Author : Ashok Sajjanhar

Published on Apr 01, 2021 Updated 0 Hours ago

लगता ऐसा ही है कि जापारोव एकाधिकारवादी तरीके से शासन चलाएंगे जो देश के समक्ष आर्थिक, स्वास्थ्य, सामाजिक और विचारधारा के मोर्चों पर गहरे जड़ जमा चुकी चुनौतियों का समाधान ढूंढने के लिहाज से अनुकूल नहीं होंगी.

जोख़िम भरे सफ़र पर निकला किर्गिस्तान

अक्टूबर 2020 से जनवरी 2021 के दूसरे हफ़्ते तक 100 दिन से भी कम के समय में किर्गिस्तान के राजनीतिक परिदृश्य में आमूलचूल बदलाव देखने को मिला. इन परिवर्तनों के बारे में न तो इससे जुड़े मुख्य किरदारों और न ही राजनीतिक विश्लेषकों को पहले से कोई अंदेशा था.

इन बदलावों की शुरुआत 4 अक्टूबर 2020 को किर्गिस्तान की 120 सदस्यीय संसद के चुनावों के साथ हुई. वैसे तो इन चुनावों में दर्ज़नों पार्टियों ने हिस्सा लिया पर सिर्फ़ चार पार्टियां ही तय की गई न्यूनतम 7 प्रतिशत मत सीमा के पार पहुंच सकीं. इनमें से तीन सरकार समर्थक पार्टियों ने 100 से ज़्यादा सीटें हासिल कीं. सरकार का लगातार विरोध करते आ रहे दलों में से केवल एक पार्टी 13 सीटें पाने में कामयाब रही. इन परिणामों के बाद विपक्षी दलों ने मतों में धांधली का आरोप लगाया. आगे चलकर राजधानी बिश्केक और कुछ और स्थानों पर हिंसक प्रदर्शन शुरू हो गए. दो दिन बाद 6 अक्टूबर 2020 को प्रदर्शनकारियों ने चुनावों को रद्द करने की मांग उठाते हुए राजधानी बिश्केक में संसद भवन समेत कई सरकारी इमारतों पर कब्ज़ा जमा लिया.

10 जनवरी 2021 को उनको मुकम्मल अंजाम हासिल हुआ. उस दिन जापारोव ने बेहद शानदार ढंग से राष्ट्रपति पद का चुनाव जीता. 16 उम्मीदवारों से मुक़ाबला करते हुए उन्होंने कुल 79 फ़ीसदी वोट हासिल किया.

इसके बाद का घटनाक्रम बड़ी तेज़ी से बदला. 2013 में एक सरकारी अधिकारी के अपहरण के मामले में साढ़े 11 साल की जेल की सज़ा काट रहे लोकप्रियतावादी राजनेता सदर जापारोव को उनके समर्थकों से भरी एक भीड़ ने जेल से रिहा करा लिया. हफ़्ते भर के अंदर जापारोव को प्रधानमंत्री के पद पर तैनात कर दिया गया. 15 अक्टूबर 2020 को राष्ट्रपति सूरोनबई जीनबेकोव के इस्तीफ़ा देकर पद से हटने के बाद उन्होंने कार्यकारी राष्ट्रपति का पद भी संभाल लिया.

लेकिन जापारोव इतने से ही संतुष्ट नहीं थे. उनके दिमाग़ में इससे भी कहीं बड़े विचार उमड़-घुमड़ रहे थे.

10 जनवरी 2021 को उनको मुकम्मल अंजाम हासिल हुआ. उस दिन जापारोव ने बेहद शानदार ढंग से राष्ट्रपति पद का चुनाव जीता. 16 उम्मीदवारों से मुक़ाबला करते हुए उन्होंने कुल 79 फ़ीसदी वोट हासिल किया. उनकी कामयाबी को तब चार चांद लग गया जब राष्ट्रपति चुनाव के साथ कराए गए जनमत संग्रह में सरकार के अर्ध-संसदीय स्वरूप को बदलकर राष्ट्रपतिय प्रणाली को मंज़ूरी देने वाला बड़ा भारी जनादेश मिला. इसके ज़रिए एक संस्था के तौर पर राष्ट्रपति के पास पहले से कहीं ज़्यादा शक्तियां आ गई हैं.

