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बंगाल के विधानसभा चुनाव के नतीजे इस बात का स्पष्ट संकेत देंगे कि क्या बंगाल उसी पुराने राजनीतिक ढांचे का चुनाव करेगा, जो स्थानीय है, कम संसाधन वाला है और जिनका झुकाव मध्यमार्गी वामपंथ की ओर अधिक है. या फिर, बंगाल ख़ुद को उस नए राजनीतिक माहौल के रंग में रंगेगा, जो दक्षिणपंथी झुकाव वाला है.
अगले कुछ हफ़्तों में बंगाल में विधानसभा के सत्रहवें चुनाव होने वाले हैं. हालांकि, आधी से ज़्यादा फ़रवरी बीत चुकी है, मगर हवा में अभी भी हल्की सी ठंडक है. लेकिन, ऐसे मौसम में भी बंगाल का राजनीतिक माहौल पूरी तरह गरमाया हुआ है. अगर हम बंगाल के मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य की तुलना हालिया इतिहास से करना चाहें, तो ये काफ़ी हद तक 2011 से मिलता-जुलता है. उस समय बंगाल पर तीन दशक से राज कर रहे, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (CPM) की अगुवाई वाले वामपंथी मोर्चे को ममता बनर्जी के नेतृत्व वाली तृण मूल कांग्रेस (AITC) ने शिकस्त देकर सत्ता से बेदख़ल कर दिया था. हालांकि, 2011 और आज की तुलना में एक बड़ा अंतर है. तब, वामपंथी मोर्चे की तुलना में ममता बनर्जी को स्पष्ट विजेता माना जा रहा था. लेकिन, जहां तक बात 2021 के चुनावों की है, तो भले ही बंगाल का राजनीतिक इतिहास विजेता को भारी बहुमत देने वाला रहा हो, मगर इस बार मुक़ाबला बेहद कांटे का लग रहा है. 2021 के चुनाव में तृणमूल कांग्रेस की सत्ता को चुनौती देने वाला प्रमुख दल भारतीय जनता पार्टी है. इस लेख में हम बंगाल के 2021 के विधानसभा चुनावों की अहमियत की समीक्षा करेंगे.
सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस के लिए, इस चुनाव का सबसे प्रमुख फैक्टर ये पता लगाना है कि क्या पार्टी अध्यक्ष ममता बनर्जी अभी भी इतनी लोकप्रिय हैं कि अकेले दम पर पार्टी को चुनाव जिता सकें. तृणमूल के बहुत से नेताओं ने ममता बनर्जी का साथ छोड़ दिया है. वहीं, बीजेपी ने विधानसभा चुनाव में अपनी पूरी ताक़त झोंक दी है. चुनाव से पहले निचले स्तर पर भयंकर भ्रष्टाचार के आरोप लग रहे हैं. लेकिन, बीजेपी की तमाम कोशिशों के बावजूद, कम से कम अब तक तो बीजेपी की उम्मीद के मुताबिक़, भ्रष्टाचार का मुद्दा चुनाव अभियान में हावी होता नहीं दिख रहा है. इसकी सबसे बड़ी वजह ये है कि करोड़ों रुपए के शारदा चिट-फंड घोटाले के मुख्य आरोपी मुकुल रॉय इस वक़्त बीजेपी में हैं और पार्टी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हैं. बल्कि, सच तो ये है कि बंगाल में बीजेपी के इस वक़्त के तीन सबसे बड़े चुनावी प्रबंधक, मुकुल रॉय, सुवेंदु अधिकारी और सोवन चटर्ची, तीनों ही तृणमूल कांग्रेस छोड़कर आए हैं, और तीनों पर ही भ्रष्टाचार के आरोप हैं. तृणमूल कांग्रेस के लिए एक अच्छा मौक़ा इस बात में भी है कि वो राज्य के लोगों को बार-बार ये याद दिलाती रहे कि तृणमूल के भ्रष्टाचारी नेता आज बीजेपी के चुनाव प्रबंधक बने हुए हैं.
