Published on Jul 26, 2023 Updated 0 Hours ago

शहरों के कामकाज और विकास में होने वाले खर्च का तीन-चौथाई से अधिक हिस्सा केंद्र और राज्य सरकार से आता है. शहरी निकाय संपत्ति कर जैसे कुछ स्रोतों से 15 प्रतिशत के आसपास जुटा पाते हैं. रिपोर्ट के मुताबिक, निजी स्रोतों से शहरों को केवल पांच फीसदी धन ही मिल पाता है. एक तरफ शहरों का खर्च बढ़ता जा रहा है, तो दूसरी तरफ शहरी राजस्व की आमद में ठहराव आ गया है.

शहरों में Investment की चुनौती
शहरों में Investment की चुनौती

हमारे देश में आर्थिक प्रगति (economic progress) के साथ-साथ शहरों (cities) की आबादी (population) भी बढ़ रही है तथा उनका विस्तार भी हो रहा है. उपनगरों की संख्या में भी लगातार बढ़ोतरी हो रही है. संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट का आकलन है कि 2035 तक भारत में शहरी क्षेत्र में निवास करने वाली जनसंख्या 67.50 करोड़ होगी, जो उस समय की कुल राष्ट्रीय आबादी का 43.2 प्रतिशत होगी. स्वाभाविक रूप से इतनी बड़ी संख्या के लिए शहरों की व्यवस्था भी बेहतर करने की जरूरत होगी. हमारे शहरों और महानगरों की मौजूदा बदहाली जगजाहिर है. विश्व बैंक की हालिया रिपोर्ट में आकलन किया गया है कि अगले 15 वर्षों में बढ़ती शहरी आबादी की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए 480 अरब डॉलर यानी हर साल औसतन 55 अरब डॉलर (4.46 लाख करोड़ रुपये) के निवेश की जरूरत होगी. वर्तमान समय में यह सालाना खर्च 16 अरब डॉलर (1.3 लाख करोड़ रुपये) है. इसका अर्थ यह है कि शहरों को निजी क्षेत्र से और व्यावसायिक निवेश हासिल करना होगा. रिजर्व बैंक ने भी शहरी निकायों के खर्च और आमदनी के बीच की बड़ी खाई को रेखांकित किया है.

हमारे शहरों और महानगरों की मौजूदा बदहाली जगजाहिर है. विश्व बैंक की हालिया रिपोर्ट में आकलन किया गया है कि अगले 15 वर्षों में बढ़ती शहरी आबादी की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए 480 अरब डॉलर यानी हर साल औसतन 55 अरब डॉलर (4.46 लाख करोड़ रुपये) के निवेश की जरूरत होगी.

शहरों की तरफ पलायन एक बड़ी चुनौती

शहरों के कामकाज और विकास में होने वाले खर्च का तीन-चौथाई से अधिक हिस्सा केंद्र और राज्य सरकार से आता है. शहरी निकाय संपत्ति कर जैसे कुछ स्रोतों से 15 प्रतिशत के आसपास जुटा पाते हैं. रिपोर्ट के मुताबिक, निजी स्रोतों से शहरों को केवल पांच फीसदी धन ही मिल पाता है. एक तरफ शहरों का खर्च बढ़ता जा रहा है, तो दूसरी तरफ शहरी राजस्व की आमद में ठहराव आ गया है. यह स्वाभाविक ही है क्योंकि नगरपालिकाओं और नगर निगमों ने आय के नये स्रोतों के लिए कोशिश नहीं की है. यह भी उल्लेखनीय है कि केंद्र और राज्य सरकार द्वारा वित्त मुहैया करा पाना आसान नहीं है क्योंकि बहुत सी राज्य सरकारें भी वित्तीय दबाव में हैं तथा केंद्र सरकार को अपनी कल्याण योजनाओं और विकास परियोजनाओं के लिए धन की जरूरत है. अभी खबर आयी है कि दुनिया की आबादी आठ अरब से अधिक हो गयी है और इसमें भारत की बड़ी हिस्सेदारी है. ऐसे में अगर ग्रामीण क्षेत्रों में विकास कार्य तथा वहां रोजगार व व्यवसाय के अवसर बढ़ाने के प्रयास तेज गति से नहीं होंगे, तो वहां से बड़ी संख्या में लोग शहरों की ओर आते रहेंगे. यह एक बड़ी चुनौती है. इस पर ध्यान दिया जाना चाहिए.

खबर आयी है कि दुनिया की आबादी आठ अरब से अधिक हो गयी है और इसमें भारत की बड़ी हिस्सेदारी है. ऐसे में अगर ग्रामीण क्षेत्रों में विकास कार्य तथा वहां रोजगार व व्यवसाय के अवसर बढ़ाने के प्रयास तेज गति से नहीं होंगे, तो वहां से बड़ी संख्या में लोग शहरों की ओर आते रहेंगे. यह एक बड़ी चुनौती है. इस पर ध्यान दिया जाना चाहिए.