पृष्ठभूमि

किर्गिस्तान में एकाधिकारवादी सत्ता के स्थान पर अर्ध-संसदीय प्रणाली काफ़ी कम समय के लिए टिक पाई. 2010 में किर्गिस्तान के संविधान में संशोधन करते वक़्त ये सोचा गया था कि इससे लोकतंत्र की जड़े बहुत गहरी होंगी और तख्तापलट और जबरन सत्ता परिवर्तन की घटनाएं अब आगे नहीं होंगी. ज़ाहिर है कि इस तरह की उम्मीदें हक़ीक़त से परे थीं.

किर्गिस्तान पर कोविड-19 महामारी का ज़बरदस्त दुष्प्रभाव पड़ा है. अर्थव्यवस्था ख़ासतौर से ग़रीब आबादी पर महामारी ने गहरी चोट की. स्वास्थ्य की लचर सुविधाओं और महामारी के दौरान बेरोकटोक भ्रष्टाचार की शिकार हुई जनता बदलाव के लिए बेचैन हो उठी. अंतरराष्ट्रीय कर्ज़ों के बढ़ते बोझ और रूस और कज़ाकिस्तान में रहने वाले किर्गिस्तानी लोगों द्वारा भेजी जाने वाली रकमों में गिरावट से राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था चरमरा गई.

किर्गिस्तान लंबे समय से अस्थिरता का शिकार रहा है. 2010 के बाद से वहां अब तक 14 प्रधानमंत्री रह चुके हैं. कोई भी 2 साल से ज़्यादा अपने पद पर नहीं रहा. अगस्त 2020 में सामने आए एक ओपिनियन पोल ने देश में एक नए सिरे से अशांति के ख़तरे की ओर ध्यान खींचा था. ओपिनियन पोल में शामिल 53 फ़ीसदी लोगों का मानना था कि देश ग़लत दिशा में जा रहा है. 2010 की क्रांति के बाद के सालों में ये पहली मौका था जब इतने  ज़्यादा लोगों ने देश की दशादिशा को लेकर अपनी नाख़ुशी जताई. सर्वेक्षण के अनुसार लचर अर्थव्यवस्था, महामारी (67 फ़ीसदी लोगों की राय थी कि सरकार इससे निपटने में बुरी तरह नाकाम रही) और चौतरफ़ा भ्रष्टाचार की वजह से लोगों में असंतोष के स्तर में बढ़ोतरी हुई थी.

किर्गिस्तान लंबे समय से अस्थिरता का शिकार रहा है. 2010 के बाद से वहां अब तक 14 प्रधानमंत्री रह चुके हैं. कोई भी 2 साल से ज़्यादा अपने पद पर नहीं रहा.

उत्तरी किर्गिस्तान की आबादी ज़्यादा विकसित और अर्थव्यवस्था के द्वितीयक और सेवा क्षेत्र पर निर्भर है. जबकि दक्षिण किर्गिस्तान के लोग मुख्य रूप से कृषि पर आधारित हैं. आर्थिक, वैचारिक और नस्लीय तौर पर विविधताओं वाले उत्तरी और दक्षिणी किर्गिस्तान के राजनेताओं के बीच चला आ रहा संघर्ष दशकों तक किर्गिस्तान की राजनीति में अपनी भूमिका निभाता रहा है. 4 अक्टूबर के बाद का चुनावी संकट उत्तर के हिंसक लड़ाका समूहों द्वारा तख्तापलट के लिए रची गई रणनीति का हिस्सा जान पड़ता है.

हालिया घटनाक्रम

अक्टूबर के संसदीय चुनावों के बाद राजधानी बिश्केक में हर ओर अराजकता का माहौल था. प्रदर्शनकारियों ने जेलों पर धावा बोलकर कई जानेमाने क़ैदियों को जबरन रिहा करा दिया. इनमें पूर्व सांसद सदर जापारोव भी शामिल थे. इन घटनाओं के बाद प्रधानमंत्री और संसद के स्पीकर समेत कई मेयरों और गवर्नरों ने अपने-अपने पदों से इस्तीफ़ा दे दिया.

संसद ने 11 अक्टूबर को सदर जापारोव को प्रधानमंत्री घोषित कर दिया. तीन दिनों के बाद राष्ट्रपति जीनबेकोव ने अपने इस्तीफ़े का एलान कर दिया. शायद उनके इस्तीफ़े की वजह देश में और ख़ूनख़राबा होने से रोकना था. इसके तत्काल बाद संसद ने अगला चुनाव होने तक जापारोव को अंतरिम राष्ट्रपति के पद पर स्थापित कर दिया.

