Published on Nov 24, 2021 Updated 0 Hours ago

Cop26 को लेकर भारत द्वारा ली गई प्रतिज्ञाएं सराहनीय हैं लेकिन असल सवाल यही है कि क्या लंबे समय में इसे पूरा किया जा सकेगा?

Cop26 को लेकर भारत की प्रतिज्ञा महत्वाकांक्षी लेकिन अस्पष्ट

सितंबर 2021 में क्वाड देशों (क्वाडिलैट्रल सिक्युरिटी डायलॉग) ने एक साझा बयान जारी किया और कहा कि 26 वें कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज या Cop26 से पहले पेरिस समझौते के तहत सभी सदस्य देश महत्वाकांक्षी राष्ट्रीय निर्धारित योगदान (एनडीसी) के लिए संवाद करने का इरादा रखते हैं. लेकिन भारत सरकार के संबंधित मंत्री के बयान, जिसके बाद यह ख़बर आई, उसमें पर्यावरण बदलाव को लेकर पश्चिमी देशों की ऐतिहासिक ज़िम्मेदारी को दोहराया गया और अमीर देशों से अपर्याप्त वित्तीय सहयोग के मुद्दे को उठाया तो ज़्यादा पर्यवेक्षक यह भरोसा करने लगे कि भारत पर्यावरण बदलाव को लेकर अपनी पारंपरिक स्थिति से नहीं बदलेगा. कॉप 26 में भारतीय प्रधानमंत्री के संबोधन से एक दिन पहले यह ख़बर थी कि भारत भारतीय अर्थव्यवस्था के कार्बन उत्सर्जन के स्तर को कम करने को लेकर कोई नई प्रतिज्ञा लेगा जिससे भारत न्यूक्लियर सप्लायर ग्रुप (एनएसजी) का सदस्य बन सके. पर्यावरण को लेकर कार्रवाई के साथ न्यूक्लियर सप्लायर ग्रुप की सदस्यता के बीच संबंध को लेकर यह तर्क दिया गया कि एक कम कार्बन वैकल्पिक ऊर्जा का स्रोत जिसमें कोयला को बेसलोड ऊर्जा के तौर पर बदलने की क्षमता हो जो भारत के लिए एक्सक्लूसिव न्यूक्लियर सप्लायर ग्रुप की सदस्यता के लिए ज़रूरी है जिससे भारत की न्यूक्लियर फ्यूल, पूंजी और तकनीक पर आसान पहुंच हो सके लेकिन अंग्रेजी भाषा वाले चीनी मीडिया की ख़बरों में भारत की न्यूक्लियर सप्लायर ग्रुप की सदस्यता को लेकर कोई उम्मीद जाहिर नहीं की जा रही थी. आखिर में भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कॉप 26 में अपने संबोधन के दौरान कार्बन उत्सर्जन में कटौती के भारत के महत्वाकांक्षी और बिना किसी शर्त की प्रतिज्ञाओं को लेकर भारत के अंदर और बाहर मौजूद पर्यवेक्षकों को चौंका दिया-

भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कॉप 26 में अपने संबोधन के दौरान कार्बन उत्सर्जन में कटौती के भारत के महत्वाकांक्षी और बिना किसी शर्त की प्रतिज्ञाओं को लेकर भारत के अंदर और बाहर मौजूद पर्यवेक्षकों को चौंका दिया

1.     2030 तक गैर फॉसिल फ्यूल ऊर्जा क्षमता को 500 गीगावाट्स तक बढ़ाना.
2.     2030 तक 50 फ़ीसदी ऊर्जा ज़रूरतों को रिन्यूएबल एनर्जी से प्राप्त करना.
3.    2030 तक कुल प्रस्तावित कार्बन उत्सर्जन को कम कर 1 बिलियन टन (बीटी) करना.
4.    अर्थव्यवस्था की कार्बन पर निर्भरता को 45 फ़ीसदी तक कम करना.
5.     2070 तक शुद्ध शून्य कार्बन उत्सर्जन के लक्ष्य को प्राप्त करना.

