भारत का पूर्वोत्तर क्षेत्र लंबे समय से अविकसित रहा है और विभिन्न कारणों से इसकी सामरिक क्षमता का उपयोग नहीं किया गया है, जिनमें प्राथमिक वजह सीमा पार सुरक्षा से जुड़ी आशंकाएं और आंतरिक अस्थिरता शामिल है. यह रिपोर्ट इस बात की पड़ताल करती है कि कैसे पूर्वोत्तर के अंतर्देशीय जलमार्ग- बंगाल की खाड़ी में मौजूद बंदरगाहों को भीतरी इलाक़ों से जोड़कर, इन भूमिबद्ध राज्यों को समुद्री व्यापार और हिंद-प्रशांत क्षेत्र में बढ़ते अवसरों से लाभ के लिए इस्तेमाल किए जा सकते हैं.
एट्रिब्यूशन: सोहिनी बोस और प्रत्नाश्री बसु, “इन सर्च ऑफ द सी: ओपनिंग इंडियाज नॉर्थईस्ट टू द बंगाल ऑफ बंगाल,” ओआरएफ स्पेशल रिपोर्ट नंबर 148, जून 2021, ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन.
प्रस्तावना
भारत के उत्तर पूर्वी इलाक़े (नॉर्थ ईस्टर्न रीजन यानी एनईआर) के आठ राज्य- अरुणाचल प्रदेश, असम, मणिपुर, मेघालय, मिज़ोरम, नागालैंड, त्रिपुरा और सिक्किम- देश के भौगोलिक क्षेत्र के केवल 8 प्रतिशत पर कब्ज़ा करते हैं. फिर भी वे रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि अपने भौगोलिक इलाक़े के बीच ये राज्य नेपाल, भूटान, चीन, म्यांमार और बांग्लादेश के पड़ोसी देशों के साथ 5300 किलोमीटर की अंतरराष्ट्रीय सीमाएँ साझा करते हैं. एनईआर, हालांकि, आवाजाही के मानक पर नुकसान में भी है क्योंकि आठ में से सात राज्य शेष भारत से केवल सिलीगुड़ी (या ‘चिकन नेक’)[1] गलियारे के रूप में जानी जाने वाली संकीर्ण पट्टी के ज़रिए ही जुड़े हुए हैं. इसके अलावा इन इलाक़ों में बार- बार होने वाली चरमपंथी गतिविधियों के चलते भी इन राज्यों का दूसरे राज्यों से संपर्क बाधित रहता है. इसका इस क्षेत्र पर ख़ासा प्रभाव पड़ा है, जिससे भारतीय मुख्य भूमि के मुकाबले यहां विकास की कमी और “अलगाव” एक समस्या रही है. नॉर्थ ईस्टर्न रीजन
यानी एनईआर की लगभग 28.5 प्रतिशत आबादी ग़रीबी रेखा से नीचे रहती है- यह अनुपात 21.9 प्रतिशत के अखिल भारतीय आंकड़े से कहीं ज़्यादा है. इस क्षेत्र में सड़कों के रूप में आवाजाही के लिए उपलब्ध सतह लगभग 33.7 प्रतिशत है, जो राष्ट्रीय औसत 69 प्रतिशत[2] के आधे से भी कम है. पूर्वोत्तर के समुदायों[3] का मानना है कि भारत के पड़ोसी देशों के साथ व्यापार और कनेक्टिविटी के पुराने बंधनों को नए सिरे से परिभाषित करने से उन्हें समृद्धि की दिशा में ले जाने में मदद मिल सकती है. आखिरकार, ऐतिहासिक रूप से, भारत का उत्तर-पूर्वी इलाक़ा प्राचीन रूप से सिल्क-रूट का दक्षिण-पश्चिमी मार्ग रहा है, जिसके ज़रिए भारत, दक्षिण-पश्चिम चीन, तिब्बत, भूटान और बर्मा (वर्तमान म्यांमार) के बीच व्यापार का केंद्र रहा है.[4] वास्तव में, दुनिया के कई हिस्सों में, आज उप-क्षेत्रीय सहयोग का इस्तेमाल, परिधीय क्षेत्रों में विकास और बढ़ोत्तरी को प्रोत्साहन देने की रणनीति के रूप में किया जाता है.[5]
ऐसी रणनीति भारत की समग्र विदेश नीति के अनुरूप भी है, जो भारत के पूर्वी इलाक़ों के पड़ोसी देशों के साथ संबंधों को बढ़ाने का प्रयास करती है. साल 2018 के शांगरी-ला डायलॉग में, भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने “एक्ट ईस्ट पॉलिसी” के माध्यम से भारत के पूर्व और पूर्वोत्तर इलाक़ों को देश के पूर्वी पड़ोसियों से जोड़कर इस क्षेत्र में सभी के लिए सुरक्षा और विकास (सिक्योरिटी एंड ग्रोथ फॉर ऑल यानी सागर) के दृष्टिकोण को बढ़ावा दिया. दक्षिणपूर्वी एशियाई देशों के संगठन (आसियान) के तहत दक्षिण पूर्व एशिया के देश, भारत की “एक्ट ईस्ट पॉलिसी” में एक केंद्रीय स्थान रखते हैं, क्योंकि भारत हिंद महासागर क्षेत्र में चीन के बढ़ते प्रभाव के बीच सहयोगात्मक विकास के मौके तलाश रहा है. आसियान देश, भारत के साथ इस तरह के जुड़ाव के लिए उपयुक्त हैं क्योंकि इनमें कोई महत्वपूर्ण राजनीतिक विवाद नहीं हैं. इनकी अर्थव्यवस्थाएं विकास पथ पर हैं और इन देशों की साझा सांस्कृतिक विरासत भी है. इसके अलावा भारत जैसे जैसे सहयोग और मिलेजुले प्रयासों को लेकर अपना दायरा बढ़ा रहा है और उसकी “एक्ट ईस्ट नीति” समय के साथ ‘एक्ट इंडो-पैसिफिक’ निति में बदल रही है,[6] आसियान देश जो भारत और प्रशांत महासागर के जंक्शन पर स्थित हैं, इंडो-पैसिफिक को लेकर भारत की नीतियों के केंद्र में रहेंगे.[7]
आसियान के महत्व को देखते हुए, भारत और दक्षिण पूर्व एशिया के बीच एकमात्र ‘पुल’ के रूप में भारत की विदेश नीति के लिए भी एनईआर महत्वपूर्ण हो जाता है. हाल के दिनों में, नई दिल्ली ने कई मल्टीमॉडल परियोजनाओं के माध्यम से पूर्वोत्तर में व्यापार और कनेक्टिविटी में सुधार को प्राथमिकता दी है इसके अलावा पूर्वोत्तर राज्यों को शेष भारत और आसियान देशों के साथ निकटता से जोड़ा भी गया है.
