Published on Aug 29, 2022 Updated 0 Hours ago

चीन ने श्रीलंका की मजबूरी का इस्तेमाल भारत और बाक़ी दुनिया को कड़ा संदेश देने के लिए किया है. चीन के हाथ में अभी भी इतने पत्ते हैं कि वो श्रीलंका का हाथ मरोड़कर, भारत को उसके पड़ोस में चुनौती दे सकता है.

हंबनटोटा बंदरगाह पर चीन के बढ़ते दख़ल के बीच, क्या भारत श्रीलंका को आर्थिक मदद जारी रखे?

16 अगस्त को युआन वैंग-5 नाम के चीनी नौसेना के एक जहाज़ ने आख़िरकार श्रीलंका के हंबनटोटा बंदरगाह पर लंगर डाल ही दिया. ये जहाज़ चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी की स्ट्रैटेजिक सपोर्ट फोर्स चलाती है. ‘रिसर्च करने वाले इस जहाज़’ में इतनी क्षमता है कि वो सैटेलाइट की मदद से तकनीकी ख़ुफ़िया जानकारी जुटा सके या नज़र रख सके. युआन वैंग-5 के पास बैलिस्टिक मिसाइलों के रास्ते का पता लगाने की क़ुव्वत भी है. चीन के इस जासूसी जहाज़ के श्रीलंका के बंदरगाह पर डेरा डालने ने संकट के शिकार श्रीलंका को भारत द्वारा दी जा रही मदद पर कई सवाल खड़े कर दिए हैं. यही नहीं इस मामले से भारत की मदद को लेकर श्रीलंका की एहसान फ़रामोशी और इस इलाक़े में चीन की अहमियत भी साफ़ हो गई है. हालांकि चीन के इस प्रतीकात्मक और सामरिक संकेत का जवाब देने के लिए, भारत के पास इस क्षेत्र और दूसरे इलाक़े में गिने चुने विकल्प ही थे. 

चीन के इस जासूसी जहाज़ के श्रीलंका के बंदरगाह पर डेरा डालने ने संकट के शिकार श्रीलंका को भारत द्वारा दी जा रही मदद पर कई सवाल खड़े कर दिए हैं.

बहुत से विरोधाभासों वाली दास्तान

चीन के इस जासूसी जहाज़ के श्रीलंका के बंदरगाह पर लंगर डालने के विवाद की शुरुआत ख़ुद श्रीलंका में राजनीतिक और आर्थिक उठा-पटक के बीच हुई थी. श्रीलंका का विदेश मंत्रालय 12 जुलाई को उस वक़्त चीन के इस जहाज़ की मेज़बानी के लिए राज़ी हो गया था, जबकि श्रीलंका के राष्ट्रपति पहले ही देश छोड़कर भाग चुके थे. शुरुआत में तो श्रीलंका के रक्षा मंत्रालय ने सार्वजनिक रूप से इस बात का खंडन किया. हालांकि जुलाई महीने के आख़िर में इस बात की तस्दीक़ हो गई कि चीन का ये जहाज़ 11 से 17 अगस्त के बीच हंबनटोटा बंदरगाह पर रुकेगा, ताकि वो अपने लिए रसद और दूसरे साज़-ओ-सामान ले सके और इसमें कोई असामान्य बात नहीं है. हालांकि, इस जहाज़ की भारतीय रक्षा मोर्चे और दक्षिणी राज्यों में स्थित परमाणु ठिकानों की निगरानी कर सकने की क्षमता को देखते हुए, भारत ने अपनी चिंताएं ज़ाहिर कीं.

4 अगस्त को श्रीलंका के विदेश मंत्री कंबोडिया में भारत और चीन के विदेश मंत्रियों से अलग अलग मुलाक़ात की और दोनों नेताओं से अपने देश की और मदद करने का ज़बानी वादा भी लिया. इस बात की पूरी संभावना है कि चीन के विदेश मंत्री ने श्रीलंका के विदेश मंत्री से अपने देश के जहाज़ युआन वैंग-5 को हंबनटोटा बंदरगाह पर ठहरने की इजाज़त मांगी होगी और भारत के विदेश मंत्री ने ऐसा करने का विरोध किया होगा. कुछ ही दिनों बाद श्रीलंका की सरकार ने चीन से गुज़ारिश की कि जब तक और बातचीत हो, तब तक चीन अपने जहाज़ को हंबनटोटा बंदरगाह न भेजे.

इस बात की पूरी संभावना है कि चीन के विदेश मंत्री ने श्रीलंका के विदेश मंत्री से अपने देश के जहाज़ युआन वैंग-5 को हंबनटोटा बंदरगाह पर ठहरने की इजाज़त मांगी होगी और भारत के विदेश मंत्री ने ऐसा करने का विरोध किया होगा.

