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2030 तक भारत के दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाने का पूर्वानुमान लगाया गया है. ऐसे में स्थायी विकास न केवल भारत के लिए वैचारिक तौर पर दुनिया को नेतृत्व दिखाने का अवसर है, बल्कि ये उसके नागरिकों की सेहत और सुरक्षा के लिहाज़ से अनिवार्य भी है.
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2030 तक भारत के दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाने का पूर्वानुमान लगाया गया है. ऐसे में स्थायी विकास न केवल भारत के लिए वैचारिक तौर पर दुनिया को नेतृत्व दिखाने का अवसर है, बल्कि ये उसके नागरिकों की सेहत और सुरक्षा के लिहाज़ से अनिवार्य भी है. टिकाऊ विकास का एक रास्ता सर्कुलर इकॉनमी का है. भारत ने सर्कुलर अर्थव्यवस्था बनाने के लिए आवश्यक नीतियां और संस्थागत पहलें लागू की हैं. लेकिन, इस मामले में प्रगति अभी भी टुकड़ों में बंटी, अकुशल और धीमी रही है.
आम तौर पर सर्कुलर इकॉनमी (CE) को उत्पादन के ऐसे मॉडल के तौर पर परिभाषित किया जाता है, जो कचरे को घटाने को प्राथमिकता देता है या फिर उत्पाद के जीवन काल के हर चरण में इसके उन्मूलन पर ज़ोर देता है.
आम तौर पर सर्कुलर इकॉनमी (CE) को उत्पादन के ऐसे मॉडल के तौर पर परिभाषित किया जाता है, जो कचरे को घटाने को प्राथमिकता देता है या फिर उत्पाद के जीवन काल के हर चरण में इसके उन्मूलन पर ज़ोर देता है. फिर चाहे वो कच्चे माल को निकालना और निर्माण प्रक्रिया हो या फिर उत्पाद का निस्तारण और उसका फिर से इस्तेमाल हो. सामानों का कचरा भारत जैसे विशाल और आर्थिक रूप से ऊर्जावान देश के लिए एक बड़ी चुनौती है. क्योंकि संगठित और असंगठित बुनियादी ढांचे और व्यवहार अकुशल तरीक़े से एक दूसरे से जुड़े होते हैं. भारत में तेज़ी से हो रहा शहरीकरण, बड़े पैमाने पर कचरे का उत्पादन, रख-रखाव को टालने और वित्तीय दबाव की वजह से देश में कचरे के प्रबंधन के मूलभूत ढांचे पर भारी दबाव पड़ रहा है.
दिल्ली-एनसीआर में कचरे के बड़े बड़े पहाड़ नज़र आते हैं, जो आस-पास रहने वाले समुदायों के जीवन पर एक स्याह साया बने हुए हैं. कचरे के ये पहाड़ न केवल देखने में बुरे लगते हैं; बल्कि ये ढेर बीमारियों और संक्रमण का भी केंद्र हैं. एक तरह से देखें तो कचरे के ये पहाड़ पुरानी उत्पादन प्रक्रिया के पुराने पड़ चुके ऐसे स्मारक हैं, जो आगे नहीं चल सकते हैं. दिल्ली के गाज़ीपुर में कचरे के लैंडफिल पर किए गए रिसर्च में पता चला है कि इससे सालाना 15.3 गीगाग्राम (Gg) या 103 टन मीथेन गैस का उत्सर्जन होता है. जो भारत भर में फैले कचरे के तमाम ऐसे पहाड़ों से होने वाले कुल मीथेन उत्सर्जन के एक से तीन प्रतिशत के बराबर है. इसके अतिरिक्त, दिल्ली में कचरे के उत्पादन में ज़बरदस्त इज़ाफ़ा होता दिख रहा है. 1999-2000 में दिल्ली में जहां प्रतिदिन 400 टन कचरा निकलता था, वहीं 2019-20 में ये बढ़कर 10 हज़ार 470 टन प्रति दिन पहुंच गया है, जिसका लगभग आधा हिस्सा इन कचरे के पहाड़ों तक पहुंचता है.
