Published on Jul 30, 2023 Updated 0 Hours ago

खाड़ी क्षेत्र में बदलाव की बहती बयारों के बीच क्षेत्रीय राजनीति में इज़राइल को स्वीकार किया जाने लगा है.

#MiddleEast: इज़राइल और उसके संदर्भ में बदलता मध्य पूर्व
#MiddleEast: इज़राइल और उसके संदर्भ में बदलता मध्य पूर्व

परिचय

मध्य पूर्व की सियासत में इज़राइल की भूमिका बढ़ती जा रही है. इज़राइली प्रधानमंत्री नेफ़्टाली बेनेट की किंगडम ऑफ़ बहरीन की हाल की यात्रा से ये बात एक बार फिर रेखांकित हुई है. कुछ अर्सा पहले इज़राइल अंतरराष्ट्रीय सामुद्रिक अभ्यास 2022 (IMX 22) में भी हिस्सा ले चुका है. इस सैनिक अभ्यास में 60 देशों ने शिरकत की थी. इनमें सऊदी अरब और ओमान जैसे देश भी शामिल हैं, जिनके साथ इज़राइल का कोई आधिकारिक रिश्ता नहीं है.     

ग़ौरतलब है कि अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की अध्यक्षता में इज़राइल, संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) और बहरीन ने इकट्ठा होकर शांति सौदे पर सहमति जताई थी. 2020 के अब्राहम करार के बाद रिश्तों को सामान्य बनाने की दिशा में ऐसी क़वायदों की पहले से ही उम्मीद की जा रही थी. इस लेख में इस इलाक़े में इज़राइल की भूमिका में बदलाव लाने वाले कुछ कारकों की पड़ताल की गई है. खाड़ी देशों के बेहिसाब वित्तीय और सियासी रसूख़ की वजह से इज़राइल के साथ उनके गठजोड़ से मध्य पूर्व के व्यापक इलाक़े में बदलाव देखने को मिल रहे हैं. लेख में ख़ासतौर से इस बात का ज़िक्र किया गया है.     

पहले नासूर…अब साथी

मध्य पूर्व हमेशा से ही एक अशांत इलाक़ा रहा है. यहां के इतिहास में साम्राज्यवादी ताक़तों की बड़ी भूमिका रही है. इलाक़े के कई देशों में अनेक आंतरिक कारकों की वजह से उथलपुथल भरा माहौल रहा है. मध्य पूर्व में अशांति की सबसे बड़ी वजहों में से एक इज़राइल की स्थापना रही है. कई अरब देश इसे ग़ैर-क़ानूनी और फ़िलीस्तीनियों की हक़मारी के तौर पर देखते हैं. इन नाराज़गियों की वजह से यहां कई बार बड़े-बड़े संघर्ष देखने को मिले हैं. इनमें 1948, 1956, 1967 और 1973 के अरब-इज़राइल भिड़ंत शामिल हैं. इन टकरावों ने राज्यसत्ता से परे कई हिंसक किरदारों को जन्म दिया. ये इज़राइल के ख़िलाफ़ आतंकी गतिविधियों को अंजाम देते रहे हैं.    

मध्य पूर्व में अशांति की सबसे बड़ी वजहों में से एक इज़राइल की स्थापना रही है. कई अरब देश इसे ग़ैर-क़ानूनी और फ़िलीस्तीनियों की हक़मारी के तौर पर देखते हैं. इन नाराज़गियों की वजह से यहां कई बार बड़े-बड़े संघर्ष देखने को मिले हैं.

पिछले दशकों में इस इलाक़े में कई दूसरे टकराव भी देखने को मिले हैं. इनमें ईरान-इराक़ युद्ध, कुवैत पर इराक़ी हमला, यमनी गृह युद्ध और तमाम दूसरे संघर्ष शामिल हैं. इसके बावजूद इज़राइल अक्सर ख़बरों में बना रहा है. पिछले दशकों में इज़राइल लगातार इस अशांत क्षेत्र में ख़ुद को अमन का टापू बनाने की जुगत करता रहा है. इज़राइल अब इस क्षेत्र में सत्ता और ताक़त का एक अहम किरदार बनकर उभरा है. इस इलाक़े में इज़राइल की बढ़ती अहमियत के पीछे कई कारकों का हाथ है.   

