2015 में भारत सरकार ने प्रधानमंत्री आवास योजना (PMAY) की शुरुआत की थी. इसका मक़सद साल ‘2022 तक सभी को मकान’ उपलब्ध कराना था. इस योजना की शुरुआत के लगभग सात बरस हो चुके हैं और अब हम शुरुआती समयसीमा से बहुत आगे आ चुके हैं. इस मोड़ पर मकान बनाने के इकोसिस्टम, इस योजना की भूमिका और इसके पालन और इसकी सीमाओं की समीक्षा के साथ साथ आगे की राह को समझना ज़रूरी हो जाता है.
नीति आयोग के ‘नए भारत की रणनीति’ दस्तावेज़ के मुताबिक़, भारत को इस समय 4.2 करोड़ मकान चाहिए.
नीति आयोग के ‘नए भारत की रणनीति’ दस्तावेज़ के मुताबिक़, भारत को इस समय 4.2 करोड़ मकान चाहिए. देश में मकान की क़िल्लत के लिए मोटे तौर पर तीन पहलू अहम भूमिका निभाते हैं:
- घरों में रहने वालों की ज़्यादा तादाद: ऐसे परिवार जहां शादीशुदा जोड़ों या बड़े परिवारों के पास रहने के लिए अपने अलग कमरे नहीं होते और उन्हें नए मकान की दरकार होती है.
- पुराना पड़ जाना: ऐसे मकान जो बहुत ख़राब हालत में हैं और जिनकी मरम्मत करके इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है.
- ख़ाली मकान: ऐसे मकान जहां कोई रहता नहीं है.
मकानों का विरोधाभास: जहां मांग हमेशा आपूर्ति के बराबर नहीं होती
ICRA के मुताबिक़ राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (NCR) में 1.7 लाख तैयार मकान ऐसे हैं, जिन्हें ख़रीदारों का इंतज़ार है. हाउसिंग ऐंड लैंड राइट्स नेटवर्क के मुताबिक़, अकेले दिल्ली में ही 1.5 से 2 लाख लोग बेघर हैं. दोनों ही आंकड़े एक विरोधाभासी तस्वीर पेश करते हैं. एक तरफ़ तो ख़ाली मकानों का अंबार है वहीं दूसरी तरफ़ बेघर लोगों के लिए पर्याप्त मकानों की कमी है. मकान की ज़रूरत हमेशा मांग में तब्दील नहीं हो पाती है. जिन लोगों को रिहाइश की ज़रूरत होती है, वो हमेशा बाज़ार की मांग के हिसाब से घर बनाने वाले प्राइवेट बिल्डर्स के बनाए महंगे घर ख़रीद पाने की हैसियत नहीं रखते हैं. इसी वजह से ये आंकड़े कहते हैं कि देश को सस्ती क़ीमत वाले मकानों की सख़्त दरकार है.
देश में मकानों की कमी से जूझ रहे 96 फ़ीसद लोग आर्थिक रूप से कमज़ोर और निचले आर्थिक दर्जे से ताल्लुक़ रखने वाले होते है. सरकार को चाहिए कि वो इस तबक़े को सीधे तौर पर ‘सस्ते मकान’ मुहैया कराए.
सरकार की भूमिका
इन स्थितियों में सरकार के लिए मकान उपलब्ध कराने के मामले में दख़ल देना ज़रूरी हो जाता है, ताकि मांग और आपूर्ति के इस असंतुलन को दूर किया जा सके. इस मामले में सरकार की भूमिका को मोटे तौर पर दो हिस्सों में बांटा जा सकता है:
- देश में मकानों की कमी से जूझ रहे 96 फ़ीसद लोग आर्थिक रूप से कमज़ोर और निचले आर्थिक दर्जे से ताल्लुक़ रखने वाले होते है. सरकार को चाहिए कि वो इस तबक़े को सीधे तौर पर ‘सस्ते मकान’ मुहैया कराए.
- लेकिन, जैसा कि कई और मामलों में हो रहा है कि सरकार इसमें सीधे घर मुहैया कराने के बजाय इसमें मध्यस्थ बन रही है. इसी वजह से सस्ती क़ीमत वाले मकान उपलब्ध कराने की योजना में निजी क्षेत्र की भागीदारी और भी अहम हो जाती है. सरकार को एक ऐसी व्यवस्था बनाने की कोशिश करनी चाहिए, जिससे इस सेक्टर में आने में निजी क्षेत्र की दिलचस्पी बनी रहे:
केंद्र सरकार ने 2015 मे सबके लिए मकान (HFA) के नाम से एक व्यापक मिशन शुरू किया था, जिसमें:
- प्रधानमंत्री आवास योजना- शहरी (PMAY-U): ये योजना 2015 में शहरी क्षेत्रों के लिए शुरू की गई थी.
