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Published on Oct 30, 2024 Updated 0 Hours ago

भारत को चाहिए कि वो पश्चिम की विश्वसनीयता में खोट का लाभ उठाते हुए सूचना का आक्रामक अभियान चलाए और फ़ौरी व रणनीतिक नाकामियों को सामरिक जीत में तब्दील करे.

भारत छोटी हारें भूलकर बड़ी जंग जीतने की कोशिश करे: पश्चिम की ‘अविश्वसनीयता’ उजागर करे!

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कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रुडो द्वारा ख़ालिस्तानी आतंकवादी हरदीप सिंह निज्जर की हत्या के लिए भारत की ख़ुफ़िया एजेंसियों को आरोपी बनाने के एक साल बाद, ये मसला एक बार फिर से सुर्ख़ियां बटोर रहा है. क्योंकि, कहा जा रहा है कि कनाडा ने अपने आरोपों के सबूत भारत से साझा किए हैं. इसके अतिरिक्त अमेरिका ने ख़ालिस्तानी नेता गुरपतवंत सिंह पन्नू की हत्या की साज़िश को लेकर चल रही जांच में विकास यादव नाम के एक भारतीय अधिकारी को आरोपी बनाया है. इन सभी बातों ने भारत की बाहरी ख़ुफ़िया एजेंसी रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (RAW) को ख़राब काम-काज और अपने अधिकारियों के बुरे प्रबंधन के साथ साथ जवाबदेही की कमी के लिए आलोचना का शिकार बनाया जा रहा है और कुछ आलोचकों ने तो इसे रॉ के इतिहास की सबसे बड़ी नाकामी तक क़रार दे डाला है. इस लेख में ये तर्क दिया गया है कि ऐसी आलोचनाएं संकुचित सोच के साथ की जा रही हैं, और इसके बजाय इस लेख में सुझाव दिया गया है कि भारत के बौद्धिक तबक़े और उसके वैश्विक नेटवर्क को चाहिए कि सूचना के क्षेत्र का इस्तेमाल करते हुए भारत फ़ौरी और रणनीतिक नाकामियों को सामरिक सफलताओं में परिवर्तित करे. 

रॉ की आलोचना करने वाले जिस एक बात पर एकमत हैं कि उसके भीतर पुलिस के अधिकारियों का दबदबा होने से रॉ एक बेअसर ख़ुफ़िया एजेंसी बन जाती है. क्योंकि, कोई भी गोपनीय अभियान चलाने के लिए जिन बुनियादी ख़ूबियों की ज़रूरत होती है, वो पुलिस अधिकारियों को समझ में नहीं आती है.

ख़ुफ़िया अभियानों का नाकाम होना तय होता है

 

रॉ की आलोचना करने वाले जिस एक बात पर एकमत हैं कि उसके भीतर पुलिस के अधिकारियों का दबदबा होने से रॉ एक बेअसर ख़ुफ़िया एजेंसी बन जाती है. क्योंकि, कोई भी गोपनीय अभियान चलाने के लिए जिन बुनियादी ख़ूबियों की ज़रूरत होती है, वो पुलिस अधिकारियों को समझ में नहीं आती है. अगर कोई ख़ुफ़िया एजेंसियों में काम करने वाले पुलिस अधिकारियों की उपयोगिता और उनकी चुनौतियों पर व्यापक रिसर्च करे, तो इससे निश्चित रूप से कुछ दिलचस्प नतीजे देखने को मिलेंगे, जिनका इस्तेमाल नीतियों के निर्माण के वक़्त किया जा सकता है. हालांकि, सिर्फ़ इसी आधार पर अमेरिका में नाकाम हुए अभियान की ज़िम्मेदारी तय की जाए, तो बात हज़म नहीं होती. मिसाल के तौर पर अगर पुलिस अधिकारियों के दबदबे की वजह से ही अमेरिका में रॉ का मिशन नाकाम रहा, तो इसी एजेंसी द्वारा पाकिस्तान के भीतर कई आतंकवादियों को सफलतापूर्वक मार गिराने को क्या कहा जाएगा? (यहां हम ये मानकर चल रहे हैं कि आतंकियों की ये हत्याएं रॉ ने ही कराई हैं). इसीलिए, ये सवाल उठाना उचित होगा कि अगर अमेरिका में नाकामी पूरी तरह से रणनीतिक थी या फिर संगठनात्मक कमी का नतीजा. सच्चाई तो ये है कि उत्तरी अमेरिका, रॉ के लिए एक नया कार्यक्षेत्र है और इतिहास ये दिखाता है कि सारी ख़ुफ़िया एजेंसियां नाकामियों का शिकार होती हैं और अपने काम के नए मोर्चे पर सटीक सफलता हासिल करने से पहले अपनी असफलताओं से सीखती हैं.