कई पर्यावरणविदों ने इन पांच प्रतिज्ञाओं (पंचामृत) की सराहना की और कहा कि ऐसे उपाय भारत को गैरकार्बन उत्सर्जन के रास्ते पर आगे बढा़एंगे. वाणिज्यिक संस्थाओं के लिए जो ग्रीन इनवेस्टमेंट पर दांव लगाए हैं उन्हें बेहतर भुगतान के लिए इस संबोधन के जरिए यह भरोसा दिलाया गया कि सरकार की नीतियां उनके निवेश की सुरक्षा करेंगी. इन उम्मीदों की वैधता केवल लंबी अवधि में ही सामने आ सकेगी लेकिन  तात्कालिक चिंता इससे संबंधित अस्पष्ट प्रतिज्ञाओं की व्याख्या को लेकर . इसे लेकर  धारणा यह है कि ये उम्मीदों से भरे , गैर-बाध्यकारी प्रतिज्ञाएं हैं और संशोधित एनडीसी पर आधिकारिक बयान कुछ सवालों को स्पष्ट कर सकेगा जो कॉप 26 में भारत की प्रतिज्ञाओं से उठ रही हैं .

अस्पष्टता

1.     2030 तक गैर-फॉसिल फ्यूल ऊर्जा (बिजली) क्षमता को 500 गीगाबाइट तक बढ़ाना: प्रधानमंत्री मोदी के संबोधन में ऊर्जा शब्द के ट्रांसलेशन का इस्तेमाल किया गया  लेकिन बहुत कम संभावना है कि इसका इस्तेमाल बिजली के लिए किया गया हो. संभावना है कि यह प्रतिज्ञा 2030 तक ऊर्जा उत्पादन को 450 जीडब्ल्यू तक रिन्युएबल एनर्जी क्षमता के विकास से जुड़ा है. अगर ऐसा है तो भारत को अगले 9 सालों में मौजूदा गैर-फॉसिल फ्यूल की क्षमता को 154 जीडब्ल्यू से बढ़ाकर इसे तीन गुना 500 जीडब्ल्यू  करना होगा.

  1.   2030 तक रिन्युएबल एनर्जी (आरई) स्रोत से 50 फ़ीसदी ऊर्जा ज़रूरतों (इलेक्ट्रिकल?) को पूरा करना: इस प्रतिज्ञा की व्याख्या करना मुश्किल है लेकिन अगर यह बजाए प्राथमिक ऊर्जा से इतर इलेक्ट्रिसिटी से संबंधित है तो इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए भारत को रिन्युएबल एनर्जी के उपभोग (मौजूदा समय में ऊर्जा उत्पादन का लगभग 10 फ़ीसदी है) को अगले 9 सालों में पांच गुना ज़्यादा बढ़ाना होगा और अगर यह प्राथमिक ऊर्जा से संबंधित है तो इस लक्ष्य की प्राप्ति लगभग नामुमकिन है क्योंकि मौजूदा समय में रिन्युएबल एनर्जी के उपभोग की हिस्सेदारी महज 2 फ़ीसदी है.
  2.   2030 तक कुल प्रस्तावित कार्बन उत्सर्जन (2030 के लिए मौजूदा स्थिति में) के स्तर को 1 बीटी कम करना: यह एक क्रांतिकारी प्रतिज्ञा है क्योंकि यह 2030 तक कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) उत्सर्जन में पूर्ण कमी का वादा करती है. मौजूदा नीतियों के तहत भारत में कार्बन उत्सर्जन की मात्रा 2030 तक 2.9 बीटी से 3 बीटी बढ़ने की उम्मीद है. भारत अगर इसे 1 बीटी कम करने का लक्ष्य रखता है तो भारत 2007 में कार्बन उत्सर्जन पर प्रभावी तौर से लौटेगा. इसका मतलब यह हुआ कि ऊर्जा उपभोग में पूर्ण रूप से कमी लानी होगी या फिर रिन्युएबल ऊर्जा स्रोतों में ज़बर्दस्त बढ़ोतरी करनी होगी और इससे अर्थव्यवस्था पर क्या असर पड़ेगा इसकी सिर्फ कल्पना की जा सकती है.
  3.   अर्थव्यवस्था पर कार्बन की निर्भरता को (कम से कम?) 45 फ़ीसदी से कम करना (2005 में कार्बन निभर्रता के मुकाबले?): यह उपरोक्त पांचों ली गई प्रतिज्ञाओं में से सबसे कम अस्पष्ट है. भारत की मौजूदा एनडीसी प्रतिबद्धता, भारत में कार्बन डाइऑक्साइड के स्तर को 33-35 प्रतिशत कम करना है, 2030 तक इसे कम करके 2005 के स्तर पर लाना है. सरकारी बयानों के मुताबिक, भारत की कार्बन डाइऑक्साइड पर निर्भरता 2005 के स्तर से 2020 में 28 फ़ीसदी कम हुई है. अगर पिछले तीन दशक में भारत में कार्बन उत्सर्जन में कमी लाने वाले कारक जैसे कम ऊर्जा निर्भरता वाले सेवा सेक्टर की तरफ बढ़ना, घरों में बायोमास की जगह कूकिंग फ्यूल और नैचुरल गैस आधारित फ्यूल का इस्तेमाल, औद्योगिक ऊर्जा दक्षता जारी रहती है तो भारत यह लक्ष्य भी हासिल कर सकता है. हालांकि अगर भारत की मौजूदा औद्योगिक नीति जो घरेलू मैन्युफैक्चरिंग को बढ़ावा देने की है, उसे देखते हुए भी यह लक्ष्य हासिल करना आसान नहीं होगा. क्योंकि मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर ऊर्जा पर निर्भर करता है और परिणामस्वरूप कार्बन उत्सर्जन को बढ़ावा देने वाला होगा.
  4. 2070 तक शुद्ध शून्य कार्बन उत्सर्न के लक्ष्य को प्राप्त करना: यह अकेली ऐसी प्रतिज्ञा है जो कॉप 26 में भारत द्वारा संभव है, क्योंकि सबसे ज़्यादा कार्बन उत्सर्जन करने वाले देश, ख़ास कर चीन सबसे ज़्यादा और दूसरे नंबर पर अमेरिका, ने कार्बन उत्सर्जन को कम कर शून्य पर लाने का वादा किया है (चीन 2060 तक और अमेरिका 2050 तक).