शहरों पर बढ़ते दबाव 

शहरों पर से दबाव कम करने के लिए दो स्तरों पर काम करना होगा- एक, गांवों का विकास और दूसरा, शहरी सेवाओं का वर्गीकरण. कृषि पर से बहुत लोगों की निर्भरता को घटाने के प्रयास में ग्रामीण क्षेत्र में संबद्ध व्यवसायों के लिए इंफ्रास्ट्रक्चर तथा स्थानीय उपलब्धता व मांग पर आधारित सूक्ष्म, छोटे एवं मझोले उद्यमों को बढ़ाने की बात लंबे समय से होती रही है. इस संबंध में पहलकदमी भी हुई है. इसे तेज करना होगा. इससे गांवों का विकास भी होगा, राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को भी मदद मिलेगी तथा शहरों की तरफ जा रहे लोगों की संख्या में कमी आयेगी. जब इस दबाव में कमी आयेगी, तो शहर अपनी कोशिशों को कुछ अधिक आसानी से पूरा कर सकेंगे. शहरों में मुख्य रूप से सेवाओं को दो भागों में बांटा जा सकता है- एक, आवश्यक सेवाएं और दूसरा, व्यावसायिक सेवाएं. बिजली, पानी, सड़क, अस्पताल जैसी सेवाएं आवश्यक हैं. इनके माध्यम से बहुत अधिक राजस्व जुटा पाना मुश्किल है. लेकिन व्यापार लाइसेंस, मनोरंजन कर, होटल-रेस्तरां आदि से शुल्क, आयोजनों से पैसा लेना आदि जैसे उपायों से शहरी निकाय अतिरिक्त धन हासिल कर सकते हैं. एक समस्या यह है कि शहरी निकायों को शुल्क और कर लगाने के मामले में बहुत अधिक अधिकार नहीं हैं. इस संबंध में केंद्र और राज्य सरकार को विचार करना चाहिए.

शहरों में मुख्य रूप से सेवाओं को दो भागों में बांटा जा सकता है- एक, आवश्यक सेवाएं और दूसरा, व्यावसायिक सेवाएं. बिजली, पानी, सड़क, अस्पताल जैसी सेवाएं आवश्यक हैं. इनके माध्यम से बहुत अधिक राजस्व जुटा पाना मुश्किल है. लेकिन व्यापार लाइसेंस, मनोरंजन कर, होटल-रेस्तरां आदि से शुल्क, आयोजनों से पैसा लेना आदि जैसे उपायों से शहरी निकाय अतिरिक्त धन हासिल कर सकते हैं. एक समस्या यह है कि शहरी निकायों को शुल्क और कर लगाने के मामले में बहुत अधिक अधिकार नहीं हैं.

अब सवाल यह है कि अतिरिक्त धन कहां से आ सकता है. बॉन्ड के जरिये कुछ शहरों ने पैसा जुटाने की कोशिश की है. उसे अन्य शहरों में लागू करने पर विचार किया जा सकता है. ऋण लेने का विकल्प भी है. पर यहां यह सवाल भी है कि इसकी भरपाई के लिए राजस्व कहां से आयेगा. यह भी कहा जाना चाहिए कि अगर सरकारें शहरों और गांवों के विकास पर खर्च नहीं करेंगी, तो कहां खर्च करेंगी. अगर गांवों में अवसर नहीं होंगे, तो लोग शहर में आयेंगे. यहां उनसे सेवाओं और सुविधाओं के लिए बहुत अधिक पैसा देना पड़ेगा, तो इसे उचित नहीं कहा जा सकता है. ऐसे में सतत और संतुलित विकास पर ध्यान दिया जाना चाहिए, जिसमें जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों का ध्यान भी रखा जाना चाहिए और भविष्य में आने वाली समस्याओं का संज्ञान भी लिया जाना चाहिए. शहरी आबादी का बड़ा हिस्सा गरीब और निम्न आय वर्ग से आता है. यदि करों में वृद्धि होती है, तो इन वर्गों के हितों का भी ध्यान रखना जरूरी है. यही वर्ग है, जो शहर के विकास के लिए श्रम उपलब्ध कराता है. शहरी निकायों को आय के नये स्रोतों की पहचान करने के साथ-साथ उन खर्चों को भी देखना चाहिए, जिन्हें बचाया जा सकता है. केंद्र, राज्य सरकारों तथा स्थानीय निकायों को दीर्घकालिक नीति बनानी चाहिए, जिसमें भविष्य के भारतीय शहरों की स्पष्ट परिकल्पना हो.


यह आर्टिकल प्रभात खबर में प्रकाशित हो चुका है. 

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