 

मिसाल के तौर पर 1998 में इज़राइल की ख़ुफ़िया एजेंसी ने हमास के नेता ख़ालिद मशाल को ज़हर देकर मारने की कोशिश की थी. इज़राइल का ये अभियान बुरी तरह नाकाम रहा था और इज़राइल के एजेंट जॉर्डन के हत्थे चढ़ गए थे, जिसके बाद दोनों देशों के बीच काफ़ी कूटनीतिक तनातनी भी हुई थी. ऐसा लगेगा कि ख़ालिद मशाल से जुड़ी ये नाकामी मोसाद के अभियान चलाने की क्षमता में गिरावट का संकेत थी, जबकि उस वक़्त तक मोसाद ऐसे अभियानों के लिए ही मशहूर थी. मोसाद के काम में इस गिरावट की वजह, जैसा कि रोनेन बर्गमैन ने कहा कि ‘बदलते हुए वक़्त के मुताबिक़ ख़ुद को ढालने में मोसाद की नाकामी’ थी. ईरान और एनक्रिप्शन की उन्नत तकनीक की आमद के साथ ही मोसाद को एक ऐसी नई परिस्थिति का सामना करना पड़ रहा था, जो ‘किसी अरब देश की तुलना में कहीं ज़्यादा उन्नत’ थी, जहां मोसाद पहले अभियान चलाती रही थी. काम काज के ऐसे नए हालात के मुताबिक़ अभियान चलाने के लिए वक़्त, योजना, और तैयारी के साथ साथ उससे भी अहम बात झटके बर्दाश्त करने और उनसे सही सबक़ सीखने की क्षमता की ज़रूरत होती है.

रूस, चीन और ईरान हों या फिर अमेरिका जैसे लोकतांत्रिक देश, सभी देशों की ख़ुफ़िया एजेंसियां अपनी ज़रूरत के मुताबिक़ संगठित आपराधिक गिरोहों के साथ गठबंधन करती रही हैं, ताकि अपनी गोपनीय जानकारी और अभियान चलाने की कमियों को पूरा कर सकें.

रॉ की आलोचना में जो दूसरी बात कही जा रही है, वो अपराधियों से साझेदारी करने की है. ऐसा करने वाला भारत कोई अनूठा देश नहीं है, फिर चाहे रणनीतिक नज़रिए से देखें या फिर नैतिकता के हवाले से. रूस, चीन और ईरान हों या फिर अमेरिका जैसे लोकतांत्रिक देश, सभी देशों की ख़ुफ़िया एजेंसियां अपनी ज़रूरत के मुताबिक़ संगठित आपराधिक गिरोहों के साथ गठबंधन करती रही हैं, ताकि अपनी गोपनीय जानकारी और अभियान चलाने की कमियों को पूरा कर सकें. मिसाल के तौर पर अमेरिकी ख़ुफ़िया एजेंसियों ने अपराधियों का इस्तेमाल अहम खुफिया जानकारी जुटाने के साथ साथ हत्या के अभियानों को अंजाम देने तक के लिए कई बार किया है. दूसरे विश्व युद्ध के दौरान अमेरिका की ख़ुफ़िया एजेंसियों और अंडरवर्ल्ड के बीच साठ-गांठ की जो शुरुआत हुई थी, उसके बाद से अमेरिकी एजेंट क्यूबा, अफ़ग़ानिस्तान, दक्षिणी पूर्वी एशिया और लैटिन अमेरिका समेत कई मोर्चों पर संगठित अपराधियों के साथ गठजोड़ कर चुके हैं, ताकि सफल अभियान चला सकें. इसीलिए, जवाबदेही के ठोस उपायों और नैतिकता के सवालों से इतर, ख़ुफ़िया एजेंसियां अपराधियों से तालमेल करना जारी रखेंगी, ख़ास तौर से तब और जब अपराधी नेटवर्क किसी मिशन के मक़सद हासिल करने के लिए ज़रूरी संसाधन और कौशल मुहैया करा सकें.

