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Published on Apr 12, 2024 Updated 0 Hours ago

सरकार को निजी कंपनियों के साथ मिलकर काम करना होगा. ऐसे दिशा-निर्देश बनाने होंगे कि दीर्घकालीन फायदे के लिए कंपनियों के मुनाफे का इस्तेमाल सार्वजनिक हित में हो

मुनाफे का सार्वजनिक हित में इस्तेमाल: कंपनियों और समाज के बीच साझा मूल्यों का सृजन

कंपनियों के उद्देश्यों का क्रमिक विकास

निजी कंपनियों का औचित्य और उनका लक्ष्य क्या है? अमेरिकी अर्थशास्त्री मिल्टन फ्रीडमैन के मुताबिक उनका लक्ष्य अधिकतम मुनाफा कमाना है. अगर कोई कंपनी मुनाफे के अलावा किसी सामाजिक उद्देश्य की बात करती है तो ये शुद्ध और विशुद्ध समाजवाद होगा. यानी निजी कंपनियों के अंतिम लक्ष्य के फ्रीडमैन सिद्धांत की व्याख्या “शेयरधारक की सर्वोच्चता” के तौर पर की जा सकती है. अगर कंपनी कोई दान-पुण्य का काम करती है, तब भी यही माना जाता है कि कंपनी ऐसा अपनी इमेज चमकाने और ग्राहकों का दिल जीतने की रणनीति के तहत कर रही है. कंपनियों के उद्देश्य को लेकर इस तरह की राय उस दौर में बहुत मज़बूत थी, जब लोग वित्त की कमी यानी पैसों के अभाव को लेकर ज्यादा जबकि मानवीय, प्राकृतिक और सामाजिक संसाधनों की कमी को लेकर कम चिंतित थे. लेकिन क्या हमेशा से कंपनियों का लक्ष्य शेयर होल्डर्स पर केंद्रित था?

हालांकि 1919 के डोज बनाम फोर्ड मोटर कॉर्पोरेशन के केस में शेयरधारकों के मुनाफे को कंपनी का अंतिम लक्ष्य माना गया लेकिन बीसवीं सदी के मध्य में इसे लेकर राय बदलनी शुरू हुई. 1940 से 1970 के दशक में एक नया दृष्टिकोण उभरना शुरू हुआ. ये वो दौर था, जब अमेरिका में निजी कंपनियां अपनी सबसे बेहतर स्थिति में थीं. वो खूब तरक्की कर रहीं थीं. कंपनियां अपना आर्थिक असर बढ़ाती जा रही थी. समाज उन पर निर्भर हो रहा था. लेकिन इसी दौर में ये धारणा बदलने लगी कि कंपनी का लक्ष्य सिर्फ शेयरधारकों का मुनाफा होना चाहिए. अब ये कहा जाने लगा कि कंपनियों को सिर्फ शेयरधारकों का हित ही नहीं देखना चाहिए, उन्हें समावेशी बनना चाहिए. कर्मचारियों, ग्राहकों और समाज के प्रति भी उनकी जिम्मेदारी होनी चाहिए. पीटर ड्रकर और कार्ल केयसन जैसे प्रबंधन और अर्थशास्त्र के दिग्गजों ने इस थ्योरी को आगे बढ़ाने का काम किया. इनका कहना था कि कंपनियों को शेयरधारकों से आगे सोचना चाहिए. सामाजिक कर्तव्यों के बारे में बात करनी चाहिए. उन्हें कंपनी के तौर पर नहीं बल्कि संस्था के तौर पर काम करना चाहिए. यही वो दौर था जब कंपनियों के उद्देश्यों में काफी विकास हुआ. अब ये माना जाने लगा कि कंपनी का लक्ष्य सिर्फ शेयरहोल्डर्स को अधिकतम मुनाफा कमाकर देना नहीं हो सकता. समाज के अलग-अलग समूहों के प्रति भी उन्हें अपनी जिम्मेदारी निभानी होगी.

वैश्विक स्तर पर जैसे-जैसे विकास होता गया, वैसे-वैसे कंपनियों को लेकर अब लोगों की राय फ्रीडमैन सिद्धांत से काफी बदल गई. आज की पीढ़ी जलवायु परिवर्तन, वायु प्रदूषण और प्राकृतिक संसाधनों में आ रही कमी से पैदा हो रहे संकटों और संघर्षों को अपने सामने प्रत्यक्ष रूप से होते हुए देख रही है.


