Author : Kabir Taneja

Published on Jul 19, 2023 Updated 0 Hours ago

ईरान और इज़राइल के राजनीतिक समीकरणों का जब तक कोई समाधान नहीं ढूंढ़ा जाता है, तब तक अन्य किसी भी रूप में क्षेत्रीय संतुलन की कल्पना भी मुश्किल है.

पश्चिम एशिया में कूटनीतिक तनाव के बीच ईरान-इज़राइल की आपसी दुश्मनी

पश्चिम एशिया (मध्य-पूर्व), जिसे समकालीन इतिहास में एक ऐसे भौगोलिक क्षेत्र के रूप में देखा जाता है, जहां भू-राजनीतिक संबंधों के गणित लगातार बदलते रहते हैं. हाल ही में इस क्षेत्र में कुछ सबसे महत्वपूर्ण  राजनीतिक घटनाक्रम घटित हो रहे हैं. शुरुआत के लिए, चीन की मध्यस्थता में सऊदी अरब और ईरान (इस्लामी दुनिया की दो बड़ी शक्तियां) के बीच राजनयिक संबंध फिर से बहाल हो गए हैं, और इसके साथ ही रियाद और तेहरान के रिश्ते पिछले सात सालों में पहली बार सामान्य हुए हैं. इसके अलावा, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात के नेतृत्व में खाड़ी सहयोग परिषद (GCC) ने सदस्य देश कतर के साथ अपने विवादों को सुलझा लिया है. गौरतलब है, GCC ने कतर पर कई तरह के आर्थिक प्रतिबंध लगाए थे. इतना ही नहीं, अरब लीग ने सीरिया को अपने संगठन में फिर से शामिल कर लिया है. अरब स्प्रिंग आंदोलनों को दबाने के लिए सीरिया के विवादास्पद राष्ट्रपति बशर अल असद द्वारा सीरियाई जनता के खिलाफ़ दमनात्मक कार्रवाई की गई थी, जिसके परिणामस्वरूप 2011 में सीरिया को अरब लीग से बाहर कर दिया गया था.

क्षेत्र में ‘सामान्य’ राजनयिक संबंधों की बहाली के कई पहलू और कई कारण हैं, और इनके पीछे राजनीतिक मंशाएं भी अलग-अलग हैं. क्षेत्र में संकट के कई कारण हैं, जहां ईरान और उसका परमाणु कार्यक्रम कई समस्याओं की जड़ है. और मध्य-पूर्व में इस बात को लेकर मतभेद है कि ईरान के एक परमाणु शक्ति देश बनने की संभावना से कैसे निपटा जाए. अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के रूप में, क्षेत्र में सऊदी अरब और इज़राइल समेत कई देशों को एक ऐसा नेता मिला जो अयातुल्ला खामेनेई के साथ बातचीत के विचार से सहमत नहीं था, बल्कि ईरान के प्रति ट्रंप प्रशासन का रवैया इतना सख़्त था कि व्हाइट हाउस के वे अधिकारी, जो कथित रूप से ईरान के साथ युद्ध के समर्थक थे, भी इस बात को लेकर चिंता में पड़ गए कि ऐसी कार्रवाईयों का क्या नतीज़ा निकलेगा. इसकी एक झलक जनवरी 2020 में देखने को मिली जब इराक़ में बगदाद हवाई अड्डे पर अमेरिका ने ड्रोन हमला करते हुए ईरान के सबसे बड़े सैन्य अधिकारी कासिम सुलेमानी को मार गिराया, जिसमें इज़राइल का भी हाथ था.

प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान के लिए, अमेरिका के साथ अब साझेदारी का मतलब ज़ीरो-सम गेम नहीं है क्योंकि साथ ही साथ बीजिंग और मॉस्को के साथ भी उसके संबंध फल-फूल रहे हैं.

