Author : Kabir Taneja

Expert Speak Raisina Debates
Published on Apr 23, 2024 Updated 0 Hours ago

ईरान और इज़रायल के बीच खुद को बड़ा और मज़बूत देश दिखाने की जो होड़ चल रही है, वो कभी भी क्षेत्रीय युद्ध में तब्दील हो सकती है. इस युद्ध के नतीजे पूरी दुनिया के लिए ख़तरनाक साबित हो सकते हैं.

प्रतिरोधक क्षमता के प्रदर्शन के नाम पर इज़रायल और ईरान की नूराकुश्ती

गाज़ा में चल रहे युद्ध के बीच इस तरह की ख़बरें रही हैं कि पाकिस्तान ने जैनेबियोन ब्रिगेड को आतंकी संगठन घोषित कर दिया है. जैनेबियोन ब्रिगेड पाकिस्तान से संचालित होने वाला ईरान समर्थित ऐसा शिया विद्रोही गुट है, जिसने ईरान की शक्तिशाली इस्लामिक रिवोल्यूशनरी गार्ड कॉर्प्स (IRGC) के साथ मिलकर सीरिया और दूसरी जगहों पर जंग लड़ी. पाकिस्तान ने ये फैसला ईरान के राष्ट्रपति इब्राहिम रईसी के इस्लामाबाद दौरे से ठीक पहले लिया. इस दौरान पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ भी अपनी पहली अंतरराष्ट्रीय यात्रा में सऊदी अरब में थे

अब तक ईरान ये साबित करने में कामयाब रहा है कि ये सारे संगठन अलग राजनीतिक समूह हैं. वो स्वतंत्र तौर पर फैसले लेते हैं और उसका (ईरान) इन संगठनों से कोई लेना-देना नहीं है.

जैनेबियोन ब्रिगेड और अफगानिस्तान का शिया विद्रोही गुट फतेमियोन ब्रिगेड मिलकर उस मोर्चे का निर्माण करते हैं जिसे ‘Axis of Resistance’ यानी प्रतिरोध की धुरी कहा जाता है. ईरान इन्हें समर्थन देता है. ये दोनों छोटे विद्रोही गुट हैं लेकिन इस क्षेत्र में ईरान की रणनीति को पूरा करने में अहम भूमिका निभाते हैं. सीरिया, इराक और दूसरे अरब देशों में ईरान हमेशा से हिज़बुल्लाह, क़ताइब हिज़बुल्लाह, हिज़बुल्लाह अल-नुजाबा, क़ताइब अल शुहादा, अंसार अल्लाह (हूती) और अब तो हमास जैसे संगठनों को समर्थन देता रहा है. ईरान इन संगठनों की मदद से इज़रायल और अरब देशों से पारंपरिक और बड़े पैमाने पर युद्ध करने की बजाए छोटे-छोटे प्रतिरोधों से ही अपना हित साधता है. अब तक ईरान ये साबित करने में कामयाब रहा है कि ये सारे संगठन अलग राजनीतिक समूह हैं. वो स्वतंत्र तौर पर फैसले लेते हैं और उसका (ईरान) इन संगठनों से कोई लेना-देना नहीं है.

इज़रायल-ईरान संघर्ष 

इस बात पर कोई शक नहीं है कि पिछले कई साल से ईरान इन संगठनों के ज़रिए पर्दे के पीछे रहकर अपने हितों के सफलता से साधते रहा है. इज़रायल के ख़िलाफ अपनी हमलावर कार्रवाई को ईरान ने ये कहते हुए जायज़ ठहराया कि संयुक्त राष्ट्र चार्टर के आर्टिकल 51 में दिए गए दिशा निर्देश हर देश को आत्मरक्षा का अधिकार उसके हिसाब से कदम उठाने की इजाज़त देता है. ईरान ने अपनी दलील में ये कहा कि इज़रायल ने सीरिया की राजधानी दमिश्क में उसके दूतावास पर हमला किया, जिसमें इस्लामिक रिवोल्यूशनरी गार्ड कॉर्प के वरिष्ठ सैनिक कमांडर की मौत हुई. ईरान के पूर्व राजयनिक नोस्रतोल्लाह ताजिक के मुताबिक इस तरह की कार्रवाई की लागत भी एक तरह का निवेश है. इज़रायल के ईरान ने ये ऑपरेशन अपनी प्रतिरोधक क्षमता दिखाने के लिए किया