मध्य पूर्व में इज़राइल की भूमिका के पीछे मददगार कारक

पहली बात ये है कि अमेरिका के साथ इज़राइल का गठबंधन इस इलाक़े के तमाम गठजोड़ों पर भारी है. अमेरिका के लिए इज़राइल ख़ास अहमियत रखता है, जिसे उसने काफ़ी लंबे अर्से तक वित्तीय सहायता और रक्षा तकनीक मुहैया कराई है. साथ ही  टकराव के समय बचाव करने की प्रतिबद्धता भी जताता रहा है. सऊदी अरबयूएई और खाड़ी के दूसरे देश तेल ख़रीद गारंटियों और सुरक्षा के लिए अमेरिका के आसरे रहते आए हैं. यही समीकरण इज़राइल के साथ उनके रिश्तों पर जमी बर्फ़ को पिघलाने में मददगार रहा है. 

दूसरे, ख़ासतौर से पिछले एक दशक में मध्य पूर्व में मौजूदगी बनाए रखने में अमेरिका की दिलचस्पी घट गई है. अमेरिका ने यहां के तमाम देशों की सुरक्षा का बीड़ा उठाने की बजाए ख़ुद को हथियारों और तकनीक के ख़ालिस विक्रेता की भूमिका में स्थापित कर लिया है. इसी तरह इज़राइल भी दुनिया के कई देशों को रक्षा तकनीक मुहैया कराता है. इसकी सबसे ताज़ा मिसाल अब्राहम करार के बाद सामने आई है. 2020 में इस समझौते पर दस्तख़त के बाद इससे जुड़े देशों के बीच हथियारों का सौदा हुआ. लिहाज़ा इस रज़ामंदी को ‘हथियारों की बिक्री का करार‘ भी कहा जाने लगा है. हालांकि इससे ये भी ज़ाहिर होता है कि मांग और आपूर्ति का समीकरण किस तरह रिश्तों में मददगार साबित होता है.    

तीसरे, ईरान से जुड़ा कारक भी इज़राइल के साथ खाड़ी और अरब के तमाम देशों के जुड़ाव को बढ़ावा देता है. इज़राइल का प्रमुख आलोचक और प्रतिद्वंदी होने के नाते ईरान अक्सर इज़राइल-विरोधी गुटों को आर्थिक मदद मुहैया कराता रहा है. इनमें क़ासम ब्रिगेड (हमास का हथियारबंद दस्ता) और हिज़्बुल्लाह शामिल हैं. खाड़ी के देशों की ज़्यादातर आंतरिक और विदेश नीति अपने-अपने शाही घरानों का वजूद सुनिश्चित करने को आधार बनाकर तय की जाती रही हैं. दूसरी ओर ईरानी क्रांति के तहत शाही परिवारों को हटाकर इस्लामिक राजशाही को सर्वोच्च दर्जा दिया गया. लिहाज़ा अरब और खाड़ी के तमाम देश ईरान और ईरानी क्रांति को दूसरे देशों में विस्तार देने के शिगूफ़ों का हमेशा विरोध करते रहे हैं. ऐसे में इज़राइल और खाड़ी के देशों की द्विपक्षीय बैठकों के बाद जारी बयानों में मुख्य रूप से ईरान की मुख़ालफ़त की जाती रही है. ज़ाहिर है ईरान का विरोध इज़राइल और खाड़ी देशों के गठबंधन का प्रमुख आधार है. 

पिछले एक दशक में मध्य पूर्व में मौजूदगी बनाए रखने में अमेरिका की दिलचस्पी घट गई है. अमेरिका ने यहां के तमाम देशों की सुरक्षा का बीड़ा उठाने की बजाए ख़ुद को हथियारों और तकनीक के ख़ालिस विक्रेता की भूमिका में स्थापित कर लिया है.

चौथा, कई इस्लामिक धड़े इस इलाक़े में राज्यसत्ता से इतर तमाम किरदारों की पैदाइश की वजह बने या फिर उनके फलने-फूलने में मददगार साबित हुए. इनमें मुस्लिम ब्रदरहूडइस्लामिक स्टेट और अल-क़ायदा जैसे समूह शामिल हैं. समय के साथ-साथ ये समूह खाड़ी की राज्य व्यवस्था के सामने भी चुनौतियां पेश करने लगे हैं. इन इस्लामिक किरदारों (हिंसक और अहिंसक) से निपटने की क़वायद में अरब देश इज़राइल के और क़रीब पहुंच गए हैं.  

इज़राइल के साथ जुड़ावों के सामने खड़ी चुनौतियां

इज़राइल के बढ़ते रसूख़ के बावजूद उसे इलाक़ाई सियासत में सर्वमान्य किरदार घोषित नहीं किया जा सकता. इसके लिए इज़राइल को अब भी कुछ अहम पड़ाव पार करने होंगे. सबसे अहम बात ये है कि सऊदी अरब ने दबे-छिपे रिश्तों के बावजूद (ख़बरों के मुताबिक) इज़राइल के साथ आधिकारिक तौर पर अब तक कोई संबंध स्थापित नहीं किया है. ये वाक़ई ग़ौर करने लायक बात है.       

