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यह लेख “विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस 2024” श्रृंखला का हिस्सा है.
ज़्यादा काम करने और थककर चूर होने तक काम करने वालों को भारत में अक्सर महिमामंडित किया जाता है. इससे कई वेतनभोगी पेशेवर और कर्मचारी परेशान हो जाते हैं. सबसे ज़्यादा काम करने वाले देशों की रैंकिंग में भारत दूसरे नंबर पर है. अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) के आंकड़ों के मुताबिक भारत में 51 प्रतिशत कर्मचारी हफ्ते में 49 घंटे से अधिक काम करते हैं. चूंकि ज़्यादा काम करने की शुरुआत में रोकथाम के स्तर पर किसी तरह का कानूनी हस्तक्षेप नहीं किया जाता, ऐसे में ये ज़रूरी हो जाता है कि क्षतिपूर्ति के चरण में भारत के मानसिक स्वास्थ्य कानूनों की समीक्षा की जाए. हाल ही में काम की जगह यानी वर्कप्लेस के तनाव की चिंताओं की वजह से पुणे में एक चार्टर्ड अकाउंटेंट की मौत हो गई थी. इस पर जिस तरह की सार्वजनिक प्रतिक्रियाएं आई, उसके बाद राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने इस मामले का स्वत: संज्ञान लिया है. महाराष्ट्र के अतिरिक्त श्रम आयुक्त भी इस बात की जांच कर रहे हैं कि ऑफिस में श्रम कानूनों का पालन हो रहा है या नहीं? मानसिक स्वास्थ्य, कार्यस्थल पर तनाव और ओवर टाइम यानी तय घंटों से ज़्यादा देर तक काम कराने संबंधी कर्मचारियों की चिंताओं को लेकर कानूनों में कमी बनी हुई है.
ये नए कानून 29 केंद्रीय विधानों की जगह लेंगे और उन सभी 29 विधानों को भी इनमें मिलाया जाएगा. ये कानून मुख्य रूप से कर्मचारियों की भौतिक सुरक्षा और उनके कल्याण पर ध्यान केंद्रित करते हैं.
वर्तमान में, मानसिक स्वास्थ्य देखभाल अधिनियम, 2017 (2017 एक्ट) एकमात्र ऐसा कानून है, जो मानसिक स्वास्थ्य के लिए समर्पित है. ये अधिनियम मानसिक बीमारी से पीड़ित व्यक्तियों के लिए कानूनी अधिकार पर आधारित ढांचा प्रदान करता है. हालांकि भारत 2025 में कुछ नए श्रम कानून लागू करने को तैयार है. इन कानूनों में ऑक्यूपेशनल सेफ्टी, हेल्थ और वर्किंग कंडीशन कोड 2020 (ओएसएच कोड), सामाजिक सुरक्षा संहिता 2020(एसएस कोड), वेतन संहिता 2019 (मजदूरी संहिता) और औद्योगिक संबंध संहिता 2020 (आईआर कोड)शामिल हैं. ये नए कानून 29 केंद्रीय विधानों की जगह लेंगे और उन सभी 29 विधानों को भी इनमें मिलाया जाएगा. ये कानून मुख्य रूप से कर्मचारियों की भौतिक सुरक्षा और उनके कल्याण पर ध्यान केंद्रित करते हैं. हालांकि फिर भी इस बात की संभावना बनी हुई है कि शायद इन कानूनों का भी पूरी तरह से पालन नहीं होगा और इनसे कार्यस्थल पर कर्मचारियों की मानसिक स्वास्थ्य की स्थिति में खास सुधार नहीं आएगा.
कितना व्यापक है मानसिक स्वास्थ्य देखभाल अधिनियम, 2017?
मानसिक स्वास्थ्य देखभाल अधिनियम, 2017 संयुक्त राष्ट्र के विकलांग व्यक्तियों के अधिकारों पर कन्वेंशन (यूएनसीआरपीडी) के तहत भारत के अंतरराष्ट्रीय दायित्वों को प्रभावी बनाता है. मानसिक रोग के अंतर्गत ये अधिनियम सोच, अवधारणा, अभिविन्यास (ओरिएंटेशन ) या स्मृति के विकारों तक ही सीमित है. ये क़ानून मानसिक बीमारी से पीड़ित व्यक्तियों के अधिकार को संहिताबद्ध करता है और उनके स्वास्थ्य की देखभाल और इलाज करने वाले प्रतिष्ठानों को नियंत्रित करता है. 2017 अधिनियम एक विशेष कानून है, जो सामान्य कानूनों के ऊपर हावी होगा. हालांकि ये कानून मानसिक बीमारी से पीड़ित व्यक्तियों के अधिकारों की रक्षा करता है, लेकिन इसमें एक कमी ये है कि अगर कर्मचारी की मानसिक स्वास्थ्य की स्थिति से अवगत होने के बावजूद नियोक्ता कोई कदम नहीं उठाता, तब भी उसकी कोई जिम्मेदारी तय नहीं की जाती है. नियोक्ता पर इस बात का दायित्व नहीं होता कि वो कार्यस्थल पर ऐसा वातावरण बनाए कि जहां कर्मचारियों में काम करते हुए मानसिक बीमारी विकसित होने का न्यूनतम ज़ोखिम हो. कानूनी तौर पर नियोक्ता के लिए ये अनिवार्य नहीं किया गया है कि वो इन नियमों का पालन करे.
विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के कुछ नरम कानून जैसे कार्यस्थल पर मानसिक स्वास्थ्य और 2019 में यूएनजीए के स्वास्थ्य पर उच्च स्तरीय बैठक में सार्वभौमिक स्वास्थ्य पर राजनीतिक घोषणा पत्र जैसा मानदंड अलग-अलग देशों के लिए मार्गदर्शन का काम कर सकते हैं.
मानसिक स्वास्थ्य से संबंधित अंतरराष्ट्रीय मानदंड
मानसिक स्वास्थ्य पर केंद्रित लागू करने योग्य मानदंडों की कमी एक वैश्विक मुद्दा है. संयुक्त राष्ट्र के विकलांग व्यक्तियों के अधिकारों पर कन्वेंशन इकलौती ऐसी संधि है, जो मानसिक बीमारी को विकलांगता के रूप में संबोधित करती है. इस संधि पर हस्ताक्षर करने वाले देशों का ये दायित्व है कि वो अपने यहां कानून बनाकर मानसिक बीमारी से पीड़ित लोगों के अधिकारों की रक्षा करें. अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) के मौलिक सम्मेलन 155 और 187 पेशागत सुरक्षा, स्वास्थ्य और मानसिक कल्याण को संबोधित करते हैं. इसके अलावा, विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के कुछ नरम कानून जैसे कार्यस्थल पर मानसिक स्वास्थ्य और 2019 में यूएनजीए के स्वास्थ्य पर उच्च स्तरीय बैठक में सार्वभौमिक स्वास्थ्य पर राजनीतिक घोषणा पत्र जैसा मानदंड अलग-अलग देशों के लिए मार्गदर्शन का काम कर सकते हैं.
नए श्रम कानूनों के तहत नियोक्ता के क्या दायित्व?
भारतीय कारोबारियों ने नियमों को लागू करने को लेकर जो 3048 रिपोर्ट्स जमा की, उसके मुताबिक कुल वार्षिक अनुपालन में अनुमानित 47 प्रतिशत हिस्सा श्रम कानूनों के पालन का है. फिर भी ये कहा जा सकता है कि मानसिक स्वास्थ्य के अनुपालन पर उतना ध्यान नहीं दिया जा रहा है. ओएसएच कोड औपचारिक क्षेत्र को कवर करने के लिए कर्मचारियों और प्रतिष्ठानों को समग्र रूप से परिभाषित करता है. ये कानून नियोक्ता को आदेश देता है कि जितना संभव हो, वो कर्मचारियों को ऐसा सुरक्षित कामकाजी माहौल मुहैया करवाए, जिसमें उन्हें स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पड़ने का कम से कम ज़ोखिम हो. जब सुरक्षा से संबंधित शर्तों और स्वच्छता की गणना की गई है, तब पता चला कि ये अधिनियम कार्यस्थल के भीतर मनोवैज्ञानिक स्थितियों पर खामोश है. कानून में ऐसी विधायी शून्यता ऑफिस में काम करने वाले कर्मचारियों के लिए प्रतिकूल है. अगर कर्मचारी मामले को आंतरिक विचार विमर्श के स्तर से आगे बढ़ाते हैं तो सबसे पहले उनके लिए दावे की मात्रा निर्धारित करना मुश्किल हो जाएगा. दूसरी मुश्किल ये है कि अगर कर्मचारी शिकायतें करेंगे तो फिर उनके दमन का ख़तरा होगा. तीसरा, इन चिंताओं की झलक रोजगार अनुबंधों में मिलेगी, इससे नियोक्ता और कर्मचारी के बीच असमानता का स्तर पैदा होगा. चौथी मुश्किल ये है कि इस तरह की चिंता व्यक्त करने से गोपनीयता का उल्लंघन या कर्मचारी के विरुद्ध मानहानि का दावा हो सकता है.