- प्रधानमंत्री आवास योजना- ग्रामीण (PMAY-G): इसे वर्ष 2016 में ग्रामीण इलाक़ों के लिए शुरू किया गया था.
प्रधानमंत्री आवास योजना- ग्रामीण का आधार ये विचार है कि ग्रामीण भारत को ख़ुद से बनाए छोटे छोटे घरों की दरकार है. इसी वजह से इस योजना के तहत कच्चे और टूटे-फूटे मकानों में रहने वालों को सरकार की तरफ़ से सब्सिडी दी जाती है, जिससे वो अपने लिए बुनियादी सुविधाओं वाला छोटा सा पक्का मकान बना लें. वहीं शहरी क्षेत्र के लिए इस योजना के ज़रिए झुग्गी बस्तियों में रहने वालों समेत सभी ग़रीबों को मकान मुहैया कराने का लक्ष्य रखा गया है. इसी वजह से प्रधानमंत्री आवास योजना- शहरी के तहत स्लम में रहने वालों की अगुवाई में बस्ती को नए सिरे से विकसित करके ग्रीनफील्ड मकान बनाए जाते हैं.
PMAY-G केंद्र सरकार से प्रायोजित योजना है. इसकी लागत में मैदानी इलाक़ों में केंद्र और राज्यों की सरकारें 60:40 प्रतिशत के अनुपात में ख़र्च वहन करती हैं, तो पहाड़ी इलाक़ों में ये अनुपात 90:10 प्रतिशत होता है
ग्रामीण इलाक़ों के लिए आवास
प्रधानमंत्री आवास योजना ग्रामीण का मक़सद लाभार्थियों को ख़ुद के बनाए मकानों के ज़रिए सम्मानजनक आवास उपलब्ध कराना है. इस योजना के तहत लाभार्थी की पहचान 2011 की सामाजिक- आर्थिक जनगणना के आंकड़ों और कच्चे मकानों वाले परिवारों के माध्यम से होती है. मैदानी इलाक़ों में लाभार्थी को मकान बनाने के लिए 1.20 लाख रुपए और पहाड़ी क्षेत्रों में 1.30 लाख रुपए की सरकारी मदद दी जाती है. इस योजना को सरकार की अन्य योजनाओं जैसे कि स्वच्छ भारत अभियान, मनरेगा, जल जीवन मिशन और दीनदयाल उपाध्याय ग्राम ज्योति योजना के साथ तालमेल के साथ लागू किया जाता है.
प्रधानमंत्री आवास योजना- ग्रामीण की उपलब्धियां
इस योजना के तहत वर्ष 2022 के अंत तक सभी बुनियादी सुविधाओं वाले 2.70 करोड़ नए मकान बनाने का लक्ष्य रखा गया है. सरकार के मुताबिक़ 1.83 करोड़ घर बन चुके हैं. दूसरे शब्दों में 0.87 करोड़ (या 68 प्रतिशत) घर आधे बने हैं या फिर पूरे होने के अलग अलग स्तर पर हैं. ज़ाहिर है कि ये योजना अपने लक्ष्य पूरे करने के मामले में बहुत पीछे चल रही है; इसकी एक वजह तो कोविड-19 की महामारी को माना जा सकता है. लेकिन, महामारी की शुरुआत के पहले से ही ये योजना अपने लक्ष्य हासिल करने के मामले में पिछड़ रही थी.
लागू करने की राह की दिक़्क़तें
- कई राज्यों में योजना ठीक से लागू नहीं की गई: PMAY-G केंद्र सरकार से प्रायोजित योजना है. इसकी लागत में मैदानी इलाक़ों में केंद्र और राज्यों की सरकारें 60:40 प्रतिशत के अनुपात में ख़र्च वहन करती हैं, तो पहाड़ी इलाक़ों में ये अनुपात 90:10 प्रतिशत होता है. कई राज्य इस योजना में अपने हिस्से की रक़म नहीं देते हैं, जिससे इस योजना की प्रगति अटक जाती है. 2020 में नौ राज्यों ने लाभार्थियों को दी जाने वाली 2915.21 करोड़ रुपए की रक़म रोक रखी थी. कुछ राज्यों में तो केंद्र सरकार की तरफ़ से ही रक़म समय पर नहीं दी जाती है. साल 2020 में इस योजना के लिए 200 करोड़ रुपए की रक़म की कमी बताई गई थी. सरकार को चाहिए कि वो राज्यों के हिस्से की रक़म समय पर जारी करना सुनिश्चित करे और केंद्र सरकार की तरफ़ से भी मनरेगा की तरह सीधे लाभार्थी के खाते में पैसे भेजने की व्यवस्था करनी चाहिए.
