Published on Apr 11, 2019 Updated 0 Hours ago

लम्बे अर्से से चले आ रहे इस जल बंटवारा समझौते को महज दंडात्मक कार्रवाई करने के लिए निशाना नहीं बनाना चाहिए।

भारत के लिए सिंधु जल संधि को बनाए रखना आवश्यक

फरवरी, 2019 दक्षिण एशिया के दो पड़ोसी देशों— भारत और पाकिस्तान के बीच तेजी से बिगड़ते कूटनीतिक रिश्तों के कारण ध्यान आकर्षित करने वाला रहा। धमकियों और सीमा—पार हमलों के बीच, भारत के जल मंत्री ने भी सतलुज, ब्यास और रावी नदियों के सारे पानी का इस्तेमाल करने और “पाकिस्तान तक पानी की एक बूंद तक नहीं पहुंचने देने” का धमकी भरा बयान जारी कर दिया। मंत्री दरअसल 2016 के उरी हमले के बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के जारी हुए इस बयान को दोहरा रहे थे कि “रक्त और पानी एक साथ नहीं बह सकते।

भारत में कुछ पर्यवेक्षकों ने तो यहां तक कह डाला कि 50 बरस पुरानी सिंधु जल संधि को ही समाप्त कर देना चाहिए, जो दो परमाणु शक्ति सम्पन्न भारत और पाकिस्तान के बीच हुए युद्धों के बाद भी कायम है। इस संधि की प्रस्तावना में कहा गया है, “सिंधु जल संधि सद्भावना और मैत्री की भावना से की गई है।” चूंकि इस समय न तो दोनों देशों के बीच सद्भावना है और न ही मैत्री मौजूद है, इसलिए कुछ आलोचकों का तर्क है कि भारत पर इस संधि को जारी रखने की कोई बाध्यता नहीं है।

इन सभी अलग-अलग दृष्टिकोणों के कारण सिंधु जल संधि के महत्व की पूरी तरह जांच करना और दक्षिण एशिया में देशों की सरहदों के आर-पार बहने वाली नदियों की व्यापक जल-राजनीति में अंतर्निहित मानक प्रश्नों की पड़ताल करना आवश्यक हो गया है।

सिंधु जल संधि: अतीत के घटनाक्रम पर नजर

सिंधु जल संधि को आमतौर पर लगभग असम्भव उपलब्धि मानते हुए सराहा जाता रहा है, जिसे 1960 में विश्व बैंक की मध्यस्थता के तहत हासिल किया गया था। जल जैसे महत्वपूर्ण संसाधन पर भारत-पाकिस्तान का सहयोग विश्व की जल-कूटनीति में ऐतिहासिक घटना थी। कुछ शोधकर्ता इस कामयाबी का श्रेय उस दौर की जरूरतों को देते हैं। पाकिस्तान और भारत को अपने सिंचित क्षेत्रों के विस्तार और जल भंडारण तथा परिवहन के लिए विश्व बैंक से वित्तीय सहायता की जरूरत थी। सिंधु बेसिन विकास कोष (आईबीडीएफ) के जरिए इस योगदान की कुल राशि 1 बिलियन डॉलर (1960 की दरों में) से अधिक थी।

इस सहयोग का एक अन्य कारण यह वास्तविकता थी कि दोनों ही देश “जल के संबंध में विवेकशील” थे। उन्हें अहसास हो गया था कि इस साझा संसाधन तक अपने देश की दीर्घकालिक पहुंच की सुरक्षा के लिए सहयोग सबसे पहली जरूरत है। दोनों देशों में राजनीतिक राय स्पष्ट थी। पानी की किल्लत और परस्पर अविश्वास के शत्रुतापूर्ण माहौल में इस सीमित संसाधन के प्रतिस्पर्धी उपयोग के बावजूद, सहयोग ही एकमात्र रास्ता था। पानी को लेकर होने वाली जंग से किसी भी देश को पानी की दीर्घकाल तक आपूर्ति की गारंटी नहीं मिल पाती।

भविष्य की योजना पर मंथन

समकालीन दौर में पानी के मामले में एक बार फिर से पहले जैसी विवेकशीलता की ही जरूरत है। भारत को अतीत के बारे में मंथन करना होगा कि उसने पहले यह समझौता क्यों किया था। भले ही इस संधि को जारी रखने के पीछे वित्तीय कारण प्राथमिकता नहीं रह गए हैं, फिर भी पानी के संबंध में विवेकशीलता का सिद्धांत आज भी महत्वपूर्ण है।

सिंधु जल संधि में बने रहते हुए भारत, चीन के साथ पानी का मसला उठने पर नदी के ऊपरी हिस्से में स्थित जिम्मेदार देश के रूप में अपनी स्थिति से लाभ उठा सकता है। तिब्बत से भारत में बहने वाली कुछ नदियों की दृष्टि से चीन नदी की धारा के ऊपर स्थित देश है और साथ ही वह पाकिस्तान का “हर हालत में साथ निभाने वाला दोस्त”होने का दावा भी करता है। सतलुज और सिंधु दो प्रमुख नदियां हैं, जिनका उद्गम तिब्बत से होता है और उनका काफी बड़ा हिस्सा चीन में ही है।

