Published on Apr 23, 2019 Updated 0 Hours ago

पिछले 10 सालों में भारत की जीडीपी दोगुनी हो गई है लेकिन हैप्‍पीनेस इंडेक्‍स की रिपोर्ट के मुताबिक इस दौरान भारत की खुशहाली क़रीब 1.2 पॉइन्‍ट नीचे चली गई है।

दोगुनी जीडीपी के बावजूद क्‍यों खुश नहीं हैं भारतीय

बहुत सारे लोगों ने शायद ये नोटिस भी नहीं किया होगा कि बीते 20 मार्च को ‘इंटरनेशनल हैप्‍पीनेस डे’ था। इस दौरान यूनाइटेड नेशन्‍स के सस्‍टेनेबल डेवलपमेंट सॉल्‍युशन की तरफ से खुशी पर 7वीं सालाना रिपोर्ट जारी की गई। 2012 में संयुक्‍त राष्‍ट्र महासभा ने ‘इंटरनेशनल डे ऑफ़ हैप्‍पीनेस’ का दिन तय किया था।

हैप्‍पीनेस डे बनाने वाले संयुक्‍त राष्‍ट्र के सलाहकार जेमी इलियान हैं जो एक अनाथ थे, जिन्‍हें मदर टेरेसा की इंटरनेशनल मिशन ऑफ़ होप चैरिटी ने कोलकाता की सड़कों से रेस्‍क्‍यू किया था। उन्‍हें एक अमेरिकी महिला एना बेले इलियान ने गोद लिया और पढ़ाया। हैप्‍पीनेस रिपोर्ट 156 देशों के आंकड़े पर आधारित है जिसमें देखा जाता है कि वहां के लोग खुद को कितना खुश मानते हैं। ‘वर्ल्‍ड गैलप पोल’ के सवालों के आधार पर हैप्‍पीनेस इंडेक्‍स में देशों को रैंक दी जाती है। इसके नतीजे कमाई, लंबे समय तक स्‍वस्‍थ जीवन जीने, उदारता, आज़ादी, सामाजिक समर्थन और भ्रष्‍टाचार के न होने से जुड़े होते हैं।

पिछले 10 सालों में भारत की जीडीपी दोगुनी हो गई है लेकिन हैप्‍पीनेस इंडेक्‍स की रिपोर्ट के मुताबिक इस दौरान भारत की खुशहाली क़रीब 1.2 पॉइन्‍ट नीचे चली गई है। प्रधानमंत्री मोदी ने 5 साल पहले अच्‍छे दिन का वादा किया था लेकिन क्‍या हक़ीक़त में अच्‍छे दिन आए?

हैप्‍पीनेस इंडेक्‍स के मुताबिक भारत की रैंक में गिरावट आई है, भारत जहां 2018 में 133वें पायदान पर था 2019 में वो 140वें नंबर पर पहुंच गया है जबकि इस दौरान न मंदी आई न ही कोई बड़ी राष्‍ट्रीय आपदा हुई। वहीं पाकिस्‍तान के अंदर दुविधा के बावजूद वो भारत से बहुत ऊपर 67वें पायदान पर है।

ज‍बकि लोग पहले से बेहतर स्थिति में है फि‍र भी उनकी खुशी में इज़ाफ़ा क्‍यों नहीं हो रहा?

साफ़ है कि खुशी और धन-दौलत के बीच का रिश्‍ता कमज़ोर है। 125 देशों की रिपोर्ट के आंकड़ों के मुताबिक इनमें से 43 देश ऐसे हैं जिसमें प्रति व्‍यक्ति जीडीपी और ख़ुशी दोनों अलग-अलग दिशाओं में जाते दिखते हैं। हांलाकि दुनिया में सबसे ज़्यादा खुश देशों में ऐसे देश भी हैं जहां लोगों की कमाई अच्‍छी खासी है। फि‍नलैंड में लोग सबसे ज़्यादा खुश रहते हैं उसके बाद नॉर्वे, स्‍वीडन, डेनमार्क और नीदरलैंड, स्‍वीडन, आइसलैंड, न्‍यूज़ीलैंड, ऑस्ट्रिया का नंबर आता है लेकिन और भी कारक हैं जो इंडेक्‍स को और दमदार बनाते हैं।

भारत में लोग 5 साल पहले की तुलना में कम खुश क्‍यों हैं? दिल्‍ली जैसे बड़े शहरों को देखें तो कई कारण हैं जिसके चलते लोग परेशान हैं, खुश नहीं हैं। यहां तक कि रिपोर्ट में स्‍वीकार किया गया है कि सभी देशों में निगेटिव इमोशन बढ़ा है जिसमें चिंता, गुस्‍सा और दुखी होना शामिल है। यहां तक कि पहले से ज़्यादा अमीर होने के बावजूद लोग खुश नहीं हैं, इसके पीछे तेज़ी से होता शहरीकरण, बढ़ती भीड़-भाड़, पर्यावरण में प्रदूषण और यहां-वहां जाने में होने वाली परेशानियां हैं। लोग कई मोर्चों पर चिंता करते हैं ख़ासकर जब वो अपने बच्‍चों को बड़े शहरों में लाते हैं। इसके अलावा महिलाओं को सुरक्षा को लेकर क़ानून-व्‍यवस्‍था भी एक बड़ा सवाल है। खाने और पानी को लेकर भी चिंताएं हैं, लोग अपने स्‍वास्‍थ्‍य को लेकर भी चिंतित रहते हैं क्‍योंकि बीमार होने पर इलाज के लिए खर्च की बात उनके दिमाग में रहती है। इस बात में कोई शक नहीं है कि उत्‍तरी यूरोप में देशों में सामाजिक सुरक्षा और कल्‍याणकारी योजनाओं के पीछे यूरोपीय यूनियन की बड़ी भूमिका है जिसकी वजह से उन देशों में लोगों के खुश रहने में इज़ाफ़ा हुआ है। अगर लोग सोशल सेफ़्टी नेट के अंदर आते हैं तो वो इलाज, पढ़ाई, बेरोज़गारी और बुज़ुर्गों को मिलने वाली पेंशन के बारे में ज़्यादा चिंता नहीं करते।

