लेकर कड़े फैसले करने पड़ रहे हैं. उन्होंने पाया कि ज्य़ादातर क्राइसिस के तीन स्टेज होते हैं- इमरजेंसी, रिग्रेशन यानी पहले वाले फेज़ में लौटना और रिकवरी.

किसी भी क्राइसिस के शुरुआती हफ्त़े इमरजेंसी स्टेज वाले होते हैं. इसे मैनेज करना अर्थपूर्ण लगता है और तब आपके अंदर जोश भी खूब होता है. आमदनी गिरने, कस्टमर एंगेजमेंट और मुनाफ़े में कमी आने के बावजूद आपको मज़ा आता है. जब आप अनजानी चुनौतियों से जूझ रहे होते हैं तो उसमें आपको एक अर्थ दिखता है.

किसी इमरजेंसी में आपके और संस्थान के दमख़म की भी परीक्षा होती है. कुछ लोग इन हालात में अपना बेहतरीन प्रदर्शन देते हैं तो दूसरों के लिए यह बहुत बुरा दौर हो सकता है. लेकिन अगर इमरजेंसी स्टेज में आपने स्थिति को बहुत अच्छी तरह संभाला है तो उसके बाद लापरवाह नहीं हो जाना चाहिए. असल में शुरुआती बढ़त शायद ही लंबे समय तक बनी रहती है. क्राइसिस मैनेजमेंट आगे चलकर अफ़रातफ़री को रोकने में बदल जाता है. फिर रोज़मर्रा की चुनौतियां भारी पड़ने लगती हैं. ऐसा लगने लगता है कि इससे पार पाना नामुमकिन है.

मनोविज्ञानी बताते हैं कि भ्रम और असुरक्षा की स्थिति में हम एक काल्पनिक इमोशनल कंफर्ट जोन बना लेते हैं. हमें लगता है कि भ्रम और असुरक्षा से हमें यही बचा सकता है. ऐसी स्थिति में हम सुस्त पड़ जाते हैं. 

और यहीं से दूसरे स्टेज यानी रिग्रेशन की शुरुआत होती है. मनोविज्ञानी बताते हैं कि भ्रम और असुरक्षा की स्थिति में हम एक काल्पनिक इमोशनल कंफर्ट जोन बना लेते हैं. हमें लगता है कि भ्रम और असुरक्षा से हमें यही बचा सकता है. ऐसी स्थिति में हम सुस्त पड़ जाते हैं. मामूली बातों पर उलझने लगते हैं. सामान्य नींद नहीं ले पाते. खाना तक भूलने लगते हैं या बहुत भूख लगने लगती है. यह तकलीफ़देह हालत होती है, लेकिन इससे बचा नहीं जा सकता. इस स्टेज में सबसे बड़ी चुनौती यही होती है कि अवास्तविक उम्मीदों का बोझ डाले बग़ैर इससे निकला जाए और रिकवरी वाले दौर में पहुंचा जाए और यहां से सामान्य स्थिति की तरफ़ बढ़ने की तैयारी की जाए.

12 मई को कनाडा की संघीय सरकार ने[47] अपने सभी कर्मचारियों को एक शानदार ईमेल भेजी, जिसमें घर से काम करने के दिशानिर्देश दिए गए थे. इस ईमेल की सबसे बड़ी खूबी यह थी कि इसमें रिग्रेशन को एक आम बात माना गया था और उससे सकारात्मक तरीके से निपटने के तरीके सुझाए गए थे.

इसमें बताया गया था कि भ्रम और असुरक्षा किस वजह से आई है, सबसे पहले उस ट्रिगर की पहचान करनी होगी. इसके बाद यथास्थिति को बदलने की कोशिश करनी चाहिए. अगर हम अलग तरीके से काम करना शुरू करते हैं तो उससे एक एनर्जी आती है. आदतों में मामूली बदलाव करके यह काम किया जा सकता है और इससे सूरत-ए-हाल बदल सकती है. तीसरे क़दम में हम जिन लोगों के साथ नियमित तौर पर संवाद करते हैं, उनकी भावनाओं की थाह लेनी होती है. आप किस तरह से मौजूदा चुनौतियों का सामना कर रहे हैं, सिर्फ़ इसे ही बताया जाए तो एक सार्थक संवाद हो सकता है. इससे क्राइसिस से निपटने के लिए ज़रूरी सहयोग मिल सकता है.

चौथे और आखिरी क़दम में वजूद बचाने से आगे [48] की सोच रखनी होगी और आप जो काम कर रहे हैं, उसके असर को देखना होगा. वेडेल के पास इसके लिए एक सुझाव है. वह कहते हैं, ‘हम इस क्राइसिस का कैसे सामना कर सकते हैं?’ के बजाय यह सोचना चाहिए कि ‘हम इस संकट से कैसे मजबूत होकर उभरें.’ इससे अस्थायी उपायों के बदले हम लंबी अवधि के नज़रिये के साथ काम करना शुरू कर देते हैं.