भारत को रिन्युएबल एनर्जी के उपभोग (मौजूदा समय में ऊर्जा उत्पादन का लगभग 10 फ़ीसदी है) को अगले 9 सालों में पांच गुना ज़्यादा बढ़ाना होगा और अगर यह प्राथमिक ऊर्जा से संबंधित है तो इस लक्ष्य की प्राप्ति लगभग नामुमकिन है 

शून्य कार्बन उत्सर्जन के स्तर के विचार को अंतर-सरकार पैनल के पर्यावरण बदलाव (आईपीसीसी) पर आई साल 2018 में स्पेशल रिपोर्ट के बाद बढ़ावा मिला जिसमें मांग की गई कि धरती के तापमान को 1.5 डिग्री सेंटीग्रेड तक बनाए रखने के लिए औद्योगिकीकरण के पूर्व स्तर के दौरान कार्बन उत्सर्जन के स्तर को 2050 तक लाना चाहिए. हालांकि शून्य कार्बन उत्सर्जन नीति निर्माताओं के लिए एक तरह की वैश्विक भाषा बन गई है जो कॉप 26 सम्मेलन के दौरान किसी एक समझौते पर स्थिर होना चाहते थे. शून्य कार्बन उत्सर्जन को एक तरह से उस भरोसे को बढ़ावा देने के तौर पर भी देखा जाता है जो पर्यावरण आपदाओं को नज़रअंदाज़ करने का जोख़िम उठाते हैं. जैसा कि शून्य कार्बन उत्सर्जन की अवधारणा में स्वनिर्मित अस्पष्टता है ऐसे में किसी भी देश या कंपनी के लिए इसे लेकर वादा करना सबसे ज़्यादा सुरक्षित है.

मुद्दे

भू-राजनीतिक संदर्भों को देखते हुए भारत का कॉप 26 सम्मेलन के दौरान शून्य कार्बन उत्सर्जन के लिए प्रतिबद्धता जाहिर करना किसी भी तरह से नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता था लेकिन बगैर किसी लेन-देन के इससे ज़्यादा गंभीर प्रतिज्ञाएं कर लेना समझ से परे है. इसका तात्कालिक जवाब शायद यही हो सकता है कि पर्यावरण बदलाव के असर से ख़ुद की सुरक्षा करने के लिए कार्बन उत्सर्जन के  स्तर में जल्द से जल्द कमी लाना भारत के हित में है लेकिन पर्यावरण बदलाव एक वैश्विक समस्या है और जबतक कि ज़्यादा प्रदूषण फैलाने वाले मुल्क कार्बन उत्सर्जन को सीमित करने की प्रतिज्ञा नहीं दोहराते हैं दुनिया भर में पर्यावरण पर नकारात्मक असर बढ़ेगा. आदर्श स्थिति तो यह होती कि भारत इस शर्त के साथ कार्बन उत्सर्जन के स्तर में कमी लाने की प्रतिज्ञा लेता कि दूसरे प्रदूषण फैलाने वाले मुल्क शून्य कार्बन उत्सर्जन के स्तर को 2050 से पहले प्राप्त करें और भारत को इस दिशा में ज़रूरी धन मुहैया कराएं.