ये ख़बर आने के बाद चीन ने अप्रत्यक्ष रूप से भाहत से गुज़ारिश की कि वो श्रीलंका के साथ उसके सामान्य आदान-प्रदान और वाजिब समुद्री गतिविधियों में अड़ंगा न लगाए. कोलंबो में चीन के दूतावास ने श्रीलंका के अधिकारियों से तुरंत एक मुलाक़ात की मांग की और आरोप है कि चीन के राजदूत ने श्रीलंका के राष्ट्रपति से भी चुपके चुपके मुलाक़ात की थी. इन बैठकों के बाद चीन ने अपने जहाज़ को हंबनटोटा बंदरगाह पर ठहराने के लिए नई तारीख़ें हासिल कर लीं. श्रीलंका ने युआन वैंग-5 को 16 से 22 अगस्त के दौरा, हंबनटोटा में डेरा डालने की इजाज़त दे दी थी. श्रीलंका की सरकार ने अपने इस फ़ैसले का बचाव ये कहकर किया कि वो अंतरराष्ट्रीय जवाबदेही के तहत ऐसा क़दम उठा रहा है. श्रीलंका ने ये दावा भी किया कि चीन का जहाज़ श्रीलंका के समुद्री क्षेत्र में अनुसंधान की कोई गतिविधि नहीं चलाएगा.

चीन के सामरिक और प्रतीकात्मक संकेत

ऐसा लगता है कि हंबनटोटा बंदरगाह पर युआन वैंग-5 के लंगर डालने के पीछे चीन के दबाव का हाथ रहा है. इस उत्सुकता के पीछे तीन संभावित कारण गिनाए जा सकते हैं.

पहला तो चीन का ये तर्क है कि वो श्रीलंका में अपने जहाज़ के लिए ज़रूरी सामान और ईंधन हासिल करने के लिए रुका था. लेकिन, अगर ऐसा है तो चीन के जहाज़ के ठहरने के लिए श्रीलंका कोई ठोस ठिकाना नहीं था. क्योंकि, ख़ुद श्रीलंका में खाने और ईंधन की किल्लत लगातार बनी हुई है और महंगाई आसमान छू रही है. दूसरे शब्दों में कहें तो जहाज़ के लिए ज़रूरी सामान लेने के लिहाज़ से श्रीलंका पहुंचना प्रमुख मक़सद नहीं था क्योंकि जब चीन का जहाज़ सस्ते दाम पर वही सामान कहीं और से हासिल कर सकता था, तो फिर वो श्रीलंका में ज़्यादा पैसे ख़र्च करके सामान की आपूर्ति के लिए क्यों रुका.

अपने अंतरिक्ष संबंधी अभियानों के लिए समुद्र में अनुसंधान और सर्वेक्षण करने में चीन की बढ़ती दिलचस्पी है. चीन के सर्वेक्षण जहाज़ का हंबनटोटा में लंगर डालना चीन के रिसर्च के लक्ष्यों को हासिल करना भी एक वजह हो सकती है. लेकिन, इसमें भी एक विरोधाभास है.

दूसरा, अपने अंतरिक्ष संबंधी अभियानों के लिए समुद्र में अनुसंधान और सर्वेक्षण करने में चीन की बढ़ती दिलचस्पी है. चीन के सर्वेक्षण जहाज़ का हंबनटोटा में लंगर डालना चीन के रिसर्च के लक्ष्यों को हासिल करना भी एक वजह हो सकती है. लेकिन, इसमें भी एक विरोधाभास है. जहां तक श्रीलंका की बात है तो उसने रिसर्च करने पर कई पाबंदियां लगा रखी हैं. लेकिन चीन का तर्क यही है कि युआन वैंग-5 का हंबनटोटा पर डेरा डालना उसके समुद्री अनुसंधान अभियान का ही एक हिस्सा है. इस मामले में हम ये ज़रूर कह सकते हैं कि हो सकता है श्रीलंका ने रिसर्च पर ये पाबंदियां भारत को ख़ुश करने और उसकी सुरक्षा संबंधी चिंताएं दूर करने के लिए लगाई हों. जहां तक पहले दो तर्कों की बात है, तो वो कुछ हद तक वाजिब लगते हैं. फिर भी हंबनटोटा पर जहाज़ के लंगर डालने को लेकर चीन के अतिउत्साह की कोई ठोस वजह नज़र नहीं आती. हालांकि, ये तर्क ज़रूर दिया जा सकता है कि ये दबे ढके लफ़्ज़ों में चीन का एक सामरिक और प्रतीकात्मक संदेश है.

