Author : Sunjoy Joshi

Published on Jun 06, 2020 Updated 0 Hours ago

इस तरह से उथल-पुथल का समय जब आता है और ऐसे में जो सरकारें हैं उनकी भूमिका एक तरह से उद्धार करने वाली, समस्याओं का निराकरण करने वाली, एक अकेली सोच रह जाती है. और हर आदमी टुकटुकी लगाए हुए सरकारों की तरफ देखता है कि हमारी सरकारें कैसे हमें इस समस्या से निजात दिलाएगी.

कोविड-19 के दरमियान उभर रही है एक नई किस्म की दुनिया की तस्वीर?

कोविड-19 से न सिर्फ अर्थव्यवस्था जूझ रही है बल्कि लोग जूझ रहे हैं, सरकारें जूझ रहीं हैं कि तीन महीने बीत जाने के बाद भी यह बीमारी बनी हुई है. भले ही हमें कुछ रियायतें दी जा रही हैं. ज्यादातर जगहों पर संक्रमण कम हुआ है. बहरहाल दुनिया के कई देशों के साथ-साथ भारत में भी जिंदगियां फिर से शुरू हुई हैं. लेकिन इसमें कई सारी समस्याएं हैं- चाहे वह अर्थव्यवस्था को लेकर के हो या फिर रोज़गार को ले करके हो. कई सारे समीकरण बदल रहे हैं जिसकी वजह से विश्व व्यवस्था में परिवर्तन देखने को मिल रहा है और एक नई विश्व व्यवस्था उभर करके सामने आ रही है. इस लेख में हम यह समझने का प्रयास करेंगे कि कोविड-19 दुनिया को किस तरह से बदल रहा है. हम जिस स्वरुप में विश्व व्यवस्था को जानते थे क्या उस पर असर पड़ेगा? इसके अलावा दुनिया के राष्ट्र भी अब एक दूसरे के साथ जुड़ने के बजाय आपस में अपने हितों को लेकर सिकुड़ते जा रहे हैं? कोविड-19 से क्या नई चींजे से उभरकर सामने आयी है.

सबसे पहले यह संक्रमण लोगों में फैला और लोगों में फैलने के बाद जब यह हमारी संस्थाओं तक पहुंचा तो वहां भी यह संक्रमण फैल जाता है. इसके बाद हमारी अर्थव्यवस्था में संक्रमण हो जाता है और अर्थव्यवस्था में फैलकर यह हमारी राज्य व्यवस्थाओं और हमारी राज-काज को अस्त-व्यस्त करने लगता है. इस प्रकार सबसे बड़ी चुनौती जो आने वाली है वो यह है कि आख़िर किस तरह से इस महामारी को नियंत्रित किया जाए क्योंकि ये महामारी हमारी जो सिविलाइजेशन बनी हैं, हमारी जो व्यवस्था बनी है उनको कहीं तहस-नहस न कर दे. इस तरह से समस्याएं कई सारे उत्पन्न हुई हैं. अर्थव्यवस्था भी पूरी तरह से छिन्न-भिन्न हो गई है. अर्थव्यवस्था सीधे-सीधे कोरोना से नहीं प्रभावित हुई, बल्कि कोरोना से लड़ने के लिए राज्यों ने जो कई सारे कदम उठाएं उनकी वजह से अर्थव्यवस्था बंद हो गई. अर्थव्यवस्था अब शुरू की जा रही है, पर इसमें भी अभी कई सारी चुनौतियां हैं. सबसे पहले हमने जो देखा है वो ये कि सभी लोगों पर इसका सामान प्रभाव नहीं पड़ता है.

सबसे बड़ी चुनौती जो आने वाली है वो यह है कि आख़िर किस तरह से इस महामारी को नियंत्रित किया जाए क्योंकि ये महामारी हमारी जो सिविलाइजेशन बनी हैं, हमारी जो व्यवस्था बनी है उनको कहीं तहस-नहस न कर दे.