हालांकि, रिश्तों को सामान्य बनाने, दूरियां कम करने और सहयोग बढ़ाने के लिए किए गए प्रयासों की सफ़लता क्षेत्र की शांति पर निर्भर करेगी. इस दिशा में प्रयास जारी हैं, भले ही इसके कारण और उद्देश्य अलग-अलग हों. राष्ट्रपति जो बाइडेन के नेतृत्व में अमेरिका, इस बात पर जो दे रहा है कि रियाद इज़राइल के साथ अपने संबंधों में सुधार के लिए आगे बढ़े, जैसा कि संयुक्त अरब अमीरात जैसे देशों ने अब्राहम समझौते के तहत ऐसा किया है (जिसकी अपनी आंतरिक चुनौतियां हैं, उदाहरण के लिए, इज़राइल इस बात से असुरक्षित महसूस कर रहा है कि क्योंकि UAE को अमेरिकी की ओर से F-35 लड़ाकू विमानों जैसी उच्च गुणवत्ता की सैन्य रक्षा प्रौद्योगिकी का हस्तांतरण किया गया है). दूर से देखने पर अमेरिका की महत्वाकांक्षा  के बारे में यही लगता है कि उसे मध्य-पूर्व में शांति की स्थापना जैसे व्यापक लक्ष्य में हिस्सा लेने की बजाय अपनी घरेलू राजनीति में ज्यादा दिलचस्पी है. सऊदी, ख़ासकर प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान के लिए, अमेरिका के साथ अब साझेदारी का मतलब ज़ीरो-सम गेम नहीं है क्योंकि साथ ही साथ बीजिंग और मॉस्को के साथ भी उसके संबंध फल-फूल रहे हैं. इसका मतलब ये नहीं है कि मोहम्मद बिन सलमान और बाइडेन के आपसी संबंध खुश्क हो गए हैं लेकिन भविष्य की वैश्विक व्यवस्था में रियाद खुद को कहां और कैसे देखना चाहता है, इस मसले पर रियाद की सोच में व्यापक परिवर्तन हुआ है, जिसके कारण वह वर्तमान में अनजान भौगोलिक क्षेत्रों से संबंध जोड़ने का प्रयास कर रहा है.

इज़राइल – ईरान संबंध

इज़राइल की नज़र इस बात पर है कि ईरान के साथ संबंधों के गणित इतनी तेज़ी से बदल रहे हैं कि इसके कारण वह लगातार असहज महसूस कर रहा है. घरेलू राजनीति की उठापटक  के बावजूद, ईरान के मसले पर इज़राइल में द्विपक्षीय एकता बनी रहती है जबकि देश की राजनीति आमतौर पर अव्यवस्था से पीड़ित रही है. इज़राइल का सबसे क़रीबी सहयोगी, अमेरिका, कूटनीतिक हथियार के ज़ोर से तेहरान को परमाणु शक्ति बनने से रोकने की लगातार कोशिश कर रहा है. इस रणनीति को इज़राइल ज्यादातर संदेह की दृष्टि से देखता रहा है. इस तरह की कूटनीतिक चालों के परिणामस्वरूप (विशेष रूप से 2010 के बाद से) ईरान ने जितनी भी राजनीतिक ज़मीन हासिल की है, उसका उसने भरपूर इस्तेमाल किया है और क्षेत्र में इज़राइल के दुश्मनों के साथ गठजोड़ करके उसने अपनी स्थिति को मज़बूत बनाने की कोशिश की है. देश के विदेश मंत्री, होसैन अमीर-अब्दुल्लाहियन, ने इस महीने मध्य-पूर्व, विशेष रूप से अपने अरब पड़ोसी देशों का दौरा किया, जिसके बारे में कई लोगों  का कहना है कि ईरान सऊदी अरब जैसे देशों के साथ प्रगाढ़ संबंध बनाने के लिए हाथ-पांव मार रहा है, वहीं संयुक्त अरब अमीरात, मिस्र और कुवैत जैसे देशों का विश्वास जीतने का प्रयास कर रहा है, और ओमान जैसे तटस्थ देशों और कतर जैसे अर्ध-साझेदार देशों के साथ संवाद बढ़ाने की दिशा में काम कर रहा है. मैत्री प्रदर्शन के अलावा ईरान अधिकांशतः अपनी घरेलू जनता के सामने ख़ास छवि पेश करने के लिए लगातार बयानबाज़ी कर रहा है, उदाहरण के लिए, हमास के नेता के साथ बैठक, सशस्त्र फिलिस्तीनी समूहों का पुरजोर समर्थन और लगातार इज़राइल के “ख़ात्मे” का आह्वान करना.

संयुक्त अरब अमीरात, मिस्र और कुवैत जैसे देशों का विश्वास जीतने का प्रयास कर रहा है, और ओमान जैसे तटस्थ देशों और कतर जैसे अर्ध-साझेदार देशों के साथ संवाद बढ़ाने की दिशा में काम कर रहा है.

सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात के नेतृत्व में, अरब जगत की सोच शायद इस बात से उपजी है कि बहुत ज्यादा दबाव की स्थिति में भी वाशिंगटन ईरान के खिलाफ़ कार्रवाई के प्रति अनिच्छुक है. 2019 में हौथी लड़ाकों द्वारा सऊदी (कम से कम रियाद के मामले में) की तेल रिफाइनरियों पर ड्रोन हमलों को एक लिटमस टेस्ट के तौर पर देखा गया कि सुरक्षा के मामले में सऊदी अमेरिका पर कितना भरोसा कर सकता है. इस मामले में, सऊदी ने अमेरिका को असफल करार दिया. संक्षेप में कहें, सऊदी ने मामले को अपने हाथों में लेने का फ़ैसला किया और संकट का इस दृष्टिकोण के साथ सामना किया कि वर्तमान में अमेरिका इससे कैसे निपटेगा और इसके लिए उसने अमेरिका की डी-रिस्किंग (यानी जोख़िम को कम करने के प्रयास) रणनीति का इस्तेमाल किया.

मध्य-पूर्व में ‘डी-रिस्किंग’ जैसी रणनीति इज़राइल को कुछ हद तक सबसे अलग-थलग करती है. भले ही, अमेरिका इज़राइल का साथ देते हुए ईरान को परमाणु शक्ति देश बनने से रोकने के लिए हर मुमकिन प्रयास कर रहा है, लेकिन उसके बावजूद ईरान अपने कार्यक्रम को और आगे ले जाने में कामयाब रहा है, यानी उसका कार्यक्रम ख़त्म नहीं हुआ है. बेशक यह ऐसे कूटनीतिक प्रयासों की प्रभावशीलता को बढ़ाएगा, जिसमें अब रिपोर्टों के अनुसार, मस्कट के ज़रिए वाशिंगटन और तेहरान के बीच अप्रत्यक्ष संदेश भी शामिल हैं.

निष्कर्ष

इस मोड़ पर, ईरान से यह उम्मीद करना कि वह अपने परमाणु कार्यक्रम को पूरी तरह से छोड़ देगा, अव्यवहारिक होगा. ऐसे में यह सवाल उठता है कि इज़राइल ईरान को राजनीति के किस स्तर तक सीमित रखकर सहज महसूस करेगा? ऐसी रिपोर्टें सामने आ रही हैं कि अगर इज़राइल ईरान के परमाणु प्रतिष्ठानों पर हवाई हमले की शुरुआत करता है तो ईरान की तरफ़ से जवाबी कार्रवाई के संभावित परिणामों के लिए वह अपनी सेना और जनता को तैयार कर रहा है. कुछ लोगों का मानना है कि अमेरिकी सैन्य ताकत और उसकी जानकारी के बिना इज़राइल का ऐसा कोई कदम उठाना बहुत जोखिम भरा हो सकता है. इज़राइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने कहा, “हमारे क्षेत्र में हालात तेज़ी से बदल रहे हैं. हम जड़ नहीं हो रहे हैं? हम अपने लक्ष्यों (जो नहीं बदले हैं) और बदलते हालातों के अनुसार अपने युद्ध सिद्धांतों और कार्रवाई के तरीकों में बदलाव कर रहे हैं.”

आज ईरान और इज़राइल के बीच तनाव कम करने की गुंजाइश न के बराबर है, और भौगोलिक दृष्टि से, दोनों के बीच संघर्ष का सीधा असर पूरे क्षेत्र पर पड़ेगा, जिससे क्षेत्र में स्थित दूसरे देशों के लिए वर्तमान शांति प्रक्रियाओं और समझौतों को बनाए रखना मुश्किल हो जायेगा.

ईरान और इज़राइल के राजनीतिक समीकरणों का जब तक कोई समाधान नहीं ढूंढ़ा जाता है, तब तक एक सीमा के बाद अन्य किसी भी रूप में क्षेत्रीय संतुलन की कल्पना भी मुश्किल है. अगर इज़राइल ईरान के परमाणु कार्यक्रम के खिलाफ़ कोई कार्रवाई करता है तो ये मुमकिन नहीं है कि अमेरिका पीछे रह सके. हालांकि इसकी संभावना कम है लेकिन नामुमकिन नहीं है. आज ईरान और इज़राइल के बीच तनाव कम करने की गुंजाइश न के बराबर है, और भौगोलिक दृष्टि से, दोनों के बीच संघर्ष का सीधा असर पूरे क्षेत्र पर पड़ेगा, जिससे क्षेत्र में स्थित दूसरे देशों के लिए वर्तमान शांति प्रक्रियाओं और समझौतों को बनाए रखना मुश्किल हो जायेगा.

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