कार्यकारी राष्ट्रपति के रूप में अपने छोटे से कार्यकाल के दौरान जापारोव ने (उन्होंने 15 नवंबर 2020 को अंतरिम राष्ट्रपति के पद से इस्तीफ़ा दे दिया था) संविधान में संशोधन से जुड़े कई प्रावधान किए. इसके साथ ही उन्होंने सरकारी अधिकारियों को प्रोत्साहित करने के मकसद से एक ‘आर्थिक क्षमा’ योजना की शुरुआत की. इसका मकसद सरकारी अधिकारियों को भ्रष्टाचार के मुद्दे पर खुलकर सामने लाना, आपराधिक मुक़दमे चालू करना और दूसरे मामलों में दोषी पाए गए लोगों से जुड़े फ़ैसलों को पलटना था. उन्होंने अपने करीबी लोगों को सत्ता में मज़बूत पदों पर स्थापित किया. चुनाव के तारीख़ों की घोषणा करवाई और फिर जल्दबाज़ी में चुनावी कार्यक्रमों को रद्द भी किया. उनके ये तमाम कदम मौजूदा कानूनों को ठेंगा दिखा रहे थे. हालांकि, उन्होंने भ्रष्टाचार से निपटने के लिए ज़ाहिराना तौर पर कई कदम उठाए. यहां तक कि उनको ख़ुद भी संगठित अपराधों से अपने किसी तरह के संबंधों का खंडन करने पर मजबूर होना पड़ा.

उन्होंने एलान किया कि दशकों से भ्रष्टाचार की मार झेल रहे देश में वो इस विकराल समस्या का हल निकाल कर रहेंगे. उन्होंने इस बारे में कुछ दिखावटी फ़ैसले भी लिए. हालांकि, अब भी कई अहम सवालों के जवाब नहीं मिल सके हैं.

किर्गिस्तान का संविधान कार्यकारी या अंतरिम राष्ट्रपति के तौर पर काम करने वाले किसी राजनेता को राष्ट्रपति पद के लिए होने वाले चुनावों में हिस्सा लेने की इजाज़त नहीं देता. उन्होंने इस रुकावट से पार पाने के लिए कार्यकारी राष्ट्रपति के पद से 15 नवंबर को ही इस्तीफ़ा दे दिया. उस समय उन्हें ये पद संभाले पूरा एक महीना हुआ था.

राष्ट्रपति का चुनाव जापारोव ने 79 फ़ीसदी जनादेश के साथ शानदार तरीके से जीता. इसके साथ-साथ किर्गिस्तान में सरकार का स्वरूप तय करने के लिए जनमत संग्रह भी कराया गया. लोगों से पूछा गया कि उन्हें राष्ट्रपतिय प्रणाली पसंद है या संसदीय. राष्ट्रपतिय प्रणाली के पक्ष में मिले अपार जनसमर्थन के बाद संविधान में जो ज़रूरी बदलाव किए जाएंगे उनसे संसद की शक्तियां कमज़ोर होंगी और कार्यपालिका की ताक़त में इज़ाफ़ा होगा. इन बदलावों से किर्गिस्तान में लोकतंत्र को लेकर किए गए प्रयोग का व्यावहारिक तौर पर अंत हो जाएगा और जापारोव को निर्विवाद नेता के रूप में काम करने की छूट मिल जाएगी.

रूस ने साफ़ किया है कि वो 4 अक्टूबर के चुनाव के बाद किर्गिस्तान में नेतृत्व परिवर्तन को लेकर ख़ुश नहीं है. इसी वजह से उसने किर्गिस्तान को एक अरब अमेरिकी डॉलर की आर्थिक सहायता भी रोक दी. 

राजनीतिक विश्लेषक अज़ीम अज़िमोव के मुताबिक, “उनके बायोडेटा में ऐसी बहुत कम बातें हैं जो उन्हें प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति के दफ़्तर में काम करने के लिए सबसे योग्य नेता बनाए. हालांकि उनको व्यापक जनसमर्थन हासिल है. ख़ासतौर से पारंपरिक राष्ट्रवादी और किर्गिस्तान की ग्रामीण जनता उन्हें काफ़ी पसंद करती है.”

पड़ोसियों से रिश्ते

रूस चाहता है कि किर्गिस्तान उसके साथ रणनीतिक साझेदारी के प्रति समर्पित रहे. रूस ने साफ़ किया है कि वो 4 अक्टूबर के चुनाव के बाद किर्गिस्तान में नेतृत्व परिवर्तन को लेकर ख़ुश नहीं है. इसी वजह से उसने किर्गिस्तान को एक अरब अमेरिकी डॉलर की आर्थिक सहायता भी रोक दी.

