Published on Mar 23, 2022 Updated 0 Hours ago

इस वक़्त विश्व बिरादरी की प्राथमिकता यूक्रेन जंग को फ़ौरन रोकना और शांति स्थापना होनी चाहिए. हालात को और बिगड़ने से रोकने के लिए तत्काल क़दम उठाने ज़रूरी हैं. 

#रूस-यूक्रेन जंग को तत्काल रोकना ज़रूरी; भारत-चीन की हो सकती है अहम् भूमिका

ये लेख द यूक्रेन क्राइसिस: कॉज़ एंड कोर्स ऑफ़ द कन्फ़्लिक्ट का हिस्सा है. 


चाहे 18वीं सदी के ब्रिटिश वैज्ञानिक जोसेफ़ प्रिस्टली हों या अमेरिकी दार्शनिक थॉमस पेन, इन सबका विचार था कि वाणिज्य और व्यापार के विस्तार से युद्ध का ख़ात्मा किया जा सकता है. बहरहाल इनकी तुलना में ग्रीक लोगों की सोच हक़ीक़त के ज़्यादा क़रीब थी. उनका मानना था कि इंसान के स्थायी स्वभाव में जंग लड़ते रहने की फ़ितरत छिपी है. शायद यही वजह है कि 1968 में विल और एरियल डूरंट ने अपने अध्ययन में पाया था कि पिछले 3,421 वर्षों में से सिर्फ़ 268 साल ही ऐसे थे जिनमें दुनिया में कहीं किसी तरह की जंग नहीं लड़ी गई. इतिहासकार थियूसिडिडीज़ ने सरसरी तौर पर पाया था कि जंग की वजहें ‘प्रतिष्ठा, डर और हितों’ में छिपी होती हैं. आधुनिक समय में इतिहासकारों ने पाया है कि दुनिया के देश किसी विशिष्ट मुद्दे को लेकर जंग में नहीं जाते हैं ‘बल्कि अपनी सत्ता बरकरार रखने के लिए जाते हैं, इसके पहले वो ख़ुद को इतना अलग-थलग, इतना निकम्मा महसूस करते हैं कि उन्हें अपने दुश्मनों के दबदबे वाली अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था में दोयम दर्जा क़बूल करना पड़ता है.’ डोनाल्ड कीगन ने अपनी क़िताब ‘ऑन द ऑरिजिन्स ऑफ़ वॉर्स एंड द प्रीज़र्वेशन ऑफ़ पीस’ में भी दावे के साथ ऐसी ही बात कही है. मॉर्गनशॉ ने भी अपने यथार्थवाद के छह सिद्धांतों में से पांचवें सिद्धांत में देशों से ‘दूसरे देशों के हितों का सम्मान करने वाली नीतियां अपनाने की क़ाबिलियत लाने’ की अपील की है. रिचर्ड हास की नई क़िताब “वॉर ऑफ़ नैसेसिटी, वॉर ऑफ़ च्वॉइस” में भी एक तरह से इसी विचार को दोहराया गया है.  

आधुनिक समय में इतिहासकारों ने पाया है कि दुनिया के देश किसी विशिष्ट मुद्दे को लेकर जंग में नहीं जाते हैं ‘बल्कि अपनी सत्ता बरकरार रखने के लिए जाते हैं, इसके पहले वो ख़ुद को इतना अलग-थलग, इतना निकम्मा महसूस करते हैं कि उन्हें अपने दुश्मनों के दबदबे वाली अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था में दोयम दर्जा क़बूल करना पड़ता है.’