इस चौतरफा नीति से हम उस रिग्रेशन से कहीं बेहतर ढंग से निपट सकते हैं, जो हर क्राइसिस में हमारे सामने आ खड़ा होता है. इसमें कोई शक नहीं कि रिग्रेशन बुरी चीज़ है, लेकिन इसकी वजह से बेतुकी उम्मीदों से पीछा भी छूट जाता है. ऐसे में रिकवरी की राह के लिए आपको नए जवाब मिलते हैं.

कोरोना वायरस –महामारी के दौर में पैनिक वर्किंग

आज जब हम कोविड-19 के साये में हैं तो हममें से कई लोग कहीं ज्य़ादा काम कर रहे हैं. हम इस क्राइसिस को हराना चाहते हैं, इसलिए सामान्य से अधिक मेहनत कर रहे हैं. जियानपियरो पेट्रिजिलिएरी INSEAD बिज़नेस स्कूल में ऑर्गनाइजेशन बिहेवियर के प्रोफ़ेसर हैं. वह इसे ‘पैनिक वर्किंग’[49] यानी घबराहट में किया जा रहा काम मानते हैं. क्राइसिस के दौर में अधिक काम करने से यह भ्रम होता है कि चीज़ें आपके नियंत्रण में हैं, जबकि सच यह होता है कि सब कुछ बिखर रहा होता है. यह एक तरह से मुश्किल घड़ी में बचाव का हमारा तरीका है. असल में हम इस तरह से उस दुनिया को पकड़कर रखना चाहते हैं, जिसे हम कभी जानते थे, यानी हम आज के सच से बच रहे होते हैं और इसलिए खुद को काम करके थका रहे हैं.

क्राइसिस के दौर में अधिक काम करने से यह भ्रम होता है कि चीज़ें आपके नियंत्रण में हैं, जबकि सच यह होता है कि सब कुछ बिखर रहा होता है. यह एक तरह से मुश्किल घड़ी में बचाव का हमारा तरीका है. असल में हम इस तरह से उस दुनिया को पकड़कर रखना चाहते हैं, जिसे हम कभी जानते थे, यानी हम आज के सच से बच रहे होते हैं और इसलिए खुद को काम करके थका रहे हैं. 

पैनिक वर्किंग से भले ही हालात के काबू में होने का भ्रम होता है, लेकिन इसकी बड़ी क़ीमत भी चुकानी पड़ती है. इससे आप चीज़ों को वैसे ही महसूस नहीं कर पाते, जैसी वे हैं. इससे हम लोगों से सामान्य ढंग से कनेक्ट भी नहीं कर पाते. यानी हम अपनी संवेदना और दूसरों के प्रति सहानुभूति को दबाकर जीवन के व्यवस्थित होने की ग़लतफ़हमी पाल बैठते हैं. क्राइसिस के दौर में हमें दूसरों की मदद करनी चाहिए. यह देखना चाहिए कि लोगों को किस चीज़ की ज़रूरत है और उनकी ज़िंदगी में एक पॉज़िटिव बदलाव लाने की कोशिश करनी चाहिए. कोविड-19 के दौर में हेल्थ वर्कर्स को हीरो माना गया क्योंकि वे दूसरों को सुरक्षित रखने के लिए लगातार काम करते रहे.

हेल्थ वर्कर्स दिन में कई घंटे काम कर रहे हैं, लेकिन पेट्रिजिलिएरी इसे पैनिक वर्किंग नहीं मानते क्योंकि हेल्थ वर्कर्स असल में हमारी घबराहट को कम करने के लिए ज्य़ादा काम कर रहे हैं. शायद यह उनकी पेशेवर ज़िंदगी का सबसे अधिक संतुष्टि देने वाला काम है. इसमें एक बड़ा सबक भी छिपा है, और वो ये कि मुश्किल वक्त़ में अपनी तकलीफ़ को भुलाकर दूसरों की तकलीफ़ पर ध्यान देना अच्छा होता है. इससे न सिर्फ़ आप एक बदलाव का ज़रिया बनते हैं बल्कि आप करियर का सर्वश्रेष्ठ काम भी कर पाते हैं.

नेटवर्क कैपिटल के 940 लोगों [50] के बीच किए गए सर्वे में 70 फ़ीसदी ने कहा कि कोविड-19 की वजह से लॉकडाउन के दौरान वे अधिक काम कर रहे हैं. ऐसा भी नहीं है कि जो लोग पहले से ज्य़ादा काम कर रहे हैं, वे सभी पैनिक वर्किंग की गिरफ्त़ में हैं. हालांकि, जब आप पर यह धुन सवार हो कि कुछ भी नहीं बदला है तो इस चक्कर में आप आसानी से फंस सकते हैं.