14 अक्टूबर को पद संभालने के बाद किर्गिस्तान के नए विदेश मंत्री रुसलान कज़ाकबाएव ने 23 अक्टूबर को ही मॉस्को का दौरा कर डाला. यहां उन्होंने रूसी विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव से मुलाक़ात कर रूसी सत्ता को भरोसा दिलाने की कोशिश की कि किर्गिस्तान में हालात सामान्य हो रहे हैं. कज़ाकबाएव से लावारोव की मुलाक़ात के एक दिन पहले ही राष्ट्रपति पुतिन ने किर्गिस्तान के हालात को “त्रासदी” की संज्ञा देते हुए कहा था कि रूस वहां की घटनाओं को ‘चिंता और तरस’ भरी निगाहों से देख रहा है. पुतिन ने आगे कहा कि, “मुझे लगता है कि मौजूदा घटनाएं किर्गिस्तान और वहां के लोगों के लिए विनाशकारी हैं. जब-जब वहां चुनाव होते हैं तब-तब व्यावहारिक तौर पर तख्तापलट की घटनाएं होती हैं. अब तो ये हास्यास्पद भी नहीं रहा.”

चुनावों के बाद फैले अशांति के माहौल में चीनी कारोबार से जुड़े प्रतिष्ठानों पर ख़ासतौर से निशाना साधा गया, देशभर में उनकी जबरन तलाशी ली गई और कई बार वहां हिंसक घटनाएं भी हुईं. 19 अक्टूबर को चीनी विदेश मंत्रालय के विदेश सुरक्षा आयुक्त ने बीजिंग में तैनात किर्गिज़ राजदूत को तलब कर इन घटनाओं पर चीन की नाख़ुशी जताई. बिश्केक में रहने वाले चीनी लोगों को हमेशा से ही ये लगता रहा है कि किर्गिस्तान के अधिकारियों को उनकी सुरक्षा की कुछ ख़ास ‘परवाह’ नहीं है.

हालांकि, ऐसा नहीं है कि चीन के साथ किर्गिस्तान के रिश्ते सिर्फ़ राजनीतिक अशांति की वजह से बिगड़े हैं. पूरे पांच महीनों तक किर्गिस्तान के आयातकों को चीन से कई वस्तुओं की आपूर्ति नहीं हुई. किर्गिस्तान को चीन से होने वाले निर्यात में 2020 की पहली तीन तिमाहियों के दौरान 44.7 प्रतिशत तक की गिरावट दर्ज की गई.

प्रणाली की ओर लौट जाना चाहिए. कुछ विश्लेषकों का विचार था कि राष्ट्रपतिय प्रणाली की ओर लौटने पर देश 30 साल पीछे चला जाएगा और वहां की सत्ता एकाधिकारवाद के रास्ते पर चल पड़ेगी

अमेरिका ने बयान जारी कर कहा कि “किर्गिस्तान के लोगों और वहां के नेताओं को संगठित अपराध और राजनीति में भ्रष्टाचार के प्रभावों के ख़िलाफ़ अपना संघर्ष जारी रखना होगा.”

कज़ाक राष्ट्रपति तोकायेव ने किर्गिस्तान के विदेश मंत्री के साथ 30 अक्टूबर को नूर-सुल्तान में मुलाक़ात की. तोकायेव ने कहा कि कज़ाकिस्तान और किर्गिस्तान दो ऐसे देश हैं जो एक-दूसरे के सबसे क़रीबी हैं. “हमारे बीच किसी तरह का कोई बंटवारा नहीं है, किर्गिस्तान एक भरोसेमंद साथी, एक अहम सामरिक सहयोगी और कज़ाकिस्तान का बिरादराना मुल्क है”

अल जज़ीरा को दिए एक इंटरव्यू में जापारोव ने स्वीकार किया कि कई पारंपरिक मित्र देश किर्गिस्तान की नई सरकार के साथ सहयोग करने को लेकर उत्साहित नहीं हैं. उन्होंने माना कि “पड़ोसी देशों, यूरोपीय संघ और अमेरिका को शंकाएं हैं.” “लेकिन हमलोग कथनी से नहीं बल्कि अपनी करनी से ख़ुद को साबित कर देंगे.” हालांकि किर्गिस्तान के भीतर ही कई लोग इन दावों से सहमत नहीं हैं.

