Published on Jun 18, 2022 Updated 0 Hours ago

IPEF की रूपरेखा में ख़ामियों के बावजूद ये ढांचा भारत को दक्षिण और दक्षिणपूर्व एशिया में अपनी आर्थिक अहमियत और रसूख़ जमाने का अवसर उपलब्ध कराता है.

IPEF में भारत का किरदार: देश के मुनाफ़े का लेखाजोखा

कैमरों की चमकदमक और सुर्ख़ियों में छाए एशियाई दौरे के बीच राष्ट्रपति जो बाइडेन ने आख़िरकार हिंद-प्रशांत आर्थिक ढांचे (IPEF) से पर्दा उठा दिया. IPEF के तहत दक्षिण और दक्षिणपूर्व एशिया के 13 देशों को एक मंच पर लाने की कोशिश की गई है. इसके ज़रिए आगे की राह के नियम-क़ायदों को आकार देने की बात कही गई है. इनमें तकनीकी मानकों से लेकर स्वच्छ आपूर्ति श्रृंखलाओं तक लगभग तमाम मसले शामिल हैं. हालांकि इस क़वायद से मोटे तौर पर निराशा ही हाथ लगी है. इस कड़ी में आश्चर्यजनक रूप से बाज़ार पहुंच से जुड़े घटक की ग़ैर-मौजूदगी से लेकर मुकम्मल ठोस ब्योरों का चिंताजनक अभाव हमारे सामने है. ज़ाहिर है कि राज्यसत्ता के संचालन के संदर्भ में IPEF आर्थिक मोर्चे पर अत्याधुनिक क़वायद कतई नहीं है.

भारत की इस बात में गहरी दिलचस्पी होगी कि IPEF के वजूद में आने से उसे भविष्य के लिए मानक तय करने के लिहाज़ से एक बड़ा (भले ही ख़ामियों भरा) मंच मिल गया है. इसके ज़रिए वो अपनी असहमतियों को स्पष्ट रूप से पेश कर सकता है.

बहरहाल IPEF की ख़ामियों के बावजूद इस नए ढांचे में शामिल होने से भारत के लिए अवसरों के नए द्वार खुले हैं. 2018 में भारत ने क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी (RCEP) की सदस्यता लेने से इनकार कर दिया था. उसके बाद से भारत ख़ुद को इनके दायरे से बाहर महसूस करने लगा था. तब से भारत ने RCEP और कॉम्प्रिहैंसिव एंड प्रोग्रेसिव एग्रीमेंट फ़ॉर ट्रांस-पैसिफ़िक पार्टनरशिप (CPTPP) जैसे नए व्यापारिक संरचनाओं पर नज़र टिका रखी है. इस तरह उसने एशिया में नए सिरे से इस खेल के आर्थिक नियम-क़ायदे लिखने चालू कर दिए. भारत की इस बात में गहरी दिलचस्पी होगी कि IPEF के वजूद में आने से उसे भविष्य के लिए मानक तय करने के लिहाज़ से एक बड़ा (भले ही ख़ामियों भरा) मंच मिल गया है. इसके ज़रिए वो अपनी असहमतियों को स्पष्ट रूप से पेश कर सकता है. साथ ही अपने हितों की रक्षा के लिए क्षेत्रीय अर्थव्यवस्थाओं के एक बड़े समूह के साथ गठजोड़ क़ायम कर सकता है.

IPEF के चार स्तंभ

IPEF चार स्तंभों पर खड़ा है. इसके तहत डिजिटल नीति पर ख़ास तवज्जो देते हुए “आपस में जुड़ी अर्थव्यवस्था” का वादा किया गया है. ये क़वायद भारत के लिए दिलचस्पी का सबब बन सकती है. भारत में डिजिटल अर्थव्यवस्था 2025 तक क़रीब-क़रीब 6.5 करोड़ नई नौकरियों को जन्म देने वाली है. वैश्विक स्तर पर इस अर्थव्यवस्था का प्रशासन सबसे बड़ी प्राथमिकता रहने वाला है. दुनिया के देशों में इस मोर्चे पर तरह-तरह के सौदे करने की आपाधापी मची हुई है. इस कड़ी में DEPA और अमेरिका-जापान डिजिटल व्यापार समझौता जैसे क़रारों की मिसाल दी जा सकती है. डिजिटल इकोसिस्टम्स के बीच आंतरिक क्रियाशीलता को बढ़ावा देना, सीमा के आर-पार निजता की सुरक्षा से जुड़े नियम-क़ानून तैयार करना और साइबर हमलों की रोकथाम के लिए साझा प्रयास- IPEF की सुरक्षित महत्वाकांक्षाओं के तौर पर दिखाई देते हैं. चीन खुले तौर पर तकनीकी मानकों से जुड़े मंचों को अपने सियासी नज़रिए के वाहन के रूप में बदल देने का मंसूबा पाले हुए हैं. ऐसे में IPEF के ज़रिए उसकी काट के लिए साझा प्रतिक्रियाएं सामने रखने की बात भी कही गई है. बहरहाल सीमा के आर-पार डेटा के प्रवाह को लेकर अमेरिका के बेलगाम उत्साह के चलते देरसबेर समस्याएं पैदा होना तय है. इस कड़ी में अमेरिका द्वारा डेटा स्थानीयकरण का काफ़ी कम सहारा लिया जाता है. भारत एक लंबे अर्से से डेटा स्थानीयकरण का समर्थन करता आ रहा है. ऐसे में वो वार्ता की मेज़ पर दूसरी विकासशील अर्थव्यवस्थाओं के साथ साझा रुख़ तय करने या बाध्यकारी प्रतिबद्धताओं के विरोध के लिए मजबूर हो जाएगा.       