चुनाव से पहले निचले स्तर पर भयंकर भ्रष्टाचार के आरोप लग रहे हैं. लेकिन, बीजेपी की तमाम कोशिशों के बावजूद, कम से कम अब तक तो बीजेपी की उम्मीद के मुताबिक़, भ्रष्टाचार का मुद्दा चुनाव अभियान में हावी होता नहीं दिख रहा है.
दूसरी अहम बात ये है कि ममता बनर्जी की राजनीति, समाज के हर वर्ग के लोगों को सरकारी सब्सिडी का लाभ पहुंचाने के इर्द-गिर्द घूमती रही है. उन्नीसवीं सदी के विवादित सियासी जुमले, ‘लोक-लुभावन राजनीति’ की सबसे अच्छी व्याख्या हमें ममता बनर्जी की राजनीति में दिखती है, जो हर वर्ग के लिए कोई न कोई सरकारी योजना चलाती हैं. ‘अंतिम संस्कार’ के लिए छोटी सी राशि देने से लेकर कुछ जन्मजात बीमारियों के मुफ़्त इलाज तक-वाक़ई ममता बनर्जी के राज में समाज के हर वर्ग के लिए कोई न कोई योजना चलाई जाती है. हाल ही में ममता बनर्जी ने सबके लिए स्वास्थ्य योजना की शुरुआत की है. बेहद कम समय में (31 जनवरी तक) राज्य के 76 लाख लोग इस योजना से जुड़ चुके हैं, जो राज्य की कुल आबादी का सात फ़ीसद हैं. इस योजना की उपलब्धियों को लेकर काफ़ी चर्चा चल रही है (1). आज बंगाल में देश के सबसे ज़्यादा सूक्ष्म, लघु और मध्यम वर्ग के उद्योग (MSME उद्योग) हैं. इसे एक बड़ी उपलब्धि के तौर पर देखा जाता है. भले ही सरकार द्वारा चलायी गई हर योजना का लाभ समाज के हर वर्ग को बराबरी से न मिला हो. लेकिन, इससे जनता की फ़िक्र करने वाली नेत्री की ममता बनर्जी की छवि को कोई नुक़सान नहीं हुआ है.
लेकिन, ममता बनर्जी की एक योजना ऐसी है, जिसने उन्हें राजनीतिक तौर पर काफ़ी नुक़सान पहुंचाया है. ये एक छोटी सी योजना है जिसके तहत बंगाल के इमामों और मुअज़्ज़िनों (अज़ान देने वालों) को सरकार से भत्ता दिया जाता है. इमामों और मुअज़्ज़िनों के लिए इस योजना को लागू करने के बाद से ही ममता बनर्जी पर ‘मुस्लिम तुष्टिकरण’ के आरोप लगते रहे हैं. इससे बंगाल में हिंदू वोटों की गोलबंदी भी हुई है. 2014 में जहां बीजेपी का वोट 21 प्रतिशत था. वहीं, 2019 के आम चुनाव में बीजेपी को 57 फ़ीसद वोट मिले, जो राज्य में गहरे ध्रुवीकरण का संकेत देते हैं. अपनी इस ग़लती का एहसास होते ही, ममता बनर्जी ने सितंबर 2020 में हिंदू पुजारियों के लिए भी सरकारी गुज़ारा भत्ता देने का एलान किया था. अब इस बार के चुनाव नतीजे ये बताएंगे कि पुजारियों को भत्ता देने का एलान करके ममता बनर्जी हिंदू मतदाताओं को रिझा पाने में सफल हुई हैं या नहीं.
पर, इन लोक-लुभावन नीतियों से परे देखें, तो बंगाल के पास लंबी अवधि की कोई गंभीर आर्थिक योजना नहीं दिखती, जिससे रोज़गार पैदा किए जा सकें या संगठित क्षेत्र को बढ़ावा दिया जा सके. इस चुनाव के नतीजों से ये भी पता चलेगा कि बंगाल का वोटर, सूक्ष्म, लघु और मध्यम दर्जे के उद्योगों के सहारे धीमी विकास दर और लोक-लुभावन नीतियों से संतुष्ट है. या फिर, उसे बाहर से ठोस निवेश की अपेक्षा है, जिससे कि राज्य में बड़े कारोबारी आएं और संगठित क्षेत्र में रोज़गार के अवसर पैदा हों.
