Author : Abhijit Singh

Published on May 17, 2023 Updated 0 Hours ago
परमाणु हमले के लिए भारत की त्रिशक्ति: काम अभी भी अधूरा है

ये लेख हमारी सीरीज़, पोखरण के 25 साल: भारत के एटमी सफ़र की समीक्षा, का एक हिस्सा है.


भारत द्वारा परमाणु परीक्षण करने की 25वीं सालगिरह एक ऐसा मौक़ा है, जब देश के परमाणु हथियारों की क्षमता पर भी एक नज़र डाली जाए. हाल के वर्षों में दाग़ने के हथियारों के मामले में तरक़्क़ी के चलते भारत की एटमी त्रिशक्ति (Triad) यानी जल-थल और नभ से दुश्मन पर वार करने की क्षमता मज़बूत हुई है. भारत के वैज्ञानिकों द्वारा अग्नि-5 मिसाइल पर काम शुरू करने के एक दशक से भी ज़्यादा समय बाद ये मिसाइल बार बार किए गए परीक्षणों के ज़रिए काफ़ी परिपक्व हो गई है. 15 दिसंबर 2022 को रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन (DRDO) ने परमाणु शक्ति संपन्न इस मिसाइल का नौवां परीक्षण किया था. DRDO के अधिकारियों का दावा है कि अग्नि-5 मिसाइल की पांच हज़ार किलोमीटर की रेंज इसे अंतरमहाद्वीपीय बैलिस्टिक मिसाइलों (ICBM) के बजाय इंटरमीडिएट रेंज बैलिस्टिक मिसाइल (IRBM) के खांचे में पहुंचा देती है. लेकिन, कहा जाता है कि अग्नि-5 की असली रेंज 5500 किलोमीटर से भी ज़्यादा है, जो किसी मिसाइल को ICBM के दर्जे में रखे जाने की न्यूनतम सीमा है. इतनी दूरी तक मार करने की क्षमता, अग्नि-5 को चीन में निशाना साधने लायक़ बना देती है.

कहा जाता है कि अग्नि-5 की असली रेंज 5500 किलोमीटर से भी ज़्यादा है, जो किसी मिसाइल को ICBM के दर्जे में रखे जाने की न्यूनतम सीमा है. इतनी दूरी तक मार करने की क्षमता, अग्नि-5 को चीन में निशाना साधने लायक़ बना देती है.

नवंबर 2022 में भारत की तीसरी स्वदेशी एटमी बैलिस्टिक मिसाइल दाग़ सकने वाली पनडुब्बी (SSBM) एस-4 को लॉन्च करना भी सामरिक नज़रिए से काफ़ी अहम रहा है. भारत की पहली परमाणु शक्ति संपन्न और बैलिस्टिक मिसाइल दाग़ने में सक्षम (SSBM) INS अरिहंत चार साल पहले पूरी तरह सक्रिय हुई थी. कहा जा रहा है कि भारतीय नौसेना ने उसके बाद ही बड़ी ख़ामोशी से विशाखापत्तनम में S-4 पनडुब्बी को लॉन्च किया था. बताया जाता है कि ये पनडुब्बी INS अरिहंत और अरिघात से काफ़ी बढ़ी है, इसमें परमाणु हथियारों से लैस मिसाइलें रखने की जगह अधिक है. अपनी पूर्ववर्ती पनडुब्बियों की चार वर्टिकल लॉन्च वाली मिसाइल ट्यूब्स की तुलना में S-4 में एटमी मिसाइलों के लिए कम से कम आठ ट्यूब हैं. अक्टूबर 2022 में INS अरिहंत से एटमी ताक़त से लैस सबमरीन लॉन्च्ड बैलिस्टिक मिसाइल (SLBM) का परीक्षण किए जाने ने भारत की दुश्मन को डराकर रखने की क्षमता को बढ़ा दिया है. बहुत से लोग इस परीक्षण को पलटवार करने की क्षमता में बढ़ोत्तरी की दिशा में बढ़े क़दम के तौर पर देखते हैं. उनका कहना है कि समंदर की गहराई में तैनात कोई पनडुब्बी, किसी दुश्मन के परमाणु हमले का जवाब देने का सबसे अच्छा ज़रिया है.