एक और अवसर “लोचदार अर्थव्यवस्था” वाले स्तंभ में छिपा है. इसके तहत आपूर्ति श्रृंखलाओं को नए सिरे से व्यवस्थित करने और भरोसेमंद कनेक्टिविटी सुनिश्चित करने का लक्ष्य है. अमेरिकी राज्यसत्ता का अमेरिका COMPETES क़ानून और जापान का नया आर्थिक सुरक्षा विधान ये स्पष्ट करता है कि आपूर्ति श्रृंखला की लोचदार व्यवस्था एक ऐसा विचार है जिसका वक़्त आ गया है. अहम वस्तुओं की पहचान और आपूर्ति श्रृंखला की ख़ामियों को दूर करने के लिए शुरुआती दौर में ही चेतावनी देने वाली व्यवस्था की संरचना तैयार करना एक बड़ी प्राथमिकता होगी. वार्ताओं का रुख़ अब आपूर्ति श्रृंखला को विविधता देने वाले मसले की ओर मुड़ गया है. ऐसे में भारत ख़ुद को निवेश के लिहाज़ से एक अहम ठिकाने के तौर पर स्थापित करने पर पूरी मज़बूती से निगाह टिकाए होगा.  

बहरहाल बाक़ी के 2 स्तंभ (जो क्रमश: हरित अर्थव्यवस्थाओं और स्वच्छ प्रशासन से ताल्लुक़ रखते हैं) शायद ही भारत या दूसरे विकासशील देशों को आकर्षित कर पाएं. आपूर्ति श्रृंखलाओं को कार्बनरहित बनाने और जलवायु परिवर्तन का मुक़ाबला करने पर IPEF के ज़ोर को कई क्षेत्रीय अर्थव्यवस्थाओं द्वारा विकसित दुनिया की ओर से चांद-तारे तोड़कर लाने की उम्मीद किए जाने के तौर पर देखा जाएगा. हालांकि बदले में विकसित अर्थव्यवस्थाओं की ओर से कोई ख़ास क़वायद नहीं की जाती. हरित बदलावों के लिए ज़रूरी वित्तीय मदद मुहैया कराने को लेकर विकसित देशों की ओर से किसी बड़ी पेशकश की ग़ैर-मौजूदगी में विकासशील देशों को ये पूछना पड़ेगा कि इन तमाम क़वायदों के लिए ज़रूरी रकम कहां से आएगी. भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ और स्वच्छ प्रशासन को लेकर अमेरिकी उम्मीदों पर भी इसी तरह से पानी फिरने की आशंका दिखाई देती है. दरअसल किसी भी तरह की प्रतिबद्धता से जुड़ी असल दिक़्क़त उसके क्रियान्यवयन को लेकर है. वैसे हाल ही में पूरे किए गए कई क़रारों में शासन-प्रशासन को लेकर बेहद सख़्त मानदंड तय किए गए हैं. इनमें अमेरिका-मेक्सिको-कनाडा समझौता (USMCA) शामिल है. बहरहाल कनाडा और मेक्सिको के संदर्भ में अमेरिका के पास प्रोत्साहनों का एक पूरा पैकेज प्रस्तुत करने की क़ाबिलियत मौजूद है. ऐसे में उसे इन दोनों देशों के साथ एक क़िस्म की छूट मिल जाती है. बहरहाल IPEF से जुड़ी वार्ताओं में अमेरिका के पास ये क्षमता मौजूद नहीं है.

