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भारत में काम करने लायक आबादी में हर साल करीब 97 लाख कामगारों की बढ़ोतरी हो रही है. देश के आर्थिक विकास, सामाजिक-आर्थिक संरचना, आय के वितरण और भारत के भविष्य के लिए इसके बहुत मायने हैं. हम ऐसा क्यों कह रहे हैं, इसे समझने से पहले ये जानना ज़रूरी है कि आखिर डेमोग्राफिक डिविडेंड कहते किसे हैं? आसान शब्दों में कहें तो जनसंख्या की संरचना में डेमोग्राफिक डिविडेंड आबादी के उस हिस्से को कहते हैं, जो काम और श्रम करने लायक है. आम तौर पर इसमें 15 से 64 साल की आयु वर्ग के लोगों को शामिल किया जाता है. लेकिन अब तक इस बात को नज़रअंदाज़ किया गया है कि अपनी इस कामगार आबादी को लेकर भारत का नज़रिया वैश्विक श्रम बाज़ार को कैसे प्रभावित करेगा. भारत की विशाल जनसंख्या को देखते हुए नीतिगत चर्चाओं में इस बात को शामिल किया जाना चाहिए कि वैश्विक उत्पादकता पर इसके क्या संभावित प्रभाव होंगे.
चित्र 1 : भारत की संभावित जनसांख्यिकीय संरचना
स्रोत : इंडियन इकोनॉमिक सर्वे
अगर इस मुद्दे पर बात करनी है तो सबसे पहले हमें श्रम को एक वैश्विक साझा संसाधन समझना होगा. एक ऐसा संसाधन, जिस पर किसी एक देश का अधिकार ना हो, जिसे सभी देशों के साथ साझा किया जा सके. हालांकि सैद्धांतिक रूप से देखें तो साझा सामान के बारे में ये माना जाता है कि उनके बीच प्रतिद्वंद्विता होगी, उन्हें बहिष्कार से बाहर रखा जाएगा. सभी उनका इस्तेमाल कर सकेंगे. हालांकि ये संसाधन सीमित होंगे और उनका व्यापक उपयोग होगा. अमूमन बड़े महासागर, वायुमंडल, अंतरिक्ष और कुछ दूसरे प्राकृतिक संसाधनों को वैश्विक साझा संसाधन माना जाता है. ऐसे में अगर श्रम यानी कामगार आबादी के कहीं भी आने-जाने पर लगने वाले प्रतिबंधों का कम किया जाए तो सभी देश इनका इस्तेमाल कर सकेंगे. हालांकि दो वजहों से ये साझा संसाधन से अलग है. पहला, ये वैश्विक संसाधन नहीं हैं. श्रम की गतिशीलता पर कानूनी अड़चनों की वजह से इसकी आपूर्ति सीमित है. दूसरा, इसकी कीमत बाज़ार तय करता है.
आसान शब्दों में कहें तो जनसंख्या की संरचना में डेमोग्राफिक डिविडेंड आबादी के उस हिस्से को कहते हैं, जो काम और श्रम करने लायक है.
वैश्विक स्तर पर श्रम की कमी को भारत की जनसंख्या से पूरा किया जा सकता है. श्रम की इस साझा संसाधन को दुनिया में सार्वजनिक भलाई के काम में लगाया जा सकता है. एक अर्थशास्त्री जिस आदर्श मुक्त बाज़ार की कल्पना करता है, उसमें अगर श्रमिकों को बेरोकटोक एक जगह से दूसरी जगह जाने की इजाज़त दी जाए तो श्रम की वैश्विक आपूर्ति में महत्वपूर्ण वृद्धि होगी. हालांकि इसे लेकर रूढ़िवादी सोच ये है कि ऐसा होने पर कम मज़दूरी मिलेगी. इसके बावजूद ये कहा जा सकता है कि इससे वैश्विक स्तर पर उत्पादकता और समृद्धि में बढ़ोतरी होगी. कौशल मिलान यानी स्किल मैचिंग के लिए अगर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक साझा ढांचा बनाया जाए तो श्रमिकों के आने से श्रम की कमी वाले देशों की उत्पादकता बढ़ेगी. इससे राष्ट्रीय आय और देश के विशुद्ध कल्याण में वृद्धि होगी. कल्याणकारी कामों में होने वाली महत्वपूर्ण बढ़ोत्तरी प्रवासन का एक सकारात्मक नतीजा है. ये श्रम की वैश्विक हित का माध्यम बनाता है.