वास्तव में जब इस तरह की घटना होती है तो समाज के मध्य जो सामाजिक असमानतायें मौज़ूद हैं, उसकी जो दरारें हैं वो दरारें बढ़ती हैं, चाहे वो सामाजिक सुरक्षा हो, चाहे वह आर्थिक असमानता हो उसमें बढ़ावा होता है. वही हमने भी देखा कि सरकारों ने जिस तरह से स्टेप्स लिए उनको लेकर सभी लोगों पर समान प्रभाव नहीं पड़ा जो नीचे का तबका था, जो कम सक्षम लोग थे, उनपर सबसे ज्यादा प्रभाव पड़ा और उन्हीं को वापस आने में सबसे ज्य़ादा समय लगेगा. तो इस तरह से उथल-पुथल का समय जब आता है और ऐसे में जो सरकारें हैं उनकी भूमिका एक तरह से उद्धार करने वाली, समस्याओं का निराकरण करने वाली, एक अकेली सोच रह जाती है. और हर आदमी टुकटुकी लगाए हुए सरकारों की तरफ देखता है कि हमारी सरकारें कैसे हमें इस समस्या से निजात दिलाएगी. सरकारों के साधन सीमित है. कई देश साधन संपन्न है और कई देशों में उतने बेहतर साधन नहीं हैं. इसी वजह से जो प्रतिक्रियाएं आती हैं वो अलग-अलग सरकारों के, अलग-अलग देशों में, अलग-अलग तरह की प्रतिक्रियाएं होती हैं. और इनकी चर्चा करना आवश्यक हो जाता है कि कैसे ये जो भिन्न-भिन्न तरीके से प्रतिक्रियाएं आ रही हैं अपनी अर्थव्यवस्था को सुधारने के लिए सभी देशों में उनके क्या परिणाम विश्व व्यवस्था पर, वैश्वीकरण पर और अंतरराष्ट्रीय संबंधों पर हो सकते हैं.

केंद्र और राज्य सरकारों के बीच तालमेल का अभाव

ऐसी स्थिति में सरकार को श्री कृष्ण अवतार में आकर मुख्य़ भूमिका निभानी पड़ती है. कहा जाता है कि जब समस्या बहुत बढ़ जाती है तो किसी ना किसी को जनमानस के कल्याण के लिए आगे आना पड़ता है. ऐसी ही स्थिति आज सरकारों की है. उनको बीच में आकर के बड़ा विराट रूप धारण करके हर तरीके से सभी लोगों की समस्याओं का निवारण करना पड़ता है. इसमें सरकार के हाथ में जो सबसे बड़ा अस्त्र है वो है सरकार की कलम. और लोग कहते भी हैं कि कलम की ताकत तलवार की ताकत से बड़ी होती है. शक्ति तो तलवार से ज्य़ादा कलम में होती है और अगर सरकारी कलम है तो उसमें शक्ति और भी ज्यादा होनी चाहिए. लेकिन समस्या यह है कि जब सरकार या सरकार के नुमाइंदे उस कलम का उपयोग तलवार के रूप में नहीं, ढाल के रूप में करने लगते हैं, अपने को बचाने के लिए करने लगते हैं तो वहां समस्या उत्पन्न होती है.

जब समस्या बहुत बढ़ जाती है तो किसी ना किसी को जनमानस के कल्याण के लिए आगे आना पड़ता है. ऐसी ही स्थिति आज सरकारों की है. उनको बीच में आकर के बड़ा विराट रूप धारण करके हर तरीके से सभी लोगों की समस्याओं का निवारण करना पड़ता है.