‘अंतिम संस्कार’ के लिए छोटी सी राशि देने से लेकर कुछ जन्मजात बीमारियों के मुफ़्त इलाज तक-वाक़ई ममता बनर्जी के राज में समाज के हर वर्ग के लिए कोई न कोई योजना चलाई जाती है. हाल ही में ममता बनर्जी ने सबके लिए स्वास्थ्य योजना की शुरुआत की है.
और आख़िर में, अब ये बात स्पष्ट है कि ममता बनर्जी- जिन्हें दीदी कहकर भी बुलाते हैं-पार्टी की कमान धीरे-धीरे अपने भतीजे और युवा शाखा के अध्यक्ष अभिषेक बनर्जी को सौंप रही हैं, जिससे पार्टी के भीतर उत्तराधिकार की लड़ाई का अंत हो सके. इस चुनाव के नतीजे सिर्फ़ ममता बनर्जी ही नहीं, बल्कि उनके भतीजे अभिषेक बनर्जी पर भी जनादेश होंगे. बीजेपी के लिए बंगाल का चुनाव-जो केरल के साथ देश के उन दो बड़े राज्यों में से एक है, जहां कभी न तो बीजेपी की और न ही उसके सहयोगियों की सरकार रही है-दो मायनों में महत्वपूर्ण है.
एक स्तर पर तो ये बीजेपी के लिए फौरी तौर पर राजनीतिक लाभ का अवसर है. वो भी उस वक़्त जब पार्टी अपने प्रमुख गढ़ कहे जाने वाले राज्यों में मुश्किल दौर से गुज़र रही है. ऐसे हालात में अगर बीजेपी बंगाल का चुनाव जीतती है, तो ये उसका हौसला बढ़ाने वाली जीत होगी. यही कारण है कि पार्टी ने राष्ट्रीय स्तर के कम-ओ-बेश अपने सभी नेताओं को बंगाल में प्रचार के लिए उतार दिया है. बीजेपी ऑनलाइन के साथ साथ ज़मीनी प्रचार के लिए बेपनाह दौलत ख़र्च कर रही है. इसके अलावा बीजेपी लगातार, तृणमूल कांग्रेस के नेताओं को शामिल करने में जुटी है. बीजेपी की इस रणनीति के फ़ायदे भी हैं और जोखिम भी. पहला जोखिम तो हार का ही है. एक और जीत से 66 बरस की ममता बनर्जी के राजनीतिक करियर को नई ताक़त मिल जाएगी. क्योंकि वो दस साल तक राज करने के बाद इस बार ज़बरदस्त एंटी इनकंबेंसी का सामना कर रही हैं. अगर, ममता बनर्जी लगातार तीसरी बार पश्चिम बंगाल विधानसभा का चुनाव जीत जाती हैं, तो वो 2024 के आम चुनाव में बीजेपी विरोधी खेमे का प्रमुख चेहरा बनकर उभरनेंगी. हालांकि, बीजेपी के नज़रिए से देखें, तो इस बार तृणमूल के लिए राह उतनी आसान नहीं है, जैसी 2016 में थी और इसका कारण भी स्पष्ट दिख रहा है.
अगर, ममता बनर्जी लगातार तीसरी बार पश्चिम बंगाल विधानसभा का चुनाव जीत जाती हैं, तो वो 2024 के आम चुनाव में बीजेपी विरोधी खेमे का प्रमुख चेहरा बनकर उभरनेंगी. हालांकि, बीजेपी के नज़रिए से देखें, तो इस बार तृणमूल के लिए राह उतनी आसान नहीं है, जैसी 2016 में थी और इसका कारण भी स्पष्ट दिख रहा है.