यही कमज़ोरी IPEF की नाकामी का सबब बन सकती है. बाइडेन प्रशासन पूरी शिद्दत से “पारंपरिक” मुक्त व्यापार समझौतों और बाज़ार पहुंच और व्यापार को बढ़ावा देने पर उनके ज़ोर की अहमियत कम करने की कोशिश करता आ रहा है. “पारंपरिक” वार्ताओं में एक हाथ दो, एक हाथ लो के सिद्धांत पर अमल होता रहा है. बहरहाल अमेरिका ऐसी क़वायद से परहेज़ करते हुए विकासशील अर्थव्यवस्थाओं के सामने मांगों की एक लंबी सूची पेश कर रहा है. कारोबार में बढ़ोतरी या भारी-भरकम वित्तीय सहायता से जुड़े वादों के अभाव में विकासशील अर्थव्यवस्थाएं इन मांगों पर हामी नहीं भर सकतीं. बहरहाल मुश्किल हालातों में फंसने पर कई देश बिना कोई ठोस और बाध्यकारी प्रतिबद्धता जताए अस्पष्ट साझा विज्ञप्तियों को मंज़ूर कर सकते हैं. अगर ऐसा होता है तो IPEF का दर्जा कमतर हो जाएगा. वो एक क्रांतिकारी समझौते से घटकर बातचीत का एक और अड्डा बनकर रह जाएगा. 

IPEF में भारत का किरदार 

भारत के पास विस्तृत प्रतिबद्धताओं से परहेज़ करने की दूसरी जायज़ वजहें भी मौजूद हैं. पहला, हैरानी की बात है कि नई रूपरेखा के बारे में मामूली ब्यौरा जारी होने में भी 7 महीनों की देर हो गई. इससे उन अफ़वाहों को हवा मिलती है जिनमें ये कहा गया है कि डेमोक्रेटिक पार्टी के प्रगतिवादी और मुख्यधारा से जुड़े धड़ों के बीच एक रुकावटी रस्साकशी चल रही है. ऐसे में भारत के सामने लाज़िमी तौर पर ये असमंजस है कि क्या डेमोक्रेटिक पार्टी के भीतर के बढ़ते विभाजन के मद्देनज़र वो नतीजे दे पाने को लेकर बाइडेन प्रशासन की क़ाबिलियत पर भरोसा कर सकता है या नहीं. इतना ही नहीं IPEF वक़्ती तौर पर ग़लत क़दम साबित हो सकता है. यहां ये याद रखना ज़रूरी है कि सभी पक्षों से “भावी वार्ताओं के लिए सामूहिक परिचर्चाओं की शुरुआत” की उम्मीद की जा रही है. अभी औपचारिक वार्ताएं शुरू होनी बाक़ी हैं. प्रभावी तौर पर वार्ताओं की शर्तें तय होना भी बाक़ी हैं. दूसरी ओर अमेरिका में संसद के मध्यावधि चुनाव बेहद नज़दीक आ गए हैं. वहां महंगाई चरम पर है और व्हाइट हाउस में बैठे राष्ट्रपति की लोकप्रियता दिनोंदिन गिरती जा रही है. ऐसे में नवंबर में होने वाले चुनावों की हवा किस ओर बहेगी, इसका पूर्वानुमान लगाना कतई मुश्किल नहीं है. अगर बाइडेन की डेमोक्रेटिक पार्टी कांग्रेस पर अपनी मामूली पकड़ भी गंवा देती है तो एशिया को लेकर IPEF के भारी-भरकम मंसूबों पर ज़बरदस्त चोट पड़ सकती है. इन्हीं वजहों से भारत समेत तमाम क्षेत्रीय ताक़तें IPEF में हद से ज़्यादा राजनीतिक पूंजी का निवेश करने से पहले कई बार सोच-विचार करना पसंद करेंगी.    

भारत के लिहाज़ से देखें तो क्वॉड की फ़ौजी ताक़त का आर्थिक पूरक बनने को लेकर IPEF की नाकामी से एशिया में अमेरिका की कथनी और करनी के बीच का निराशाजनक फ़र्क़ बेपर्दा हो जाता है.

भारत के लिहाज़ से देखें तो क्वॉड की फ़ौजी ताक़त का आर्थिक पूरक बनने को लेकर IPEF की नाकामी से एशिया में अमेरिका की कथनी और करनी के बीच का निराशाजनक फ़र्क़ बेपर्दा हो जाता है. इस रूपरेखा की कमज़ोरिया स्पष्ट रूप से सामने आ चुकी हैं. ऐसे में इसको लेकर चीन के बहुत ज़्यादा चिंतित होने के आसार ना के बराबर हैं. एशिया में आर्थिक दबदबा जमाने की जंग में चीन बेहद मज़बूत स्थिति में है. इस नतीजे को लेकर हम सबको ख़ासतौर से चिंता करने की ज़रूरत है. 

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Contributor

Shashank Mattoo

Shashank Mattoo

Shashank Mattoo was a Junior Fellow with the ORFs Strategic Studies Program. His research focuses on North-East Asian security and foreign policy.

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