ऐसी परिस्थितियों में सरकारी निर्देशों में स्पष्ट वार्ता अति आवश्यक हो जाता है. हम कई तरीके से देख रहे हैं, कई-कई जगह से और देशों ने भी निर्देश निकाले हैं तो वह बड़े अस्पष्ट रूप से निकाले जाते हैं. क्या चालू है? क्या बंद है? क्या आदमी घर से बाहर निकल सकता है या नहीं? आज हम लॉकडाउन 5.0 की बात कर रहे हैं. पर वास्तव में किसी को मालूम भी नहीं लॉकडाउन है भी कि नहीं है. एक तरह से अर्थव्यवस्था को ढील देने की बात की जा रही है लेकिन बात अभी भी लॉकडाउन और कर्फ्यू की हो रही है कि पांचवी क़िस्त अभी लॉकडाउन की आएगी. तो इस तरह से शब्दों का ढुलमुल तरीके से इस्तेमाल हो रहा है- जिसके दो-दो अर्थ निकाले जा सकते हैं. इससे लोगों में बहुत ज्यादा कन्फ्यूजन पैदा होता है. इसीलिए सबसे पहले निर्देशों में स्पष्ट वार्ता आवश्यक हो जाती है. इसीलिए ऊपर जिक्र किया गया है की कलम को ढाल की तरह नहीं तलवार की तरह इस्तेमाल करना चाहिए. जो भी निर्देश हो वो स्पष्ट तरीके से निकले. लोगों को स्पष्ट मालूम हो कि क्या वो कर सकते हैं और क्या नहीं कर सकते. और आपस में जो सरकारी एजेंसियां हैं, चाहे वो राज्य सरकारें हो या चाहे वो केंद्र सरकारों की अपनी ही एजेंसियां क्यों ना हो, उनमें आपस में तालमेल और कौन किस आदेश से खुद कहां बंधा हुआ है वो बड़ा स्पष्ट होना चाहिए. यहां पर हम यही देख रहे हैं कि एक तरह से नेशनल कैपिटल रीजन देख लीजिए.

दिल्ली में अर्थव्यवस्था को खोलने की बात की जा रही है. दिल्ली में अगर आप देखें तो एक तरह से मामले बढ़ रहे हैं, सड़कों पर जाम भी लग रहे हैं, बाजार भी खुल गए हैं और भी कई सारी चीजें शुरू हो गई हैं. लेकिन वहीं दिल्ली वाले बाशिंदे को अगर गुड़गांव जाना है या उत्तर प्रदेश में नोएडा गाज़ियाबाद आना है या अपने घर भी वापस जाना है तो बड़ी सारी समस्याएं हैं. तो इस तरह के मामलों को ध्यान में रखकर आपस में तालमेल बिठाना बहुत आवश्यक हो जाता है. जैसा कि मैं बार-बार कह रहा हूं यह समस्या एक महीने में दो महीने में तीन महीने में या साल भर में इतनी आसानी से जाने वाली नहीं है. इसलिए केंद्र और राज्य सरकारों से तालमेल बिठाना अति आवश्यक है. यह हमारे साथ रहेगी और इसी तरीके की एक नॉन- कॉर्डिनेट मैनर में व्यवस्थाएं चलती रही तो स्थिति बिगड़ेगी, संभलेंगी नहीं.