समुद्र के भीतर की दुविधाएं

इसके बावजूद, भारत के एटमी हमले की तिकड़ी का तीसरा स्वरूप यानी समुद्री पहलू अपनी तरह की चुनौतियों का सामना कर रहा है. परमाणु शक्ति से लैस दूसरी स्वदेशी पनडुब्बी (SSBN), INS अरिघात इस वक़्त समुद्री परीक्षण के दौर से गुज़र रही है. ज़ाहिर है इसके पूरी तरह सक्रिय होने में देर हो चुकी है. ये पनडुब्बी 2017 में लॉन्च की गई थी और इसे 2021 में कमीशन किया जाना था. लेकिन, अब संभावना यही है कि INS अरिघात अब 2024 में ही नौसेना के सक्रिय बेड़े का हिस्सा बनेगी. कमीशन किए जाने से पहले किसी परमाणु शक्ति से लैस पनडुब्बी के लिए परीक्षण की लंबी चौड़ी प्रक्रिया से गुज़रना ज़रूरी होता है. इस दौरान उसकी मशीनरी, सिस्टम और कमान, कंट्रोल और संचार की पुष्टि की व्यवस्था को बार-बार जांचा-परखा जाता है. ये प्रक्रिया कई बार बोझिल हो जाती है. लेकिन, जितनी लेट-लतीफ़ी अरिघात के साथ हुई है, उतनी तो शायद ही किसी और पनडुब्बी के ट्रायल में होती है. इससे जुड़ी हुई एक और चिंता, अधिक लंबी दूरी की पनडुब्बी से लॉन्च की जाने वाली बैलिस्टिक मिसाइलों (SLBM) का परीक्षण और उन्हें तैयार करना भी है. हाल ही में अरिहंत से किए गए मिसाइल परीक्षण K-15 यानी 700 किलोमीटर दूरी वाले रहे हैं. इससे लंबी दूरी के K-4 यानी 3500 किलोमीटर मार करने वाले परीक्षण अब तक इतने नहीं हुए हैं कि उन्हें सक्रिय सेवा में तैनात किया जाए. हालांकि, चीन से मुक़ाबले के लिए इतनी ही दूरी की SLBM की मिसाइलें विश्वसनीय रहेंगी.

भारत के एटमी हमले की तिकड़ी का तीसरा स्वरूप यानी समुद्री पहलू अपनी तरह की चुनौतियों का सामना कर रहा है. परमाणु शक्ति से लैस दूसरी स्वदेशी पनडुब्बी (SSBN), INS अरिघात इस वक़्त समुद्री परीक्षण के दौर से गुज़र रही है.

इसके अलावा पनडुब्बियों में एटमी कमान, कंट्रोल और संचार या संपर्क के मसले भी हैं. युद्ध की तैयारियों की योजना बनाने वाले और स्ट्रैटेजिक फोर्सेज़ कमांड के अधिकारी अभी भी परमाणु शक्ति संपन्न पनडुब्बियों (SSBN) में हथियारों के नियंत्रण की व्यवस्था लागू करने और समुद्र की गहराई में संचार की चुनौतियों से जूझ रहे हैं. आम तौर पर एटमी ताक़त से लैस किसी भी पनडुब्बी में मिसाइलें और परमाणु बम अलग अलग रहते हैं और उन्हें जोड़ने वाली व्यवस्था इलेक्ट्रॉनिक ताले यानी इजाज़त से खुलने वाले सिस्टम से संचालित होती है. ये लॉक किसी भी मिसाइल को बिना तयशुदा इलेक्ट्रॉनिक कोड के परमाणु बम से लैस करने से रोकने के लिए लगे होते हैं. जिससे परमाणु हमले का आदेश देने का अधिकार रखने वाली संस्था की इजाज़त के बग़ैर कोई एटमी मिसाइल न दाग़ी जा सके. लेकिन, अरिहंत में मिसाइलें कैनिस्टर यानी डब्बे जैसी स्थिति में रखी जाती हैं, जिनमें मिसाइलों में परमाणु बम लगे होते हैं. ऐसे में पनडुब्बी के कप्तान की ज़िम्मेदारी होती है कि वो सक्षम अधिकारी के स्पष्ट आदेश के बाद ही मिसाइल लॉन्च करे. लेकिन, किसी भी पनडुब्बी से संवाद करना काफ़ी मुश्किल होता है, क्योंकि समुद्र की गहराई में फ्रीक्वेंसी कम होने से पनडुब्बी की संचार व्यवस्था में बाधा पड़ने का ख़तरा रहता है.

