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वर्कफोर्स 2.0 की वास्तविकताओं का सामना करने के लिए एक ऐसा बहु-हितधारक दृष्टिकोण अपनाना चाहिए जो श्रम बाज़ार में सुधारों के ढांचे में मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े विचारों को जोड़ता है.
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यह लेख “विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस 2024” श्रृंखला का हिस्सा है.
दुनिया भर में नौकरी का बाज़ार बहुत बड़े बदलाव के दौर से गुज़र रहा है. इस दौरान तकनीकी व्यवधान, बदलता डेमोग्राफिक (जनसांख्यिकीय) रुझान और कामगारों की प्राथमिकता में परिवर्तन देखने को मिल रहा है. वैसे तो हम अक्सर इस बदलाव के ठोस पहलुओं पर ध्यान देते हैं जैसे कि ऑटोमेशन (मशीनी काम-काज), घर से काम (रिमोट वर्क) और गिग (अस्थायी नौकरी) अर्थव्यवस्था लेकिन एक विषय को लेकर चिंता बढ़ती जा रही है जिसको अक्सर महत्व नहीं दिया जाता है. ये चिंता का विषय है वर्कफोर्स में मानसिक स्वास्थ्य. चूंकि कंपनियां वर्कफोर्स 2.0 की वास्तविकताओं के अनुरूप बदलाव के लिए जूझ रही हैं, ऐसे में एक महत्वपूर्ण सवाल खड़ा होता है: हम तेज़ी से अनिश्चित और तनावपूर्ण हो रहे नौकरी के बाज़ार में कामगारों के मानसिक कल्याण की सुरक्षा कैसे कर सकते हैं?
काम-काज और व्यक्तिगत जीवन के अंतर को ख़त्म करने वाली तकनीकी प्रगति के कारण मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी चुनौतियों में बढ़ोतरी हुई है. ये ऐसी प्रवृत्ति है जो कोविड-19 महामारी के कारण बढ़ी है.
पिछले दशक में काम-काज की जगह पर तनाव और बेचैनी में बहुत ज़्यादा बढ़ोतरी हुई है. इसका मुख्य कारण हर समय काम करने की संस्कृति और उत्पादकता के लिए मांग में बढ़ोतरी है. विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के अनुसार डिप्रेशन और बेचैनी से जुड़ी बीमारियों की वजह से हर साल दुनिया की अर्थव्यवस्था को उत्पादकता के मामले में लगभग 1 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर का नुकसान होता है. काम-काज और व्यक्तिगत जीवन के अंतर को ख़त्म करने वाली तकनीकी प्रगति के कारण मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी चुनौतियों में बढ़ोतरी हुई है. ये ऐसी प्रवृत्ति है जो कोविड-19 महामारी के कारण बढ़ी है. इसका नतीजा कर्मचारियों के बीच थकावट, बेचैनी और अवसाद के रूप में निकला है और ये कामगारों से लेकर दफ्तर में काम करने वाले प्रोफेशनल तक में फैला है.
ये अलग-थलग मुद्दा नहीं है. काम करने वालों के बीच मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याएं न केवल उस व्यक्ति की सेहत को प्रभावित करती हैं बल्कि इसका श्रम उत्पादकता, आर्थिक उत्पादन और व्यवसाय की लागत पर दूरगामी परिणाम भी पड़ता है. अगर हमें काम-काज के भविष्य की तरफ बदलाव से निपटना है तो मानसिक स्वास्थ्य इस चर्चा का एक महत्वपूर्ण आधार होना चाहिए. लेकिन मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी चुनौतियों के लिए वर्कफोर्स 2.0 एक केंद्र क्यों बन गया है? वो निहित आर्थिक बल क्या हैं जिन्होंने इस संकट में योगदान दिया है?