जब हम ये सुनते हैं कि दुनिया के कुछ देशों बेरोज़गारी और कई देशों श्रम की कमी की समस्या से जूझ रहे हैं तो ये बात अपने आप में विरोधाभासी लगती है. ये सिर्फ आंकड़ों का खेल नहीं है. प्रतिभा और कौशल भी श्रम बाज़ार में अहम भूमिका निभाते हैं. 2023 में यूरोप में करीब 10 लाख और ऑस्ट्रेलिया में 400,000 नौकरियों के लिए लोग खोजे जा रहे थे, लेकिन फिर भी यहां बेरोज़गारी की दर 5.9 और 4.1 प्रतिशत थी. एक ही वक्त पर रिक्तियों और बेरोज़गारी की ये स्थिति श्रम बाज़ार में प्रतिभा में विषमता से पैदा होती है. हालांकि कुछ अन्य कारक भी इसमें अपनी भूमिका निभाते हैं, जैसे कि कामगार आयु वर्ग वाली आबादी का कम होना और परिपक्व माने जाने वाले बाज़ारों की निष्क्रियता. श्रम की कमी का सबसे ज़्यादा असर मैन्युफैक्चरिंग, लॉजिस्टिक और स्वास्थ्य सेवा जैसे क्षेत्रों पर पड़ता है.
यूरोपियन यूनियन (ईयू) इस वक्त अपनी आबादी के वृद्ध होने के संकट का सामना कर रहा है, जबकि अमेरिका में कार्यबल में कमी आ रही है, वही भारत में 2030 तक कामकाजी वर्ग की संख्या बढ़कर 1.04 अरब होने का अनुमान लगाया जा रहा है. भारत में अब आश्रित अनुपात (कामकाजी लोगों पर निर्भर लोगों की संख्या) कम हो रही है. 2030 तक इसके न्यूमतम बिंदु पर पहुंचने की संभावना है. 2030 के बाद भी अगले एक दशक तक भारत के कार्यबल में सालाना 42 लाख लोगों के बढ़ने का अनुमान लगाया गया है. हालांकि इस अवधि में भारतीय अर्थव्यवस्था में उल्लेखनीय वृद्धि की संभावना है, लेकिन इतनी बड़ी संख्या में कामकाजी आबादी को इस अर्थव्यवस्था में शामिल किए जाने से श्रम की उत्पादका में कमी आएगी. ऐसे में अगर इस कार्यबल को वैश्विक बाज़ार में भेजा जाए तो इससे भारत और विदेश दोनों जगह बेहतर उत्पादकता सुनिश्चित की जा सकती है.
1990 के बाद से भारत की आर्थिक वृद्धि में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका सर्विस सेक्टर की रही है. सेवा क्षेत्र में भारतीय कर्मचारियों की योग्यता की स्तर बहुत ऊंचा है. सूचना और संचार प्रौद्योगिकी (आईसीटी) और सॉफ्टवेयर सर्विस सेक्टर में भारत का निर्यात बढ़ा है. दुनियाभर में सेवा क्षेत्र के निर्यात में भारत की हिस्सेदारी 4.6 प्रतिशत की है. ये इस बात को दिखाता है कि कुशल श्रम के मामले में भारत को दूसरे देशों पर तुलनात्मक बढ़त हासिल है. ये हमें श्रम बाज़ार में जो कमियां हैं, उसके समाधान का एक मौका भी देता है. भारत की विशाल जनसंख्या उसे ये अवसर प्रदान करती है कि वो श्रम की आपूर्ति तो कर ही सकता है, साथ ही ग्लोबल नॉर्थ यानी विकसित देशों में कौशल की जो कमी है, उसे भी पूरा किया जा सकता है. दुनिया में STEM (साइंस, टेक्नोलॉजी, इंजीनियरिंग और मैथेमेटिक्स) के सबसे ज़्यादा ग्रेजुएट भारत में हैं. ऐसे में भारत मीडियम और हाई स्किल्ड कामगारों से उभरती अर्थव्यवस्थाओं में मांग और आपूर्ति के अंतर को कम सकता है.