ग़ैर-ज़रूरी जंग 

ऊपर हुई चर्चा से यूक्रेन में जारी जंग के वजहों की ओर पर्याप्त संकेत मिल जाते हैं. पूरे मसले को और साफ़ तरीक़े से पेश करने के लिए अगर कोई इकलौती वजह की पहचान करनी हो तो वो है अमेरिकी नीति. पूर्ववर्ती सोवियत संघ के विघटन के बाद से ही, और ख़ासतौर से पुतिन के उभार के बाद से अमेरिका ने रूस को महाशक्ति व्यवस्था से अलग-थलग करने की कोशिशों में कोई कसर बाक़ी नहीं रखी है. ग़ौरतलब है कि वैश्विक सियासत की बुनियाद इसी व्यवस्था पर टिकी होती है. लिहाज़ा अमेरिका की ऐसी नीति यथार्थवादी राजनीति की मूल सोच के ख़िलाफ़ है और नैतिकता और ताक़त के ग़ैर-वाजिब घालमेल पर आधारित है. प्रोफ़ेसर जॉन मीयरशीमर एक लंबे अर्से से ऐसी नीति के ख़िलाफ़ मुखर होकर चेतावनी देते आ रहे हैं, लेकिन उनकी चेतावनियों का कोई असर नहीं हुआ. प्रोफ़ेसर जॉन से काफ़ी अर्सा पहले प्रोफ़ेसर डोनाल्ड कीगन ने 1995 में लिखी अपनी क़िताब में अमेरिकी अफ़सरशाही को वैश्विक स्तर पर सत्ता के वितरण की निरंतर बदलती फ़ितरत को लेकर चेतावनी दी थी. वॉशिंगटन के नीति-निर्माताओं को चेताते हुए उन्होंने कहा था कि “…रूस की मौजूदा परेशानियों से हमें उसकी अंतर्निहित शक्ति को लेकर किसी भुलावे में नहीं रहना चाहिए, साथ ही इस हक़ीक़त को भी नज़रअंदाज़ नहीं करना चाहिए कि देर सवेर वो दुनिया के मंच पर एक महाशक्ति के तौर पर उभरकर आ जाएगा…जिसके अरमान और लक्ष्य उसके ख़ुद के होंगे”. बेशक़ इन अरमानों और लक्ष्यों में कम से कम सुरक्षा का भाव तो ज़रूर शामिल है.   

निश्चित रूप से उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन (नेटो) की पूर्व की ओर विस्तार करने की नीति रूस को असहज कर रही थी. नेटो के मेंबरशिप एक्शन प्लान (MAP) में जॉर्जिया और यूक्रेन को शामिल किए जाने की योजना का रूस ज़बरदस्त विरोध करता आ रहा था.

निश्चित रूप से उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन (नेटो) की पूर्व की ओर विस्तार करने की नीति रूस को असहज कर रही थी. नेटो के मेंबरशिप एक्शन प्लान (MAP) में जॉर्जिया और यूक्रेन को शामिल किए जाने की योजना का रूस ज़बरदस्त विरोध करता आ रहा था. 2008 के बुखारेस्ट शिखर सम्मेलन के बाद अमेरिकी कांग्रेस के लिए तैयार सीआरएस रिपोर्ट में इस बात का ज़िक्र किया गया था कि भले ही यूक्रेन का सियासी नेतृत्व नेटो की सदस्यता हासिल करने का इच्छुक था लेकिन यूक्रेन की आबादी का एक बहुत बड़ा तबका (60-70 प्रतिशत) इस विचार के ख़िलाफ़ था. न सिर्फ़ रूसी नस्ल के बल्कि “एक बड़ी तादाद में यूक्रेनी नस्ल वाले लोगों का भी रूस की ओर रुझान देखा गया था.” 

हालांकि, उसके बाद से हालात बदलने लगे. रूस के पिट्ठू यानूकोविच द्वारा यूक्रेन में की गई दख़लंदाज़ियां, डोनेत्स्क और लुहांस्क प्रांतों पर रूसी नियंत्रण, रूस के मज़बूत समर्थन से बेलारूस में एलेक्ज़ेंडर लुकाशेंको की निरंकुश तानाशाही हुकूमत- जैसे संभावित कारकों की वजह से यूक्रेनी लोगों की सोच बदलने लगी. इंटरनेशनल रिपब्लिकन इंस्टीट्यूट के सेंटर फ़ॉर इनसाइट्स इन सर्वे रिसर्च (CSIR) द्वारा नवंबर 2021 में किए गए एक सर्वेक्षण से पता चला था कि 58 फ़ीसदी यूक्रेनियों ने अंतरराष्ट्रीय आर्थिक संघ से जुड़ने के बेहतरीन विकल्प के तौर पर यूरोपीय संघ का चयन किया और 54 फ़ीसदी यूक्रेनियों ने नेटो से जुड़ने के पक्ष में मतदान किया.   