वर्कफोर्स 2.0 की एक महत्वपूर्ण विशेषता है गिग इकोनॉमी और अस्थायी रोज़गार में बढ़ोतरी. अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) के अनुमान के मुताबिक दुनिया में काम करने वाली आबादी में से 60 प्रतिशत से ज़्यादा अनौपचारिक काम में शामिल है. वैसे तो गिग अर्थव्यवस्था लचीलापन और स्वायत्तता प्रदान करती है लेकिन इसने अनिश्चितता का एक स्तर भी शुरू किया है जो कामगारों को वित्तीय असुरक्षा के मामले में कमज़ोर बनाता है. ये उस समय विशेष रूप से महत्वपूर्ण है जब हम सोचते हैं कि कैसे वित्तीय तनाव मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ा हुआ है. अमेरिकी मनोवैज्ञानिक संघ (APA) की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि 72 प्रतिशत अमेरिकी अपने जीवन के दौरान कभी न कभी पैसे को लेकर तनाव महसूस करते हैं. कम समय के कॉन्ट्रैक्ट या फ्रीलांस काम में शामिल काम-काजी लोगों के बढ़ते अनुपात के साथ ज़्यादातर कामगारों के पास कोई सुरक्षा का जाल जैसे कि स्वास्थ्य बीमा, रिटायरमेंट के लिए बचत और भुगतान वाली छुट्टी (पेड लीव) नहीं है जो पारंपरिक रूप से पूर्णकालिक रोज़गार वालों को मुहैया कराई जाती है. अनिश्चित काम-काज का आर्थिक परिणाम बहुआयामी है. एक तरफ तो अनौपचारिक रोज़गार में बढ़ोतरी का नतीजा कम उपभोक्ता खर्च के रूप में निकल सकता है क्योंकि कर्मचारियों के द्वारा खुले ढंग से खर्च करने की तुलना में अपनी सीमित आय का बचत करने की संभावना अधिक है. दूसरी तरफ इसने एक मानसिक स्वास्थ्य का संकट उत्पन्न कर दिया है क्योंकि कामगार बहुत कम आराम और नौकरी की सुरक्षा की किसी सोच के बिना कई तरह के काम करते हैं.
तकनीकी प्रगति, विशेष रूप से ऑटोमेशन और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) में, ने नौकरी जाने का डर पैदा कर दिया है. मैकिंज़े के अनुसार 2030 तक मशीनी काम-काज की वजह से दुनिया भर में 40 करोड़ से लेकर 80 करोड़ तक नौकरियां जा सकती हैं. नौकरी जाने की आशंका बेचैनी का एक महत्वपूर्ण कारण है. इसकी वजह से मशीनी काम-काज के मामले में सबसे असुरक्षित उद्योगों जैसे कि उत्पादन और रिटेल में काम करने वाले लोगों के बीच मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी समस्या में बढ़ोतरी होती है. काम-काज से हटाए जाने के डर का आर्थिक और मनोवैज्ञानिक- दोनों परिणाम है. कामगारों को महसूस हो सकता है कि अगर उनका काम-काज मशीन से होने वाला है तो हुनर या शिक्षा में निवेश करना बेकार हैं. इसके नतीजतन वो लाचारी की भावना में बढ़ोतरी और भविष्य को लेकर निराशा का अनुभव कर सकते हैं. इसकी वजह से लंबे समय के लिए तनाव, बेचैनी और डिप्रेशन में बढ़ोतरी होती है. इसके जवाब में ये मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े मुद्दे किसी कामगार के उत्पादक होने की क्षमता को बिगाड़ सकते हैं. इस तरह कामगार की समग्र आर्थिक कुशलता और विकास में कमी आती है. इसके अलावा हमेशा काम करने के माहौल की मांग, जिसमें डिजिटल टूल से बढ़ोतरी हुई है जो लगातार संपर्क को संभव बनाता है, ने इन समस्याओं को और बिगाड़ा है. कामगारों को लग सकता है कि उनके चौबीसों घंटे उपलब्ध होने के लिए दबाव है जिससे उनकी मानसिक भलाई को स्थिति और बिगड़ती है.
तकनीकी प्रगति, विशेष रूप से ऑटोमेशन और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) में, ने नौकरी जाने का डर पैदा कर दिया है. मैकिंज़े के अनुसार 2030 तक मशीनी काम-काज की वजह से दुनिया भर में 40 करोड़ से लेकर 80 करोड़ तक नौकरियां जा सकती हैं.