लेकिन इसके अलावा भी कई ऐसे विरोधाभास हैं जो इसे लेकर अस्पष्टता को बढ़ावा देते हैं. कॉप 26 में भारत उस नॉन-बाइन्डिंग समझौते का हिस्सेदार नहीं था जिसके तहत अमीर देशों को 2030 तक और ग़रीब मुल्कों को 2040 तक कोयला आधारित ऊर्जा के इस्तेमाल पर रोक लगानी थी, कोयला का इस्तेमाल करने वाले दूसरे मुल्क जिसमें चीन, अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया भी शामिल हैं उन्होंने भी इस समझौते पर हस्ताक्षर नहीं किया. ब्रिटेन जो कॉप 26 सम्मेलन का आयोजक था वह कोयला को अपने इतिहास के आधार पर इतिहास बनाना चाहता है. लेकिन ब्रिटेन में 1980 से ही कोयले के बदले गैस का इस्तेमाल होता रहा है, आंशिक रूप से इसकी वजह कोयला यूनियन और विदेश में मिलने वाली सस्ती नैचुरल गैस की उपलब्धता है  लेकिन भारत के लिए कोयले के बदले नैचुरल गैस के इस्तेमाल पर जाने का मतलब अर्थव्यवस्था को प्रतिकूल असर झेलने को तैयार रहने जैसा है, क्योंकि आयातित नैचुरल गैस सबसे ज़्यादा महंगी फ्यूल है (ऊर्जा उत्पादन के लिए). आयातित गैस का मतलब यह भी होगा कि भारत की ऊर्जा सुरक्षा को लेकर भू-राजनीतिक और बाह्य कारोबार संबंधी जोख़िम भी उठाने के लिए तैयार रहना होगा.

सबसे ज़्यादा कार्बन उत्सर्जन करने वाले देश, ख़ास कर चीन सबसे ज़्यादा और दूसरे नंबर पर अमेरिका, ने कार्बन उत्सर्जन को कम कर शून्य पर लाने का वादा किया है 

सामान्य तौर पर जारी कारोबार और कम कार्बन उत्सर्जन के बीच कोयले के इस्तेमाल को भारत में मुख्य तौर पर सामंजस्य बिठा सकने वाले कारक के तौर पर माना जाता है लेकिन लाखों लोग ऐसे हैं जो तेजी से होती औद्योगिकीकरण के चलते बेहतर ज़िंदगी की आस लगाए बैठे हैं जो उन्हें बढ़िया वेतन और सुरक्षित नौकरी प्रदान करती है, जो इन दोनों रास्ते के बीच सामंजस्य स्थापित करने वाला है. अगर वृहत स्तर पर भारत में औद्योगिकीकरण होता है तो इससे लाखों लोगों की ज़िंदगी बेहतर हो सकती है लेकिन यह भारत के ऊर्जा खाते में कार्बन उत्सर्जन की मात्रा को बढ़ाने वाला भी साबित होगा और ऐसे में शुद्ध ऊर्जा तकनीक के लिए कोई रास्ता नहीं बचेगा. दो राय नहीं कि भारत के कॉप 26 के दौरान ली गई प्रतिज्ञाएं महत्वाकांक्षी लेकिन अस्पष्ट हैं और उम्मीद के तौर पर उम्मीद से भरे (नॉन बाइन्डिंग) हैं जिसे लेकर ऊंचे लक्ष्य को निर्धारित करने में कोई परेशानी नहीं है.

स्रोत : इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी, 2021, 2050 तक शून्य कार्बन उत्सर्जन, आईईए,पेरिस, नोट : यह चार्ट भारत की शून्य कार्बन उत्सर्जन की प्रतिज्ञा को शामिल नहीं करता है.

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Authors

Lydia Powell

Lydia Powell

Ms Powell has been with the ORF Centre for Resources Management for over eight years working on policy issues in Energy and Climate Change. Her ...

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Vinod Kumar Tomar

Vinod Kumar Tomar

Vinod Kumar, Assistant Manager, Energy and Climate Change Content Development of the Energy News Monitor Energy and Climate Change. Member of the Energy News Monitor production ...

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