- पूंजी तक पहुंच: ग्रामीण क्षेत्रों में मकान बनाने के लिए 1.2 या 1.3 लाख रुपए की रक़म पर्याप्त नहीं है. किसी भी मकान को बनाने में पैसे की कमी आड़े न आए, इसके लिए वित्तीय संस्थानों से पर्याप्त मदद उपलब्ध होनी ज़रूरी होती है. प्रधानमंत्री आवास योजना- ग्रामीण मिशन के दिशा-निर्देशों के मुताबिक़, घर बनाने के लिए NABARD से 70 हज़ार रुपए तक का क़र्ज़ लिया जा सकता है. बदक़िस्मती से इस मामले में कोई प्रगति नहीं हुई है. यहां तक कि स्टेट बैंक (SBI) जैसे बड़े सरकारी बैंकों के पास भी आर्थिक रूप से कमज़ोर तबक़े को मकान बनाने के लिए क़र्ज़ की ख़ास तौर से कोई योजना नहीं है. बैंकों के लिए ऐसे मामलों में जोखिम ज़्यादा और मुनाफ़ा कम होता है. नतीजा ये कि वो इस तबक़े को क़र्ज़ मुहैया कराने के लिए कोई योजना लाते ही नहीं हैं. इसे देखते हुए, सरकार को चाहिए कि वो इस मामले में दख़ल दे और मकान बनाने के लिए ग़रीबों को आसानी से क़र्ज़ मुहैया कराए, ताकि योजना रफ़्तार पकड़ सके. ‘सबके लिए मकान’ का सपना तब तक हक़ीक़त नहीं बन सकता, जब तक आर्थिक रूप से कमज़ोर तबक़े (EWS) को क़र्ज़ उपलब्ध कराने की ज़िम्मेदारी सरकार अपने ऊपर नहीं लेती है.
मौजूदा ढांचे की कमज़ोरियां
- भूमिहीन किसानों को योजना से अलग रखना: प्रधानमंत्री आवास योजना- ग्रामीण का लाभ उठाने के लिए किसी के पास ज़मीन का एक टुकड़ा होने की शर्त पहली है. 2011 की जनगणना के आंकड़ों के मुताबिक़ भारत में 14.4 करोड़ भूमिहीन किसान हैं. इनमें से ज़्यादातर ग्रामीण इलाक़ों में रहते हैं. हालांकि, PMAY-G की MIS के आंकड़े कहते हैं कि सरकार केवल 2.6 लाख लोगों को ही भूमिहीन किसान मानती है. महज़ एक दशक पुरानी जनगणना की तुलना में प्रधानमंत्री आवास योजना के मुताबिक़, भूमिहीनों की तादाद बेहद कम है. इन 2.6 लाख लोगों में से सरकार ने 1.1 लाख लोगों को ही लाभार्थी घोषित किया है. भूमिहीनों की पहचान करके उन्हें ज़मीन का टुकड़ा मुहैया कराना राज्य सरकारों की ज़िम्मेदारी है. जब तक राज्य सरकारें भूमिहीन लाभार्थियों की पहचान नहीं करती, तब तक केंद्र सरकार उन्हें वित्तीय मदद नहीं देती. इसीलिए भूमिहीन ग्रामीण ग़रीबों से जुड़े एक अहम सवाल का जवाब नहीं उपलब्ध है. इसके अलावा PMAY-G में शहरी योजना की तरह भूमिहीन ग़रीबों के लिए मकान उपलब्ध कराने का विकल्प नहीं है. भूमिहीन लोग, समाज के सबसे ग़रीब और हाशिए पर पड़ी जातियों के लोग हैं. आज वक़्त की मांग यही है कि इस योजना की कमियों को स्वीकार करके ऐसे बदलाव किए जाएं, ताकि ग्रामीण क्षेत्र की भूमिहीन आबादी को मकान मुहैया कराया जा सके.