दफ्तर के बाहर से काम कई उद्योगों में आम बात हो गई है. ये काम-काज और व्यक्तिगत जीवन के बीच बेहतर संतुलन का भरोसा देता है. हालांकि इसने व्यक्तिगत और पेशेवर जीवन की सीमाओं को धुंधला कर दिया है जिसकी वजह से तनाव का स्तर बढ़ गया है. माइक्रोसॉफ्ट के द्वारा 2021 के एक अध्ययन में पता चला कि दफ्तर के बाहर से काम करने वाले कर्मचारी अधिक डिजिटल थकान का अनुभव कर रहे थे और महामारी से पहले की तुलना में मीटिंग और ई-मेल की संख्या में महत्वपूर्ण बढ़ोतरी हुई है. आर्थिक रूप से देखें तो कर्मचारियों के द्वारा दफ्तर से बाहर काम करने के कारण व्यवसायों को ऑफिस स्पेस छोटा करके संचालन लागत (ऑपरेशनल लागत) में कमी लाने में आसानी हुई है. हालांकि रिमोट वर्क ने कर्मचारियों के लिए काम-काज की जगह के बुनियादी ढांचे की लागत में बढ़ोतरी भी की है जैसे कि इंटरनेट, बिजली और दफ्तर के सामान. ये बदलाव वित्तीय तनाव और अधिक बढ़ा सकता है, विशेष रूप से कम आमदनी वाले घरों में जहां काम करने की अच्छी स्थिति पहले से उपलब्ध नहीं है. इसके अलावा रिमोट वर्क की वजह से जो अलग-थलग होने की सोच आती है वो अकेलेपन और डिप्रेशन की भावना की तरफ ले जा सकती है जिससे मानसिक स्वास्थ्य और खराब होता है. व्यापक आर्थिक दृष्टिकोण से देखें तो लंबे समय तक दफ्तर से बाहर काम करने से शहरी अर्थव्यवस्थाओं के लिए अनपेक्षित परिणाम हो सकते हैं, विशेष रूप से उन लोगों के लिए जो दफ्तरों में काम करने वाले लोगों के लगातार आने पर निर्भर करते हैं. शहर के केंद्रों में लोगों का कम आना स्थानीय कारोबार पर नकारात्मक असर डाल सकता है जिससे आर्थिक गिरावट और सामाजिक बेचैनी की स्थिति तैयार हो सकती है.
इन प्रवृत्तियों को देखते हुए रोज़गार देने वालों को वर्कफोर्स 2.0 में मानसिक स्वास्थ्य की सुरक्षा के लिए सक्रिय कदम उठाने चाहिए. डेलॉइट के अनुसार, काम-काज की जगह पर मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी पहल पर किए गए 1 अमेरिकी डॉलर के निवेश से कंपनियां उत्पादकता और आय में बेहतरी के रूप में 1.62 अमेरिकी डॉलर से लेकर 2.18 अमेरिकी डॉलर तक के लाभ की उम्मीद कर सकती हैं. वैसे तो कई कंपनियों ने मानसिक स्वास्थ्य के समर्थन का महत्व समझना शुरू कर दिया है लेकिन अभी भी बहुत कुछ किया जाना बाकी है. किसी विशेष दिन को मानसिक स्वास्थ्य के नाम करना, काम-काज के लचीले घंटे और परामर्श सेवाओं (काउंसलिंग सर्विस) तक पहुंच प्रदान करना आवश्यक पहले कदम हैं. लेकिन इन समाधानों को कंपनी की व्यापक संस्कृति से जोड़ना होगा जो काम-काज और व्यक्तिगत जीवन के संतुलन को प्राथमिकता देती हो और आर्थिक अनिश्चितता के मनोवैज्ञानिक असर को स्वीकार करती हो. इसके अलावा कंपनियों को कर्मचारियों का कल्याण बनाए रखने में आय की सुरक्षा की भूमिका पर विचार करने की ज़रूरत है. आमदनी सुरक्षा बीमा, रिटायरमेंट बचत योजना और स्वास्थ्य बीमा जैसे लाभ की पेशकश करने से कर्मचारियों को स्थिरता की भावना मिल सकती है, वित्तीय तनाव कम हो सकता है और मानसिक स्वास्थ्य पर वित्तीय तनाव का नकारात्मक प्रभाव कम होता है.
आर्थिक सामर्थ्य बेहतर बनाने के लिए श्रम बाज़ार से जुड़े व्यापक सुधारों के हिस्से के रूप में वर्कफोर्स में मानसिक स्वास्थ्य का समाधान करने वाली राष्ट्रीय नीतियों पर विचार किया जाना चाहिए.
