Author : Debosmita Sarkar

Published on Aug 24, 2022 Updated 26 Days ago

आज तमाम आर्थिक क्षेत्रों में निजी क्षेत्र की कंपनियों के उभार के चलते उनके कारोबार में मददगार मूलभूत ढांचे का विकास करना बेहद ज़रूरी हो गया है.

भारत का मूलभूत ढांचा: भविष्य में तरक़्क़ी के लिए पुराने तज़ुर्बे का इस्तेमाल

वर्ष 2025 तक पांच ख़रब अमेरिकी डॉलर की अर्थव्यवस्था बनने का लक्ष्य हासिल करना, भारत के अब तक के सफ़र में एक मील का पत्थर साबित हो सकता है. हालांकि, कोविड-19 महामारी के बाद के हालात और पूरी दुनिया को अपनी चपेट में ले रही आर्थिक सुस्ती को देखते हुए भारत को अपनी प्राथमिकताएं साफ़ तौर से तय करनी होंगी और ऐसी कारगर रणनीतियां बनानी होंगी, जिससे वो दुनिया की बड़ी आर्थिक महाशक्ति का दर्जा हासिल कर सके. इसके साथ साथ, वैश्विक बाज़ार में अपनी अहमियत बढ़ाने के अलावा, भारत को अपनी जनता की बेहतरी के लिए आत्मनिर्भर बनना भी ज़रूरी है- इससे वो अपनी आबादी और घरेलू बाज़ार को दुनिया से मुक़ाबले के लिए और लचीला बना सकेगा. चूंकि भारत एक विकासशील देश है और उसके पास ख़र्च करने के लिए सीमित पूंजी ही है, ऐसे में भारत को उन अहम क्षेत्रों की शिनाख़्त करनी होगी, जो अगले पांच वर्षों के दौरान, उसके विकास के एजेंडे को सबसे असरदार तरीक़े से आगे बढ़ा सकें. अर्थव्यवस्था के तमाम क्षेत्रों में जो संपत्तियां मौजूद हैं, वो कारखानों, प्लांट या मशीनरी के भौतिक ढांचे के रूप में ही नहीं हैं- जिनका उपयोग, इस्तेमाल के लायक़ सामान और सेवाओं के उत्पादन के लिए किया जाता है- बल्कि भारत की आबादी और सामाजिक पूंजी, जैसे कि स्वास्थ्य और शिक्षा और उसके साथ साथ विशाल प्राकृतिक पूंजी भी है जो इस उत्पादन प्रक्रिया में अपना योगदान देती है. हालांकि इन सभी परिसंपत्तियों की उत्पादकता बहुत महत्वपूर्ण ढंग से उसके मूलभूत ढांचे के क्षेत्र के विकास पर निर्भर है. भारत के मूलभूत ढांचा क्षेत्र को प्राथमिकता देते हुए, 2022-23 के केंद्रीय बजट में कनेक्टिविटी बढ़ाने वाली उन परियोजनाओं को पूरा करने के लिए बड़े पैमाने पर पूंजीगत व्यय का इंतज़ाम किया गया था, जो भारत को एक टिकाऊ और लचीले भविष्य की ओर ले जाएंगे. हालांकि इन अवसरों का पूरा और कुशल तरीक़े से लाभ उठाने के लिए भारत को अपने पुराने तजुर्बे से सीख लेनी होगी, तभी वो बेहतर भविष्य का निर्माण कर सकेगा.

भारत की आबादी और सामाजिक पूंजी, जैसे कि स्वास्थ्य और शिक्षा और उसके साथ साथ विशाल प्राकृतिक पूंजी भी है जो इस उत्पादन प्रक्रिया में अपना योगदान देती है. 

पहले का सफ़र: अब तक भारत की उपलब्धि क्या रही है?

हमें पता है कि मूलभूत ढांचे का विकास, आर्थिक प्रगति की अनिवार्य शर्त है. इससे उत्पादकता बढ़ती है और तमाम आर्थिक क्षेत्रों में उत्पादन की लागत तो कम होती ही है. पर्याप्त मात्रा में मूलभूत ढांचा उपलब्ध होना और उसका सटीक ढंग से चलना, देश के विकास की प्रक्रिया में बेहद अहम किरदार अदा करता है. जैसे कि उत्पादन में विविधता लाना, प्रतिद्वंदिता को बढ़ाकर व्यापार का विस्तार करना, पर्यावरण के हालात में सुधार करना और आमदनी से नहीं जुड़ने वाले कारकों में सुधार लाकर बहुआयामी ग़रीबी के स्तर को सुधारना.