हवाई मार्ग से परमाणु हमला करने का विकल्प

ऐसा लगता है कि भारत की हवा से परमाणु हमला करने की क्षमता काफ़ी मज़बूत है. रफाल विमान शामिल किए जाने से भारतीय वायुसेना को एक परिष्कृत लड़ाकू विमान मिला है, जो एटमी हथियार ले जा सकने में सक्षम है. ज़्यादातर जानकारों का मानना है कि भारत द्वारा विमान से परमाणु हमला करने के लिए इसी फाइटर का चुनाव किया गया है और रफाल को पुराने ब्रिटिश-फ्रेंच जगुआर और रूस में बने सुखोई-30 पर तरज़ीह दी गई है. कुछ लोगों के लिए ये भरोसा जगाने वाली बात है. क्योंकि परमाणु हमला करने की त्रिशक्ति में हवा (और ज़मीन) से वार करने की क्षमतामें परमाणु हथियारों के रख-रखाव, तैयारी करने और मिसाइलों से परमाणु बम जोड़ने का ज़िम्मा असैन्य वैज्ञानिकों के हाथ में होता है. इससे ये विश्वास पैदा होता है कि परमाणु हमले का आदेश देने वाली संस्था का इन पर अधिक मज़बूत नियंत्रण होता है. परमाणु हथियारों से लैस पनडुब्बियों (SSBN) में मिसाइलों में परमाणु बम लगे होते हैं. इनकी तुलना में हवा और ज़मीन से मार करने वाली मिसाइलों में परमाणु बम को अलग ही रखा जाता है.

दक्षिण एशिया का पेचीदा माहौल

दुश्मन को डराने की क्षमता पर परिचर्चा का एक व्यापक संदर्भ भी है. भारत की एटमी क्षमताएं, ऊपरी तौर पर भले ही भरोसेमंद लगें. लेकिन, इनकी समीक्षा हम अलग थलग रहकर नहीं कर सकते; हमें इन क्षमताओं का विश्लेषण चीन और पाकिस्तान की क्षमताओं की तुलना के साथ करना चाहिए. दोनों ही देशों के पास बेहद उन्नत हथियार हैं और वो मानते हैं कि उनके पास भारत को डराकर रखने की ऐसी क्षमता है जिस पर भरोसा किया जा सकता है. मामला तब जटिल हो जाता है, जब हम दक्षिण एशिया में सामरिक स्थिरता के चीन और पाकिस्तान के दृष्टिकोण पर नज़र डालते हैं. ख़ास तौर से पाकिस्तान की ये आशंका कि भारत बैलिस्टिक मिसाइल डिफेंस (BMD) विकसित करने की कोशिश कर रहा है, ताकि पाकिस्तान की तुलना में सामरिक बढ़त हासिल कर सके.

भारत ये पर्यवेक्षक, मिसाइल डिफेंस (BMD) को एक आत्मरक्षात्मक कवच के तौर पर देखते हैं. लेकिन, दुश्मन की हमलावर मिसाइलों का पता लगाने वाली इंटरसेप्टर मिसाइलों (ऐसी ही एक मिसाइल की उड़ान का नियमित परीक्षण हाल ही में बंगाल की खाड़ी में किया गया था) को क़ुदरती तौर पर भारत की ‘पहले परमाणु हमला न करने (NFU)’ नीति के पूरक के तौर पर देखा जाता है, जो दुश्मन को डराने के साथ साथ आत्मरक्षात्मक क्षमता पर ज़ोर देती हैं. हालांकि, पाकिस्तान का नज़रिया बिल्कुल अलग है. पाकिस्तान का ये मानना है कि भारत जिस तरह बैलिस्टिक मिसाइल डिफेंस (BMD) की क्षमता विकसित कर रहा है, उसका मक़सद पाकिस्तान के परमाणु ज़ख़ीरे की मार करने की क्षमता को कम करना है. पाकिस्तान ने इसका ‘सस्ता इलाज’ तलाशने की कोशिश की है. इसके लिए वो मल्टिपल इंडिपेंडेंटली टारगेटेड रि-एंट्री व्हीकल्स (MRV) और क्रूज़ मिसाइलों का विकास कर रहा है. पाकिस्तान के अधिकारी इसे दुश्मन को डराने (deterrence) की ‘चहुंमुखी’ क्षमता कहते हैं, जिसमें सामरिक, टैक्टिकल और ऑपरेशनल हथियार तैनात किए जाने हैं. भारत के लिए एक ज़रूरी दुविधा रेखांकित होती है: भारत के परमाणु सिद्धांत ने, पाकिस्तान द्वारा टैक्टिकल एटमी हथियारों का इस्तेमाल करने की आशंका को अपनी तैयारियों का हिस्सा नहीं बनाया है.