सरकार की भूमिका भी महत्वपूर्ण है. आर्थिक सामर्थ्य बेहतर बनाने के लिए श्रम बाज़ार से जुड़े व्यापक सुधारों के हिस्से के रूप में वर्कफोर्स में मानसिक स्वास्थ्य का समाधान करने वाली राष्ट्रीय नीतियों पर विचार किया जाना चाहिए. उदाहरण के लिए, यूनिवर्सल हेल्थकेयर, बेरोज़गारी लाभ प्रदान करना और फिर से ट्रेनिंग के कार्यक्रम कामगारों को सुरक्षा का वो जाल दे सकते हैं जिसकी ज़रूरत उन्हें नौकरी जाने या आर्थिक मंदी की स्थिति में होती है. इसके अलावा, सरकार को ऐसे नियम लागू करने पर विचार करना चाहिए जो सुनिश्चित करते हैं कि गिग और अनौपचारिक कामगार पीछे नहीं छूटें. गैर-पारंपरिक रोज़गार में कामगारों को लाने के लिए सामाजिक सुरक्षा योजनाओं को ज़रूर शामिल किया जाना चाहिए क्योंकि ये कामगार अक्सर नौकरी की असुरक्षा के सर्वोच्च स्तर का सामना करते हैं और इसके परिणामस्वरूप मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याओं के सर्वोच्च स्तर से भी जूझते हैं. इसके अलावा, मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े बुनियादी ढांचे में सरकारी निवेश महत्वपूर्ण है. मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं पर अक्सर कम खर्च किया जाता है और आबादी के बड़े हिस्से के लिए ये उपलब्ध नहीं होती है. ज़्यादातर देशों में मानसिक स्वास्थ्य पर खर्च स्वास्थ्य पर कुल खर्च का केवल एक छोटा सा हिस्सा होता है. प्रिवेंटिव केयर और इलाज के विकल्पों पर और अधिक निवेश के साथ इस असंतुलन को दूर किया जाना चाहिए.
गिग वर्क और ऑटोमेशन से लेकर रिमोट वर्क की बदलती प्रकृति तक वर्कफोर्स 2.0 की चुनौतियों ने मानसिक स्वास्थ्य को आर्थिक चर्चा के केंद्र में ला दिया है. नौकरी का ये नया बाज़ार अनूठे दबाव पेश करता है जिन्हें कंपनियां, नीति निर्माता और काफी हद तक समाज नज़रअंदाज़ नहीं कर सकता.
आगे बढ़ने के लिए हमें एक बहु-हितधारक दृष्टिकोण अपनाना चाहिए जो मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े विचारों को श्रम बाज़ार के सुधार के ढांचे में जोड़ते हैं. कंपनियों को मानसिक स्वास्थ्य में निवेश के आर्थिक लाभों को समझने की आवश्यकता है जबकि नीति निर्माताओं को ये सुनिश्चित करना चाहिए कि सामाजिक सुरक्षा का जाल सभी कामगारों के लिए उपलब्ध हो, भले ही उनके रोज़गार की स्थिति कुछ भी हो.
अंत में, मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी बातचीत को बनाए रखना महत्वपूर्ण है. काम-काज की जगह पर तनाव, वित्तीय असुरक्षा और नौकरी गंवाने को लेकर खुली बातचीत मानसिक स्वास्थ्य की चुनौतियों को दूर करने में मदद करेगी और व्यवस्थागत बदलाव को आगे बढ़ाएगी जिससे कामगारों और अर्थव्यवस्था- दोनों को लाभ होगा. सीधे तौर पर मानसिक स्वास्थ्य का समाधान करके ही हम एक ज़्यादा मज़बूत, उत्पादक और समावेशी वर्कफोर्स 2.0 बनाने की उम्मीद कर सकते हैं.
देबोस्मिता सरकार ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन के सेंटर फॉर न्यू इकोनॉमिक डिप्लोमैसी में जूनियर फेलो हैं.
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Debosmita Sarkar is an Associate Fellow with the SDGs and Inclusive Growth programme at the Centre for New Economic Diplomacy at Observer Research Foundation, India. Her ...
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