Published on Jan 18, 2022 Updated 0 Hours ago

इस प्रणाली में काम और ज़िम्मेदारियों का बंटवारा नीचे से ऊपर की तरफ़ होता है. नागरिकों के साथ जुड़ाव के इन तौर-तरीक़ों पर मुंबई और दिल्ली में अमल होता रहा है 

साल 2022 में शहरी प्रशासन की योजना में ‘शहरों’ को पहला दर्जा मिलना ज़रूरी

ये लेख गवर्नेंस प्रॉपोज़िशन ऑफ़ 2022 सीरीज़ का हिस्सा है.


दुनिया के राष्ट्रों के बीच जलवायु परिवर्तन और महामारी समेत तमाम दूसरे मसलों पर बहस का दौर जारी है. हालांकि, देश के नीति-निर्माताओं द्वारा तय किए गए महत्वाकांक्षी एजेंडे पर अमल करने का मुश्किलों भरा काम आख़िरकार शहरों के ज़िम्मे ही आता है. बहरहाल दुनिया के तमाम शहर ख़ुद को इन वादों के बोझ तले दबा और बेबस महसूस करते हैं. इसके पीछे कई कारक ज़िम्मेदार हैं. पहला, किसी शहर के संचालन के लिए संघीय तौर पर पर्याप्त अधिकारों या शक्तियों का अभाव. दूसरा, अपने कर्तव्यों को पूरा करने के लिए ज़रूरी रकम का आवंटन न हो पाना, और तीसरा, कार्यों की योजना बनाने, उनपर निगरानी रखने और उनपर अमल के लिए ज़रूरी क्षमताओं का अभाव. हमारे शहर किसी भी संकट के समय सबसे पहली उत्तरदायी इकाई होते हैं. लिहाज़ा अब समय आ गया है कि इन्हें सिर्फ़ हमारे घर के नलों में पानी पहुंचाने वाले, कूड़ा उठाने वाले और सड़कों की देखरेख करने वाले शहरी निकाय के तौर पर ही न देखा जाए. इन्हें भारत के शहरी प्रशासन के संरक्षक के तौर पर देखे जाने की ज़रूरत है.  

हमारे शहर किसी भी संकट के समय सबसे पहली उत्तरदायी इकाई होते हैं. लिहाज़ा अब समय आ गया है कि इन्हें सिर्फ़ हमारे घर के नलों में पानी पहुंचाने वाले, कूड़ा उठाने वाले और सड़कों की देखरेख करने वाले शहरी निकाय के तौर पर ही न देखा जाए. इन्हें भारत के शहरी प्रशासन के संरक्षक के तौर पर देखे जाने की ज़रूरत है.  

हक़ीक़त ये है कि जब भी ये नगर हमारी विशाल आवश्यकताओं को पूरा करने में नाकाम साबित होते हैं, हम इन शहरी ढांचों को खरी-खोटी सुनाने लगते हैं. साल 2022 में इस दिशा में गंभीर प्रयास किए जाने की ज़रूरत है. निश्चित रूप से शहरों को इस तरह के किरदार को बख़ूबी निभाने लायक बनाने के लिए संघीय और व्यवस्थागत सुधार किए जाने की आवश्यकता है. ग्लासगो समझौते में स्थानीय स्तर पर ‘तत्काल बहुस्तरीय और सहकारी क़दम उठाए’ जाने की ज़रूरत को स्वीकार किया गया है. पहली बार किसी COP सम्मेलन में आधिकारिक तौर पर शहरों की भूमिका को न सिर्फ़ मान्यता दी गई बल्कि उसकी तारीफ़ भी की गई है. इस नए समझौते में स्थानीय सरकारों के स्तर पर जलवायु अनुकूलन की ज़रूरतों को भी रेखांकित किया गया है. ये इस बात का संकेत है कि वैश्विक स्तर पर शहरों को देखने का नज़रिया बदल रहा है. विकेंद्रीकरण और शक्तियों के हस्तांतरण की बुनियाद पर संघीय सुधारों की परिकल्पना तैयार करने और उन्हें अमल में लाए जाने की दरकार है. इस सिलसिले में हम लगातार भारतीय संविधान के 74वें संशोधन का हवाला देते हैं. इसी संशोधन के ज़रिए शक्तियों के हस्तांतरण और त्रिस्तरीय सरकार का विचार सामने लाया गया था. त्रिस्तरीय सरकार के इस ढांचे में शहरी निकाय सबसे निचले स्तर पर आते हैं. बहरहाल इस परिकल्पना को सामने आए 25 साल बीत चुके हैं. लिहाज़ा इसे आज की ज़रूरतों के हिसाब से ढालना ज़रूरी हो गया है. दरअसल हमें उन कारणों की पड़ताल करनी होगी जिनकी वजह से ज़्यादातर शहर इनमें से कई सुधारों पर अमल कर पाने में नाकाम रहे हैं.    