हालांकि, भारत में मूलभूत ढांचे का विकास ऐतिहासिक रूप से योजना को लागू करने की ख़ामियों या नाकामियों का शिकार रहा है. इसके अलावा, भारत में हर क्षेत्र के लिए मौजूद नियमों की भूलभुलैया ने भी देश में कारोबार के माहौल पर बहुत बुरा असर डाला है. ख़ास तौर से इसका लॉजिस्टिक्स सेक्टर, जो कारोबार के तमाम क्षेत्रों को आपस में जोड़ने का काम करता है, वो अपने काम-काज में कमतर साबित हुआ है. नीचे दिए गए आंकड़ों में विश्व बैंक के लॉजिस्टिक्स पर्फॉर्मेंस इंडेक्स (LPI) 2018 के आधार पर भारत और चीन के बीच तुलना की गई है. सीमा शुल्क, मौजूदा उपलब्ध मूलभूत ढांचे (मात्रा), अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भेजे जाने वाले माल, उसकी लॉजिस्टिक्स व्यवस्था की कुशलता, ट्रैकिंग और पता लगाने की व्यवस्थाएं, समय पर काम पूरा होने जैसे तमाम पैमानों पर दोनों देशों की अर्थव्यवस्था के कुल कामकाज की तुलना इस आंकड़े में की गई है. इन सभी मामलों में चीन का प्रदर्शन भारत से कहीं बेहतर रहा है. लॉजिस्टिक्स के मामले में 2018 की LPI में चीन 26वें स्थान पर है और उसका स्कोर 3.61 है. वहीं, भारत  3.18 के स्कोर के साथ 44वीं पायदान पर रहा है. तमाम क्षेत्रों में भारत और चीन के बीच जो सबसे बड़ा अंतर है, वो मूलभूत ढांचे का ही है, जो बाद में अन्य नियामक और कार्यकारी मामलों पर असर डालता है, क्योंकि मूलभूत ढांचे की मौजूदा क्षमता पर बोझ बढ़ जाता है.

आंकड़ा 1: 2018 में चीन और भारत के लॉजिस्टिक्स परफॉर्मेंस स्कोर

स्त्रोत – लेखक का अपना; डेटा- विश्व बैंक

 

मूलभूत ढांचे और विकास के आपसी संबंध की पड़ताल

मूलभूत ढांचे में निवेश आम तौर पर सरकार की तरफ़ से किया जाता है. सरकार इसका संचालन और रख-रखाव भी करती है. ये सारा ख़र्च सरकारी ख़ज़ाने के हिसाब किताब में पूंजीगत व्यय के तहत आता है और सीधे सीधे अर्थव्यवस्था में उत्पादक संपत्तियों के निर्माण का काम करता है. वैसे तो सरकार का ख़र्च (फिर चाहे वो राजस्व व्यय हो पूंजीगत ख़र्च) मांग पैदा करके उच्च स्तर के आर्थिक विकास को रफ़्तार देता है. लेकिन, दोनों तरह के ख़र्च का असर बिल्कुल अलग अलग होता है. राजस्व व्यय से सीधे तौर पर अर्थव्यवस्था में ठोस मांग पैदा होती है. फिर उससे बाज़ार में मांग का और विस्तार होता है, जो आख़िरकार तेज़ आर्थिक विकास को गति देता है. हालांकि, इससे अर्थव्यवस्था की उत्पादक क्षमता में कोई इज़ाफ़ा नहीं होता है. वहीं दूसरी तरफ़, सरकार जब मूलभूत ढांचे के विकास के लिए पूंजीगत ख़र्च करती है, तो इससे न सिर्फ़ सीधे तौर पर ठोस मांग पैदा होती है, बल्कि इससे उत्पादकता में सुधार आता है और उत्पादन की लागत कम होती है. इन बातों के चलते निजी निवेश बढ़ता है और उनके मुनाफ़े की दर में बढ़ोत्तरी होती है. ये बात भारत के संदर्भ में भी सही साबित होती आई है. जब सरकार एक रुपए का राजस्व व्यय (सीधे लोगों के खाते में भुगतान) करती है, तो उससे औसतन एक रुपए के बराबर ही अतिरिक्त आमदनी बढ़ जाती है. वहीं, सरकार जब पूंजीगत व्यय में एक रुपए ख़र्च करती है, तो इससे आमदनी औसतन 2.45 रुपए बढ़ जाती है.

