Published on May 28, 2021 Updated 0 Hours ago

कोविड-19 की दूसरी लहर से निपटने को लेकर भारत में राजनीतिक चर्चा जारी रहेगी और जारी रहनी भी चाहिए. लेकिन इस शोर-शराबे में घरेलू संकट से निपटने में विदेश नीति और वैश्विक साझेदारी की महत्वपूर्ण भूमिका को नहीं भुलाया जाना चाहिए.

कूटनीति और लचीलापन: भारत पर दांव लगाना अच्छा

मई की शुरुआत में भारत-यूरोपियन यूनियन शिखर वार्ता के दौरान फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने एलान किया, “वैक्सीन की सप्लाई को लेकर भारत को किसी का उपदेश सुनने की ज़रूरत नहीं है. भारत ने कई देशों में इंसानियत के लिए वैक्सीन का काफ़ी निर्यात किया है.” इस असाधारण शिखर वार्ता में भाग लेने वाले यूरोप के ज़्यादातर नेताओं ने इसी भावना को व्यक्त किया. शिखर वार्ता के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यूरोपियन यूनियन के सभी 27 राष्ट्रीय नेताओं के साथ बातचीत की. साथ ही उन्होंने यूरोपियन परिषद और यूरोपियन आयोग के अध्यक्षों के साथ भी बात की. यूरोपियन यूनियन के नेताओं ने ऐसे वक़्त में भारत के साथ पूरी एकजुटता जताई जब भारत कोविड-19 महामारी की दूसरी ख़तरनाक लहर का मुक़ाबला कर रहा है. शिखर वार्ता से पहले यूरोपियन यूनियन के सदस्य देशों ने भारत की इस लड़ाई के समर्थन में 10 करोड़ यूरो से ज़्यादा क़ीमत के आपात मेडिकल उपकरण जुटाए थे. 

मुसीबत के इस समय में ये समझना मुश्किल होगा लेकिन अगर भारत ने पिछले कुछ वर्षों के दौरान गंभीरता से वैश्विक भागीदारी नहीं की होती- और कोविड-19 की पहली लहर के दौरान सक्रियता से दूसरे देशों की मदद- तो महामारी के ख़िलाफ़ भारत की लड़ाई में इतनी आसानी से इतना ज़्यादा वैश्विक संसाधन जुटाना संभव नहीं होता. पश्चिमी देशों से लेकर मध्य पूर्व और इंडो-पैसिफिक में भारत के साझेदार कई देश भारत के पीछे खड़े हो गए.

अमेरिका में आम भावना ये है कि 2020 में जब अमेरिका कोविड-19 से लड़ रहा था, उस वक़्त भारत ने मदद में जो भूमिका अदा की, उसका उसी तरह जवाब दिया जाए. 

अमेरिका ने अभी तक क़रीब आधा अरब डॉलर के मूल्य की मदद के साथ बड़े पैमाने पर मदद का अभियान चलाया है. इस अभियान के और भी आगे जाने की उम्मीद है. अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन ने ये कहते हुए भारत को अपने देश के अटल समर्थन का संकल्प दोहराया, “जिस तरह भारत ने महामारी के शुरुआती दौर में हमारे अस्पतालों में अफरातफरी के दौरान मदद भेजी, उसे देखते हुए हम इस ज़रूरत के समय में भारत की मदद के लिए दृढ़ हैं.” अमेरिकी संसद और अमेरिका का कॉरपोरेट सेक्टर तेज़ी से सहायता बढ़ाना सुनिश्चित कर रहा है. अमेरिका में आम भावना ये है कि 2020 में जब अमेरिका कोविड-19 से लड़ रहा था, उस वक़्त भारत ने मदद में जो भूमिका अदा की, उसका उसी तरह जवाब दिया जाए. 

मध्य पूर्व के देशों जैसे इज़रायल, क़तर, कुवैत और संयुक्त अरब अमीरात ने भी भारत की पुकार का जवाब दिया है. इसी तरह भारत के पूर्व में स्थित देशों, जिनमें जापान, दक्षिण कोरिया, ऑस्ट्रेलिया, न्यूज़ीलैंड, सिंगापुर, थाईलैंड, इंडोनेशिया और ताइवान शामिल हैं, ने भी जवाब दिया है. रूस ने भी मदद का हाथ बढ़ाया है. 