ग्लासगो समझौते में स्थानीय स्तर पर ‘तत्काल बहुस्तरीय और सहकारी क़दम उठाए’ जाने की ज़रूरत को स्वीकार किया गया है. पहली बार किसी COP सम्मेलन में आधिकारिक तौर पर शहरों की भूमिका को न सिर्फ़ मान्यता दी गई बल्कि उसकी तारीफ़ भी की गई है.

महामारी के दौरान शहरों के भीतर घनी आबादी वाले इलाक़ों में जिस मज़बूत और कामयाब मॉडल का उभार हुआ वो वार्ड के स्तर पर प्रबंधन से जुड़ा था. 74वें संशोधन में वार्ड कमेटियों के गठन, स्थानीय निवासियों की भागीदारी और एकदम स्थानीय स्तर पर स्थानीय मुद्दों को तरजीह दिए जाने की बात कही गई है. हालांकि, शहरी स्तर के तमाम प्राधिकरणों और अधिकारियों ने इस बात पर तवज्जो नहीं दी है. शहरी प्रशासन के भीतर भी सबसे निचले स्तर पर शक्तियों के हस्तांतरण को लेकर बेरुख़ी दिखाई देती है. नागरिकों और उनके प्रत्यक्ष प्रतिनिधियों को सशक्त बनाने को लेकर शहरी प्रशासन का रवैया ठंडा ही रहा है.     

भागीदारी योजना और रेज़ीडेंट वेलफेयर एसोसिएशन

दूसरे प्रशासनिक सुधार आयोग, 2008 ने शहरों को अपने कामकाज के लिए नीचे से ऊपर की ओर आगे बढ़ने वाला रुख़ अपने की सिफ़ारिश की थी. आयोग ने सहायक कार्य के सिद्धांत (principle of subsidiarity) के आधार पर आगे बढ़ने की पेशकश की थी. इस प्रक्रिया में वार्डों को प्रशासन के प्राथमिक स्तर के तौर पर देखे जाने की वक़ालत की गई. दरअसल, इन्हीं वार्डों से जनता का सबसे क़रीबी जुड़ाव होता है. स्थानीय अधिकारियों द्वारा किसी काम को पूरा करने में असमर्थ रहने की सूरत में उस काम की ज़िम्मेदारी ऊपर के अधिकारियों पर चली जाती है. इस प्रणाली में काम और ज़िम्मेदारियों का बंटवारा नीचे से ऊपर की तरफ़ होता है. नागरिकों के साथ जुड़ाव के इन तौर-तरीक़ों पर मुंबई और दिल्ली में अमल होता रहा है. मुंबई में एडवांस लोकेलिटी मैनेजमेंट (ALM) समूहों और दिल्ली में भागीदारी योजनाओं के ज़रिए इस तरह की पहल की जाती रही है. इनके तहत स्थानीय प्रशासन से जुड़े मुद्दों पर काम करने के लिए रेज़िडेंट वेलफ़ेयर समूहों का गठन किया जाता है. हालांकि, फ़ंड या कामकाज के ज़रिए इन समूहों को सशक्त बनाने को लेकर कभी भी कोई ठोस प्रयास नहीं किए गए हैं. हाल ही में विशाखापट्टनम जैसे शहर ने सरकार से अनुरोध किया है कि हस्तांतरण की क़वायदों को सिर्फ़ अधिकारों तक सीमित न रखकर विकास से जुड़े मुद्दों तक ले जाया जाना चाहिए. उस इलाक़े के अधिकारियों को उस क्षेत्र से जुड़े तमाम विकास कार्यों के संचालन का अधिकार मिलना चाहिए. इस बात की कोशिश होनी चाहिए कि बुनियादी ढांचों से जुड़े काम को आगे बढ़ाने के लिए स्थानीय अधिकारी केंद्र द्वारा आवंटित कोष के भरोसे ना रहें. 