दिल्ली के अलावा भी कचरे के प्रबंधन के मामले में भारत की प्रगति, राज्यों और नगर निकायों के स्तर पर बहुत असमान रही है. केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (CPCB) की 2020-21 की एक रिपोर्ट में अंदाज़ा लगाया गया था कि भारत में प्रति दिन एक करोड़ साठ लाख 38 टन कचरा पैदा होता है. इसमें से एक लाख 52 हज़ार 749 टन कचरे को जमा किया जाता है. फिर भी, इसमें से केवल आधा यानी 79,956 टन कचरे का ही निस्तारण या ट्रीटमेंट होता है. वहीं, 29 हज़ार 427 टन कचरा (18.4 प्रतिशत) प्रतिदिन कचरे के ढेरों में डाला जाता है, और कुल कचरे के 31.7 फ़ीसद यानी 50 हज़ार 655 टन का कोई हिसाब किताब नहीं मिलता कि वो कहां जाता है, उसका क्या होता है. भारत के ज़्यादातर शहरों में कचरे से उपयोगी सामान छांटकर निकालने और औद्योगिक स्तर पर कचरे को खाद बनाने की कोई सुविधा नहीं है. इस वजह से कचरे की बड़े स्तर पर केंद्रीकृत रिसाइकिलिंग कर पाना लगभग नामुमकिन हो जाता है. वैसे तो बैंगलुरू और पुणे ने कचरे के प्रबंधन के विकेंद्रीकृत कार्यक्रम प्रायोगिक तौर पर चलाए हैं. लेकिन, ज़्यादातर शहर अभी भी कचरा जमा करने और उसके निस्तारण के पुराने पड़ चुके तौर तरीक़े को ही अपनाए हुए हैं.
विनियमन की निगरानी और कारोबार के लिए दोस्ताना माहौल के बीच संतलुन बनाने से जोखिम लेने और आविष्कारी क़दम उठाने को प्रोत्साहन दिया जा सकता है, जिससे सर्कुलर इकॉनमी के सिद्धांतों को नारेबाज़ी से आगे बढ़ाकर धरातल पर उतारा जा सकेगा.
ये स्याह सच्चाइयां बताती हैं कि भारत को कचरे के प्रबंधन की व्यवस्थाओं में सुधार करके उन्हें आधुनिक बनाने की सख़्त दरकार है. इसमें सर्कुलर इकॉनमी का तरीक़ा भी शामिल है. सर्कुलर इकॉनमी की परिकल्पना जिसमें कचरे का उत्पादन कम से कम रखते हुए संसाधनों का अधिकतम कुशल इस्तेमाल किया जाता है, वो भारत की नीतिगत परिचर्चाओं में तो बहुत सुनी जाती है. लेकिन, इसको लागू करने का काम यहां वहां और टुकड़ों में ही देखने को मिल रहा है, जो मोटे तौर पर अप्रभावी है. सर्कुलर अर्थव्यवस्था के मॉडलों को अपनाना न केवल पर्यावरण के लिहाज़ से आवश्यक है, बल्कि सामरिक आर्थिक तौर पर भी. इसके लिए राजनीतिक समर्थन जुटाने के लिए सर्कुलर अर्थव्यवस्था के आर्थिक पहलू पर ज़ोर देने की ज़रूरत है. सरकार द्वारा ‘मेक इन इंडिया’ के तहत मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर को बढ़ावा देने की प्रतिबद्धता को देखते हुए, औद्योगिक उत्पादन में सर्कुलर इकॉनमी के सिद्धांतों को शामिल करने से संसाधनों का कुशल उपयोग बढ़ाने के साथ साथ, लागत घटाई जा सकती है और हरित क्षेत्र में रोज़गार सृजन किया जा सकता है.
भारत ने वैश्विक स्तर पर सर्कुलर इकॉनमी (CE) और स्थायित्व को बढ़ावा देने के प्रयास किए हैं. मार्च 2025 में जयपुर में ‘एशिया और प्रशांत के 12वें क्षेत्रीय 3R और सर्कुलर इकॉनमिक फोरम’ का आयोजन किया गया था, जो कचरे के प्रबंधन में क्षेत्रीय सहयोग के मामले में मील का एक पत्थर था. ऐसे मंच उपयोगी तो हैं. लेकिन, कचरे के प्रबंधन पर जितनी तेज़ी से काम किए जाने की आवश्यकता है, उसके लिए साहसिक प्रशासनिक क़दमों और प्रतिबंधों, मानकों और करों जैसे नियामक क़दम उठाने की ज़रूरत है. इसका एक उदाहरण, सिटी इनोवेट, इंटीग्रेट ऐंड सस्टेन (CITISS 2.0) इनिशिएटिव है, जो भारत के स्मार्ट शहरों के मिशन का एक तत्व है. इसके तहत शहरी विकास में सर्कुलर इकॉनमी के सिद्धांतों को शामिल किया जाता है. 2024 में केंद्र और राज्यों की सरकारों के बीच 1800 करोड़ रुपए के CITIIS के समझौते किए गए थे; इस कोशिश के अंतर्गत 14 राज्यों के 18 शहरों को ‘लाइटहाउस परियोजनाओं’ के तौर पर चुना गया था. इनमें से उल्लेखनीय रूप से कर्नाटक के बेलगावी को 135 करोड़ की सहायता के लिए चुना गया था, ताकि वो अपने यहां ठोस कचरे के प्रबंधन की व्यवस्था को सुधार सके.