ज़ाहिर तौर पर क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान की सोच  ज़्यादा रणनीतिक है. वो इज़राइल के साथ रिश्तों को लेकर खुला विचार रखते हैं. हालांकि उनके 86 वर्षीय पिता किंग सलमान फ़िलीस्तीनी मसले के ज़्यादा क़रीब हैं और सऊदी अरब की आधिकारिक नीति इसी नज़रिए से तय होती है. बहरहाल उनकी उम्र और ख़राब सेहत की ख़बरों के मायने यही हैं कि हालात जल्द ही बदलने वाले हैं.  ये बात बेहद अहम है. सऊदी अरब इस इलाक़े के सत्ता समीकरण का सबसे अहम किरदार है. मुस्लिम देशों के सबसे अहम जमावड़े इस्लामिक सहयोग संगठन (OIC) में भी उसी का बोलबाला है. 

बहरीन जैसे देशों में सिविल सोसाइटी के सदस्यों ने इज़राइल की निंदा करते हुए खुले ख़त तक लिख डाले थे. आसार यही हैं कि बार-बार ऐसी आक्रामक घटनाएं होने से अरबी अवाम आसानी से अपने मुल्क में इज़राइलियों को आने देने पर रज़ामंद नहीं होगी.

इज़राइली नेतृत्व ने इस क्षेत्र में आम जनता के स्तर पर संपर्कों को बढ़ावा देने पर ज़ोर दिया है. हालांकि इस दिशा में अब तक कोई ठोस नतीजा हासिल नहीं हुआ है. ज़ाहिर है ये क़वायद भी इज़राइल के लिए बड़ी चुनौती है. इज़राइल द्वारा आसपास के फ़िलीस्तीनी इलाक़ों पर क़ब्ज़ा जमाने की ख़बरों से मध्य पूर्व की अरब जनता में अक्सर नाराज़गी भर जाती है. मिसाल के तौर पर 2021 में गाज़ा पट्टी में हुए ख़ूनख़राबे के बीच क़तर, कुवैत, इराक़ और यूएई समेत तमाम देशों में, ख़ासतौर से सोशल मीडिया पर इज़राइली सरकार को जमकर खरी-खोटी सुनाई गई. अतीत में ऐसा कभी-कभार ही देखने को मिला है. बहरीन जैसे देशों में सिविल सोसाइटी के सदस्यों ने इज़राइल की निंदा करते हुए खुले ख़त तक लिख डाले थे. आसार यही हैं कि बार-बार ऐसी आक्रामक घटनाएं होने से अरबी अवाम आसानी से अपने मुल्क में इज़राइलियों को आने देने पर रज़ामंद नहीं होगी. इससे यहां सुरक्षा से जुड़े ख़तरे पैदा हो सकते हैं. ख़ासतौर से जिन देशों में हालात स्थिर नहीं हैं वहां स्थिति ज़्यादा गंभीर हो सकती है.    

निष्कर्ष

मध्य पूर्व की इलाक़ाई सियासत में खाड़ी के देशों का दबदबा है. मोटे तौर पर ये देश एक ऐसे मुकाम की ओर बढ़ रहे हैं जिसमें ईरान को किनारे करने और इज़राइल को साथ रखने पर रज़ामंदी है. पूरे हालात को इसी नज़रिए से देखने की ज़रूरत है. हालांकि मध्य पूर्व के धागे से सचमुच जुड़ने के लिए इज़राइल को अब भी चंद पड़ाव पार करने होंगे.   

इस सिलसिले में दो कारक बेहद अहम हैं. इस्लामिक दुनिया में सऊदी अरब का तगड़ा रसूख़ है. अगर आधिकारिक तौर पर उसका इज़राइल के साथ रिश्ता क़ायम हो जाए तो यहां के बाक़ी तमाम देशों का हौसला बढ़ेगा. ये क़वायद आसान लगती है. दूसरे, इज़राइल और फ़िलीस्तीन के बीच तनाव और टकराव में कमी आने से अरब की जनता में इज़राइल का इक़रार और बढ़ जाएगा. हालांकि पक्के तौर पर ऐसा होने की गारंटी नहीं दी जा सकती. बहरहाल, इज़राइल दूसरे देशों के साथ अपने कारोबार और रक्षा संबंधों को तेज़ी से ऊपर उठा सकता है. हालांकि उसे अरब देशों का दौरा करने वाले इज़राइली नागरिकों की सुरक्षा भी सुनिश्चित करनी होगी.

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