तमाम क्षेत्रों में भारत और चीन के बीच जो सबसे बड़ा अंतर है, वो मूलभूत ढांचे का ही है, जो बाद में अन्य नियामक और कार्यकारी मामलों पर असर डालता है, क्योंकि मूलभूत ढांचे की मौजूदा क्षमता पर बोझ बढ़ जाता है.

इसके अलावा ख़राब आर्थिक स्थितियों के दौरान वित्तीय ख़र्च के विस्तार से आमदनी के चक्र को बढ़ावा मिलता है. लेकिन, ज़्यादातर दूसरे विकासशील देशों की तरह भारत द्वारा अपने ख़र्च पर लगाम लगाने की कोशिशें अक्सर उसके पूंजीगत ख़र्च को भी सीमित कर देती हैं- ताकि बजट घाटा एक सीमा से आगे न बढ़े. इसका व्यापक असर होता है. ख़ास तौर से अर्थव्यवस्था के उत्पाद में कमी आती है. इसीलिए, राजस्व व्यय के ज़रिए व्यापक आर्थिक स्थिरता लाने के लिए, देश के सकल राष्ट्रीय उत्पाद (GDP) में पूंजीगत व्यय की हिस्सेदारी को संतुलित बनाना बेहद अहम हो जाता है.

इसमें कोई दो राय नहीं है कि जहां मूलभूत ढांचे में निवेश के लिए पूंजीगत ख़र्च की मांग बहुत अधिक होती है और इस व्यय से आमदनी में इज़ाफ़े पर असर पड़ने में काफ़ी वक़्त लगता है. लेकिन, ऐसे निवेश का फ़ौरी तौर पर भी फ़ायदा होता है और कुल लाभ भी बहुत अधिक है. इसके अलावा, मूलभूत ढांचे के विकास में तय समय-सीमा के तहत लक्ष्य आधारित निवेश भी बहुत अहम होते हैं. पहले की तरह मूलभूत ढांचे की ‘मात्रा’ पर ज़ोर देने के बजाय, इसकी ‘गुणवत्ता’ और कुशलता सुधारने को तरज़ीह देने के लिए विश्व बैंक तीन बड़े सुझाव देता है. इसमें कारोबारी सिद्धांत जैसे कि प्रबंधन की स्वायत्तता देने जैसे सूत्र भी शामिल हैं; मूलभूत ढांचे को और अधिक मुक़ाबले लायक़ बनाने के लिए इसमें निजी और सार्वजनिक क्षेत्र की भागीदारी बढ़ाना; और, ग्राहकों समेत सभी साझीदारों की ज़िम्मेदारी और जवाबदेही में इज़ाफ़ा करना. पर्याप्त जवाबदेही के बिना ये सेक्टर बेहद अकुशल साबित होता है और इसकी क्षमता का पूरा इस्तेमाल नहीं हो पाता है.

मूलभूत ढांचे के विकास के लिए भारत की प्राथमिकताएं और क़दम

भारत के तमाम आर्थिक क्षेत्रों में निजी क्षेत्र की हिस्सेदारी काफ़ी बढ़ रही है. ऐसे में कारोबार चलाने के लिए अच्छे मूलभूत ढांचे की ज़रूरत बेहद महत्वपूर्ण हो गई है. इस मामले में सरकार के सभी अंगों को तवज्जो देने की ज़रूरत है. मूलभूत ढांचे के क्षेत्र में मुख्य रूप से सड़क, जल, रेल और वायु सेवाओं की कनेक्टिविटी और डिजिटल कनेक्टिविटी के साथ साथ ऊर्जा शामिल है. वैसे तो भारत में पूंजीगत व्यय (सरकार के कुल ख़र्च के एक हिस्से के तौर पर) वैश्विक पैमानों से बेहद कम है. लेकिन, पिछले पांच वर्षों के दौरान मूलभूत ढांचे के विकास से जुड़ी परियोजनाओं में लगातार इज़ाफ़ा हो रहा है.