जैसा कि कुछ भारतीय जानकारों का मानना है कि परमाणु हथियारों को लेकर भारत का रुख ये है कि ये युद्ध के हथियार कम और सियासी ज़्यादा हैं. इसलिए इनको केवल दुश्मन को भयभीत करने की नीयत से तैयार रखने का विचार बहुत पुराना पड़ चुका है. आलोचक कहते हैं कि आज दुश्मन को डराकर रखने की पारंपरिक और एटमी क्षमता के बीच की लक़ीर मद्धम पड़ चुकी है. भारत की न्यूक्लियर डॉक्ट्रिन के तीन बुनियादी सिद्धांत- क्रेडिबल मिनिमन डेटरेंस, ज़बरदस्त पलटवार और पहले इस्तेमाल नहीं करना- गए ज़माने की बातें हो चुके हैं और आज के दौर के लिए उपयोगी नहीं रह गए हैं. कम से कम, एटमी हथियार पहले इस्तेमाल न करने (NFU) और डराने के लिए ज़रूरी ‘न्यूनतम’ हथियार पर भारत के लगातार ज़ोर देने से उसका परमाणु हथियारों का ज़ख़ीरा, डर दिखाने की भरोसेमंद व्यवस्था की ज़रूरत के स्तर से बहुत कम है. इसके अलावा, भारत द्वारा अपनी न्यूक्लियर डॉक्ट्रिन पर दोबारा विचार और पाकिस्तान और चीन के एटमी हथियारों का ज़ख़ीरा बढ़ाने के स्पष्ट सुबूत के बाद भी परमाणु हथियारों के कार्यक्रम को रफ़्तार देने से बार-बार इनकार करना, सामरिक स्थिरता को चोट पहुंचाता है. आशंका जताने वाले कहते हैं कि भारत के अपने परमाणु हथियारों की तादाद कम रखने, मगर फिर भी परमाणु हमला होने पर ‘ज़बरदस्त पलटवार’ की बात, कम से कम परमाणु हथियार रखने के विचार से मेल नहीं खाते हैं.

हालांकि, कुछ अन्य पर्यवेक्षकों की नज़र में भारत के परमाणु सिद्धांत से छेड़-छाड़ करना ग़ैरज़रूरी है और ये क़दम नुक़सान पहुंचाने वाला भी हो सकता है. पहले परमाणु हमला न करने (NFU) के समर्थकों का कहना है, मसला ये नहीं है कि भारत की न्यूक्लियर डॉक्ट्रिन अब बेकार हो चुकी है; इसके बजाय वो तर्क देते हैं कि NFU का सिद्धांत त्याग देने से भारत पर इस बात का बोझ काफ़ी बढ़ जाएगा कि वो ‘पहले वार करने’ की भरोसेमंद क्षमता विकसित करने के लिए वित्तीय और तकनीकी क्षमता बढ़ाने में भारी निवेश करे. अगर भारत को ये भरोसा है कि उसे दुश्मन पर पहले एटमी हमला करके उसकी क्षमता नष्ट करने की ज़रूरत कभी नहीं पड़ेगी, तो फिर भारत पहले परमाणु हमला करने का सिद्धांत अपनाकर ख़ुद को हथियारों की महंगी होड़ में क्यों झोंके. अभी भारत के पास मौजूद 160 परमाणु बम और उन्हें दाग़ने के जो हथियार हैं, वो दुश्मन को पक्के इरादों का संदेश देने के लिए पर्याप्त हैं; यानी भारत के पास दुश्मन को डराए रखने की क्षमता तो है, लेकिन इतनी ही है.

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