Author : Rajiv Jayaram

Published on Aug 25, 2021 Updated 0 Hours ago

आज जब तालिबान अफ़ग़ानिस्तान के ज्यादातर इलाकों पर कब्ज़ा कर चुका है तो अमेरिका को समझ नहीं आ रहा है कि उसे कैसे रोका जाए.

अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिका की असफ़लता की गवाही दे रहा है कांधार

तालिबान ने कांधार पर कब्जा कर लिया है. यह रणनीतिक लिहाज़ से अफ़ग़ानिस्तान के लिये एक बेहद महत्वपूर्ण शहर है. तालिबान विद्रोहियों ने बड़ी ही तेज़ी से काबुल पर भी कब्ज़ा जमा लिया था. जिस हैरतंगेज़ तेज़ी और आसानी से तालिबान विद्रोहियों ने सूबों और अहम शहरों पर एक के बाद एक और कुछ दिनों के अंतराल पर कब्ज़ा कर लिया, उससे बड़ी नाकामी की मिसाल अमेरिका के 20 साल के अफ़ग़ान मिशन के लिए भला और क्या होगी. यह वही मिशन है, जो दो दशकों के बाद अगस्त 2021 में ख़त्म हो रहा है.  

कांधार पर कभी तालिबान की ज़बरदस्त पकड़ थी. उसके लिए इस शहर की ख़ास अहमियत भी है. कांधार तालिबान की आध्यात्मिक राजधानी तो है ही, यह उसके संस्थापक मुल्ला उमर की जन्मस्थली भी है. कांधार की एक और पहचान यह है कि यह देश का मुख्य व्यापारिक, औद्योगिक और कृषि केंद्र भी है, जिसके पास अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा है. तालिबान का आज पूरे उत्तरी अफ़गानिस्तान और एक तिहाई प्रांतीय राजधानियों पर कब्ज़ा है. यह सिलसिला आने वाले दिनों में और तेज़ होगा. इसी हफ्त़े एक अमेरिकी खुफिया रिपोर्ट लीक हुई, जिसमें अनुमान लगाया गया है कि कुछ ही हफ्त़ों में तालिबान विद्रोही काबुल पर हमला कर सकते हैं और अफ़गान सरकार 90 दिनों के अंदर गिर सकती है. 

कांधार पर कभी तालिबान की ज़बरदस्त पकड़ थी. उसके लिए इस शहर की ख़ास अहमियत भी है. कांधार तालिबान की आध्यात्मिक राजधानी तो है ही, यह उसके संस्थापक मुल्ला उमर की जन्मस्थली भी है. कांधार की एक और पहचान यह है कि यह देश का मुख्य व्यापारिक, औद्योगिक और कृषि केंद्र भी है, जिसके पास अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा है.

तालिबान ने आक्रामक और क्रूर हमलों के ज़रिये देश के अलग-अलग क्षेत्रों में फैले कांधार, गज़नी, हेरात और लश्कर गोह जैसे महत्वपूर्ण शहरों पर चंद दिनों में कब्ज़ा कर लिया. इस दौरान अफ़ग़ान सेना उससे मुकाबला करने के बजाय लड़ाई का मैदान छोड़कर भाग गई. यह ऐसी सच्चाई है, जो ख़ासतौर पर अमेरिका के गले शायद ही उतरे. 20 साल तक लहू और पैसा बहाने के बाद इस महीने वह अपना अफ़गान मिशन पूरा कर रहा है. इन वर्षों में उसके 2,600 लोगों की जान गई और अमेरिका ने 2 लाख करोड़ डॉलर खर्च किए. फिर भी वह पीछे नाकामी की एक दास्तां छोड़े जा रहा है. यह ऐसी नाकामी है, जिसकी उसने भारी कीमत चुकाई है और यह भविष्य में भी उसे परेशान कर सकती है. 