शहरों को आवंटित रकम का इस्तेमाल शहरों की समावेशी क्षमताओं (absorption capacities) और शहरी कोष ख़र्च कर पाने की उनकी क़ाबिलियत पर निर्भर होते हैं. लिहाज़ा उन्हें मुहैया कराए जाने वाले फ़ंड के पूरी तरह से इस्तेमाल को लेकर हमेशा से सवाल उठते रहे हैं. 

2021 के बजट सत्र में 15वें वित्त आयोग की रिपोर्ट संसद में पेश की गई थी. शहरी प्रशासन के लिए ये रिपोर्ट उम्मीद की किरण लेकर आई. चुंगी (octroi) और वैट जैसे स्थानीय करों को वस्तु और सेवा कर (GST) में शामिल कर लिए जाने के बाद शहरों को करों के हस्तांतरण से जुड़े मुद्दे ने काफ़ी ध्यान खींचा है. शहरों के लिए अलग GST शुरू किए जाने की मांग भी उठाई जाती रही है. भले ही इस मांग पर विचार किया जाना अभी दूर की कौड़ी लगती है, लेकिन 15वें वित्त आयोग ने बांटी जाने वाली श्रेणी (divisible pool) से स्थानीय प्रशासनों को 4.15 प्रतिशत का पूर्ण आवंटन किया है. इस तरह बंटवारे वाले करों की श्रेणी से स्थानीय प्रशासन को तक़रीबन 3464 अरब रु आवंटित किए गए हैं. बंटवारे के बाद ये रकम ज़्यादातर शहरों के कुल शहरी बजट के तक़रीबन एक चौथाई हिस्से के बराबर होगी. आयोग ने महानगरीय प्रशासन को भी राजकोषीय प्रोत्साहन दिया है. इसके लिए 50 महानगरीय क्षेत्रों के लिए परिणाम आधारित कोष (outcome funding) का प्रावधान किया गया है. इन महानगरीय इलाक़ों की आबादी 15 करोड से ज़्यादा है. इस कड़ी में कुछ प्रमुख संकेतकों के लिए 100 फ़ीसदी रकम मुहैया कराने को लेकर 380 अरब रु का प्रावधान किया गया है. इनमें पानी और स्वच्छता, हवा की गुणवत्ता और दूसरी सेवाएं शामिल हैं. 

हालांकि ये क़वायद दोबारा उसी पुराने ढर्रे पर है. इस तरह एक बार फिर ऊपर से नीचे की ओर अधिकारों के हस्तांतरण का ही सिलसिला बन जाएगा. इसके तहत केंद्र से राज्य सरकारों को फ़ंड आवंटित किया जाएगा. इसके बाद राज्य सरकारें शहरों को रकम हस्तांतरित करेंगी. शहरों को आवंटित रकम का इस्तेमाल शहरों की समावेशी क्षमताओं (absorption capacities) और शहरी कोष ख़र्च कर पाने की उनकी क़ाबिलियत पर निर्भर होते हैं. लिहाज़ा उन्हें मुहैया कराए जाने वाले फ़ंड के पूरी तरह से इस्तेमाल को लेकर हमेशा से सवाल उठते रहे हैं. 