श्रीलंका के संकट को लेकर पारंपरिक रूप से चीन का रवैया बेहद रुख़ा रहा है (देखें ग्राफ 1). चीन ने श्रीलंका की 4 अरब डॉलर की आर्थिक मदद करने और पुराने क़र्ज़ों की वापसी टालने की अपीलों की अनदेखी ही की है. चीन के इस रवैये के पीछे तर्क ये दिया जा रहा है कि हो सकता है कि वो इस मदद को टालकर श्रीलंका पर अपने हित और साधने का दबाव बना रहा है. श्रीलंका से मुक्त व्यापार समझौता करने वार्ताओं को रफ़्तार देने की चीन की कोशिशें इसकी एक मिसाल हैं. इस मामले में चीन के ‘जासूसी जहाज़’ के लंगर डालने को अलग नज़र से नहीं देखा जा सकता है.

चीन ने कोलंबो की मजबूरी का इस्तेमाल करते हुए भारत और बाक़ी दुनिया को एक कड़ा संदेश देने की कोशिश की है. वो संदेश ये है कि भले ही वो श्रीलंका की मदद करे या नहीं लेकिन उसके पास अभी भी इतने पत्ते हैं कि वो भारत को उसके पड़ोस में ही चुनौती दे सकता है. ये एक ऐसा तर्क है, जिसे देने के लिए शायद चीन का इरादा अधिक मज़बूत है, वो भी उस वक़्त जब ताइवान को लेकर उसका तनाव बढ़ता ही जा रहा है. भविष्य में भी चीन, श्रीलंका को मदद की गारंटी दिए बग़ैर अपने हितों के हिसाब से क़दम उठाने पर मजबूर करता रहेगा. चीन को पता है कि श्रीलंका के मौजूदा राष्ट्रपति रनिल विक्रमसिंघे को अपना सियासी अस्तित्व बचाने के लिए राजपक्षे के वफ़ादारों के समर्थन की दरकार होगी और वो अपने देश की आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए भी चीन के हितों के प्रति संवेदनशील बने रहेंगे. इसके अलावा चूंकि श्रीलंका के पीपुल्स फ्रंट के सांसद, चीन के जहाज़ के लंगर डालने के लिए पुरज़ोर अभियान चला रहे थे और उन्होंने चीन के जहाज़ के हंबनटोटा आने का स्वागत भी किया था. इसे ऐसा लगता है कि चीन एक बार फिर से श्रीलंका के सत्ताधारी वर्ग के बीच अपने प्रभाव को ज़िंदा कर रहा है.

ये भारत के लिए कूटनीतिक नाकामी नहीं है?

चीन के रवैये के ठीक उलट, भारत की प्रतिक्रिया श्रीलंका की मानवीय ज़रूरतों और अपने हितों पर आधारित रही है. भारत अब तक श्रीलंका को 3.8 अरब डॉलर की मदद दे चुका है और बदले में श्रीलंका की सरकार से ये अपेक्षा कर रहा है कि वो उसके हितों और संवेदनाओं का ख़याल रखेगी. भारत ने करेंसी स्वैप, सीधी वित्तीय मदद, रियायती क़र्ज़, मानवीय आधार पर ज़रूरी सामान की आपूर्ति और मूलभूत ढांचे के विकास में सहयोग की शक्ल में श्रीलंका को मदद की है (ग्राफ 1 देखें).

इसके बदले में श्रीलंका ने भी भारत के हितों को ध्यान में रखकर चीन जाफना प्रायद्वीप में चीन की परियोजनाएं रद्द कर दी हैं और ऊर्जा क्षेत्र, बंदरगाह पर भारतीय जहाज़ों की बेरोक-टोक आवाजाही, डोर्नियर विमानों और एक समुद्री बचाव समन्वय केंद्र (MRCC) की स्थापना को मंज़ूरी दी है. इस समुद्री बचाव समन्वय केंद्र की एक उप- इकाई चीन द्वारा संचालित हंबनटोटा  बंदरगाह में भी स्थापित की जाएगी.

चीन के युआन वैंग-5 जहाज़ के आने के बाद भारत और श्रीलंका के बीच पैदा हुई इस आपसी समझ में ख़लल पड़ने का अंदेशा है. चीन के जासूसी जहाज़ की इस आमद से भारत की वो आशंका सही साबित हुई है कि चीन हंबनटोटा बंदरगाह का दुरुपयोग कर सकता है. हिंद महासागर को लेकर चीन के इरादे ठीक नहीं हैं और श्रीलंका का झुकाव भी चीन की तरफ़ होता दिख रहा है. लेकिन, जैसा कुछ विशेषज्ञों ने सुझाव दिया है कि हमें इस घटना को भारत की कूटनीतिक नाकामी के तौर पर नहीं देखना चाहिए. इसके निम्नलिखित कारण हैं.