लोग तब खुश होते हैं जब उनकी नौकरी पर कोई ख़तरा नहीं होता है और कमाई का सिलसिला बिना रुके चलता रहता है। लोग खुश होते हैं जब दोषियेां को सज़ा मिलती है लेकिन भारत में हम आए दिन देखते हैं कि कुछ लोग बैंकों से करोंड़ो रुपये का क़र्ज़ लेकर लोग भाग जाते हैं, हर स्‍तर पर भ्रष्‍टाचार है। जब नीरव मोदी और विजय माल्‍या जैसे लोग पब्लिक सेक्‍टर बैंकों से बहुत बड़ी रकम लेकर विदेश भाग जाते हैं तो आम आदमी दुखी और गुस्‍सा होता है।

ग़ैरबराबरी के समाज में बड़ा होना, अमीरों और मशहूर लोगों की शानदार शादियां देखना, उनकी घर और विदेश में होने वाली खर्चीली पार्टियों को देखने से आम लोग दुखी होते हैं। वहीं स्‍कैंडिनेवियाई देश और हॉलैंड यहां के मुक़ाबले ज़्यादा समतावादी है, वहां बड़ी संख्‍या में आसपास रहने वाले लोगों के रहन-सहन में बहुत बड़ा अंतर नहीं है।

भारत में ग़रीबी काफ़ी कम हो गई है लेकिन ऐसे लोगों की अब भी बड़ी तादाद है जो या बहुत ग़रीब हैं या फि‍र हाल ही में ग़रीबी रेखा से ऊपर आए हैं। यही वजह है कि राहुल गांधी के हर ग़रीब परिवार को हर महीने 6000 रुपये देने के वादे को पसंद किया जा रहा है। वहीं दूसरी तरफ मोबाइल फोन के बढ़ते इस्‍तेमाल, इंटरनेट और सोशल मीडिया के चलते चाहतें आसमान पर हैं लेकिन इन अरमानों को पूरा करना बेहद मुश्किल है।

इस चुनाव में हैप्‍पीनेस इंडेक्‍स किस तरह वोट पैटर्न पर असर डालेगा? जीवन में संतुष्टि अनुभव करने में अगर एक पॉइन्‍ट का इज़ाफ़ा हुआ हो तो वोट करने की इच्‍छा में 2 फ़ीसदी की बढ़ोत्‍तरी होती है। रिपोर्ट के मुताबिक जो लोग खुश रहते हैं वो न सिर्फ़ सियासत में ज़्यादा रुचि रखते हैं बल्कि उनमें से ज़्यादातर मौजूदा सरकार में रही पार्टी को वोट करते हैं और अगर चुनावी साल में अर्थव्‍यवस्‍था शानदार रही हो तब सरकार में रही पार्टी को सबसे ज़्यादा वोट शेयर मिलता है।

भारत की अर्थव्‍यवस्‍था के बारे में कोई भी नहीं कह सकता कि ये स्थिर है लेकिन इसके बावजूद आम जनता कई पहलुओं को लेकर असंतुष्‍ट है। क़ानूनी व्‍यवस्था चरमरा गई है। जो किसानी कर रहे हैं वो सही दाम नहीं मिलने और कम कमाई को लेकर नाखुश हैं। बैंकिंग सिस्‍टम के तनाव में रहने की वजह से निवेश कम हो रहा है जिसका नतीजा है कि कॉर्पोरेट मुनाफ़े में गिरावट आई है।

झुग्‍गी में रहने वाले लाखों लोग किफ़ायती घर न मिलने से दुखी हैं। अनौपचारिक क्षेत्रों में काम करने वाले 90 फ़ीसदी लोग खुश नहीं है क्‍यों कि काम का माहौल निराशाजनक है और उनकी नौकरियां सुरक्षित नहीं हैं। औद्योगिक विकास होता दिख नहीं रहा ऐसे में बेरोज़गारी बढ़ती जा रही है। अमेरिका के प्‍यू रिसर्च सेंटर द्वारा किए गए हाल में हुए एक सर्वे (मई से जुलाई 2018 के बीच) के मुताबिक 76 फ़ीसदी भारतीय नौकरियों के मौक़ों की कमी के चलते खुश नहीं हैं और 73% महंगाई बढ़ने से नाखुश हैं। इंसानों की जगह मशीनों से काम लेने, आर्टिफ़ि‍शियल इंटेलीजेंस और ऑटोमेशन के चलते ग्रामीण औरतों, मर्दों और यहां तक कि शहरी अकुशल मज़दूरों को काम नहीं मिल रहा है। ये सभी चीज़ें आम आदमी की मुसीबतें बढ़ा रही हैं और उन्‍हें खुशी से दूर कर रही हैं।

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