तीन स्तर पर समावेशी नीति की ज़रूरत

आयोग ने देश में छोटे-छोटे शहर और इलाक़े विकसित करने के लिए शहरी विकास अनुदान (city incubation grants) समेत तमाम दूसरे उपायों के इस्तेमाल का सुझाव भी दिया है. मज़बूत राजनीतिक नेतृत्व वाले इलाक़ों या स्मार्ट सिटी मिशन जैसे कार्यक्रमों से जुड़े क्षेत्रों में इस पहल को काफ़ी अहमियत मिली है. इसके तहत शहरी इलाक़ों में विकास कार्य को प्रोत्साहन और सहारा दिया जाता है. साथ ही शहरी क्षेत्र में निजी निवेश की गारंटी देने वाले तंत्र की स्थापना भी की जाती है. 

वित्तीय या दूसरी शक्तियों के हस्तांतरण के साथ इससे जुड़ी व्यवस्था में पारदर्शिता और जवाबदेही का भी संचार होता है. इसका पूरा दायित्व शहरी प्रशासनों पर होता है. पारदर्शिता की ओर पहला क़दम तो यही होगा कि शहरों के बजट को सार्वजनिक मंच पर रखा जाएगा. इसको लेकर एक सरल तौर-तरीक़े का इस्तेमाल किया जाएगा जिसे आम लोग भी आसानी से समझ सकते हैं. शहरी प्रशासनों को अपने स्तर से ये सुनिश्चित करना चाहिए कि उनके दायरे में आने वाले कर (जैसे प्रॉपर्टी टैक्स) शहरी नागरिकों द्वारा नियमित तौर पर चुकता किए जाएं. इन करों का संग्रह किए जाने के लिए आवश्यक तंत्र भी स्थापित किया जाना ज़रूरी है. आज के दौर में जलवायु परिवर्तन से जुड़े मुद्दे प्रमुखता हासिल करते जा रहे हैं. शहरी प्रशासन को भी इस लक्ष्य की प्राप्ति से जुड़ी क़वायद में शामिल होना पड़ेगा. इस सिलसिले में ग्रीन इंफ़्रास्ट्रक्चर जैसे उपायों के लिए कर छूट के प्रावधान किए जाने ज़रूरी हैं. 

प्रशासनों को अपने स्तर से ये सुनिश्चित करना चाहिए कि उनके दायरे में आने वाले कर (जैसे प्रॉपर्टी टैक्स) शहरी नागरिकों द्वारा नियमित तौर पर चुकता किए जाएं. इन करों का संग्रह किए जाने के लिए आवश्यक तंत्र भी स्थापित किया जाना ज़रूरी है. आज के दौर में जलवायु परिवर्तन से जुड़े मुद्दे प्रमुखता हासिल करते जा रहे हैं.

निष्कर्ष के तौर पर यही कहा जा सकता है कि इस पूरी क़वायद में तीन स्तरों वाली समग्र नीति अपनाने की ज़रूरत है. इनमें संघीय प्रशासन के नए स्वरूप की कल्पना, वित्तीय प्रशासन में ज़रूरी बदलाव और शहरी बसावटों में व्यवस्थागत प्रशासन से जुड़े ढांचे का पुनर्निर्माण शामिल हैं. ये तीनों ही उपाय मज़बूत शहरों के निर्माण के लिए जादू की छड़ी साबित हो सकते हैं. शहर हमारे जीवन की गुणवत्ता तय करने के साथ-साथ किसी परिस्थिति में सबसे पहली प्रतिक्रिया जताने वाली इकाई होते हैं. अगर हम इन्हें कामयाब बनाना चाहते हैं तो हमारे राजनेताओं और प्रशासकों को अपनी तमाम क़वायदों में शहरों को आगे रखना होगा. 

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