नेटो की सदस्यता हासिल करने को लेकर यूक्रेनियों की बढ़ती सकारात्मकता और लुकाशेंको की हुकूमत के ख़िलाफ़ सिविल सोसाइटी के मज़बूत आंदोलन जैसे घटनाक्रमों से रूस अपने दायरे को बरकरार रख पाने की अपनी क्षमता के प्रति बेचैन हो उठा. कोई भी इस बात का पूर्वानुमान नहीं लगा सकता कि क्या पुतिन अतीत के सोवियत संघ को फिर से ज़िंदा करने में दिलचस्पी रखते हैं (एक बार पुतिन ने कहा था कि, ‘जो सोवियत संघ की कमी महसूस नहीं करते उनके पास दिल नहीं है, लेकिन जो सोवियत संघ की वापसी चाहते हैं उनके पास दिमाग़ नहीं है’) या फिर वो यूक्रेन पर क़ब्ज़े के बाद बाल्टिक देशों को निशाने पर लेने का इरादा रखते हैं. हालांकि सुरक्षा को लेकर उनके दावे और ख़ुद के साथ एक महाशक्ति जैसा बर्ताव किए जाने की उनकी चाहत जायज़ है. मौजूदा संकट की शुरुआत से ऐन पहले फ़्रांस के राष्ट्रपति मैक्रों ने पुतिन और ज़ेलेंस्की से मुलाक़ात की थी. इस मुलाक़ात के बाद उन्होंने इस बात की ओर सबका ध्यान खींचा था कि रूस की सुरक्षा समस्याओं का निपटारा करना ज़रूरी है. बहरहाल किन्हीं वजहों से इस बात को नज़रअंदाज़ कर दिया गया. हालांकि इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि रूस की सुरक्षा समस्याओं का एक बड़ा हिस्सा उसकी ख़ुद की उपज है.  

दरअसल, बुनियादी रूप से ये जंग ग़ैर-ज़रूरी थी. आज भी यूक्रेन ये कह रहा है कि उसके नेटो में शामिल होने की कोई संभावना नहीं है जबकि रूस भी सार्वजनिक तौर पर ये जता रहा है (उसकी बात में कितनी ईमानदारी है ये हमें मालूम नहीं है ) कि यूक्रेन में हुकूमत बदलने का उसका कोई इरादा नहीं है. लिहाज़ा इस जंग को लेकर रूस के मक़सद साफ़ नहीं हैं. यही बात मौजूदा हालात को काफ़ी ख़तरनाक बना देती है. निश्चित रूप से ये एक विशेष प्रकार की जंग है लेकिन इसके मक़सद स्पष्ट और साफ़-साफ़ रूप से ज़ाहिर नहीं हैं. इस बीच यूक्रेन पर रूसी हमले बदस्तूर जारी हैं. इसके चलते भयंकर मानवतावादी विनाश हो रहा है. इस पूरी क़वायद से निश्चित तौर पर रूस एक आक्रामक हमलावर बन गया है.     

दरअसल, बुनियादी रूप से ये जंग ग़ैर-ज़रूरी थी. आज भी यूक्रेन ये कह रहा है कि उसके नेटो में शामिल होने की कोई संभावना नहीं है जबकि रूस भी सार्वजनिक तौर पर ये जता रहा है कि यूक्रेन में हुकूमत बदलने का उसका कोई इरादा नहीं है.

बहरहाल, इस जंग से सिर्फ़ रूस और यूक्रेन ही प्रभावित नहीं हो रहे. आज की वैश्विकृत दुनिया इस स्थानीय जंग के प्रभावों को वैश्विक बना रही है. लंबे अर्से से जारी महामारी के गहरे और नकारात्मक प्रभावों से निपटते हुए दुनिया विकास के रास्ते पर आगे बढ़ रही थी. इस जंग ने दुनिया का ध्यान पूरी तरह से बांट दिया है. महामारी के प्रभावों से उबरने पर ध्यान टिकाने की बजाए दुनिया के देश तबाही और कंगाली की स्याह हक़ीक़त देख रहे हैं. इस जंग के आर्थिक प्रभाव गहरे और दूरगामी होंगे. इससे यूरोप से एशिया और अफ़्रीका तक सभी देशों के सभी नागरिकों पर प्रभाव पड़ना तय है. अमेरिका अब नेटो की हिफ़ाज़त के लिए बाल्टिक देशों में अपनी सैन्य टुकड़ियां भेज रहा है. क्या इस बात की कोई गारंटी है कि दुनिया धीरे-धीरे पहले यूरोपीय और आगे चलकर वैश्विक टकराव की ओर नहीं बढ़ रही है? या इस बात की ही क्या गारंटी है कि ‘युद्ध की धुंध’ से सूझबूझ भरी निर्णय प्रक्रिया गफ़लत में नहीं पड़ जाएगी? फ़िलहाल सबसे तात्कालिक ज़रूरत युद्ध रोकने की है. परमाणु शक्ति संपन्न देश द्वारा किसी राज्यसत्ता की संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता के उल्लंघन से अपरिवर्तनीय नतीजों की आशंकाओं की रोकथाम की दरकार है. ऐसा नहीं होने पर आगे चलकर परमाणु टकराव भड़कने की आशंका बढ़ जाएगी. युद्ध के बरकरार रहने या शायद आगे चलकर लाज़िमी तौर पर और विस्तृत रूप लेने से करोड़ों लोगों को ग़रीबी से बाहर निकालने की सारी उम्मीदें ख़त्म हो जाएंगी. साथ ही जलवायु परिवर्तन की रोकथाम से जुड़े उपायों पर अमल की गुंजाइश भी जाती रहेगी. ऐसे लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए अमनचैन और एक न्यूनतम स्तर की आपसी रज़ामंदी वाली दुनिया की दरकार होती है.  