भारत की दास्तान ख़त्म होने से दूर

कोविड-19 की दूसरी लहर ने बड़ी संख्या में भारतीयों की ज़िंदगी तबाह कर दी है और सभी जगह से भारी मात्रा में मदद उस वक़्त आ रही है जब महामारी से निपटने की भारत की कोशिशों पर पक्षपातपूर्ण कहा-सुनी हो रही है. इसलिए ये बहुत महत्वपूर्ण हो गया है कि ज़िम्मेदार वैश्विक निवासी के तौर पर भारत की भूमिका और साझेदार और दोस्त बनाने की उसकी क्षमता के बारे में बताया जाए. 

कई लोगों का ऐसा मानना है कि दूसरी लहर से निपटने के भारत के तरीक़ों और इसकी वजह से दुनिया भर में जो ख़बर बनी है, उसने भारत के वैश्विक “ब्रांड” को नुक़सान पहुंचाया है. पिछले साल ही भारत ने पहली लहर के दौरान दुनिया के ज़्यादातर विकसित देशों के मुक़ाबले ज़्यादा असरदार ढंग से जवाब दिया था. इस कुशल प्रबंधन की न तो दुनिया भर के विश्लेषकों ने तारीफ़ की, न ही इसकी वजह से भारत के बारे में दुनिया की राय बदली. सच्चाई ये है कि ब्रांड इंडिया एक बेहद सक्षम देश पर आधारित नहीं है. दुनिया ने पहले ही भारत के मज़बूत दोहरे चरित्र पर विचार कर लिया है. भारत में ये क्षमता है कि वो अपनी ज़रूरत के लिए वैश्विक संसाधनों, भारी मात्रा में महत्वपूर्ण उपकरणों को जुटाने के साथ एक ऐसा वैश्विक गठबंधन बना सके जो ज़रूरत के वक़्त मदद मुहैया करा सके. इसके साथ-साथ दूसरी लहर के दौरान अपने नागरिकों तक ज़रूरी मदद मुहैया कराने में भारत की नाकामी साफ़ तौर पर दिखी और इस मामले में काफ़ी कुछ करने की अभी भी ज़रूरत है. ये भारतीय विरोधाभास उस वक़्त तक बने रहने की आशंका है जब तक शासन व्यवस्था की क्षमता देश की क्षमता के बराबर न हो जाए. ये विरोधाभास वो वास्तविकता है जिस पर भारत के बारे में दुनिया भर के ज़्यादातर आकलनों में विचार किया जा चुका है. इतने वर्षों के दौरान बना भारत का ब्रांड शासन व्यवस्था की चुनौतियों के बावजूद मुश्किल हालात का जवाब देने की यहां की लोगों की क्षमता और उसके फलने-फूलने को लेकर है. इसलिए विनाश और निराशा की भविष्यवाणी के बीच ज़्यादातर लोग भारत के फिर से पटरी पर लौटने पर दांव लगाएंगे. 