क्या देश अब आत्मनिर्भर बनने की कोशिश करेंगे

कोविड-19 से पहले से ही ग्लोबलाइज़ेशन पीछे हटना शुरू हो चुका था. यदि हम इस पर गौर करें तो यह पाएंगे की ग्लोबलाइज़ेशन ने हार कब मानी. जो हम लोगों उदारवादी व्यवस्था की कल्पना करते आ रहे थे 1990 के बाद से ही उसके बाद से 9/11 की घटना हुई और फिर आर्थिक मंदी आई 2008 में. उसके बाद से हमने देखा कि जिस तरह से संपन्न देशों ने लिब्रलाइज़ेशन की धज्जियां उड़ाई और पूरी तरह से उनके राज्यों ने एक विकराल रूप धारण करके मार्केट में कितने इंटरवेंशन (हस्तक्षेप) करना शुरू कर दिया जिसमें मॉनिटरी इंटरवेंशन भी शामिल था. जिस तरीके से उन्होंने बेल आउट किए, व्यवस्थाओं को बचाया, ऐसा करते हुए लिब्रलाइज़ेशन के फंडामेंटल प्रिंसिपल थे उनकी धज्जियां तो वहीं उड़ गई. तो अब जब कोविड-19 संकट आया है तो सरकारों को आप उसी रूप में ज्य़ादा देखेंगे और सरकारों को इस वक्त फिर से जितनी ज्य़ादा 2008 में ज़रूरत नहीं थी उससे ज्य़ादा ज़रूरत आज पड़ रही है. और जिस तरीके से कदम हम देख रहे हैं चाहे वह यूरोपियन यूनियन में देखें, चाहे जापान में देखें, चाहे वह अमेरिका में देखें — तो जिस तरीके के कदम सरकारें उठा रही हैं, उससे स्पष्ट हो रहा है. इमैनुएल मैक्रों ने तो स्पष्ट कहा है हम राष्ट्रीयकरण करेंगे. हम प्रॉफिट और लॉस का राष्ट्रीयकरण करेंगे, कंपनियों का जो प्रॉफिट और लॉस होगा वह सरकार के खाते में जाएगा. जहां तक वेजेस का सवाल है मज़दूरों के दिहाड़ी/सैलरी का सवाल है उनका जो भी राष्ट्रीयकरण होगा वो पैसा सरकारें देंगी. इस तरीके से जो स्टेप्स है वो कई सारे देश उठा रहे हैं, जर्मनी उठा रहा है, यूनाइटेड स्टेट्स ने उठाया है, जापान बात कर रहा है इस तरीके से काम करने की. तो एक सुनियोजित ढंग से जिस तरह से उनके सेंट्रल बैंक हैं, जैसे हमारे रिज़र्व बैंक, उनके सेंट्रल बैंक के माध्यम से बड़ी भारी मात्रा में हस्तक्षेप करके नोट छापकर किसी भी तरीके से पैसों का सर्कुलेशन बढ़ा करके लोगों की लिक्विडिटी बढ़ाई जाए, पैसा बढ़ाया जाए, किसी न किसी रूप में डिमांड वापस लाया जाए ताकि फिर से जो उनकी अर्थव्यवस्था हैं वो चालू हो सके. यह प्रयास चल रहा है. बड़ा राज तो आ गया. विकराल राज तो आ गया और उन देशों में सबसे पहले आया जो देश इसके सबसे ज्य़ादा विरोधी थे. जो उदारवादी देश थे, जो संपन्न देश थे उन्होंने जिस ढंग से मॉनिटरिंग इजिंग करके काम किया था उससे भी ज्य़ादा और अधिक विकराल रूप में आज वह हस्तक्षेप करने को तैयार हो रहे हैं. और जो उनके इंटरवेंशंस हैं, जिस तरीके से वह मॉनिटरिंग सप्लाई में, पैसे की सप्लाई में अपने-अपने देशों में बढ़ावा देने वाले हैं, एक जादुई तरीके से नोट छाप-छाप करके अपनी अर्थव्यवस्था को फिर से जिंदा करने की कोशिश कर रहे हैं. उसके परिणाम अन्य देशों को भी भुगतने पड़ सकते हैं. और उनमें जो इमर्जिंग इकॉनमी (उभरते हुए अर्थव्यवस्था) हैं, मेरे विचार से थोड़ी जटिल और कमजोर ज़रूर हो जाती है.

चीन के पास विकल्प क्या है?

अमेरिका और चीन विवाद एक तरीके से वि-वैश्वीकरण (De-globalisation) की दुनिया चल पड़ी थी उसी का एक अंश, उसी का परिणाम हम आज देख रहे हैं कि अमेरिका और चीन के बीच में व्यापार युद्ध और कोविड वार चल रहा है कि यह वायरस चीन से ही निकला है, वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गेनाइजेशन चीन की संस्था बन गई है. अमेरिका एक तरीके से कह रहा है कि जिस-जिस ऑर्गेनाइजेशन में चीन सम्मिलित है जहां-जहां वह दिखता है उससे वह पीछे हटेगा. तो यह उसकी ट्रेंड का एक तरह से विस्तार है कोई नई चीज नहीं है. और इसका काफी मायने तक अमेरिका की इलेक्शन से भी मतलब है. लेकिन जो महत्वपूर्ण चीज़ है चीन के पास विकल्प क्या है. अंततः अमेरिका कुछ भी हो जाए विश्व की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था आज भी है. अमेरिका का डॉलर आज भी विश्व की रिज़र्व करेंसी है. तो जो बर्ताव, जो शक्ति अमेरिका के हाथ में है, इस तरीके से काफी मायने में इंफिनिटिव अमाउंट ऑफ़ डॉलर छाप-छाप करके, जो उसने 2008 में भी किया था कई डॉलर छाप करके अपनी कंपनी को बेलआउट किया था और मज़े की बात यह है डॉलर रिजर्व करेंसी है. और इस तरीके से डॉलर की शक्ति में इज़ाफा हुआ था उसमें कमी नहीं थी इंटरेस्ट रेट का खेल हुआ कि डॉलर का रेट गिरते चला गया. इस तरीके से जो अन्य देश हैं उन पर प्रभाव ज्यादा पड़ता है अमरीका पर प्रभाव कम पड़ता है. तो वह शक्ति आज भी काफी मायने में अमेरिका के हाथ में है. और चीन भी इस बात से भलीभांति वाक़िफ़ है. तो चीन के भी अगर स्टेप्स देखे जाएं तो इसको एक तरफ से बैलेंस करेगा.