आगे की राह

10 जनवरी को राष्ट्रपति पद के लिए मतदान से पहले किर्गिस्तान में इस बात पर ज़बरदस्त बहस छिड़ गई कि क्या देश को फिर से सरकार की राष्ट्रपति प्रणाली की ओर लौट जाना चाहिए. कुछ विश्लेषकों का विचार था कि राष्ट्रपतिय प्रणाली की ओर लौटने पर देश 30 साल पीछे चला जाएगा और वहां की सत्ता एकाधिकारवाद के रास्ते पर चल पड़ेगी. कई लोगों का मानना था कि स्वतंत्र न्यायपालिका और अभिव्यक्ति की आज़ादी के अभाव में सिर्फ़ संसदीय व्यवस्था के ज़रिए ही किर्गिस्तान में संतुलन स्थापित किया जा सकता है.

मास्को स्थित मध्य एशियाई मामलों के विशेषज्ञ अर्काडी दुबनोव का कहना है कि किर्गिस्तान में उथलपुथल होना लाजमी था. उनका कहना है कि “जिस तरीके से महज 48 घंटों के भीतर ही किर्गिस्तान में सत्ता के समूचे तंत्र को हिलाकर जड़ से उखाड़ दिया गया उससे पता चलता है कि वहां सरकारी संस्थाएं कितनी अस्थिर हैं.”

चुनावी नतीजों के एलान के बाद जापारोव ने कहा कि किर्गिस्तान को इस वक़्त राजनीतिक स्थिरता की सबसे अधिक ज़रूरत है. जापरोव ने कहा कि, “मैं अपने सभी विरोधियों से एकजुटता की अपील करता हूं; अल्पमत को बहुमत के सामने झुक जाना चाहिए. मैंने एक चुनौती भरे कालखंड में सत्ता संभाली है; इस वक़्त हर ओर संकट का माहौल है.”

रूसी राष्ट्रपति पुतिन ने जापारोव को उनकी जीत के लिए बधाई दी और उम्मीद जताई कि वो द्विपक्षीय रिश्तों को मज़बूत करने की दिशा में काम करेंगे. पुतिन के मुताबिक “द्विपक्षीय रिश्ते बुनियादी तौर पर हमारे दोस्ताना लोगों के भले के लिए हैं और मध्य एशियाई क्षेत्र में स्थिरता और सुरक्षा की मज़बूती की दिशा में हैं.”

चीन के साथ रिश्ते भी अहम हैं क्योंकि वो किर्गिस्तान में प्रमुख निवेशक होने के साथ-साथ प्रधान विदेशी ऋणदाता भी है. किर्गिस्तान के कुल 4.8 अरब डॉलर के विदेशी कर्ज़ में चीन का हिस्सा करीब 1.8 डॉलर है. जापारोव और उनके पूर्ववर्ती दोनों ने ही चीन से कर्ज़ वापस लौटाने की समय-सीमा को टालकर और आगे बढ़ाने की अपील की थी. किर्गिस्तानी नेताओं की चिंताओं के बीच काफ़ी टालमटोल के बाद चीन ने मोहलत देने का प्रस्ताव रखा. इसके तहत 2020 में चुकाई जाने वाली 3.5 करोड़ अमेरिकी डॉलर की रकम को 2 प्रतिशत ब्याज़ के साथ 2022-2024 तक चुकाने की छूट दी गई. इससे किर्गिस्तान के बजट को अल्पकालिक मदद मिल जाएगी. पहले से ही महामारी और उसके चलते राजस्व में आई गिरावट के चलते किर्गिस्तान पर ज़बरदस्त बोझ है.

10 जनवरी को संपन्न राष्ट्रपति चुनाव और जनमत संग्रह से हासिल निर्णायक नतीजों से किर्गिस्तान की जनता, कारोबार और समाज को फौरी राहत मिली है.

लगता ऐसा ही है कि जापारोव एकाधिकारवादी तरीके से शासन चलाएंगे जो देश के समक्ष आर्थिक, स्वास्थ्य, सामाजिक और विचारधारा के मोर्चों पर गहरे जड़ जमा चुकी चुनौतियों का समाधान ढूंढने के लिहाज से अनुकूल नहीं होंगी. उनके सामने किर्गिस्तान की जनता के मन में घर कर चुकी चीन-विरोधी भावनाओं से पार पाने की चुनौती भी होगी. वहां की जनता के मन में ये भावनाएं चीन के पूर्वी तुर्किस्तान (शिनजियांग) क्षेत्र में किर्गिज़ लोगों के साथ होने वाले दमनकारी सलूक की वजह से बनी हैं.

बहरहाल, कोविड-19 महामारी, भीषण आर्थिक संकट, भ्रष्टाचार, देश के उत्तर और दक्षिणी हिस्सों के बीच के टकराव आदि कुछ ऐसे मुद्दे हैं जो आने वाले समय में परेशानियों का सबब बनते रहेंगे.

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