अगर आपकी नज़र किसी पैनिक वर्किंग के शिकार शख्स़ पर पड़ी है तो थोड़ा रुककर सोचिए कि आपके लिए क्या और क्यों मायने रखता है. यह बिल्कुल भी ज़रूरी नहीं है कि आपको दुनिया के सामने साबित करना ही है कि आपने वायरस को हरा दिया है. यह ऐसा वक्त़ है, जब आप खुद को भी वक्त़ दें और समझें कि यह असामान्य दौर है. इसलिए खीझ पैदा होगी, तनाव बढ़ेगा और कई बार रास्ता भी नहीं सूझेगा. ऐसे में अगर आप खुद के लिए डेडलाइन की सनक पाल लेते हैं तो उससे ये समस्याएं ख़त्म नहीं हो जाएंगी. ना ही मुश्किल पेशेवर लक्ष्य तय करने से कुछ बदलेगा.

संकट की घड़ी में कई बार आप खुद को समझते हैं. कोरोना वायरस संकट के ख़त्म होने के बाद भी इसकी यादें लंबे अरसे तक आपके ज़ेहन में बनी रहेंगी. ख़ासतौर पर यह याद रह जाएगा कि इस दौर में आपने क्या महसूस किया, आपने क्या किया और किसकी मदद की.

मिल-जुलकर करना होगा सामना

वॉल्टेयर ने कहा था कि काम हमें बोरियत, बुरी आदतों और इच्छा से बचाता है. महामारी ने इस बारे में और सबक दिए हैं. नौकरी या काम का मतलब हमेशा सैलरी नहीं थी, लेकिन महामारी का दौर गुज़रने के बाद इससे रिश्तों में भी बदलाव आएगा. लोग अब पेशा चुनते वक्त़ मक़सद और इंश्योरेंस को भी ज़ेहन में रखेंगे.

आज जब ऑफ़िस के बाहर से काम करने के बारे में इतना विचार-विमर्श चल रहा है तो हमें इसके नए बिज़नेस मॉडल दिख सकते हैं. मौज-मस्ती और तफ़रीह की परिभाषा भी बदलेगी और उम्मीद है कि मेंटल हेल्थ पर भी खुलकर चर्चा होगी.

यह बात सच है कि जो ‘फिटेस्ट’ होगा, यानी जो लोग बदले माहौल के अनुकूल होंगे, उनकी ज़िंदगी बेहतर होगी, लेकिन हाशिए पर पड़े लोगों का ख्य़ाल कौन रखेगा? 

यह बात सच है कि जो ‘फिटेस्ट’ होगा, यानी जो लोग बदले माहौल के अनुकूल होंगे, उनकी ज़िंदगी बेहतर होगी, लेकिन हाशिए पर पड़े लोगों का ख्य़ाल कौन रखेगा? जो लोग कोविड-19 के दौर में कुचले जाएंगे और जिनके लिए वापसी मुश्किल होगी? रोज़गार के आंकड़ों में अक्सर इनकी अनदेखी होती है, लेकिन ऐसा लंबे समय तक करना मुमकिन नहीं. इन्हें रोज़गार बाज़ार में वापस लाने के लिए नए कौशल सिखाने होंगे, उन्हें मानसिक तौर पर मज़बूत बनाने की भी ट्रेनिंग देनी होगी, लेकिन इसके लिए पैसा कौन खर्च करेगा? इसकी डिलीवरी कैसे होगी? सफ़लता का पैमाना क्या होगा? आख़िर यह ज़िम्मेदारी किसकी है?

आज जब हम इन सवालों से जूझ रहे हैं तो हमें विविधता और समावेशी ढांचे को बिज़नेस रणनीतियों का हिस्सा बनाना होगा. भविष्य के बिज़नेस मॉडल इसी तरह से तैयार करने होंगे. यह ऐसा लक्ष्य है, जिसके लिए काम करने में किसी को हर्ज़ नहीं होना चाहिए.


Endnotes

[1] Kiran Pandey, “COVID-19: 400 mln jobs lost in Q2 2020, says ILO”, Down To Earth. July 02, 2020.

[2] Shwweta Punj, “Down, but not out”, India Today, August 01, 2020.

[3] Punj, Down but not Out

[4] Punj, Down but not Out

[5] Punj, Down but not Out

[6] Anne Field, “For ConBody’s Founder, Success Means Hiring More Ex-Offenders Like Himself”, Forbes, March 29, 2018.