अफ़ग़ानिस्तान को लेकर अमेरिका की ख़्वाईश 

तालिबान का हर हमला आज अशरफ ग़नी के नेतृत्व वाली सरकार की एकजुटता को कमज़ोर कर रहा है. उसके हर हमले से अफ़गान सेना कमज़ोर हो रही है. दिलचस्प बात यह है कि दोनों को ही अमेरिका ने मज़बूती देने की कोशिश की, लेकिन नाकाम रहा. उसने अफ़ग़ानिस्तान में जो लक्ष्य तय किए थे, 20 वर्षों तक चक चले देश के इतिहास के सबसे लंबे युद्ध के बाद भी वह उन्हें हासिल नहीं कर पाया. अफ़ग़ानिस्तान को अमेरिका एक राष्ट्र के रूप में देखना चाहा था. इसके साथ उसने एक मज़बूत अफ़गानी सेना का ख्व़ाब देखा था, जो देश की रक्षा करने में सक्षम हो. उसके ये दोनों ही लक्ष्य पूरे नहीं हो पाए. 

अमेरिका समर्थित गनी सरकार काफ़ी कमज़ोर थी. दूसरी तरफ, भ्रष्ट अफ़ग़ान सेना हतोत्साहित थे और भगोड़े सैनिकों से परेशान भी. इसलिए तालिबान लड़ाके उस पर भारी पड़ रहे था. उनका देश के अधिक से अधिक हिस्सों पर नियंत्रण होता जा रहा था. वहां तालिबान के हर हमले का मक़सद अपने नियंत्रण में और इलाके लाना या अफ़ग़ान राष्ट्रीय रक्षा और सुरक्षा बल (एएनडीएसएफ) का मनोबल पूरी तरह से तोड़ देना था. 

अमेरिकी सेना ने खुद यह बात मानी है. उसके सर्वोच्च सैन्य अधिकारी (जॉइंट चीफ्स ऑफ स्टाफ के चेयरपर्सन) जनरल मार्क माइली ने 21 जुलाई को वॉशिंगटन में माना, ‘अभी लड़ाई में तालिबान का पलड़ा भारी लग रहा है.’ उन्होंने बताया कि फ़िलहाल अफ़ग़ानिस्तान के 419 जिलों में से 200 से अधिक तालिबान के कब्ज़े में हैं. एक महीना पहले विद्रोहियों का 81 जिलों पर कब्ज़ा था. माइली ने तालिबानों का पलड़ा भारी होने की जो बात कही, असल में वह एक कड़वी सच्चाई है. अमेरिका समर्थित गनी सरकार काफ़ी कमज़ोर थी. दूसरी तरफ, भ्रष्ट अफ़ग़ान सेना हतोत्साहित थे और भगोड़े सैनिकों से परेशान भी. इसलिए तालिबान लड़ाके उस पर भारी पड़ रहे था. उनका देश के अधिक से अधिक हिस्सों पर नियंत्रण होता जा रहा था. वहां तालिबान के हर हमले का मक़सद अपने नियंत्रण में और इलाके लाना या अफ़ग़ान राष्ट्रीय रक्षा और सुरक्षा बल (एएनडीएसएफ) का मनोबल पूरी तरह से तोड़ देना था. इस मकसद में वे कामयाब हो रहे हैं. बड़े अफ़सोस की बात है कि पेंटागन के एएनडीएसएफ के प्रशिक्षण और उसे हथियार देने पर अरबों डॉलर खर्च करने के बाद यह स्थिति है. अफ़ग़ान सेना लगातार पीछे हट रही है, जिससे तालिबान के कब्ज़े में अधिक इलाके आ रहे हैं, दूसरी तरफ रिकॉर्ड संख्या में उसके जवान शहीद हुए हैं और भारी संख्या में जवान सेना छोड़कर चले गए हैं. यूएस स्पेशल इंस्पेक्टर जनरल फॉर अफगानिस्तान रिकंस्ट्रक्शन (एसआईजीएआर) ने 2017 की शुरुआत में एक रिपोर्ट दी थी, जिसमें दावा किया गया था कि अफ़गान सेना में व्यापक भ्रष्टाचार है और उसका मनोबल काफ़ी गिरा हुआ है. इस वजह से उसकी ऐसी स्थिति है. एसआईजीएआर की तिमाही रिपोर्टों में भी इस सच्चाई को बेबाकी के साथ रखा गया. इन रिपोर्टों में अमेरिका के अफ़ग़ानिस्तान मिशन के बारे में दो टूक बातें मिलती हैं और इसके कारण भी स्पष्ट हैं. 