वैश्विक स्तर पर जैसे-जैसे विकास होता गया, वैसे-वैसे कंपनियों को लेकर अब लोगों की राय फ्रीडमैन सिद्धांत से काफी बदल गई. आज की पीढ़ी जलवायु परिवर्तन, वायु प्रदूषण और प्राकृतिक संसाधनों में आ रही कमी से पैदा हो रहे संकटों और संघर्षों को अपने सामने प्रत्यक्ष रूप से होते हुए देख रही है. अगर ऐसे में कोई ये कहता है कि कंपनियों का एकमात्र मकसद मुनाफा कमाना होना चाहिए तो इस सिद्धांत को सामाजिक, पर्यावरणीय और जलवायु परिवर्तन के साथ-साथ मानवता के लिए ख़तरे के तौर पर देखा जा रहा है. कंपनियों को अब ऐसे किराए की इकाई के रूप में देखा जा रहा है जो प्राकृतिक संसाधनों और पर्यावरण की कीमत पर अपनी बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करती हैं. इसकी कीमत उस प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र (इकोसिस्टम) को भी चुकानी पड़ती है जो मानव समाज को सुरक्षा प्रदान करता है. मुनाफा कमाने की ये अंधी दौड़ कारोबारियों को इस बात से भी अनभिज्ञ कर देती है कि उनके लालच की कीमत समाज को चुकानी पड़ती है. इतना ही नहीं इस तरह की सोच कारोबार को जलवायु परिवर्तन के ज़ोखिमों को कम करते हुए पर्यावरण के अनुकूल स्थायी विकास की तरफ ले जाने से भी रोकती है.

ये सच भी है कि दुनिया में पर्यावरण को लेकर कई संकट सिर्फ इस वजह से पैदा हुए हैं कि मुक्त बाज़ार वाली व्यवस्था इस बात पर कभी विचार नहीं करती कि उसकी आर्थिक गतिविधियों की समाज को कितनी गंभीर कीमत चुकानी पड़ रही है. दरअसल पुरानी सोच ये कहती है कि आर्थिक गतिविधियों से पर्यावरण पर पड़ने वाला असर बहुत कम या नगण्य होता है, लेकिन आज के दौर की हक़ीकत ये है कि हम एक ऐसी दुनिया में रह रहे हैं जो लगातार कम होते प्राकृतिक संसाधन स्थायी विकास की राह में बड़ी चुनौती हैं.


साझा मूल्यों का निर्माण

आज के दौर में पूंजीवादी व्यवस्था कटघरे में हैं. हार्वर्ड बिजनेस स्कूल के प्रोफेसर माइकल पोर्टर और मार्क क्रेमर ने कहा भी है कि "बिजनेस को लेकर अदूरदर्शी सोच की वजह से पूंजीवाद सिस्टम सवालों के घेरे में है". मुनाफे की परिभाषा बदली जानी चाहिए. कंपनियों से होने वाले लाभ को निजी फायदे तक सीमित नहीं रखना चाहिए. इससे ऐसे साझा मूल्यों का सृजन किया जाना चाहिए, ऐसे क्षेत्रों की पहचान कर चाहिए जहां निजी हित और सामाजिक विकास को आपस में जोड़ा जा सके. इसलिए कंपनियों को अपने मुनाफे की रणनीति बनाते वक्त जलवायु और पर्यावरण सुधार के लक्ष्यों को भी ध्यान में रखना चाहिए. निजी लाभ की परिभाषा को व्यापाक बनाते हुए सार्वजनिक हित को भी इसमें शामिल करना चाहिए.

यहां ये बताना ज़रूरी है कि मुनाफे को सार्वजनिक हित से जोड़ना परोपकार नहीं है. फ्रीडमैन और दूसरे अर्थशास्त्रियों ने सामाजिक उद्देश्यों को कंपनियों के लक्ष्यों में शामिल नहीं करने को लेकर जो तर्क दिए थे, उनका अर्थ ये था कि कंपनी अगर मुनाफे से आगे सामाजिक उद्देश्यों को लेकर काम करेगी तो इससे शेयरधारकों और कर्मचारियों के हित प्रभावित होंगे. उसका तर्क ये था कि अगर कंपनी के अधिकारी सामाजिक हितों को प्राथमिकता देंगे तो ये एक तरह से शेयरधारकों पर टैक्स लगाने जैसे हो जाएगा. उनका कहना था कि समाज कल्याण का काम सरकार का है, कंपनियों का नहीं.

