भारतीय शहर अपने यहां ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को बसाने एवं कई तरह की अन्य गतिविधियों में शामिल होने के लिए, लगातार अधिक से अधिक इंफ्रास्ट्रक्चर का निर्माण करते जा रहे हैं. नए निर्माण, पुराने संरचनाओं का विध्वंस, पुराने इमारतों का पुनःजीर्णोद्धार, एवं पहले की तुलना में और भी अधिक ऊंची इमारतों का निर्माण की प्रक्रिया के कारण लगातार बढ़ ही रहे हैं. इनमें निजी एवं सार्वजनिक शहरी निर्माण परियोजनाओं के दायरे काफी बड़े हैं. इनमें आवासीय और वाणिज्यिक परिसर, स्कूल, अस्पताल, बाज़ार, सड़कें, पुल, फ्लाईओवर सुरंगें, मेट्रो और मोनो रेल सरीखी परिवहन सेवाएं, पैदल पार करने वाले पुल, शौचालय, जल निकासी कार्य, जल एवं सिवरेज कार्य, लाइब्रेरी, म्यूज़ियम,थिएटर और स्विमिंग पुल जैसे कुछ क्षेत्र शामिल हैं.
समय के साथ बुनियादी ढांचों का भी क्षय होता है. वे एक बार जब अपनी तय उम्र सीमा को जी चुके होते हैं, तब उनको नष्ट करना पड़ता है और नए ढांचों से बदलदना पड़ता है. कई उदाहरणों में ऐसा पाया गया है कि, शहरों में तीव्र गति से होने वाले विकास ने, तेज़ी से विकसित हो रहे शहरों को बेहतर, बड़ा एवं और ज़्यादा संवेदनशील इंफ्रास्ट्रक्चर ज़रूरत को पूरा करने के लिये, कमोबेश उस जैसे नए ढांचों की अनिवार्यता को प्रोत्साहित किया है. पुणे यूनिवर्सिटी एवं ई-स्क्वैर इसके कुछ उदाहरण हैं. इस वजह से शहरों में तैयार हो रहे निर्माण अपशिष्ट की मात्रा काफी ज़्यादा है और अमूमन उसे निर्माण और विध्वंस (सी एंड डी) अपशिष्ठ के रूप में लेबल किया जाता है.
शहरों में तैयार हो रहे निर्माण अपशिष्ट की मात्रा काफी ज़्यादा है और अमूमन उसे निर्माण और विध्वंस (सी एंड डी) अपशिष्ठ के रूप में लेबल किया जाता है.
कंस्ट्रक्शन वेस्ट या निर्माण अपशिष्टों में इस्तेमाल में नहीं लिए गए डामर, सीमेन्ट, ईट,कांच, कांटी, वाइरिंग के लिए उपयुक्त किए जाने वाले तार, सरिया, लकड़ी, प्लास्टर, सैनिटेरी वेयर, एवं तमाम तरह के स्क्रैप मेटल आदि अपशिष्ठ के तौर पर शामिल हैं. किसी डेमोलिशन साइट को तैयार करने के दौरान वहां ड्रेजिंग मैटीरियल जैसे पेड़, पेड़ के डंठल, गंदगी एवं मलबों को हटाना पड़ता है. संयुक्त राष्ट्र अमेरिका में, राष्ट्रीय स्तर पर पैदा हुआ कुल निर्माण अपशिष्ट का एक तिहाई हिस्सा है. भारत में, द बिल्डिंग मैटेरियल्स एंड टेक्नोलॉजी प्रमोशन काउंसिल और द सेंटर फॉर फ्लाई ऐश रिसर्च एंड मैनेजमेंट, के अनुमान के अनुसार साल 2005 से 2013 के बीच 165 से 175 मिलियन टन के बराबर राष्ट्रीय वार्षिक उत्पादन होने का अनुमान लगाया गया है. कुछ और अनुमानों के आधार पर की गई गणना कहती है कि किसी भी निर्माण स्थल पर, बांटी जाने वाली निर्माण सामग्री के कुल वज़न का 30 प्रतिशत निर्माण अपशिष्ट में तब्दील हो जाता है.