अफ़ग़ानिस्तान में शुरुआत से ही अमेरिका ने जल्दबाज़ी दिखाई. 2001 में अफगानिस्तान पर हमला करने के बाद वह काफ़ी हद तक तालिबान विरोधी अफ़ग़ान सरदारों पर आश्रित रहा. इनमें से जनरल राशिद दोस्तम जैसे कुछ लोग अपनी बर्बरता के कारण बदनाम हैं. अमेरिका ने इस अभियान में पाकिस्तान की भी मदद ली, जिस पर ऐतबार नहीं किया जा सकता. तालिबान विरोधी अफगान सरदारों की दिलचस्पी अमेरिका के समर्थन से सत्ता हासिल करने में थी, इसलिए वे इस लड़ाई में शामिल हुए. दूसरी तरफ, पाकिस्तान को तत्कालीन राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश के दबाव में सहयोग के लिए तैयार होना पड़ा. बुश ने तब एक ना भूलने वाली बात कही थी, ‘या तो आप हमारे साथ हैं या हमारे खिलाफ़ हैं.’ इस अल्टीमेटम के बाद अमेरिका के साथ इस लड़ाई में सहयोग के लिए पाकिस्तान मजबूर हो गया, लेकिन उसने अपना दोहरा चरित्र नहीं छोड़ा. 

इस बार एक बड़ा फ़र्क यह था कि अमेरिका का निर्देश मानने में पाकिस्तान की अधिक दिलचस्पी नहीं थी. अफ़ग़ानिस्तान को लेकर अमेरिका की जल्दबाज़ी 2017 में भी दिखी, जब ट्रंप सरकार ने अमेरिकी अभियान का दायरा काफी कम कर दिया. इसके साथ उसने स्पेशल ऑपरेशंस फोर्सेज़ समेत कुछ हज़ार अतिरिक्त सैनिक भी वहां भेजे ताकि स्थिरता लाई जा सके. 

तालिबान, अमेरिका और पाकिस्तानी ‘विदेश नीति’

यह बात किसी से छिपी नहीं है कि पाकिस्तान की विदेश नीति वहां की सेना तय करती है. इसलिए जैसे ही अमेरिकी हमले के बाद तालिबान के काबुल से पांव उखड़ने लगे, पाकिस्तानी सेना ने तालिबान के शीर्ष नेतृत्व को अपने यहां शरण दे दी. 1980 से 1988 के बीच सोवियत संघ की सेना के खिलाफ़ जिहाद के दौरान उसने अमेरिका को खूब लूटा था. उसे लगा कि इस लड़ाई ने पाकिस्तान के हाथों में एक और शानदार मौका दे दिया है. इस बार एक बड़ा फ़र्क यह था कि अमेरिका का निर्देश मानने में पाकिस्तान की अधिक दिलचस्पी नहीं थी. अफ़ग़ानिस्तान को लेकर अमेरिका की जल्दबाज़ी 2017 में भी दिखी, जब ट्रंप सरकार ने अमेरिकी अभियान का दायरा काफी कम कर दिया. इसके साथ उसने स्पेशल ऑपरेशंस फोर्सेज़ समेत कुछ हज़ार अतिरिक्त सैनिक भी वहां भेजे ताकि स्थिरता लाई जा सके. राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने इस रुख़ को ‘सैद्धांतिक यथार्थवाद’ का नाम दिया. उन्होंने कहा था कि उनकी सरकार ‘अमेरिका फर्स्ट’ यानी सबसे पहले अमेरिकी हित देखकर कोई फैसला करती है. इसी वजह से वह जल्द से जल्द अफ़ग़ानिस्तान की दलदल से बाहर निकलना चाहती है. 