हालांकि अगर युद्ध और संघर्ष के अध्ययन के दौरान पढ़ाए जाने वाले परंपरागत और सैद्धांतिक व्याख्या के हिसाब भी देखें तो इज़रायल और ईरान के बीच जिस तरह का तनाव है, उसमें इस तरह के हमले को प्रतिरोधक कार्रवाई बताना थोड़ा अटपटा लगता है. वैसे तथ्य ये है कि प्रतिरोध के एक कागजी अवधारणा है, इसका वास्तव में मैदान में इस्तेमाल नहीं किया जाता. वैसे हकीक़त तो ये है कि ईरान ने जो नीतियां बना रखी हैं, वो इस क्षेत्र में पहले ही उसके सामरिक हितों को फायदा पहुंचा रही हैं. 2019 में सऊदी अरब के तेल संस्थानों पर हूती विद्रोहियों ने ड्रोन से हमला किया. इसके जवाब में अमेरिका ने जितनी देर से और जितनी नरम प्रतिक्रिया दी, वो हूती विद्रोहियों के हमले की तुलना में बहुत कम थी. इस हमले के बाद सऊदी अरब ने यमन में चल रहे युद्ध में अपनी भूमिका का दोबारा मूल्यांकन किया. अब वो इस समस्या का हल निकालने के लिए सीधे हूती विद्रोहियों से बात कर रहा है. इतना ही नहीं चीन की मध्यस्थता से अब सऊदी अरब और ईरान अपने राजनयिक गतिरोध को भी ख़त्म करने की कोशिश कर रहे हैं.

अमेरिका इस क्षेत्र में एक विदेशी ताकत है, इसलिए अमेरिका के ख़िलाफ ईरान के हमले का मतलब अलग है और इज़रायल पर हमले का असर अलग है क्योंकि इज़रायल इसी क्षेत्र का देश है और यहां की भौगोलिक वास्तविकताएं अलग हैं.

सऊदी अरब के अलावा ईरान ने अब यूनाइटेड अरब अमीरात (UAE), कतर, ओमान और यहां तक की कुवैत के साथ भी अपने बिगड़े हुए रिश्तों को राजनयिक पहल के साथ सुधारना शुरू कर दिया है. हालांकि इसका मतलब ये नहीं है कि शिया बहुल ईरान के इन अरब देशों के साथ जो मूलभूत मतभेद हैं, वो सुलझ गए हैं. लेकिन अब ये देश इस बात को समझ चुके हैं कि एक-दूसरे किसी भी तरह का संघर्ष उनके दीर्घकालिक आर्थिक और राजनीतिक हित के लिए ठीक नहीं है. इसका एक और सबूत तब मिला जब 2020 में अरब देशों और इज़रायल के बीच अब्राहम समझौता हुआ. गाज़ा में चल रहे मौजूदा संघर्ष के बावजूद ये समझौता अब तक कायम है