जो व्यवसाय खुद को सतत विकास के सिद्धांतों से जोड़ते हैं, वो मुनाफा भी कमाते हैं. शेयरधारकों और समाज के बीच साझा मूल्यों का सृजन भी करते हैं.


लेकिन मौजूदा दौर में इस तर्क में दम नहीं है क्योंकि मुनाफा और सामाजिक हित एक-दूसरे से जुड़े हैं. 2022 में हुई एक स्टडी में ये पाया गया कि जिन कंपनियों ने पर्यावरण, सामाजिक और शासन (ESG) के क्षेत्र में ज्यादा निवेश किया, उन्हें वित्तीय और मूल्यों यानी दोनों ही क्षेत्रों में ज्यादा मुनाफा हुआ. यानी जो व्यवसाय खुद को सतत विकास के सिद्धांतों से जोड़ते हैं, वो मुनाफा भी कमाते हैं. शेयरधारकों और समाज के बीच साझा मूल्यों का सृजन भी करते हैं.

जो लोग शेयरहोल्डर्स को अधिकतम मुनाफा देने को ही कंपनी का आखिरी लक्ष्य मानते हैं, वो दो अहम पहलुओं की अनदेखी कर देते हैं. 1)वैश्विक स्तर पर पर्यावरण संकट में उनकी भूमिका. 2)इन संकटों का ख़ुद शिकार होने के ख़तरे की प्रति उदासीनता. जो बिजनेस जलवायु परिवर्तन के ख़तरों को नहीं समझते, उनसे निपटने की रणनीति नहीं बनाते, उनके लंबे समय तक इस क्षेत्र में टिके रहने की संभावना बहुत कम होती है.

व्यवसाय और समाज के बीच साझा मूल्य का सृजन अपने आप नहीं होगा. इसे लेकर अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर फ्रेमवर्क बनाए जाने की ज़रूरत है, जिसमें ये बताया जाए कि मुनाफे को प्राथमिकता देने के कारोबार के उद्देश्य को समाज का हित पूरा करने का एक ज़रिया माना जाए. इसे नेस्ले के उदाहरण से समझिए. साझा मूल्यों के सृजन और सतत विकास को लेकर नेस्ले ने 2023 में एक रिपोर्ट जारी की, जिनमें इन बातों का उल्लेख है. इसमें कहा गया है कि नेस्ले 1)स्वादिष्ट और संतुलित आहार बनाएगी 2)खाद्य पदार्थों की सुरक्षा और गुणवत्ता पर ध्यान देगी 3)कार्बन उत्सर्जन में कमी लाएगी 4)कृषि क्षेत्र में स्थायी विकास के लक्ष्यों का ख्याल रखेगी 5)पैकेजिंग और मार्केटिंग में भी रिसाइक्लिंग को बढ़ावा देगी. ये दिखाता है कि नेस्ले अपने उत्पाद के मूलभूत स्रोत यानी ज़मीन से लेकर अपने वेल्यू चेन के आखिरी छोर यानी उपभोक्ता तक पहुंचने में स्थायी विकास का ध्यान रखती है. कृषि के स्थायी विकास के तरीकों का इस्तेमाल कर वो ज़मीन की उत्पादकता बढ़ाती है. इससे किसान समुदाय का भला होता है. फसल की खरीद से लेकर ग्राहकों तक पहुंचने में इन बातों का ख्याल रखा जाता है कि पर्यावरण को नुकसान ना हो. इस प्रक्रिया में नेस्ले को होने वाले मुनाफे से समाज को भी फायदा होता है. नेस्ले की ये प्रक्रिया आदर्श भले ही ना हो लेकिन इनमें वो विशेषताएं ज़रूर हैं, जिससे कॉर्पोरेट इकोसिस्टम और सामाजिक मूल्यों पर असर पड़ता है.


ये व्यवस्था बाज़ार संचालित हो या फिर नीति से संचालित?