 

रॉ की आलोचना का तीसरा पहलू ऐसा लगता है कि विकास यादव से जुड़ा है, जिसके तथ्य अभी भी सामने आ रहे हैं. विकास यादव के चरित्र और ज़िंदगी के क़िस्से, आज सार्वजनिक परिचर्चा का विषय बन चुके हैं. अब सच्चाई जो कुछ भी हो, लेकिन सोच यही है कि विकास यादव को अमेरिका से बचाने की कोशिश की जा रही है. अगर ऐसा है, तो भी किसी ख़ुफ़िया अधिकारी को किसी देश द्वारा संरक्षण देने का, ख़ुफ़िया एजेंसियों के इतिहास में ये कोई पहला उदाहरण नहीं है. विकास यादव के प्रत्यर्पण के लिए अमेरिका द्वारा डाले जा रहे दबाव के बीच सोशल मीडिया पर बहुत से भारतीय, तहव्वुर राणा और डेविड हेडली की मिसालें देते हैं, जिनकी अमरेका ने हिफ़ाज़त की थी. वैसे तो ये तर्क सटीक लगता है. लेकिन, यहां ये बात रेखांकित करनी ज़रूरी है कि विकास यादव तो भारत की ख़ुफ़िया एजेंसी का एक अधिकारी है. जबकि, तहव्वुर राणा और डेविड हेडली, दोनों ही अमेरिकी ख़ुफ़िया एजेंसियों से सीधे तौर पर नहीं जुड़े हुए थे. अगर तुलना ही करनी है, तो एक सटीक तुलना तो रिचर्ड बार्टलेट और डेविड हडसन के क़िस्से से हो सकती है, जब ब्रिटेन की ख़ुफ़िया एजेंसी MI6 ने अपने इन दो अधिकारियों की जमकर हिफ़ाज़त की थी, जब उन पर 1995 के आख़िर में कर्नल मुअम्मर गद्दाफ़ी की हत्या की साज़िश रचने का इल्ज़ाम लगा था. इस घटना को लेकर मीडिया में सेंसरशिप होने की वजह से छन छनकर ही ख़बरें आई थीं. लेकिन, MI6 ने अपने अधिकारियों का ज़कर समर्थन किया था. ब्रिटेन ने उन्हें दूसरी जगह बसाकर नई पहचानें दी थीं. ऐसे में अपराधियों के साथ मिलकर किसी अभियान के नाकाम होने के बाद अधिकारियों के नाम से पर्दा उठने के मामले में भी भारत कोई अनूठा देश नहीं है.

 

नाकाम अभियानों को सूचना युद्ध के ज़रिये सामरिक सफलता में तब्दील करने की कोशिश

 

इतिहास में ऐसी तमाम मिसालें भरी पड़ी हैं जब रणनीतिक नाकामी के बाद सामरिक विजय हासिल हुई. युद्ध में ये ख़ास तौर पर लागू होती है. क्योंकि जंग के मैदान में क़िस्मत का साथ देना अलग बात है, लेकिन किसी युद्ध का नतीजा तय करने में और भी बहुत सी बातें शामिल होती हैं. इसका सबसे बड़ा उदाहरण 1968 में वियतनाम का का टेट ऑफेंसिव था. उत्तरी वियतनाम की सेना और विएत कॉन्ग ने अमेरिका और उसके सहयोगियों के ख़िलाफ़ हैरान कर देने वाला तब तक का सबसे बड़ा सैन्य अभियान छेड़ा था. ये अभियान वैसे तो नाकाम रहा था और हमला करने वाले गठबंधन को भारी नुक़सान का सामना करना पड़ा था और उसे जान की भारी क्षति उठाते हुए शहरों से पीछे हटना पड़ा था. इससे भी अहम बात ये कि युद्ध में जीत की पटकथा सूचना के मोर्चे पर लिखी गई थी. अभियान शुरू होने के तुरंत बाद इस घटना को लेकर मीडिया में जो कुछ दिखाया बताया जा रहा था, उससे ‘पश्चिम के मीडिया पर सवालिया निशान’ खड़े हो गए थे. जिसके बाद अमेरिकी जनता को अपनी सरकार के युद्ध समर्थक अभियान के प्रति कोई लगाव नहीं रह गया था. भारत और पश्चिमी देशों के बीच के मौजूदा हालात की तुलना वियतनाम के अनुभव से की जा सकती है.