चीन एक प्रकार से अपने लोगों का ध्यान दूसरी तरफ खींचने के लिए (अटेंशन डाइवर्ट) बॉर्डर पर, साउथ चाइना सी में, हांगकांग में चीन भी अमेरिका के तर्ज पर भूत खड़ा करके, अपने लोगों को इकट्ठा करने की कोशिश कर रहा है कि कोविड संकट एक तरफ़, बाहर से चीन को और ज्य़ादा संकट का सामना करना पड़ रहा है.

हांगकांग को लेकर अमेरिका और चीन के बीच में रस्साकशी बढ़ रही है और यह आगे भी बढ़ेगी अगर हांगकांग से अमेरिका सामान लेना बंद कर दे या उस पर बैरियर लगाता है. आज अमेरिका हांगकांग पर पुनः टैरिफ बैरियर लगाता है जैसा की बात हो रही है, उसमें बैरियर तो लगा देगा लेकिन समस्या यह है कि हांगकांग एक अकेली जगह है जो अमेरिका से ज्य़ादा सामान लेता है. अमेरिका हांगकांग से सिर्फ़ 5 बिलियन डॉलर का सामान लेता है. दूसरी तरफ अगर ट्रेंड देखें तो हांगकांग अमेरिका से 30 बिलियन डॉलर का सामान लेता है. तो चीन अगर रिटैलिएटरी टैरिफ़ लगाता है तो इससे अमेरिका को ही ज्यादा नुकसान होगा. चीन के पास आज भी अमेरिका के कई सारे ट्रेज़री वैम्स है, जो सरकार के कर्ज़ से जुड़ी समस्यायों का समाधान करती है. तो इस प्रकार यह दोनों आपस में एक तरह से जूझ रहे हैं. लेकिन जो उनके आपस में संबंध है फ़ाइनेंशियल रूप से, वो गहरे संबंध हैं और यह 30 सालों से है और लगातर बढ़ता ही जा रहा है. आज उनकी जड़ें इतनी गहरी हो चुकी हैं कि एक दूसरे से बिल्कुल अलग होना चीन और अमेरिका के लिए आसान नहीं है. और इस रस्साकशी में दोनों एक दूसरे का नुकसान करते जा रहे हैं. अब क्या रुख़ चीन अख़्तियार करता है वो देखना पड़ेगा. हम चीन में देख रहें हैं कि नक्सलिज्म़ का इज़ाफा हो रहा है. शी जिनपिंग एक तरीके से आज खुद संकट में है. उन पर प्रश्न हो रहे हैं. तो चीन एक प्रकार से अपने लोगों का ध्यान दूसरी तरफ खींचने के लिए (अटेंशन डाइवर्ट) बॉर्डर पर, साउथ चाइना सी में, हांगकांग में चीन भी अमेरिका के तर्ज पर भूत खड़ा करके, अपने लोगों को इकट्ठा करने की कोशिश कर रहा है कि कोविड संकट एक तरफ़, बाहर से चीन को और ज्य़ादा संकट का सामना करना पड़ रहा है. हमको इस वक्त एकजुट रहना है. हमको इस वक्त एक नेशन की तरह रहना है. यह भी चीन का प्रयास होता दिख रहा है. इसी वजह से चीन की आक्रामकता और भी बढ़ी है.

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