वैसे तो इन लक्ष्य आधारित क़दमों में काफ़ी संभावनाएं हैं. लेकिन, व्यापक चुनौती ऐसे प्रयासों को बड़े स्तर पर पूरे देश में लागू करने की है, जिससे सर्कुलर इकॉनमी को भारत के शहरी योजना निर्माण और प्रशासनिक ढांचों का हिस्सा बनाया जा सके. इतने बड़े स्तर पर सर्कुलर इकॉनमी को लागू करना, सत्ताधारी दल के कम सरकारी नियंत्रण और उसके चर्चित नारे ‘मिनिमम गवर्नमेंट, मैक्सिमम गवर्नेंस’ के ख़िलाफ़ माना जाएगा. विनियमन की निगरानी और कारोबार के लिए दोस्ताना माहौल के बीच संतलुन बनाने से जोखिम लेने और आविष्कारी क़दम उठाने को प्रोत्साहन दिया जा सकता है, जिससे सर्कुलर इकॉनमी के सिद्धांतों को नारेबाज़ी से आगे बढ़ाकर धरातल पर उतारा जा सकेगा.
पूंजी निवेश की सीधी लागत और कुशलता के मामले में फ़ौरी तौर पर कुछ नुक़सान हो सकता है कि हतोत्साहित करने वाला हो. ऐसे में सर्कुलर अर्थव्यवस्था से पर्यावरण और समाज को होने वाले स्थायी लाभ को लेकर दूरगामी नज़रिया अपनाना अधिक उचित होगा.
सर्कुलर अर्थव्यवस्था की ओर बढ़ने के लिए जो नीतिगत उपाय उपलब्ध हैं, उनमें एक्सटेंडेड प्रोड्यूसर रिस्पॉन्सिबिलिटी (EPR) का प्रावधान है. ये ऐसी रूप-रेखा है, जो उत्पादको को किसी उत्पाद की बिक्री और खपत होने के बाद के प्रबंधन और उनके निस्तारण के लिए ज़िम्मेदार बनाया जाता है. उत्पादों के जीवन चक्र पूरा होने के बाद उनकी ज़िम्मेदारी ग्राहकों के बजाय उत्पादकों पर डालने वाली EPR व्यवस्था, किसी उत्पादन की परिकल्पना करने और डिज़ाइन तैयार करने के दौरान ही उसके अंतिम चरण के बारे में सोचने को बढ़ावा देती है, न कि बिक्री और खपत के बाद का ठीकरा ग्राहकों पर फोड़ने की मौजूदा व्यवस्था पर ज़ोर देती है. 2016 में अपनाए गए भारत के प्लास्टिक कचरे के प्रबंधन के नियम (जिन्हें 2018 में संशोधित किया गया), वो इस वक़्त भारत में EPR की क़ानूनी बुनियाद मुहैया कराते हैं. इनके तहत निर्माताओं और उत्पादकों की ये ज़िम्मेदारी होती है कि वो कचरे को टिकाऊ रूप से जमा करने, उनको अलग अलग करने, उनकी रिसाइकलिंग करने और निस्तारण की व्यवस्था बनाएं. भारत में EPR की अन्य रूप-रेखाएं इलेक्ट्रॉनिक्स, बैटरियों और टायर के कचरे के प्रबंधन को टारगेट करती हैं.