कचरे का प्रबंधन
साल 2016 में, कचरे के विनियमन के उद्देश्य से, पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय, निर्माण और विध्वंस अपशिष्ट प्रबंधन नियम (सी एंड डी नियम) को अस्तित्व में लेकर आई. इसने निर्माण और विध्वंस अपशिष्ट को अपशिष्ट के तौर पर परिभाषित किया, जिसमें किसी भी नागरिक संरचना के निर्माण, पुननिर्माण, मरम्मत और विध्वंस आदि समाहित हैं. इसने अपशिष्ट का उत्पादन करने वालों की ज़िम्मेदारियों को परिभाषित किया जिसमें मुख्य तौर पर ठोस मिट्टी, कंक्रीट एवं अन्य वस्तुओं को पहले जमा करने एवं उसे बाद में अलग करना शामिल है. इसके अलावा इसमें विध्वंस और निर्माण से उत्पादित होने वाले अपशिष्टों का संग्रहण भी शामिल है. इस नियमावली ने अपशिष्ट पैदा करने वाले उत्पादकों को अपने परिसर के भीतर इसे जमा करने, और फिर इसे स्थानीय प्राधिकरण संग्रह केंद्र में भेजने या फिर इसे अधिकृत प्रसंस्करण सुविधा केंद्रों को सुपुर्द करने का अधिकार दिया. साथ उन्हें ये भी ताक़ीद दी गयी कि वे किसी प्रकार की कोई भी अपशिष्ट को सड़कों अथवा नालियों में जमा न करें.
इसके अलावा, प्रत्येक अपशिष्ट उत्पादकों को संग्रहण, परिवहन, प्रसंस्करण एवं उसके निपटारे के लिए भुगतान करना था. इस नियम ने स्थानीय शहरी निकायों (यूएलबी) को इस बात के निर्देश दिए कि वो ये निर्देश जारी करें कि इन अपशिष्टों को उत्पादक कंपनियां या विभाग या तो स्वयं अथवा नियुक्त किए गए निजी संचालकों द्वारा उसका निपटारन करे. यूएलबी को एक सूचना एवं संचार तंत्र का गठन भी करने का निवेदन किया गया और इस बाबत विशेषज्ञ संस्थानों एवं नागरिक सामाजिक संगठनों से सहायता लेने को कहा गया. इसने इस काम को सफल बनाने के लिये अन्य सरकारी संस्थाओं और पैरास्टेटल कंपनियों की भूमिका पर रौशनी डालने का काम किया.
यूएलबी को एक सूचना एवं संचार तंत्र का गठन भी करने का निवेदन किया गया और इस बाबत विशेषज्ञ संस्थानों एवं नागरिक सामाजिक संगठनों से सहायता लेने को कहा गया
निर्माणधीन इमारतों से निकलने वाला कचरा पर्यावरण के लिए काफी हानिकारक है. इसके साथ ही, इसकी मात्रा भी काफी ज़्यादा होती है. इसलिए, सबसे पहले तो इसका बेहतर इस्तेमाल किया जाना चाहिए. और जो इस्तेमाल योग्य ना हो, उनका निपटारण इस तरह से किया जाना चाहिए कि, शहर एवं पर्यावरण, इसके दुष्प्रभाव से सुरक्षित रहे. ऐसे कचरों के स्रोत को कम किए जाने के लिये सचेत सोच के साथ ही, इन कचरों का कम उत्पादन, पुनः इस्तेमाल में लाया जाना, और उसकी री-साइक्लिंग करना बेहद आवश्यक है. मौजूदा इमारतों को संरक्षित रख कर, नई इमारतों के आकार को अनुकूलित करके, और अनुकूलनशीलता युक्त इमारतों का निर्माण करके ऐसा किया जा सकता है, ताकि इन इमारतों का जीवनकाल लंबा रहे. निर्माण में ऐसी पद्धति का इस्तेमाल हो जिससे इनकी डी-असेंबलिग की सके और सामग्रियों के दोबारा इस्तेमाल की सुविधा मिले. ये सब बेहद न सिर्फ़ ज़रूरी है बल्कि वांछनीय भी.