भारत के सामने अगली चुनौती

अतीत में दुनिया ने कैसे भारत को सुना और आज किस तरह दुनिया भारत के साथ भागीदारी कर रही है, उसमें भारत की कूटनीतिक कोशिशों की एक बड़ी भूमिका है. अमेरिका के ट्रंप प्रशासन से बाइडेन प्रशासन की ओर भारत कुशलता से आगे बढ़ा. ये तथ्य कि सत्ता में आने के दो महीने के भीतर राष्ट्रपति जो बाइडेन ने क्वॉड भागीदारी को नेता के स्तर तक बढ़ाने का फ़ैसला लिया और उनका प्रशासन सभी क्षेत्रों में भारत के साथ व्यापक तौर पर हिस्सेदारी कर रहा है, न सिर्फ़ अमेरिका की इंडो-पैसिफिक रणनीति में भारत की बढ़ती भूमिका का सबूत है बल्कि इस क्षमता का भी कि वो अमेरिका को इसके लिए विश्वास दिला सकता है. स्वच्छ ऊर्जा उत्पादित करने और हरित भविष्य को अपनाने की भारत की दृढ़ कोशिश इस द्विपक्षीय साझेदारी और महामारी के बाद की रिकवरी को और मज़बूत करेगी. हरित निवेश को बढ़ाने और तकनीकी सहयोग को बढ़ाने के लिए एक नई साझेदारी पर अमेरिका और भारत पहले से काम कर रहे हैं. एक बदलाव के तहत, जो जितना अप्रत्याशित है उतना ही अभूतपूर्व भी है, अमेरिका ने कोविड-19 की वैक्सीन को पेटेंट से छूट के लिए समर्थन का भी एलान किया है. अमेरिका ने ये क़दम विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) में भारत और दक्षिण अफ्रीका की तरफ़ से लाए गए एक प्रस्ताव के जवाब में दिया है. जिस वक़्त महामारी की तीव्रता बढ़ रही है, उस वक़्त इंडो-पैसिफिक, मध्य पूर्व और यूरोप के साथ भारत की भागीदारी लगातार जारी है. 

कुछ दूसरे देशों की लूट-पाट की नीति से अलग विकास सहायता और इंफ्रास्ट्रक्चर विकास को लेकर भारत का दृष्टिकोण वित्तीय, पर्यावरणीय और सामाजिक निरंतरता पर आधारित है.

वर्षों तक विदेशी सहायता को ठुकराने के बाद इस संकट की घड़ी में विदेशों से मदद स्वीकार करने के लिए कई लोग भारत का मज़ाक़ बना रहे हैं. लेकिन भारत के सहयोगियों और दोस्तों से इस मानवीय सहायता का निश्चित तौर पर सम्मान किया जाना चाहिए क्योंकि ये “पारस्परिक सहायता की रूपरेखा” का हिस्सा है जो पिछले साल बाक़ी दुनिया को भारत की सहायता के नतीजे के तौर पर आया है. ज़्यादा व्यापक तौर पर कहें तो ये पिछले कुछ समय में दुनिया को भारत की मदद का नतीजा है. उदाहरण के लिए, पड़ोस के देशों में भारत की मानवीय और आपदा राहत (एचएडीआर) सहायता पिछले दो दशकों के दौरान तेज़ी से बढ़ी है जो आर्थिक शक्ति के तौर पर भारत के उदय को दिखाता है. प्रधानमंत्री मोदी के ‘पड़ोसी सर्वप्रथम’ की नीति पर ज़ोर देने से 2014 के बाद तो इसमें और तेज़ी आई है. पड़ोस के देशों में कनेक्टिविटी की परियोजनाओं, महत्वपूर्ण इंफ्रास्ट्रक्चर और सामाजिक इंफ्रास्ट्रक्चर में भारत का निवेश सबको अच्छी तरह पता है और ये बताता है कि भारत इस क्षेत्र में और इसके आगे भी एक व्यापक विकास साझेदारी की रणनीति अपना रहा है. कुछ दूसरे देशों की लूट-पाट की नीति से अलग विकास सहायता और इंफ्रास्ट्रक्चर विकास को लेकर भारत का दृष्टिकोण वित्तीय, पर्यावरणीय और सामाजिक निरंतरता पर आधारित है. क्वॉड के अपने साझेदारों के साथ भी भारत अपने संबंधों का इस्तेमाल करके इंडो-पैसिफिक में टिकाऊ विकास, बेहतरीन इंफ्रास्ट्रक्चर निवेश और मानवीय सहायता और आपदा राहत की चुनौतियों का समाधान करने में कर रहा है. 