EPR की संभावनाओं के बावजूद, इसको सीमित तौर पर ही लागू किया जा सका है. इसकी राह में सबसे बड़ी चुनौती पूंजी और संसाधनों की कमी है. रिसाइकिलिंग और निस्तारण की कुशल व्यवस्थाओं कीस्थापना के लिए निजी निर्माताओं की तरफ़ से बड़े पैमाने पर निवेश की ज़रूरत होती है. वहीं, पूरे उद्योग की कुशलता बेहतर बनाने के लिए आपसी तालमेल या फिर साझा सहयोग की ज़रूरत होती है. विनियमन का अनुपाल, संगठनों के बीच सहयोग की कमज़ोर व्यवस्था और निगरानी व लागू करने की कम संसाधनों वाली सीमित व्यवस्था जैसी चुनौतियों से निपटने के लिए फौरी उपाय लागू की ज़रूरत है, ताकि EPR कहीं स्थायित्व की नीति का एक और ऐसा औज़ार बनकर न रह जाए, जिसका बेहद सीमित प्रभाव हो.
इसी तरह भारत के राइट टू रिपेयर ढांचे का ग्राहकों पर ज़ोर देना, अपील की सहज व्यवस्था और मज़बूत सैद्धांतिक आधार ये दिखाते हैं कि इसमें असरदार होने की काफ़ी संभावनाएं हैं; लेकिन, अब तक ऐसे विनियमनों और व्यापक सर्कुलर इकॉनमी को आपस में जोड़ने वाले सबूत बहुत कम देखने को मिलते हैं. ऐसी योजनाओं को संस्थागत बनाने से समय के साथ साथ उनके असर का आकलन करने के अतिरिक्त मौक़े उपलब्ध हो सकेंगे.
भारत को लीनियर से सर्कुलर अर्थव्यवस्था बनाने के लिए ज़रूरी बदलाव की राह में कई चुनौतियां खड़ी हैं. पहला तो ये है कि कचरे को जमा करने, उसमें से उपयोगी सामान छांटने और उनके फिर से प्रसंस्करण करने की पूरी आपूर्ति श्रंखला टूटी फूटी और अकुशल क्षमता वाली है. इसके लिए ज़रूरी तालमेल केवल वस्तुओं के उत्पादकों की तरफ़ से नहीं आने वाला है. क्योंकि, पारंपरिक उपायों में ऐसे क़दम उठाने के कारोबारी फ़ायदे अक्सर मौजूद नहीं होते. इस मसले का समाधान करने के लिए, सरकार को चाहिए कि वो निजी क्षेत्र के प्रयासों में पूरक सहयोग करे, ताकि निजी क्षेत्र संसाधनों के ठोस नेटवर्क विकसित कर सकें और कचरे के प्रसंस्करण की क्षमता (यानी रिसाइकिलिंग और नष्ट करने) का विस्तार कर सकें.
एक और मसला कचरे के प्रबंधन में असंगठिन क्षेत्र का है. रिसाइकिलिंग की संगठित व्यवस्था और कचरा जमा करने के असंगठित ढांचे के बीच एकीकरण के अभाव से अकुशलाओं, तालमेल के अभाव, संसाधनों की बर्बादी और इस काम से जुड़े जोखिम में इज़ाफ़ा होता है. असंगठित रूप से कचरा जमा करने वालों के साथ संवाद और उनके विनियमन की ज़रूरत को स्वीकार किए बग़ैर ऐसी नीतियां बनती रहेंगी, जो व्यवहारिकता से दूर अलग थलग रहेंगी.
सर्कुलर अर्थव्यवस्था के लाभ उठाने के लिए ऐसी चुनौतियों का समाधान निकालना बेहद आवश्यक हो जाता है. कचरे से उपयोगी सामान छांटने की आर्थिक क़ीमत और कचरे में कमी, सर्कुलर अर्थव्यवस्था के स्पष्ट तौर पर दिखने वाले लाभ हैं. ज़्यादा व्यापक स्तर की बात करें, तो औद्योगिक स्तर और व्यापक स्तर पर कचरे के प्रबंधन की कुशलताओं से संसाधन निकालने के ख़र्च और पर्यावरण पर पड़ने वाले दबाव को कम किया जा सकता है. ऐसे क़दम, न केवल कारोबारियों के लिए फ़ायदेमंद होते हैं. बल्कि, शहरी और राष्ट्रीय सरकारों के लिए भी, जो संयुक्त राष्ट्र के स्थायी विकास के लक्ष्यों (UNSDGs) के माध्यम से नीतिगत पहलों के मामले में अपना प्रदर्शन सुधारने का प्रयास कर रही होती हैं. हालांकि, इन लाभों को हासिल करने के लिए भागीदारों को दूरगामी उपाय करने चाहिए और डिसकाउंट की उचित दरों का इस्तेमाल करना चाहिए, ताकि विशुद्ध लाभ दिखाया जा सके. पूंजी निवेश की सीधी लागत और कुशलता के मामले में फ़ौरी तौर पर कुछ नुक़सान हो सकता है कि हतोत्साहित करने वाला हो. ऐसे में सर्कुलर अर्थव्यवस्था से पर्यावरण और समाज को होने वाले स्थायी लाभ को लेकर दूरगामी नज़रिया अपनाना अधिक उचित होगा.