2021 के साल से भारत ने राज्य स्तरीय चुनावों के चक्र में प्रवेश कर लिया है. अब से लेकर वर्ष 2023 तक भारत के कई प्रमुख राज्यों में चुनाव होने वाले हैं-जिनका समापन 2024 के आम चुनावों के साथ होगा. उस समय केंद्र में बीजेपी की सरकार के दस साल पूरे हो चुके होंगे और वो एंटी इनकंबेंसी की चुनौती झेल रही होगी. तमाम विधानसभा चुनावों के पहले चरण में बीजेपी के लिए बंगाल जैसे बड़े राज्य में चुनाव जीतना बेहद आवश्यक है. क्योंकि, इस साल जिन अन्य दो राज्यों, तमिलनाडु और केरल में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं, वहां बीजेपी के जीतने की संभावनाएं न के बराबर हैं. ऐसे में बंगाल के चुनावों में बीजेपी का पूरी ताक़त झोंकने का तर्क समझ में आता है.
एक अन्य स्तर पर, बीजेपी के लिए पश्चिम बंगाल के चुनाव में जीत हासिल करना एक ऐतिहासिक ज़रूरत भी है. जैसा कि प्रमुख राजनीति शास्त्री आशीष नंदी ने कहा है कि, उन्नीसवीं सदी के अविभाजित भारत में कोलकाता और बंगाल में ‘हिंदू राष्ट्रवाद की एक धारा’ उत्पन्न होते देखी गई थी.
प्रोफ़ेसर आशीष नंदी कहते हैं कि, ‘हिंदू राष्ट्रवाद की ये लहर बंग-भंग आंदोलन (1905 में बंगाल के पहले विभाजन) के दौरान और बल्कि उससे पहले भी देखी गई थी. उस समय बंगाल में एक हिंदूवादी राष्ट्र की कल्पना के प्रति लोगों में झुकाव देखा गया था.’ प्रोफ़ेसर आशीष नंदी कहते हैं कि बीजेपी शायद इस बार पश्चिम बंगाल में इसी हिंदू राष्ट्रवादी धारा को उभारने की कोशिश कर रही है. ये पहली बार है जब पश्चिम बंगाल जैसे राज्य की राजनीति पर बीजेपी की इतनी मज़बूत पकड़ बन रही है. क्योंकि, पश्चिम बंगाल में समाजवादी और वामपंथी झुकाव के साथ-साथ हिंदू राष्ट्रवादी विचारधारा को भी पोषित किया जाता रहा है. ऐसे में बीजेपी इस ऐतिहासिक अवसर को क़तई नहीं गंवाना चाहती है. यही कारण है की पार्टी ने इस बार के बंगाल चुनाव में अपनी पूरी ताक़त झोंक दी है.
आर्थिक दृष्टि से देखें, तो बीजेपी की जीत से पश्चिम बंगाल को तेज़ी से बढ़ रहे बांग्लादेश के बाज़ार और अन्य क्षेत्रीय बाज़ारों तक पहुंच बनाने का मौक़ा मिलेगा. अगर बीजेपी चुनाव जीत कर बंगाल में आत्मविश्वास के साथ सरकार चलाती है, तो दक्षिणी चीन के साथ कारोबारी ताल्लुक़ बनाने की संभावनाओं के द्वार खुलने से भी इनकार नहीं किया जा सकता है. पश्चिम बंगाल में बीजेपी के जीतने से पूरब के क्षेत्रीय जियोपॉलिटिकल और जियोस्ट्रैटेजिक आयाम भी बदल सकते हैं. इससे इस क्षेत्र की आर्थिक और सांस्कृतिक व्यवस्था में भी बदलाव आ सकता है, जो पश्चिम बंगाल के विशाल प्राकृतिक और मानव संसाधनों के उपयोग का अवसर प्रदान करेगा.