सरकार जब मूलभूत ढांचे के विकास के लिए पूंजीगत ख़र्च करती है, तो इससे न सिर्फ़ सीधे तौर पर ठोस मांग पैदा होती है, बल्कि इससे उत्पादकता में सुधार आता है और उत्पादन की लागत कम होती है. इन बातों के चलते निजी निवेश बढ़ता है और उनके मुनाफ़े की दर में बढ़ोत्तरी होती है. 

मूलभूत ढांचे का क्षेत्र सरकार की बड़ी प्राथमिकताओं के दायरे में आ गया है. 2019 से 2023 के दौरान टिकाऊ आर्थिक प्रगति और देश के विकास के लिए इस क्षेत्र में 1.4 ख़रब डॉलर के अनुमानित व्यय का अंदाज़ा लगाया गया है. इसके साथ साथ, भारत ने मूलभूत ढांचे के विकास के लिए कई क्षेत्रीय साझीदारों और ख़ास तौर से जापान के साथ भी हाथ मिलाया है. ताकि मूलभूत ढांचे के विकास को तरज़ीह देकर अपनी ‘एक्ट ईस्ट’ नीति के एजेंडे को मज़बूती से आगे बढ़ा सके. इससे उम्मीद यही की जा रही है कि भारत अन्य क्षेत्रों के साथ अपनी अर्थव्यवस्था को अपने व्यावारिक साझीदारों के साथ कार्यकारी समन्वय के साथ जोड़ेगा. इससे लेन-देन की लागत तो कम होगी ही, तमाम देशों के साथ सामान और सेवाओं का बिना किसी बाधा के आदान-प्रदान भी हो सकेगा.

हालांकि परिवहन और डिजिटल कनेक्टिविटी के मूलभूत ढांचे के विकास में भारी निवेश के साथ साथ भारत में केंद्र और राज्यों की सरकारों के तमाम विभागों के बीच कुशल तालमेल बढ़ाने की भी दरकार है. वैश्विक मानकों की तुलना में भारत में लॉजिस्टिक्स की लागत बहुत अधिक है. इसकी वजह कुछ ऐसी बाधाएं हैं, जो लंबे समय से चली आ रही हैं और जिनका तुरंत समाधान निकालने की आवश्यकता है. तभी जाकर ‘पीएम गति शक्ति नेशनल मास्टर प्लान’ के अंतर्गत मूलभूत ढांचे के विकास की परिकल्पना को आपसी तालमेल से साकार किया जा सकेगा और इससे मल्टी-मोडल परिवहन  नेटवर्क के ज़रिए एक सिरे से दूसरे सिरे तक बिना बाधा के संपर्क को सुनिश्चित किया जा सकेगा और औद्योगिक क्षेत्रों के विकास को बढ़ावा दिया जा सकेगा, जो आर्थिक प्रगति और विकास में योगदान दे सकेंगे. इसके अलावा, टिकाऊ विकास के एजेंडे के तहत पीएम गति शक्ति नेशनल मास्टर प्लान के ज़रिए औद्योगिक विकास और पर्यावरण संबंधी चिंताओं के बीच बढ़िया तालमेल बिठाकर नफ़े और नुक़सान को एक दूसरे की मज़बूती में तब्दील करके भारत की अर्थव्यवस्था को हरित परिवर्तन की राह पर भी ले जा सकेंगे.

इससे उम्मीद यही की जा रही है कि भारत अन्य क्षेत्रों के साथ अपनी अर्थव्यवस्था को अपने व्यावारिक साझीदारों के साथ कार्यकारी समन्वय के साथ जोड़ेगा. इससे लेन-देन की लागत तो कम होगी ही, तमाम देशों के साथ सामान और सेवाओं का बिना किसी बाधा के आदान-प्रदान भी हो सकेगा.

आगे चलकर भारत के लिए सबसे अहम काम तो मूलभूत ढांचे के विकास से जुड़ी परियोजनाओं में भारी निवेश की कोशिशों और उन्हें समय पर पूरा करने के लिए ज़रूरी माहौल के बीच समन्वय बिठाना होगा. मूलभूत ढांचे के विकास के ज़रूरी और आपस में जुड़ी इन चुनौतियों से निपटकर ही, भारत अगले एक दशक के दौरान अपने विकास की संभावनाओं को साकार कर सकेगा.

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