पहला, चीन के उलट भारत के पास श्रीलंका की मदद के सिवा कोई और विकल्प नहीं है. भारत की अपनी सामरिक और भौगोलिक मजबूरियां हैं, जिनके चलते वो श्रीलंका को अराजकता की ओर बढ़ते हुए देखकर आंखें बंद नहीं रख सकता है. भौगोलिक रूप से दूर होने के कारण चीन को ये बढ़त हासिल है. मोटे तौर पर श्रीलंका को लेकर भारत का रवैया उसकी जनता की मदद वाला रहा है. भारत ने श्रीलंका में लोकतंत्र, स्थिरता और आर्थिक बहाली को बढ़ावा देने की वकालत की है और राजनीतिक, आर्थिक बदलावों के बाद भी वो श्रीलंका की मदद बदस्तूर जारी रखे हुए है.

दूसरा, भारत ने जो पहले मदद की है, उसे उसका पहले ही श्रीलंका में काफ़ी लाभ मिलता दिख रहा है. इसकी एक मिसाल डोर्नियर विमान देने का समझौता रहा है. इस समझौते की शर्तों के तहत भारत, श्रीलंका को दो विमान तोहफ़े के तौर पर देगा, तो दो का वहीं पर निर्माण करेगा और इसी दौरान वो अपना एक विमान श्रीलंका को अपने कर्मचारियों को प्रशिक्षित करने के लिए भी देगा. ये समझौता 15 अगस्त को हुआ था- यानी चीन के जहाज़ के लंगर डालने के ठीक एक दिन पहले. भारत के नौसेना प्रमुख ने डोर्नियर विमान देने के लिए श्रीलंका का दौरा किया था और अब श्रीलंकाई कर्मचारियों के प्रशिक्षण की निगरानी एक भारतीय टीम करेगी. इससे पता चलता है कि भारत और श्रीलंका के संवाद से पहले ही चीन की महत्वाकांक्षाओं के मुक़ाबले में भारत के लिए अपने हित आगे बढ़ाने की ज़मीन तैयार हो गई है.

भारत के नौसेना प्रमुख ने डोर्नियर विमान देने के लिए श्रीलंका का दौरा किया था और अब श्रीलंकाई कर्मचारियों के प्रशिक्षण की निगरानी एक भारतीय टीम करेगी. इससे पता चलता है कि भारत और श्रीलंका के संवाद से पहले ही चीन की महत्वाकांक्षाओं के मुक़ाबले में भारत के लिए अपने हित आगे बढ़ाने की ज़मीन तैयार हो गई है.

तीसरा, भारत के लिए दीबार पर लिखी इबारत पहले ही साफ़ दिख रही थी. भारत जो मदद दे रहा है उसका मक़सद, श्रीलंका से चीन को उखाड़ फेंकना नहीं था. असल में तो वो ये मदद, अपना खोया हुआ प्रभाव दोबारा हासिल करने के लिए दे रहा है. ये कोई राज़ की बात नहीं है कि भारत की मदद की तुलना में चीन ने श्रीलंका में कहीं ज़्यादा निवेश कर रखा है और क़र्ज़ भी दे रखा है. सच तो ये है कि भारत को भी ये मालूम है कि श्रीलंका को आर्थिक संकट से उबारने के लिए अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) से जो मदद हासिल करने की ज़रूरत है और क़र्ज़ों की अदायगी को लेकर उसे जो रियायतें चाहिए, उसके लिए श्रीलंका को चीन से बात करनी ही होगी.


आख़िर में भारत को चाहिए कि वो अपना कूटनीतिक संवाद और आर्थिक मदद देने का सिलसिला जारी रखे. इस संकट को लेकर भारत की प्रतिक्रिया न केवल सामरिक और फौरी स्थिति वाली होनी चाहिए, बल्कि प्रतीकात्मक भी होनी चाहिए क्योंकि भारत के हिंद प्रशांत क्षेत्र के साझीदार ये उम्मीद रखते हैं कि वो इस क्षेत्र में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करे. श्रीलंका को मदद देने से इनकार या देरी करने जैसा कोई भी दुस्साहसी दांव भारत के लिए उल्टा भी पड़ सकता है और इससे चीन का प्रभाव और बढ़ सकता है. इससे भारत ने पिछले दो सालों के दौरान श्रीलंका की मदद करके जो बढ़त हासिल की है, वो भी हाथ से निकल जाएगी. अभी के हालात बदलने के लिए अगर भारत कोई संदेश देना ही चाहता है, तो वो ये हो सकता है कि अगर हिंद महासागर, भारत का अपना महासागर नहीं रह सकता, तो चीन सागर पर भी अकेले चीन का दबदबा नहीं रह पाएगा.

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