और आख़िर में, पश्चिम बंगाल के चुनाव में बीजेपी की विजय का एक अर्थ ये भी होगा कि बंगाल के मुसलमानों-जिसमें से 90 फ़ीसद बांग्ला भाषा बोलते हैं-को हिंदू राष्ट्रवाद स्वीकार है. पश्चिम बंगाल के कुल 342 विकास खंडों में से आधे से अधिक में 25 प्रतिशत या इससे अधिक मुसलमान हैं. वहीं, राज्य के कम से कम 66 (22 प्रतिशत) विकास खंडों में मुसलमानों की आबादी 50 प्रतिशत या इससे अधिक है (2) ऐसे में बिना मुस्लिम वोट के बंगाल जीतना क़रीब-क़रीब असंभव है. जो बात बीजेपी के लिए फ़ायदे का सौदा हो सकती है, वो ये है कि मुसलमानों का एक तबक़ा तृणमूल कांग्रेस से काफ़ी नाराज़ है- और वो बीजेपी की तरफ़ शायद न जाए-लेकिन वो अब्बास सिद्दीक़ी की अगुवाई वाले इंडियन सेक्यूलर फ्रंट (ISF) का दामन थाम सकता है. इससे तृणमूल कांग्रेस को नुक़सान हो सकता है.
अगर मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी का पुराना हिंदू वोट बैंक अगर वापस वामपंथी मोर्चे की ओर लौटता है, तो आप समझिए कि बंगाल में बीजेपी का चुनावी दांव लगभग बेकार ही हो जाएगा.
राज्य के चुनावी मंज़र में तीसरा मोर्चा कांग्रेस और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी का है, जो आपस में सीटों के तालमेल का गठबंधन करने जा रहे हैं. कांग्रेस और वामपंथी मोर्चे का ये गठबंधन, अब्बास सिद्दीक़ी के ISF से भी हाथ मिलाने की कोशिश कर रहा है. इससे इस गठबंधन को तृणमूल कांग्रेस के मुस्लिम वोटों में सेंध लगाने में मदद मिलेगी और ममता बनर्जी को नुक़सान हो सकता है. वहीं, दूसरी तरफ़ कांग्रेस और वामपंथी मोर्चा (CPI-M) अगर तृणमूल कांग्रेस विरोधी हिंदू वोट बैंक पर हाथ मारता है, तो वो बीजेपी को भी नुक़सान पहुंचा सकता है. क्योंकि, 2019 के आम चुनाव में तृण मूल कांग्रेस से नाराज़ हिंदू वोट बीजेपी के खाते में गए थे. सीधे शब्दों में कहें तो अगर मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी का पुराना हिंदू वोट बैंक अगर वापस वामपंथी मोर्चे की ओर लौटता है, तो आप समझिए कि बंगाल में बीजेपी का चुनावी दांव लगभग बेकार ही हो जाएगा. ऐसे में भले ही वामपंथी मोर्चे और कांग्रेस अपने दम पर जीतने की उम्मीद न रखते हों, लेकिन, वो हिंदू और मुस्लिम वोट बैंक में सेंध लगाकर बड़े सियासी खिलाड़ियों यानी बीजेपी और तृणमूल कांग्रेस को नुक़सान ज़रूरत पहुंचा सकते हैं.
बंगाल के विधानसभा चुनाव के नतीजे इस बात का स्पष्ट संकेत देंगे कि क्या बंगाल उसी पुराने राजनीतिक ढांचे को तरज़ीह देगा, जो स्थानीय है, कम संसाधन वाला है और जिनका झुकाव मध्यमार्गी वामपंथ की ओर अधिक है. या फिर, बंगाल ख़ुद को उस नए राजनीतिक माहौल के रंग में रंगेगा, जो दक्षिणपंथी झुकाव वाला तो है. लेकिन, शायद उसमें वो क्षमता है कि वो संसाधनों और पूंजी की कमी वाली राज्य की अर्थव्यवस्था में पूंजी निवेश का रास्ता खोल सकता है, जिससे अपेक्षाओं और आकांक्षाओं में नई जान डाली जा सके.
यही कारण है कि एक बार फिर बंगाल की लड़ाई मोटे तौर पर वामपंथ और दक्षिणपंथ का संघर्ष ही है.
i. AITC’s election strategist I-PAC’s input.
ii. Living Reality of Muslims in West Bengal — A Report. Page 145-151.
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Suvojit Bagchi is a journalist based out of Kolkata. He formerly worked with theAnanda Bazar Patrikain Kolkata the BBC in Delhi and London andThe Hinduin ...
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