 

टेट अभियान की तरह अमेरिका और कनाडा में भारत के अभियान चाहे परिष्कृत न रहे हों. लेकिन, इनमें एक दुस्साहस ज़रूर दिखा था, जिसके साथ राष्ट्रीय सुरक्षा के तर्क की ताक़त भी जुड़ी हुई थी. इस अभियान की नाकामी और उसके बाद सार्वजनिक हुई बातों ने लोगों को सामने आकर इन गतिविधियों पर ध्यान देने को प्रोत्साहित किया. हालांकि, भारत का बौद्धिक वर्ग जिस मोर्चे पर नाकाम रहा है, वो भारत की ख़ुफ़िया एजेंसी द्वारा चलाए गए अभियान से पैदा हुए इस अवसर का लाभ उठाकर आतंकवाद निरोध और संप्रभुता के सिद्धांतों को लेकर पश्चिम की कथनी और करनी के बीच ‘विश्वसनीयता के फ़र्क़’ को रेखांकित करने में असफलता है. अमेरिका घोषित रूप से ये कहता रहा है कि आतंकवाद से लड़ाई एक ऐसा सिद्धांत है, जिसके ख़िलाफ़ पूरी दुनिया को एकजुट होना चाहिए. लेकिन, ज़मीनी स्तर पर अमेरिका की आतंकवाद के ख़िलाफ़ अपनी नीतियां ही इस शोर शराबे के साथ मेल नहीं खाती हैं.

9/11 के हमले से पहले के दौर में बहुत से उदाहरण ये दिखाते हैं कि पश्चिम की ख़ुफ़िया एजेंसियां आतंकवादियों की हिफ़ाज़त करती थीं. ब्रिटेन, ओसामा बिन लादेन की रक्षा करने का दोषी था और अल क़ायदा के कई और आतंकवादी भी ब्रिटेन में छुपे हुए थे.

9/11 के हमले से पहले के दौर में बहुत से उदाहरण ये दिखाते हैं कि पश्चिम की ख़ुफ़िया एजेंसियां आतंकवादियों की हिफ़ाज़त करती थीं. ब्रिटेन, ओसामा बिन लादेन की रक्षा करने का दोषी था और अल क़ायदा के कई और आतंकवादी भी ब्रिटेन में छुपे हुए थे. ओसामा की गिरफ़्तारी के लिए लीबिया द्वारा जारी एक वारंट को ब्रिटेन और अमेरिका की ख़ुफ़िया एजेंसियों ने दबा दिया था. वहीं, इस्लामिक आतंकवाद के ख़तरे को कम करके बताया जाता था. इसके बावजूद जब 9/11 के हमले के बाद आतंकवाद के ख़िलाफ़ युद्ध (WoT) की शुरुआत हुई, तो ये उम्मीद लगाई जा रही थी कि इस युद्ध को लेकर जो नैरेटिव बनाया जा रहा, उसमें तो कुछ विश्वसनीयता होगी. फिर भी आतंकवाद के ख़िलाफ़ युद्ध के एक दशक के भीतर ही ये स्पष्ट हो गया था कि आतंकवादियों को निशाना बनाने के मामले में अमेरिका भेदभाव करता था, जिससे ‘तुम्हारा आतंकवादी’ और ‘मेरा आतंकवादी’ का विभेद पैदा हुआ. अभी भी, अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिका के अपने सैनिक वापस बुलाने के बाद से पश्चिमी देश आतंकवाद के ख़िलाफ़ लड़ाई के सिद्धांत को कमज़ोर करते जा रहे हैं और दुनिया भर में वांछित आतंकवादियों को अपने ख़ुफ़िया एजेंट की तरह इस्तेमाल करते हैं.