हालांकि, नीतिगत क़दम तब तक अधूरे रहेंगे, जब तक इस सवाल का हल न निकाल लिया जाए कि इन फ़ायदों का वितरण कैसे होगा. ज़्यादातर मामलों में कमज़ोर और हाशिए पर पड़े समुदायों को ही सबसे पहले आर्थिक और संस्थागत बदलावों का कष्ट सहना पड़ता है. उत्पादन की व्यवस्थाओं को सर्कुलर बनाने के दौरान रोज़गार छिनेंगे और विस्थापन होगा. मिसाल के तौर पर अगर कचरे को जमा करने और इकट्ठा किए जाने का इंतज़ार कर रहे कचरे को अगर संगठित क्षेत्र के अंतर्गत लाया जाता है, तो उससे असंगठित क्षेत्र में काम के अवसर ख़त्म हो जाते हैं. ये सर्कुलर व्यवस्था बनाने की डिज़ाइन या नज़रिए की कमी नहीं है. बल्कि, इस बात का उदाहरण है कि सेवा उपलब्ध कराने के मामले में कमियों को दूर करने के लिए रोज़गार के बाज़ार किस तरह आगे आते हैं. ऐसी मिसालों का समाधान करने के लिए पुनर्प्रशिक्षण, फिर से रोज़गार देने और सामाजिक सहायता के कार्यक्रमों की ज़रूरत होगी.
अब चूंकि भारत की सर्कुलर अर्थव्यवस्था की गतिविधियों के 2030 तक 45 अरब अमेरिकी डॉलर पहुंचने का अनुमान लगाया गया है. ऐसे में उत्पादन के लीनियर मॉजल से सर्कुलर मॉडल की ओर जाने से आर्थिक विकास, रोज़गार सृजन और टिकाऊपन पर आधारित इनोवेशन को बढ़ावा मिल सकता है. हालांकि, इन संभावनाओं को पूरी तरह हक़ीक़त में तब्दील करने के लिए खोखली परिचर्चाओं और किस्तों में नीतिगत उपाय करने से काम नहीं चलने वाला है; इसके लिए उस सोच में बुनियादी और रचनात्मक तब्दीली लानी होगी कि सामान और किसी उत्पाद के हिस्सों को किस तरह इस्तेमाल किया जाता है, फिर से उपयोग किया जाता है और मूल्य के लिए उनका कैसे दोहन होता है. सर्कुलर अर्थव्यवस्था की ओर परिवर्तन के लिए कचरे के प्रबंधन के एकीकृत मूलभूत ढांचों और आपूर्ति श्रृंखलाओं की दशा दिशा में बदलाव की आवश्यकता होगी. विनियमन की कमियों और EPR को लेकर स्पष्टता की कमी और उत्पाद के डिज़ाइन संबंधी समस्याओं के समाधान के लिए गहरे सुधारों की आवश्यकता पड़ेगी. उन्नत, सहज और अनुकूलन के लिए तैयार नीतियों से ज़्यादा बड़े पैमाने पर सर्कुलर इकॉनमी को लागू किया जा सकेगा. भारत, उत्पादन की पुराने पड़ चुके और अस्थायी तौर तरीक़ों को छोड़कर विकसित हो रही अर्थव्यवस्था का उदाहरण बन सकता है, और इस तरह वो पुनर्जीवित हो सकने वाले संसाधनों के कुशल इस्तेमाल वाले भविष्य की बढ़ती मांग का हिस्सा बन सकता है.
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Shreyash Sharma is a columnist. He collaborates for research with New York University Abu Dhabi. Shreyash holds a degree in Economics & International Relations from ...
Read More +Kris Hartley is Assistant Professor of Sustainability and Enterprise at Arizona State University, School of Sustainability. He researches the role of public policy in technology-enabled ...
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