- आवासों की गुणवत्ता: CAG की इंदिरा आवास योजना (IAY) की कुशलता के मूल्यांकन वाली रिपोर्ट- प्रधानमंत्री आवास योजना पहले, इंदिरा आवास योजना ही थी- में कहा गया था कि इस योजना की सबसे बड़ी कमी घटिया दर्ज़े के मकान थे. इसी तरह 2020 की CAG की सामान्य, सामाजिक और आर्थिक क्षेत्रों की ऑडिट रिपोर्ट में पाया गया था कि प्रधानमंत्री ग्रामीण आवास योजना के तहत बनाए जा रहे मकान भी घटिया दर्ज़े के हैं. यानी जिस दिक़्क़त की तरफ़ आठ बरस पहले इंदिरा आवास योजना की समीक्षा में इशारा किया गया था, वो प्रधानमंत्री आवास योजना- ग्रामीण में भी बनी हुई है. मकान बनाने की ज़िम्मेदारी लाभार्थी की होती है और इस दौरान गुणवत्ता की निगरानी की कोई उचित व्यवस्था नहीं है. जियो टैगिंग से मकानों का निर्माण तो सुनिश्चित हो जाता है. लेकिन, गुणवत्ता के मामले में ये भी ख़ामोश है. मंत्रालय ने मकानों के आदर्श प्रोटोटाइप और बनाने की योजनाएं तो तय की हैं. हालांकि ज़मीनी स्तर पर इसे असरदार बनाने की कोई व्यवस्था नहीं की गई है. इसीलिए सरकार के लिए सुझाव यही है कि वो मकानों की गुणवत्ता की निगरानी की व्यवस्था को मज़बूत बनाए.
- अन्य योजनाओं से तालमेल: प्रधानमंत्री आवास योजना का ज़ोर अन्य सरकारी योजनाओं जैसे कि स्वच्छ भारत मिशन के तहत शौचालय के निर्माण, मनरेगा कामगारों को 90 दिन का रोज़गार देने, जल जीवन मिशन के तहत पीने का पानी उपलब्ध कराने, बिजली कनेक्शन, उज्जवला योजना के तहत स्वच्छ ईंधन से खान पकाने की व्यवस्था से तालमेल होना चाहिए. इसका मक़सद, मकान बनाने के साथ साथ बुनियादी सेवाएं भी उपलब्ध कराना है. हालांकि, तमाम अध्ययन और CAG की ऑडिट रिपोर्ट में साफ कहा गया है कि इन सभी योजनाओं के बीच तालमेल का अभाव है. 2020 में राजस्थान से जुड़ी CAG की रिपोर्ट में पाया गया था कि सर्वे किए गए 49 प्रतिशत मकानों में शौचालय नहीं थे, जबकि मकान का निर्माण तभी पूरा माना जाता है, जब शौचालय भी बन जाए. सरकार ने न केवल इन मकानों को तैयार घोषित कर दिया बल्कि, गांवों को भी ‘खुले में शौच से मुक्त’ घोषित कर दिया.
MAY-G में शहरी योजना की तरह भूमिहीन ग़रीबों के लिए मकान उपलब्ध कराने का विकल्प नहीं है. भूमिहीन लोग, समाज के सबसे ग़रीब और हाशिए पर पड़ी जातियों के लोग हैं. आज वक़्त की मांग यही है कि इस योजना की कमियों को स्वीकार करके ऐसे बदलाव किए जाएं, ताकि ग्रामीण क्षेत्र की भूमिहीन आबादी को मकान मुहैया कराया जा सके.
आगे की राह
ग्रामीण भारत में सबके लिए मकान का लक्ष्य हासिल करने के लिहाज़ से प्रधानमंत्री आवास योजना- ग्रामीण एक महत्वाकांक्षी योजना है. राज्य सरकारों को चाहिए कि वो समय पर फंड जारी कर दें जिससे परियोजना बिना किसी देरी के सही समय पर पूरी की जा सके. लाभार्थियों को मकान बनाने के लिए क़र्ज़ आसानी से मिले जाए, इसका इंतज़ाम भी करना होगा. भूमिहीन परिवारों को इस योजना में शामिल किए जाने की ज़रूरत है क्योंकि समाज के इसी तबक़े को मकान बनाने के लिए सरकार से सहयोग की सबसे अधिक ज़रूरत है. मकान की गुणवत्ता सुधारने के मामले में काफ़ी गुंजाइश दिखती है. इसे हासिल करने का एक तरीक़ा ये हो सकता है कि इसे केंद्र और राज्यों की अन्य योजनाओं के साथ बेहतर ढंग से जोड़ा जाए.
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