इतना ही नहीं, तिब्बती पठार से पिघलने वाला पानी सिंधु बेसिन के कुल बहाव में 35 से 40 प्रतिशत का योगदान देता है। इस अर्थ यह है कि साल भर में चीन की ओर से बहकर भारत के सिंधु बेसिन में आने वाले अनुमानित 181.62 घन किलोमीटर पानी में अधिकांश मात्रा पिघले हुए पानी और मौसमी बर्फ के पिघलने से प्राप्त होने वाले पानी की होती है। फिलहाल, भारत ने चीन के साथ सिर्फ आंकड़े साझा करने संबंधी समझौता कर रखा है और अगर चीन सिंधु बेसिन में बहकर आने वाले पानी के बहाव को बाधित कर दे या उसका रुख मोड़ दे, तो यकीनन नुकसान भारत का ही होगा। भारत द्वारा पाकिस्तान का पानी रोकने पर इस बात की संभावना काफी ज्यादा है।

भारत-पाकिस्तान जल पहेली और उसके वैश्विक निहितार्थ

भारत को दुनिया भर में अंतर्राष्ट्रीय नियमों और मानकों का पालन करने वाले देश के तौर पर देखा जाता है। दरअसल, सिंधु नदी प्रणाली की पश्चिमी नदियों के जल पर बनने वाली परियोजनाओं से जुड़े विवादों पर विचार करते समय भारत की स्थिति ही मजबूत रहती है। सिंधु जल संधि पनबिजली का उत्पादन करने के लिए भारत को बांध बनाने की इजाजत देती है। यह छोटे पैमाने पर सिंधु, झेलम और चेनाब नदियों के बीच फैली कुल 700,000 एकड़ तक की भूमि पर सिंचाई की अनुमति भी देती है। हालांकि सिंधु जल संधि का परिशिष्ट डी भारत द्वारा मूवेबल गेट्स का निर्माण किए जाने पर रोक लगाता है, क्योंकि इससे पानी के भंडारण में चालबाजी की जा सकती है।

बगलिहार परियोजना पर फरवरी, 2007 में विश्व बैंक की ओर से नियुक्त मध्यस्थताकार प्रोफेसर रेमंड लाफिते की मध्यस्थता के बाद यह स्थिति बदल गई। इस फैसले में लाफिते ने पिछले डिजाइन की पानी के बहाव को नियंत्रित करने वाली कुछ क्षमताओं को सीमित कर दिया, लेकिन बांध की ऊंचाई और गेटयुक्‍त स्‍पिलवेज़ के बारे में पाकिस्तान की ओर से व्यक्त की गई आपत्तियों को पूरी तरह खारिज कर दिया। ये संशोधन भारत की ओर से की गई उस पेशकश के अनुरूप ही थे, जो इस मसले पर मध्यस्थता के लिए पाकिस्तान द्वारा विश्व बैंक का रुख करने से पहले उसके समक्ष की गई थी। इतना ही नहीं, इसने एक मिसाल भी कायम कर दी कि पश्चिमी नदियों पर बनने वाली परियोजनाओं की आर्थिक और तकनीकी व्यवहार्यता को सिंधु जल संधि के परिशिष्ट डी में रेखांकित कसौटी से ज्यादा महत्व दिया गया।

किशनगंगा पनबिजली परियोजना को भी, उसे लेकर हो रहे विवाद और उसके बाद परियोजना पर उपजे गतिरोध के बावजूद संधि के दायरे में ही पूरा किया गया। विश्व बैंक ने दोनों देशों से भविष्य की कार्रवाई के बारे में परस्पर सहमति बनाने को कहा, क्योंकि पाकिस्तान विवाद के तकनीकी पहलुओं के बारे में तटस्थ विशेषज्ञ को शामिल करने का इच्छुक नहीं था और उसकी बजाए इस मामले को मध्यस्थता के लिए भेजना चाहता था। भारत ने भी उरी में हुए आतंकवादी हमले के बाद तुलबुल नेवीगेशन परियोजना के स्थगन के बारे में समीक्षा करने का फैसला किया। ये कदम सीमा पार कड़ा संदेश पहुंचाने के लिए काफी थे। इनके बाद, अगर इस संधि से हटने जैसा कोई कदम उठाया गया, तो उसका नतीजा सिर्फ यही होगा कि भारत को नदी की जलधारा के निचले हिस्से में स्थित देश के अधिकार का उल्लंघन करने वाले देश के तौर पर देखा जाएगा। इससे नेपाल और बांग्लादेश के साथ भारत की द्विपक्षीय संधियां भी खतरे में पड़ सकती हैं।

भारत को 2014 में लागू किए गए अंतर्राष्ट्रीय जलधाराओं के गैर-नैवीगेशन उपयोग के कानून पर संयुक्त राष्ट्र समझौते (संयुक्त राष्ट्र जलधारा समझौता) के बारे में भी विचार किया जाना चाहिए। अब तक, भारत इस समझौते में शामिल नहीं हुआ है और चीन यह तर्क देकर इसका विरोध करता रहा है कि यह समझौता नदी की जलधारा के निचले हिस्से में स्थित देश का पक्ष लेता है। हालांकि इसे स्वीकार करने की इच्छा न होने के बावजूद, 1997 के इस संयुक्त राष्ट्र समझौते के कुछ प्रावधान —जैसे जल का न्यायसंगत बंटवारा और जल धाराओं पर योजनाबद्ध उपायों से पहले उनके किनारे स्थित अन्य देशों को पहले सूचना देना—लगभग अंतर्राष्ट्रीय कानून के प्रचलित मानकों का दर्जा प्राप्त कर चुके हैं।

सिंधु जल संधि से हटने के परिणामस्वरूप भारत को विश्व समुदाय की आलोचना का भी सामना करना पड़ सकता है, वह भी ऐसे समय में जब देश जल सुरक्षा की स्थिति में सुधार लाने के लिए देश एकजुट हो रहे हैं। इसलिए, भारत के हित में सबसे अच्छा यही होगा कि सिंधु जल संधि बरकरार रहे और उसे समाप्त करने से बचा जाए।

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