[7] Li Jin, “The Passion Economy and the Future of Work”, Andreessen Horowitz Report, October 08, 2019.

[8] NPR, “Dave’s Killer Bread: Dave Dahl”, NPR. July 01, 2019.

[9] Li Jin, “Enterprization of Consumer”, Li Jin, September 06, 2019.

[10] Pasta Grannies

[11] Punj, Down but not Out

[12] Paul Jarvis, “An excerpt from Company of One”, Houghton Mifflin Harcourt, 2019.

[13] Y Combinator, “Competition is for Losers with Peter Thiel (How to Start a Startup 2014: 5)”, YouTube. 50:27, March 22, 2017.

[14] Strachery, “Daily update”, Strachery, 2020.

[15] Andreas Stegmann, “Ben Thompson’s Stratechery should be crossing $3 Million profits his year”, Medium, May 19, 2020.

[16] Stegmann, Ben Thompson’s Stratechery should be crossing $3 Million profits his year

[17] Matt Mullenweg, “Why working from home is good for business”, Ted, 04:27, January 2019.

[18] Nicholas Bloom et al., “Does Working from Home Work? Evidence from a Chinese Experiment”, The National Bureau of Economic Research, March 2013.

[19] Bloom et al., Does Working from Home Work? Evidence from a Chinese Experiment

[20] Matt Mullenweg, “Why working from home is good for business”, Ted, 04:27, January 2019.

[21] Dan Ascher, “Coronavirus: ‘Mums do most childcare and chores in lockdown”, BBC, May 27, 2020.

[22] Ashcher, Coronavirus: ‘Mums do most childcare and chores in lockdown

[23] Herminia Ibarra”, Harvard Business Review.

[24] Julia Gillard”, Harvard Business Review.

[25] Tomas Chamorro Premuzic”, Harvard Business Review.

[26] Herminia Ibarra et al., “Why WFH Isn’t Necessarily Good for Women”, Harvard Business Review, July 16, 2020.

[27] Jack Kelly, “Companies In Their Cost Cutting Are Discriminating Against Older Workers”, Forbes, August 03, 2020.

[28] Caroline Kitchener, “’I had to choose being a mother’: With no child care or summer camps, women are being edged out of the workforce”, The Lily, May 22, 2020.

[29] Herminia Ibarra et al., Why WFH Isn’t Necessarily Good for Women

[30] Pablo Uchoa, “Coronavirus: Will women have to work harder after the pandemic?”, BBC, July 14, 2020.

[31] Uchoa, Coronavirus: Will women have to work harder after the pandemic?

[32] Alison Reynolds and David Lewis, “Teams Solve Problems Faster When They’re More Cognitively Diverse”, Harvard Business Review, March 30, 2017.

[33] Gender pay gap statistics”, Eurostat, February 2020.

[34] Lianna Brinded, “It’s going to take 217 years to close the global economic gender gap”, Quartz, November 02, 2017.

[35] Janeen Baxter and Erin Olin Wright, “THE GLASS CEILING HYPOTHESIS: A Comparative Study of the United States, Sweden, and Australia”, Sage Journals, April 1, 2000.

[36] Dave Smith, “Most People Have No Idea Whether They’re Paid Fairly”, Harvard Business Review, December 2015.

[37] Smith, Most People Have No Idea Whether They’re Paid Fairly

[38] Morten Bennedsen”, INSEAD.

[39] Wage transparency works: Reduces gender pay gap by 7 percent”, INSEAD, December 6, 2018.

[40] Zamil Jaki, “The War for Kindness”, Broadway Books, June 2, 2020.

[41] Jaki, The War for Kindness

[42] Melissa De Witte, “Stanfordscholar examines how to build empathy in an unjust world”, Stanford News, June 5, 2020.

[43] William Roberts, “Children’s Personal Distance and Their Empathy: Indices of Interpersonal Closeness”, International Journal of Behavioral Development, February 3, 2010.

[44] Melissa De Witte, “Instead of Social Distancing, practice “distant socializing” instead, urges Stanford psychologist”, Stanford News, March 19, 2020.

[45] Maithe Chini, “Belgians follow Italy’s example and sing against coronavirus”, Brussels Times, March 17, 2020.

[46] How to Handle a Crisis”, Dr. Merete Wedell-Wedellsbord.

[47] Mental health and COVID-19 for public servants: Protect your mental health”, Government of Canada, August 8, 2020.

[48] Merete Wedell-Wedellsbord, “If You Feel Like You’re Regressing, You’re Not Alone”, Harvard Business Review, May 22, 2020.

[49] Gianpiero Petriglieri, “Why Are You Panic-Working? Try This Instead”, Bloomberg Opinion, March 24, 2020.

[50] Network Capital”, Network Capital TV.

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