एसएस कोड 'रोजगार चोट' की स्थिति में मुआवजे का प्रावधान करता है, लेकिन ये काम के दौरान होने वाली दुर्घटनाओं, बीमारियों या मृत्यु तक ही सीमित है मानसिक स्वास्थ्य की वजह से चोट को मुआवजा तय करने की सामान्य व्याख्या से बाहर रखा जाएगा. मैकिन्से की एक रिपोर्ट में ये पाया गया कि दस में से चार भारतीय कर्मचारियों को काम की वजह से अत्यधिक थकावट, चिंता, तनाव और अवसाद के लक्षण अनुभव होते हैं. सर्वे में शामिल 90 प्रतिशत कर्मचारियों ने कहा कि उनका कार्यस्थल का वातावरण बहुत विषाक्त है, 60 प्रतिशत कर्मचारी नौकरी छोड़ने की इच्छा रखते हैं. जब ये कर्मचारी मानसिक तनाव से निपटने में असमर्थ साबित होते हैं तो फिर इन पर नौकरी से निकाले जाने का ख़तरा पैदा हो जाता है. ऐसे मामलों में राहत सिर्फ तभी मिलती है, जब ये साबित हो जाएगा कि कर्मचारी को नौकरी के दौरान ही मानसिक बीमारी हुई थी, जैसा कि रविंदर धारीवाल बनाम भारत सरकार मामले में हुआ था. 2017 अधिनियम के प्रावधानों को आगे बढ़ाते हुए और विकलांग व्यक्तियों के अधिकार अधिनियम के तहत सुप्रीम कोर्ट ने नियोक्ता के कर्तव्यों को लेकर स्थिति स्पष्ट की. कोर्ट ने कहा कि नियोक्ता को इस बात को लेकर अवगत रहना होगा कि दुर्व्यवहार की वजह से भी कर्मचारी के मानसिक स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ सकता है.
कोर्ट ने कहा कि नियोक्ता को इस बात को लेकर अवगत रहना होगा कि दुर्व्यवहार की वजह से भी कर्मचारी के मानसिक स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ सकता है.
सुप्रीम कोर्ट की ही तरह दिल्ली उच्च न्यायालय ने कार्यस्थल के विषाक्त वातावरण और ज़रूरत से ज़्यादा काम कराने को लेकर चिंताओं को दोहराया. हाईकोर्ट ने कहा कि ये एक सामाजिक मुद्दा है और इस बारे में उचित नीतियां बनाने की आवश्यकता है. ओएसएच कोड प्रतिदिन आठ घंटे के काम की सीमा तय करता है, साथ ही वो ओवरटाइम के बारे में राज्य सरकारों से नियम अधिसूचित करने को कहता है. ओएसएच कोड के तहत राज्य सरकारों को काम के घंटे को लेकर कड़े नियम बनाने चाहिए और अगर अतिरिक्त घंटे काम करवाया जाता है तो उसके पैसे अलग से मिलने को लेकर भी नियम बनाने चाहिए.
लक्षित हस्तक्षेप
मानसिक स्वास्थ्य की अनदेखी करने से नियोक्ता के उत्पादकता लक्ष्य प्रभावित हो सकते हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन का अनुमान है कि अवसाद और चिंता की वजह से उत्पादकता के मामले में प्रति वर्ष 1 ट्रिलियन डॉलर का नुकसान होता है. डेलॉइट मानसिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण 2022 के मुताबिक भारत में कर्मचारियों की खराब मानसिक स्थिति के कारण नियोक्ताओं को 14 अरब डॉलर का नुकसान होने का अनुमान है. इस सर्वे में शामिल किए गए 39 प्रतिशत कर्मचारी सामाजिक कलंक के डर से अपने मुद्दों को उठाने की हिम्मत नहीं जुटा सके.
अगर कर्मचारियों के कल्याण को प्राथमिकता दी जाएगी तो इससे उन्हें कंपनी में बनाए रखने की दर बेहतर हो सकती है. इससे नई भर्ती पर होने वाले खर्च में बचत हो सकती है. मौजूदा नियोक्ता अपनी तरफ से कर्मचारियों को वार्षिक स्वास्थ्य परीक्षण कर सकते हैं. इसमें मानसिक स्वास्थ्य को शामिल किया जा सकता है. स्वास्थ्य बीमा की मौजूदा पॉलिसियों में बदलाव कर इसमें मानसिक सेहत को भी शामिल करने पर विचार किया जाना चाहिए. हालांकि, ज़्यादातर संगठनों के पास कर्मचारियों के कल्याण के लिए दस्तावेजी योजनाओं का अभाव है. दस में से सिर्फ एक कर्मचारी को कर्मचारी सहायता प्रोग्राम सेवा आसानी से मिल पा रही है.