उसी तरह से, काफी बड़ी मात्रा में निर्माण और विध्वंस के मलबे, जिनमें लकड़ी, प्लास्टिक, डामर के फुटपाथ, और बाजरी आदि शामिल हैं वे दोबारा इस्तेमाल के लिये पूरी तरह से उपयुक्त है. लकड़ी के कचरे जैसे अन्य मलबों की री-साइक्लिंग कर उनका नए निर्माण में पुनः इस्तेमाल किया जा सकता है. सीमेंट, प्लास्टर और ईंट आदि को भी कुचल कर फ्रेश नई इमारतों के निर्माण कार्य में इस्तेमाल लिया जा सकता है. चूंकि, शहरी निर्माण में विविध प्रकार के वस्तुओं को इस्तेमाल में लिया जाता है, इसलिये काफी मात्रा में तब भी ऐसे मलबे बाकी होंगे जिन्हें पुनर्चक्रण विधियों को आज़माने के बावजूद, उचित तरीके से निपटाये जाने की ज़रूरत होगी. उपचारित लकड़ी, ठोस योजक, ऐस्बेस्टस, दूषित मिट्टी, चिपकने वाले पदार्थ, पेंट, सॉल्वेन्ट, और लीड-ऐसिड बैटरी जैसे अपशिष्ट काफी खतरनाक होते हैं, जिनका निपटारा निर्दिष्ट कानून के अंतर्गत काफी सतर्कतापूर्वक एवं वैज्ञानिक तरीके से किया जाना चाहिए. ऐसे विविध अपशिष्टों का प्रबंधन काफी जटिल एवं बहुआयामी है. इसीलिए, शहरों में निर्माण अपशिष्ट का प्रबंधन, उचित नियमों के तहत ही होना चाहिए.
आश्चर्यजनक रूप से, भारतीय शहरों में निर्माण अपशिष्ट प्रबंधन काफी हद तक बदइंतजामी एवं कुप्रबंधन से प्रभावित रही है. इनके प्रबंधन के लिए बनाए गए नीति नियम आमतौर पर दरकिनार कर दिए गए है, जिस वजह से शहरों को संस्थागत मुद्दों का सामना करने में लगातार वृद्धि हो रही है. शहरों के जल निकायों को संकुचित करने एवं शहरी बाढ़ की स्थिति से निपटने में उनकी भूमिका काफी सोचनीय है. ये सब रातों में डेवेलर्स द्वारा नियुक्त ठेकेदारों की तरफ से, रात में, नदियों के किनारों पर, इन अपशिष्ट एवं कचरों को फेंक कर ऐसा किया जाता है.
ऐसा करने से डेवेलपर को कूड़ा-करकट किसी दूर के स्थान पर ले जाकर फेंकने या नष्ट करने में जो परिवहन और अन्य लागत आती है उसकी बचत होती है. साथ ही साथ इससे जहां नदी के किनारे और भी संकुचित होते जाते हैं, वहीं वे किनारे जो भरी जा रही होती हैं उनका भविष्य के निर्माण में इस्तेमाल के लिए होता है. लेकिन अत्याधिक बारिश और उपस के दौरान जब इन नदियों का जलस्तर बढ़ने लगता है तब कृत्रिम रूप से तैयार इन ज़मीनों पर खड़ी की गई इमारतों के ढहने का कारण बढ़ता जाता है. जिससे मानव जीवन को भारी खतरा होता है. हाल ही पुणे में आयी बाढ़ से पैदा हुए हालात, इस स्थिति के गवाह हैं.
मुंबई नगरपालिका क्षेत्र में, पर्यावरण के प्रति संवेदनशील वसई और ठाणे जैसे खाड़ी क्षेत्र एवं मैंग्रोव क्षेत्रों का इस्तेमाल गुप्तरूप से डंपिंग ग्राउन्ड के तौर पर किया जा रहा है.