बड़ी कंपनियां तो ये समझ गई हैं कि अगर उन्हें लंबे वक्त तक बाज़ार में टिके रहना है तो स्थायी विकास के लक्ष्यों के तहत काम करना होगा लेकिन चिंता की बात ये है कि सिर्फ बड़ी कंपनियों के बूते हम सामाजिक मूल्य या सार्वजनिक हित हासिल नहीं कर सकते. ग्लोबल साउथ यानी विकासशील देशों की छोटी कंपनियों को भी ऐसा करना होगा, लेकिन उनके लिए ऐसा करना मुश्किल होता है. यहां पर ये स्वीकार करना भी अहम है कि अगर कोई कंपनी दीर्घकाल के हिसाब से रणनीति बनाती है, अल्पकालीन मुनाफे की बजाए दीर्घकालीन सामाजिक हित की बात करती है तो फिर ये उसके अस्तित्व के औचित्य का एक अलग पहलू सामने लाती है. अगर इससे समाज को मिलने वाले फायदे को देखें तो ये उस आर्थिक लाभ से काफी ज्यादा होता है जिसे विशुद्ध आर्थिक मुनाफे के नज़रिए से देखा जाता है. यानी इससे फ्रीडमैन के "शेयरधारक की श्रेष्ठता" के सिद्धांत पर गंभीर सवाल खड़े होते हैं.

ध्यान रखा जाए कि ग्लोबल साउथ के देशों में चल रहे व्यवसाय पहले से ही संघर्ष कर रहे हैं, क्योंकि इनके सामने अलग तरह की सामाजिक और आर्थिक चुनौतियां होती हैं. ऐसे में ग्लोबल नॉर्थ और ग्लोबल साउथ के देशों में व्यवसाय को लेकर गंभीरता से चर्चा करनी होगी. 


हालांकि फ्रीडमैनियन सिद्धांत बाज़ार की ताकतों से संचालित होता है, इस नियम के साथ बुनियादी समस्या ये है कि मुनाफे की अंधी दौड़ ने कंपनियों को अदूरदर्शी संस्थाओं में बदलकर रख दिया. लेकिन अगर बाज़ार भविष्य में होने वाली उन चीजों को देखे जिसे बाकी लोग देखने में सक्षम नहीं है तो फिर ये हो सकता है कि साझा मूल्य निर्माण की प्रक्रिया बाज़ार संचालित हो जाए. हालांकि अभी ऐसा नहीं हो रहा है. ऐसे में ये ज़रूरी है कि सरकारें इसमें दखल दें. फिर चाहे वो G-20 और BRICS जैसे बहुपक्षीय मंचों के ज़रिए हो या फिर राष्ट्रीय स्तर पर. सरकार को निजी कंपनियों के साथ मिलकर काम करना होगा. ऐसे दिशानिर्देश बनाने होंगे कि दीर्घकालीन फायदे के लिए कंपनियों के मुनाफे का इस्तेमाल सार्वजनिक हित में हो. इसे लेकर सरकार को कुछ आर्थिक प्रोत्साहन भी देने होंगे और नियम भी बनाने होंगे. लेकिन इस बात पर गौर करना भी ज़रूरी है कि अगर इसे लेकर कोई अंतरराष्ट्रीय नियम बनाए जाते हैं तो इस बात का भी ध्यान रखा जाए कि ग्लोबल साउथ के देशों में चल रहे व्यवसाय पहले से ही संघर्ष कर रहे हैं, क्योंकि इनके सामने अलग तरह की सामाजिक और आर्थिक चुनौतियां होती हैं. ऐसे में ग्लोबल नॉर्थ और ग्लोबल साउथ के देशों में व्यवसाय को लेकर गंभीरता से चर्चा करनी होगी. ईमानदारी से ये स्वीकार करना होगा कि दोनों के बीच कारोबार के तरीकों को लेकर कुछ असहमतियां हैं. इसी के बाद एक साझा लक्ष्य हासिल करने की दिशा में काम किया जा सकेगा.

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Authors

Nilanjan Ghosh

Nilanjan Ghosh

Dr Nilanjan Ghosh is a Director at the Observer Research Foundation (ORF) in India, where he leads the Centre for New Economic Diplomacy (CNED) and ...

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Promit Mookherjee

Promit Mookherjee

Promit Mookherjee was an Associate Fellow at the Centre for Economy and Growth in Delhi. His primary research interests include sustainable mobility, techno-economics of low ...

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