 

संप्रभुता का सिद्धांत 

 

आतंकवाद से लड़ाई की ही तरह संप्रभुता का सिद्धांत भी ऐसा है, जिसको लेकर पश्चिमी देश अपनी सुविधा के हिसाब से शोर मचाते हैं. इसका एक अच्छा उदाहरण अक्टूबर 1985 में ट्यूनिशिया की राजधानी ट्यूनिस में फिलिस्तीनी मुक्ति संगठन (PLO) के मुख्यालय पर इज़राइल का हवाई हमला है. इस हमले के बाद, संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता का सवाल उठाते हुए भारत समेत संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) के सदस्यों ने इज़राइल की आलोचना की और प्रस्ताव 573 पारित किया था. केवल अमेरिका ही इस प्रस्ताव पर वोटिंग के दौरान अनुपस्थित रहा था और इस तरह उसने ये संकेत दिया था कि सिद्धांतों से ज़्यादा अहमियत उसके हितों की है. इसी तरह ख़ुफ़िया जानकारी के मामले में, ख़ास तौर से कनाडा जिस तरह से भारत के ख़िलाफ़ अपनी संप्रभुता का सवाल खड़ा कर रहा है, ऐसे में इस बात जानकर लोगों को हैरानी होगी कि इज़राइल की ख़ुफ़िया एजेंसी मोसाद के एजेंटों को अभियान चलाने के लिए कनाडा ने अपने पासपोर्ट मुहैया कराए थे. ख़ुफ़िया एजेंसियों द्वारा किसी अन्य देश के नक़ली/फ़र्ज़ी पासपोर्ट का इस्तेमाल अपने अभियान के लिए करना कोई हैरानी वाली बात नहीं है. लेकिन, कनाडा जैसे देश जब संप्रभुता के सिद्धांत के उल्लंघन का रोना रोते हैं और फिर अपने असली पासपोर्ट को किसी अन्य देश द्वारा दुरुपयोग किए जाने की इजाज़त देते हैं, तो इससे विश्वसनीयता का गंभीर सवाल खड़ा हो जाता है.

रॉ अपनी नाकामी से सबक़ सीखकर अपने भीतर सुधार करती है या नहीं या फिर वो अंतरराष्ट्रीय नियम क़ानूनों का पालन करते हुए दूसरे देशों में टारगेटेड हत्या कराने से परहेज़ करती है. ये ऐसे सवाल हैं, जिनको लेकर फ़ैसले, दिल्ली में बैठे राजनीतिक और सुरक्षा तंत्र के नेता तमाम तथ्यों के आधार पर करेंगे.

ऐसे में सूचना के युद्ध के नज़रिए से पश्चिम की विश्वसनीयता पर खड़े हो रहे ये सवाल भारत को पूरा अवसर प्रदान करते हैं. पश्चिमी देशों में भी कुछ ऐसे तबक़े हैं, जो अपने ही सिद्धांतों के ख़िलाफ़ काम करने और आतंकवादियों की हरकतें बर्दाश्त करने या उनके साथ सहयोग करने के अपनी सरकारों के रवैये पर सवाल उठाते हैं. ये बात उस वक़्त भी उजागर हुई थी, जब कनाडा के विपक्षी नेता ने खालिस्तानियों को समर्थन देने की ट्रुडो सरकार की नीतियों पर सवाल उठाए थे. हालांकि, कुछ उल्लेखनीय अपवादों को छोड़ दें तो भारत के बौद्धिक वर्ग ने सूचना के युद्ध की रणनीति से महरूम रहते हुए न तो पश्चिम के इन विरोधाभासों को प्रचारित किया और न ही पश्चिम के पाखंड का पर्दाफ़ाश करने के लिए अपना पक्ष ही पूरी मज़बूती से दुनिया के सामने रखा. इसके बजाय उनका सारा ज़ोर रिसर्च एंड एनालिसिस विंग की काम-काज की क्षमता पर सवाल उठाने पर रहा. जो न केवल बेकार का सवाल है, बल्कि देश को नुक़सान पहुंचाने वाला भी है. रॉ अपनी नाकामी से सबक़ सीखकर अपने भीतर सुधार करती है या नहीं या फिर वो अंतरराष्ट्रीय नियम क़ानूनों का पालन करते हुए दूसरे देशों में टारगेटेड हत्या कराने से परहेज़ करती है. ये ऐसे सवाल हैं, जिनको लेकर फ़ैसले, दिल्ली में बैठे राजनीतिक और सुरक्षा तंत्र के नेता तमाम तथ्यों के आधार पर करेंगे. भारत की जनता और इसके प्रबुद्ध वर्ग को इस बात पर ज़ोर देने की ज़रूरत है कि वो सूचना के ऐसे आक्रामक अभियान चलाए, जहां रणनीतिक और अभियान संबंधी नाकामियों को सामरिक सफलताओं में परिवर्तित किया जा सके.

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