सच तो ये है कि ऐसा करने से हमारी मानव पूंजी और उत्पादकता दोनों में वृद्धि होगी. अगर हम कौशल विकास के विभाजन को कम करने वाली नीतियां बनाएं, उसी हिसाब से शिक्षा और प्रशिक्षण दें तो योग्यता में सिलसिलेवार तरीके से बढ़ोतरी होगी.
भारत में भी हम कौशल विषमता की समस्या का सामना कर रहे हैं. ज़्यादातर कामगारों में वो योग्यता नहीं है, जिसकी बाज़ार में मांग है. ये समस्या सभी श्रेणियों में है, यानी ज़रूरत इस बात की है कि भारत अपने श्रम को व्यावसायिक प्रशिक्षण दे और अपनी शिक्षा प्रणाली में बदलाव कर उसे इस तरह का बनाए, जिसकी बाज़ार में मांग है. हालांकि कुछ लोग ये कहकर इसकी आलोचना करेंगे कि हम अपने युवाओं को व्यवसाय के हिसाब से ढाल रहे हैं लेकिन स्थिति इसके विपरीत है. सच तो ये है कि ऐसा करने से हमारी मानव पूंजी और उत्पादकता दोनों में वृद्धि होगी. अगर हम कौशल विकास के विभाजन को कम करने वाली नीतियां बनाएं, उसी हिसाब से शिक्षा और प्रशिक्षण दें तो योग्यता में सिलसिलेवार तरीके से बढ़ोतरी होगी. इससे कामगारों को व्यक्तिगत आज़ादी भी मिलेगी, जो अभी के खंडित बाज़ार में ग़ायब दिखती है.
निष्कर्ष
हालांकि हमारे पास जो आंकड़े हैं, उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि ये सब करना इतना आसान नहीं है. भारत एक वैश्विक कार्यबल बनाता है, दुनियाभर में श्रमिकों की आपूर्ति कर वैश्विक उत्पादकता बढ़ाता है. भारत अपने नागरिकों के रोज़गार को सुरक्षित करने की कोशिश करता है, उनकी निजी क्षमता बढ़ाता है. इसके बदले वो विदेशों में काम कर रहे लोगों द्वारा भेजे जा रहे पैसे से अपनी अंतरराष्ट्रीय आय बढ़ा रहा है. इससे घरेलू उत्पादकता भी बढ़ती है. इसके और भी सकारात्मक नतीजे निकल सकते हैं लेकिन इस बारे में नीतियां नहीं बनाई जा रही हैं. हर गुजरते वक्त के साथ अवसर सीमित होते जा रहे हैं. ऐसे में इस वक्त की सबसे बड़ी ज़रूरत ये है कि हम बाज़ार की मांग के मुताबिक एक वैश्विक कार्यबल तैयार करें. जैसा कि सार्वजनिक हित के हर काम में होता है, इस काम में भी संस्थागत दख़ल की आवश्यकता है. अगर सरकार की तरफ से श्रम को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर गतिशील बनाने की कोशिश नहीं की गई तो फिर यही समझा जाएगा कि बाकी सब बातें खोखली बयानबाजी हैं.
आर्य रॉय बर्धन ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन के सेंटर फॉर न्यू इकोनॉमिक डिप्लोमेसी में रिसर्च असिस्टेंट हैं
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