मानसिक स्वास्थ्य को लेकर सरकार कितनी सक्रिय?
हालांकि मानसिक स्वास्थ्य को लेकर 2017 का अधिनियम एक स्वागत योग्य कदम है. ये इसके प्रभावी कार्यान्वयन के लिए उपयुक्त भी है. लेकिन केंद्रीय मानसिक स्वास्थ्य प्राधिकरण (सीएमएचए) को अपनी सार्वजनिक उपस्थिति बढ़ानी चाहिए. इस अधिनियम के तहत दिए गए दिशा निर्देशों के कार्यान्वयन में तेज़ी लानी चाहिए. मानसिक स्वास्थ्य देखभाल और उसके प्रबंधन पर स्वास्थ्य और परिवार कल्याण रिपोर्ट 2023 पर बनी स्थायी समिति की रिपोर्ट में भी ये बात कही जा चुकी है. इस मामले में जिस तरह मुकदमेबाजी बढ़ रही है, उससे ये साबित हो रहा है कि इसे लेकर निष्क्रियता दिखाई जा रही है. सुप्रीम कोर्ट ने गौरव कुमार बंसल केस में जो फैसला दिया था, उसमें जारी दिशानिर्देशों के मुताबिक राज्य सरकारों को मानसिक स्वास्थ्य के रोगियों के लिए पुनर्वास गृहों की स्थापना करनी चाहिए. बॉम्बे हाईकोर्ट ने ये कहा था कि अदालतों की टिप्पणियों के बाद ही राज्य मानसिक स्वास्थ्य प्राधिकरणों ने काम करना शुरू किया, लेकिन इसमें चार साल की देरी हो गई. हरीश शेट्टी केस में दिए गए फैसले में बॉम्बे हाईकोर्ट ने अपने दिशानिर्देशों को आगे बढ़ाते हुए कि महाराष्ट्र राज्य मानसिक प्राधिकरण को अपनी जिम्मेदारियां पूरी लगन से निभानी चाहिए. वो इन रोगियों के लिए सेंटर बनाए, रिक्तियों को भरे और आंकड़ों को इकट्ठा करे. एसएमएचए की स्थापना और मानसिक स्वास्थ्य सहित मानसिक सेहत के बुनियादी ढांचे की प्रगति की निगरानी के लिए स्थायी समिति की रिपोर्ट में एक ट्रैकर की सिफारिश भी की गई. इसमें मानसिक स्वास्थ्य समीक्षा बोर्ड की स्थापना की बात भी कही गई है.
कुल मिलाकर ये कहा जा सकता है कि कार्यबल यानी कर्मचारियों के भलाई उनके सशक्तिकरण की पहल और त्रिपक्षीय संवाद पर निर्भर करती है. भारत में रोजगार कानून ढांचे में सुधार की ज़रूरत है.
श्रम मामलों से संबंधित केंद्र सरकार को सिफारिशों को उचित तरीके से लागू करवाने के लिए ओएसएच कोड के तहत एक राष्ट्रीय ओएसएच सलाहकार बोर्ड की स्थापना की जाएगी. इसका काम कार्यस्थल में भेदभाव और उत्पीड़न जैसे मनोवैज्ञानिक जोखिमों की पहचान कर मानक या मार्गदर्शक नियम बनाने का होगा. इसकी मदद से लक्षित हस्तक्षेपों के ज़रिए संगठन के भीतर मानसिक स्वास्थ्य पैटर्न और सर्वोत्तम प्रथाओं की पहचान और सही उपाय लागू किए जा सकेंगे. एक उदारवादी संगठन में व्यवस्थित बदलाव कर मानसिक स्वास्थ्य को उसमें शामिल करके व्यावसायिक स्वास्थ्य की व्याख्या आवश्यक है. ये नहीं सोचना चाहिए कि एक ही दृष्टिकोण से मानसिक स्वास्थ्य की सभी समस्याओं के समाधान हो जाएगा. सुप्रीम कोर्ट भी ये बात कह चुका है. कुल मिलाकर ये कहा जा सकता है कि कार्यबल यानी कर्मचारियों के भलाई उनके सशक्तिकरण की पहल और त्रिपक्षीय संवाद पर निर्भर करती है. भारत में रोजगार कानून ढांचे में सुधार की ज़रूरत है.
धर्मिल दोषी ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में रिसर्च असिस्टेंट हैं.
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