युद्ध के बरकरार रहने या शायद आगे चलकर लाज़िमी तौर पर और विस्तृत रूप लेने से करोड़ों लोगों को ग़रीबी से बाहर निकालने की सारी उम्मीदें ख़त्म हो जाएंगी. साथ ही जलवायु परिवर्तन की रोकथाम से जुड़े उपायों पर अमल की गुंजाइश भी जाती रहेगी

महाशक्तियों के जुड़ावों वाली जंगों और टकरावों का शांतिपूर्ण हल निकालने में संयुक्त राष्ट्र हमेशा से ही एक बेअसर किरदार रहा है. ऐसे में संघर्ष से सीधे तौर पर जुड़ाव न रखने वाले दुनिया के अलग-अलग देशों के कंधों पर काफ़ी ज़िम्मेदारी आ जाती है. इन्हीं देशों को आपसी लड़ाइयों में उलझे किरदारों पर दबाव डालकर इस जंग का ख़ात्मा करना पड़ेगा. बताया जाता है कि जर्मनी और फ़्रांस अब भी इसी जुगत में लगे हैं.   

मौजूदा संघर्ष से अप्रत्यक्ष रूप से क्वॉड में मज़बूती आने से जुड़ा गुणा-भाग करने की बजाए भारत को पुतिन और बाइडेन को कार्यकारी तौर पर शांति स्थापना के लिए रज़ामंद करने की जीतोड़ कोशिश करनी चाहिए.

अमन के दूत 

वार्ताओं के ज़रिए मौजूदा संकट का हल निकालने के लिए दुनिया के 2 देश बेहतरीन हालत में हैं. वो देश हैं चीन और भारत. मौजूदा संकट से जुड़े तमाम किरदारों के साथ भारत के अच्छे रिश्ते हैं. भारत ने अब-तक जिस बात की अनदेखी की है, अब बिना समय गंवाए उस ओर क़दम बढ़ाने की ज़रूरत है. मौजूदा संघर्ष से अप्रत्यक्ष रूप से क्वॉड में मज़बूती आने से जुड़ा गुणा-भाग करने की बजाए भारत को पुतिन और बाइडेन को कार्यकारी तौर पर शांति स्थापना के लिए रज़ामंद करने की जीतोड़ कोशिश करनी चाहिए. उधर चीन ने स्वीकार किया है कि रूस के साथ उसके ‘बिना हदों’ वाले रिश्ते हैं. हालांकि वो अमेरिका और यूरोप के साथ भी अपने अहम संबंधों की कतई अनदेखी नहीं कर सकता. मौजूदा वक़्त चीन के लिए रूस से सस्ती गैस हासिल करने से जुड़े फ़ायदों का हिसाब-क़िताब करने का नहीं है. चीन ने सूझबूझ के साथ यूक्रेन को पश्चिम और रूस के बीच का ‘सेतु’ घोषित किया है. चीन को अलग-अलग प्रकार के बयान जारी करने की बजाए इसी विचार को आगे बढ़ाना चाहिए. भारत और चीन दोनों के लिए उभरती वैश्विक शक्ति की छवि तैयार करने की बजाए अमन लाने से जुड़ी क़वायद करना ज़्यादा ज़रूरी है. इस तरीक़े से दोनों विकास के रास्ते पर अपना सफ़र जारी रख सकते हैं. युद्ध की इस आपदा में दोनों के पास ये साबित करने का बेहतरीन अवसर है कि उनकी आवाज़ वाकई मायने रखती है. ‘विकासशील देशों’ के तौर पर वो प्रभावी रूप से बीच का रुख़ अपना सकते हैं और उसे आगे बढ़ा सकते हैं. इतना ही नहीं इन क़वायदों से भारत और चीन भी एक-दूसरे के नज़दीक आ सकते हैं. बहरहाल किसी भी तरह का क़दम उठाने के लिए समय तेज़ी से बीतता जा रहा है. 

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