राज्य सरकारों को जल संरक्षण के लिए नदी के किनारों पर दो बाढ़ रेखाएं खींचने के आदेश निर्गत किए गए है. मानचित्रों पर दर्शाये गए लाल एवं नीली लकीरें, बाढ़ की आशंका वाले क्षेत्रों अथवा भूमि की ओर इशारा करती है. नीली रेखा, पिछले 25 सालों में सबसे ज़्यादा बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों को इंगित करती है, और लाल रेखाएं पिछले 100 वर्षों में सबसे ज़्यादा बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों को दर्शाती है. नीली रेखा तक के क्षेत्र परिधि में किसी प्रकार का निर्माण निषेध है. हालांकि, कुछ सार्वजनिक सुविधाओं को इन प्रतिबंधित क्षेत्रों में नीली एवं लाल रेखाओं के परिधि के भीतर संचालित करने को अनुमति प्राप्त है.
समाधान
इन शर्तों के बावजूद, शहरों ने प्रतिबंधित एवं निषिद्ध क्षेत्रों के दुरुपयोग की रोकथाम के प्रति काफी हद तक अरुचि एवं अयोग्यता ही दिखायी है. महाराष्ट्र के एक भूतपूर्व मुख्यमंत्री ने आधिकारिक तौर पर ये स्वीकार किया है कि महाराष्ट्र के कई नदियों के किनारों पर स्थित इन बाढ़-प्रभावित एवं बाढ़ ग्रसित रेखा के भीतर, काफी निर्माण हुए हैं.
सेंटर फॉर साइंस एंड एनवॉयरमेंट के अनुमान के अनुसार वर्ष 2005 से 2013 के अंतराल में, करीबन 287 मिलियन टन निर्माण और विध्वंस अपशिष्ट एवं कचरे को देशभर में इन नदियों के किनारे पर डंप किया गया है, जिसकी वजह से नदियों के तंत्र व उसके इको-सिस्टम को काफी नुकसान पहुंचा है. मुंबई नगरपालिका क्षेत्र में, पर्यावरण के प्रति संवेदनशील वसई और ठाणे जैसे खाड़ी क्षेत्र एवं मैंग्रोव क्षेत्रों का इस्तेमाल गुप्तरूप से डंपिंग ग्राउन्ड के तौर पर किया जा रहा है. कई जानकारों ने चेतावनी देते हुए कहा है कि जब तक विध्वंस अपशिष्टों की री-साइक्लिंग नहीं होती है, तब तक आपदा हमारा इंतज़ार कर रही है.
दुर्भाग्यवश, देश में काफी कम राज्यों के पास निर्माण एवं विध्वंस अपशिष्टों के पुन:र्चक्रण की व्यवस्था है. ऐसा इस सच्चाई के बावजूद है कि कचरे का पुनर्चक्रण एक अत्यंत लाभकारी एवं मुनाफे वाला व्यवसाय है और बदले में ये काफी बेहतर फायदा देती है. इसके अलावा, C&D नियमों के तहत शहरी स्थानीय निकायों को अपने होने वाले निर्माण कार्यों में ये 10 से 20 प्रतिशत तक री-साइकल किये गये कचरों के इस्तेमाल का प्रावधान है. इसके साथ ही, ये अपने सभी हितधारकों जिसमें कि परिवहन ठेकेदार, डेवलपर, यूएलबी एवं राज्य सरकार शामिल हैं, उन सभी को, अपशिष्ट एवं कचरे के निपटान के लिए ज़िम्मेदार बनाती है. ये मलबों के पुन:र्चक्रीकरण को अनिवार्य बनाता है और निर्देशित स्थलों से बाहर किसी वर्जित स्थानों पर इन कचरों को डंप किए जाने को अवैध करार देता है.
ज्यों-ज्यों शहरें अपने भीतर अधिक से अधिक लोगों को समायोजित करने के लिए विस्तार करेंगी, त्यों-त्यों हो रहे निर्माण एवं विध्वंस से उत्पन्न कचरों से निपटारण की समस्या जटिल होती जाएगी. शहरों में बाढ़ की वजह से होने वाले नुकसान को समझते हुए, कचरे के निपटारण पर रोक नहीं लगाया जाना, मूर्खतापूर्ण साबित होगा, ख़ासकर- उन स्थानों पर जहां जल निकासी से समझौता किया जाता रहा है.
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