भारत की वैक्सीन कूटनीति

भारत की वैक्सीन कूटनीति भारत में इस नये मिज़ाज की गवाह है. वैसे तो भारत के वैक्सीन कार्यक्रम पर तर्कसंगत सवाल हैं लेकिन वैक्सीन मैत्री कार्यक्रम के तहत कुछ देशों को भारत का समर्थन इसका हिस्सा नहीं होना चाहिए. जैसा कि यूरोपियन आयोग की अध्यक्ष उर्सुला वॉन डेर लेयन ने शुरुआत में ही कहा था, “एक वैश्विक महामारी को ख़त्म करने के लिए एक वैश्विक कोशिश होनी चाहिए- जब तक प्रत्येक व्यक्ति सुरक्षित नहीं होगा तब तक हम में से कोई भी सुरक्षित नहीं होगा.” भारत की तरफ़ से भेजी गई 6 करोड़ 63 लाख वैक्सीन डोज़ में से 1 करोड़ 7 लाख वैक्सीन डोज़ विकासशील और कम आमदनी वाले देशों को मदद के तौर पर दी गई और 1 करोड़ 98 लाख वैक्सीन डोज़ संयुक्त राष्ट्र की अगुवाई वाली कोवैक्स पहल के तौर पर दी गई ताकि वैक्सीन विभाजन को दूर किया जा सके. एक तरफ़ कनाडा और यूनाइटेड किंगडम जैसे अमीर देशों के पास अपनी पूरी आबादी को क्रमश: 9 और 6 बार टीका लगाने के लिए पर्याप्त डोज़ है, दूसरी तरफ़ चाड और तंज़ानिया जैसे देशों के पास वैक्सीन है ही नहीं. वैक्सीन कूटनीति आर्थिक लिहाज़ से भी ठीक है क्योंकि अध्ययन बताते हैं कि अगर निम्न और निम्न-मध्यम आमदनी वाले देश अपनी आबादी के एक महत्वपूर्ण हिस्से को टीका लगाने में सक्षम नहीं हुए तो इसके परिणाम स्वरूप ज़्यादा आमदनी वाले देशों पर भी गंभीर असर पड़ेगा. रैंड कॉर्पोरेशन के एक अध्ययन के मुताबिक़ इसका नतीजा ज़्यादा आमदनी वाले 30 देशों को 2020-21 के 82 अरब अमेरिकी डॉलर के मुक़ाबले 2023-2033 के दौरान 258 अरब अमेरिकी डॉलर के आर्थिक नुक़सान के तौर पर होगा. 

कोविड-19 की दूसरी लहर से निपटने को लेकर भारत में राजनीतिक चर्चा जारी रहेगी और जारी रहनी भी चाहिए. लेकिन इस शोर-शराबे में घरेलू संकट से निपटने में विदेश नीति और वैश्विक साझेदारी की महत्वपूर्ण भूमिका को नहीं भुलाया जाना चाहिए.

कोविड-19 की दूसरी लहर से निपटने को लेकर भारत में राजनीतिक चर्चा जारी रहेगी और जारी रहनी भी चाहिए. लेकिन इस शोर-शराबे में घरेलू संकट से निपटने में विदेश नीति और वैश्विक साझेदारी की महत्वपूर्ण भूमिका को नहीं भुलाया जाना चाहिए. भारत के लिए वैश्विक समर्थन भारत की उन कोशिशों का नतीजा है जिसके तहत उसने वैश्विक सोपान में ख़ुद के लिए एक विशेष जगह पाने की कोशिश की है. दूसरे देशों के साथ भारत की हिस्सेदारी ने ये सुनिश्चित किया कि जब हालात अच्छे नहीं थे तो दुनिया ने भारत की रिकवरी के लिए पूरी कोशिश की. भारत की अगली चुनौती एक ऐसी रूप-रेखा बनाने की होगी जो उसके अवश्यंभावी आर्थिक विकास और उदय में दुनिया को साझेदार बनाने की स्वीकृति देगी. पिछले कुछ हफ़्तों में भारत ने जिन भी चुनौतियों का सामना किया हो लेकिन भारत की दास्तान के अंत होने की ख़बर काफ़ी बढ़ा-चढ़ाकर पेश की गई है. भारत अभी भी शायद सबसे विश्वसनीय देश है. 

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.

Authors

Samir Saran

Samir Saran

Samir Saran is the President of the Observer Research Foundation (ORF), India’s premier think tank, headquartered in New Delhi with affiliates in North America and ...

Read More +
Harsh V. Pant

Harsh V. Pant

Professor Harsh V. Pant is Vice President – Studies and Foreign Policy at Observer Research Foundation, New Delhi. He is a Professor of International Relations ...

Read More +