Author : Prithvi Iyer

Published on Feb 20, 2021 Updated 0 Hours ago

दुर्भाग्य से, महामारी के बढ़ते दबाव और इससे निपटने के लिए जन स्वास्थ्य पर अधिकाधिक बोझ के चलते मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी नीतियां और सेवाएं लड़खड़ा रही हैं.

मुश्किलों के लिए खुद को ढालना: कोरोना महामारी के बाद मनोवैज्ञानिक लचीलापन बेहद ज़रूरी

कोविड-19 के मनोवैज्ञानिक प्रभावों ने पूरे देश का ध्यान इस संकट की ओर आकर्षित करते हुए, इस बात को रेखांकित कर दिया है कि हर व्यक्ति के लिए मानसिक रूप से स्वस्थ होना बेहद ज़रूरी है. मानसिक रूप से स्वस्थ होने के महत्व पर साल 2020 में सामने आई चुनौतियों ने कई मायनों में बातचीत का रास्ता खोला है. हालांकि, सार्वजनिक हित के लिए मानसिक स्वास्थ्य के बुनियादी ढांचे में सुधार और बढ़ोत्तरी के लिए नीतिगत स्तर पर संरचनात्मक परिवर्तनों की आवश्यकता है.

दुर्भाग्यवश, मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं की दिशा में ज़रूरी नीतिगत प्रगति को एक बढ़ती महामारी और उस के चलते सार्वजनिक स्वास्थ्य पर पड़ते बोझ ने प्राथमिकताओं की सूची में पछाड़ दिया है. कोविड-19 से पहले ही, भारत ने अपने वार्षिक स्वास्थ्य बजट का केवल 0.05% मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च किया था. इस बेहद कम खर्च के अलावा, भारत में मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं की मांग और आपूर्ति के बीच भारी अंतर और विषमता लगातार बनी हुई है. भारत में प्रशिक्षित मनोवैज्ञानिकों बेहद कमी है और ग्रामीण इलाकों तक उनकी पहुंच न के बराबर है. प्रशिक्षित मनोवैज्ञानिकों और मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं की आपूर्ति में यह कमी जब मानसिक स्वास्थ्य को लेकर सामाजिक कलंक के साथ जुड़ जाती है तो इस का मतलब यह निकलता है कि भारतीयों की मनोवैज्ञानिक भलाई की स्थिति समग्र रूप से उदासीन है, और इस दिशा में उनकी मदद के लिए पर्याप्त साधन मौजूद नहीं.

लचीलापन, मानसिक स्वास्थ्य का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, क्योंकि यह चुनौतियों का सामना करने और मुश्किल परिस्थितियों का मुक़ाबला करने वाली रणनीतियों को अपनाने को लेकर इंसान की मदद करता है. 

भारत में मानसिक-स्वास्थ्य के बुनियादी ढांचे में स्पष्ट कमियों के बावजूद, एक सहज मानवीय गुण था- लचीलापन- जिसने कोविड-19 की महामारी का सामना करने के लिए वैश्विक रूप से लोगों को सक्षम बनाया. वह सामान्य की नई परिभाषा यानी न्यू नॉर्मल को आत्मसात कर पाए और अज्ञात के अनुकूल खुद को ढालने की कोशिश में जुटे रहे. मानसिक लचीलेपन ने साल 2020 को निर्धारित व परिभाषित किया और संभावित रूप से साल 2021 भी इसी लचीलेपन से आकार लेगा. लचीलापन, मानसिक स्वास्थ्य का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, क्योंकि यह चुनौतियों का सामना करने और मुश्किल परिस्थितियों का मुक़ाबला करने वाली रणनीतियों को अपनाने को लेकर इंसान की मदद करता है. मानसिक स्वास्थ्य को बनाए रखने के लिए वैकल्पिक तरीक़ों को तलाशने की क्षमता- या तो चिकित्सा यानी थेरेपी के ज़रिए या कोई नया शौक ढूंढने व ‘माइंडफुलनेस’ यानी मन-मस्तिष्क का तारतम्य बैठा कर खुद को एक दिशा में एकाग्र करने के अभ्यास के ज़रिए तबाही से निपटने की कोशिश में जुटना, समाजों में लचीलेपन की ताक़त का एक संकेत है. भले ही यह उम्मीद की जा रही है कि कोरोनावायरस की वैक्सीन कुछ राहत दे सकती है, लेकिन किसी भी दूसरे व्यक्ति से दूरी बनाकर रखने की बाध्यता का मनोवैज्ञानिक बोझ निश्चित रूप से अगले साल भी हमारी ज़िंदगी में दख़ल देगा. यही वजह है कि मनोवैज्ञानिक लचीलापन अगले साल और भी अधिक प्रासंगिक हो जाएगा.

मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं की सख़्त कमी

दुर्भाग्य से, प्रतिकूलताओं का सामना करने की एक सहज क्षमता का मतलब मनोवैज्ञानिक संकट से बरी हो जाना या उसे महसूस करने की क्षमता खो देना नहीं है. अमेरिकन साइकोलॉजिकल एसोसिएशन (American Psychological Association) के अनुसार, मनोवैज्ञानिक लचीलेपन को बनाने के लिए सामाजिक नेटवर्क को पोषित करना और स्वयं को असुरक्षा की नकारात्मकता से बचाकर पोषित करने से जुड़ा है. यह काम कहने-सुनने में आसान है, लेकिन इस पर अमल करना बेहद मुश्किल है. यही कारण है कि मानसिक स्वास्थ्य के प्रति दृष्टिकोण और नीतियों में आमूलचूल बदलाव की ज़रूरत है. यह विशेष रूप से भारत जैसे देश के लिए मायने रखता है जहां स्वास्थ्य सेवाएं और खासतौर पर मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी सेवाओं की बेहद कमी है और सामाजिक तंत्र में मौजूद असमानताएं इस स्थिति को और विकट बना देती हैं. माना जाता है कि भारत में मौजूद मानसिक स्वास्थ्य संबंधी बुनियादी ढांचे में कमी के कारण मनोवैज्ञानिक ज़रूतों की अनदेखी से देश को एक ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर से अधिक का नुकसान होता है.

उम्मीद यह है कि इस साझा संकट और अचानक मिली चेतावनी के चलते व्यापक स्तर पर इस दिशा में काम हो और सामूहिक रूप से हमारी मनोवैज्ञानिक स्थिति में सुधार हो.

लचीलेपन के लक्षणों का समर्थन करने के लिए भारतीयों की मनोवैज्ञानिक शिकायतों को संबोधित किया जाना ज़रूरी है. भारत में, जहां मनोवैज्ञानिक देखभाल अक्सर महंगी होती है और सामाजिक रूप से विशेषाधिकार प्राप्त लोगों तक ही पहुंच पाती है, वहां ज़मीनी स्तर पर मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं को बनाए रखने की सख़्त ज़रूरत है. इसके लिए, मानसिक स्वास्थ्य से संबंधित सुविधाओं को क्षेत्रीय स्तर पर बढ़ावा दिए जाने की ज़रूरत है. यह काम इस सुविधा और इन सेवाओं को क्षेत्रिय भाषाओं में उपलब्ध करा कर व स्थानीय लोगों को प्रशिक्षित करके किया जा सकता है ताकि देश के हर हिस्से और समाज के हर तबके के बीच मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं को बढ़ावा दिया जा सके. केंद्र सरकार द्वारा 24/7 मानसिक स्वास्थ्य हेल्पलाइन शुरू करना सही दिशा में उठाया गया एक क़दम है. हालांकि, इस तरह के एक प्रणालीगत मुद्दे को प्रभावी ढंग से संबोधित करने के लिए, अधिक ठोस प्रयासों की ज़रूरत है, जिसमें बजट को बढ़ाना, मानसिक स्वास्थ्य के बारे में भ्रांतियों व मिथकों को दूर करना और अधिक लोगों को पेशेवर मनोचिकित्सक के रूप में प्रशिक्षित करने के लिए प्रोत्साहित करना शामिल है.

मानसिक स्वास्थ्य के प्रति दृष्टिकोण और नीतियों में आमूलचूल बदलाव की ज़रूरत है. यह विशेष रूप से भारत जैसे देश के लिए मायने रखता है जहां स्वास्थ्य सेवाएं और खासतौर पर मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी सेवाओं की बेहद कमी है

जैसा कि ‘सुसाइड प्रिवेंशन इन इंडिया फाउंडेशन’ के संस्थापक नेल्सन मोसेज़ ने सटीक तौर पर कहा है कि, “कोविड-19 के चलते सभी लोग निराशा और हताशा की समान स्थिति को अनुभव करने के स्तर पर पहुंचे हैं” और मानसिक स्वास्थ्य को दरकिनार करने व अनदेखा करने के बजाय, अब हर घर में मौजूद समस्या के रूप में देखा जा रहा है. अब उम्मीद यह है कि इस साझा संकट और अचानक मिली चेतावनी के चलते व्यापक स्तर पर इस दिशा में काम हो और सामूहिक रूप से हमारी मनोवैज्ञानिक स्थिति में सुधार हो. साल 2021 में सामने आने वाली महामारी के बाद की परिस्थिति में, कोविड-19 द्वारा पीछे छोड़े गए मनोवैज्ञानिक दबावों पर सावधानीपूर्वक ध्यान देने की आवश्यकता होगी. लचीलापन पोषण और समर्थन के बिना टिक नहीं सकता, इसलिए यह महत्वपूर्ण है कि कोई भी यह महसूस न करे कि मन के साथ इस लड़ाई में वह अकेला है.

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