हालांकि, ‘सैद्धांतिक यथार्थवाद’ की उनकी नीति उसी तरह से ग़लत साबित हुई, जैसे कि पहले की नीतियां गलत साबित हो चुकी थीं. अफ़ग़ानिस्तान में अतिरिक्त सैनिक भेजने के बावजूद तालिबान की बढ़त को अमेरिका नहीं रोक पाया. अगर अमेरिका उस वक्त यह लड़ाई नहीं जीत पाया या वह तालिबान पर राजनीतिक समझौते का दबाव नहीं बना पाया, जब एएनडीएसएफ के पास 1.30 लाख जवान थे, फिर वह ‘कुछ हज़ार सैनिकों’ की मदद से कैसे इस लक्ष्य को हासिल कर पाता? वह तो पाकिस्तान को दोहरी चाल चलने तक से नहीं रोक पाया, जो इस बीच तालिबान के हक्कानी नेटवर्क का समर्थन करता रहा. वही हक्कानी नेटवर्क जो नशीले पदार्थों के व्यापार से मिला पैसा अफ़ग़ान सरकार के खिलाफ़ विद्रोह को भड़काने में लगा रहा था. 

खैर, ट्रंप सरकार की जब अतिरिक्त सैनिकों के ज़रिये स्थिरता लाने की कोशिश नहीं चली तो उसने किसी तरह से अफ़ग़ानिस्तान के अन्य पक्षों के साथ तालिबान को दोहा शांति समझौते के लिए मनाया. आज तालिबान के काबुल पर कब्ज़ा करने की बातें होने लगी हैं और दोहा समझौता वक्त के कूड़ेदान में फेंक दिया गया है. ऐसा लग रहा है कि तालिबान विजय की ओर बढ़ रहा है और अफ़ग़ानिस्तान फिर से वैसे शासन की ओर लौट रहा है, जो उसने 1996 से 2001 के बीच देखा था. इससे पिछले 20 वर्षों में अफ़ग़ानिस्तान ने जो भी सामाजिक-आर्थिक तरक्की पाई है, वह ख़त्म हो जाएगी. 

राष्ट्रपति जो बाइडेन ने कहा है कि 31 अगस्त तक अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिका का सैन्य अभियान ख़त्म हो जाएगा. 11 सितंबर 2001 को अमेरिका में अल क़ायदा के हमले के बाद जो अभियान शुरू हुआ था, बाइडेन उस संघर्ष से अमेरिका को पूरी तरह अलग करना चाहते हैं. अभी बाइडेन की 31 अगस्त की समय-सीमा ख़त्म होने में कुछ हफ्त़े बचे हैं और उससे पहले ही अधिकांश अमेरिकी सैनिक अपने देश लौट चुके हैं. बचे हैं कुछ अमेरिकी सैनिक, जो काबुल दूतावास और हवाई अड्डे की सुरक्षा कर रहे हैं. 

इसलिए अफ़ग़ानिस्तान की जो हालत दिख रही है, उसके लिए ट्रंप जिम्मेदार हैं. 2017 में उन्होंने तमाशाई अंदाज में अमेरिकी अभियान का दायरा तालिबान के सिर्फ़ इस वादे पर घटा दिया कि वह फिर कभी पश्चिमी देशों और ख़ासतौर पर अमेरिका के खिलाफ़ हमले के लिए अपने नियंत्रण वाले इलाकों का इस्तेमाल नहीं होने देगा. लेकिन आज जब तालिबान अफ़ग़ानिस्तान के ज्यादातर इलाकों पर कब्ज़ा कर चुका है तो अमेरिका को समझ नहीं आ रहा है कि उसे कैसे रोका जाए. 29 फरवरी 2021 को तालिबान और अमेरिका के बीच जिस शांति समझौते को ऐतिहासिक बताया गया था, वह खत्म़ हो चुकी है. सच तो यह है कि 2001 के बाद से तालिबान रत्ती भर भी नहीं बदला है और वह किस तरह से अमेरिका से किया गया एक वादा निभा पाएगा, यह सवाल अमेरिका को भविष्य में सताता रहेगा.

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