तो ऐसे में सवाल उठ रहे हैं कि आखिर ईरान और इज़रायल के बीच इस तरह की आक्रामक कार्रवाई की ज़रूरत क्यों पड़ी. इसके दो पहलू हैं. अगर इज़रायल के नज़रिए से देखें तो ईरान इस क्षेत्र में इज़रायल का सबसे बड़ा प्रतिद्वंदी है. ऐसे में इज़रायल चाहता है कि ईरान पर दबदबा बनाए रखना उसके अस्तित्व के लिए ज़रूरी है. 7 अक्टूबर 2023 के हमास ने जिस तरह इज़रायल पर हमला किया, उसके बाद यहूदी राष्ट्र यानी इज़रायल में सुरक्षा का भाव बनाए रखने के लिए इस तरह की कार्रवाई ज़रूरी थी. ईरान के भीतर किया गया इज़रायल का जवाबी हमला इसी बात का प्रमाण है. अब सवाल ये है कि किसकी प्रतिरोधक क्षमता ज्यादा प्रभावी साबित हुई. कौन इसका एजेंडा सेट कर रहा है. अगर हालिया हमले की बात करें तो इज़रायल ने जिस तरह गुप्त रूप से और परंपरागत तरीके से ईरान के भीतरी इलाकों तक हमला किया है, उससे ये लग रहा है कि इज़रायल की क्षमता ज्यादा है. ईरान के इस्फ़हान इलाके में स्थित रडार सुरक्षा सिस्टम को निशाना बनाकर इज़रायल ने ये संदेश दे दिया है कि वक्त पड़ने पर वो ईरान के परमाणु ढांचे तक भी पहुंच सकता है

बात अगर ईरान की करें तो दमिश्क में इज़रायली हमले के ख़िलाफ जवाबी कार्रवाई करने का फैसला लेना उसके लिए मुश्किल था. अगर ईरान इस हमले का बदला नहीं लेता तो IRGC को हुए नुकसान से इसका मनोबल बहुत कम हो जाता क्योंकि इस्लामिक रिवोल्यूशनरी गार्ड कॉर्प सीधे अयातुल्लाह अल ख़ामेनेई के तहत काम करती है. इसी तरह की प्रतिक्रिया ईरान ने 2020 में भी दी थी जब अमेरिका के हमले में IRGC के एलीट कमांड और कुद्स फोर्स के कमांडर क़ासिम सुलेमानी मारे गए थे. तब ईरान में स्थित अमेरिकी संस्थानों पर ईरान ने अपने मिसाइल हमलों की झड़ी लगा दी थी. हालांकि अमेरिका इस क्षेत्र में एक विदेशी ताकत है, इसलिए अमेरिका के ख़िलाफ ईरान के हमले का मतलब अलग है और इज़रायल पर हमले का असर अलग है क्योंकि इज़रायल इसी क्षेत्र का देश है और यहां की भौगोलिक वास्तविकताएं अलग हैं.

निष्कर्ष

इज़रायल की प्रतिक्रिया उसी रणनीति का एक हिस्सा है, जो वो यहां लंबे वक्त से खेल रहा है. इज़रायल इस क्षेत्र का सबसे प्रभावी राष्ट्र बनना चाहता है. इज़रायल अगर ईरान के परमाणु संस्थाओं को निशाना बनाता है तो फिर हो सकता है कि ईरान भी दोगुनी रफ्तार से अपनी ताकत बढ़ाने की कोशिश करें. इससे इस क्षेत्र में परमाणु हथियारों की दौड़ तेज़ हो सकती है. इस बात का ख़तरा बढ़ता जा रहा है कि गाज़ा में चल रही जंग क्षेत्रीय संघर्ष में बदल सकती है क्योंकि अमेरिका की बात कोई नहीं सुन रहा. हालांकि अभी ऐसा लग रहा है कि ईरान इस हमले के मुद्दे को बहुत बड़ा मुद्दा हीं बनाना चाहता लेकिन इतना तय है कि इज़रायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू और ईरान के सर्वोच्च धार्मिक नेता अयातुल्लाह ख़ामेनेई इसे अपने अहम का सवाल बनाएंगे. अगर ऐसा होता है कि यहां क्षेत्रीय युद्ध छिड़ सकता है जिसके वैश्विक स्तर पर गंभीर और दीर्घकालिक दुष्परिणाम हो सकते हैं.

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.