हालांकि, सड़क और रेलवे परियोजनाएं महंगी हैं और उनके पर्यावरणीय प्रभाव भी हैं. इस मायने में अंतर्देशीय जलमार्गों के चक्रव्यूह का उपयोग एक बेहतर व व्यवहार्य विकल्प हो सकता है, जो कार्गो और यात्रियों को लाने ले जाने के लिए उत्तर-पूर्वी इलाक़ों का सहारा लेते हैं. यह अपेक्षाकृत रूप से पर्यावरण के अधिक अनुकूल है और सस्ता भी है. इसके अलावा ऐसे जलमार्गों का विकास जो बंदरगाहों के साथ जुड़े हैं, पूर्वोत्तर को समुद्री व्यापार का लाभ प्रदान कर सकता है. साथ ही यह शेष भारत से दक्षिण पूर्वी एशिया और व्यापक इंडो-पैसिफिक इलाक़े के संपर्क में भी सुधार करेगा. यह रिपोर्ट इस बात की पड़ताल करती है कि भारत के पूर्वोत्तर राज्यों की समुद्र तक पहुंच सुनिश्चित करने में अंतर्देशीय जलमार्गों का उपयोग कैसे किया जा सकता है.
उत्तर-पूर्व के राज्यों के लिए बंगाल की खाड़ी का महत्व
हाल के वर्षों में, भारत ने एनईआर में कई तरह की कनेक्टिविटी परियोजनाएं यानी ऐसी परियोजनाएं जो भारत के इस इलाक़े को शेष भारत से जोड़े शुरू की हैं. उदाहरण के लिए, सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय ने साल 2005 में ‘पूर्वोत्तर में विशेष त्वरित सड़क विकास कार्यक्रम’ (स्पेशल एक्सलरेटेड रोड डेवेलपमेंट प्रोग्राम इन नॉर्थ ईस्ट) शुरू किया, जिसका दायरा तब से बढ़ाया जा चुका है[8] और इसके वित्तीय वर्ष 2023-24 तक पूरा होने की उम्मीद है.[9] इस के अलावा सरकार ने एशियाई राजमार्ग (एएच) नेटवर्क में भी खुद को शामिल किया है जो 32 एशियाई देशों को जोड़ने का प्रयास करती है, और जिसका एक प्रमुख मार्ग ‘एएच-1’ दक्षिणपूर्व एशिया में विस्तार करने से पहले एनईआर के ज़रिए से भारत और बांग्लादेश को पार करेगा. पिछले चार सालों में, एनईआर में सड़क और रेल लिंक तेज़ी से बढ़ रहे हैं और उनके विकास के लिए 12,936.5 मिलियन रुपये स्वीकृत किए गए हैं. इस दौरान विभिन्न सरकारी योजनाओं के तहत 1,262 किलोमीटर सड़कों का निर्माण भी किया गया है.[10] इसके अलावा अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, मिजोरम, त्रिपुरा और असम में कई रेल लिंक को भी मीटर-गेज से ब्रॉड-गेज में बदल दिया गया है[11]. साथ ही हवाई संपर्क बढ़ाने के लिए बुनियादी ढांचे का काम भी चल रहा है.[12]
बांग्लादेश, चीन, भारत और म्यांमार आर्थिक गलियारे (बीसीआईएम-ईसी) का एक उद्देश्य, बुनियादी ढांचे में सुधार करना और एनईआर और पूर्व और दक्षिण पूर्व एशिया के देशों[13] के बीच मल्टीमॉडल परिवहन विकसित करने के लिए एक उपयुक्त नियामक ढांचा स्थापित करना है. एक बार चालू होने के बाद, यह मार्ग पूर्वोत्तर को लाभान्वित कर सकते हैं क्योंकि भू-आबद्ध राज्यों (लैंड लॉक्ड स्टेट) से घिरे पूर्वोत्तर के इलाक़ों की समुद्री बंदरगाहों तक आसान पहुंच नहीं है और मौजूदा समय में यह इलाक़े आवाजाही के लिए अत्यधिक परिवहन लागत का भुगतान करते हैं. यह कमी भी इन राज्यों के अलग-थलग पड़ने में योगदान देती है.[14]
उत्तर-पूर्व की ओर जाने वाली कई नदियाँ भारत को बांग्लादेश से जोड़ती हैं. भारत और बांग्लादेश के बीच कुछ पुराने नदी मार्गों (जब बांग्लादेश पूर्वी बंगाल था) को पहले ही सक्रिय किया जा चुका है. अंतर्देशीय जल पारगमन और व्यापार को लेकर भारत-बांग्लादेश प्रोटोकॉल के तहत (मानचित्र-1 देखें) जिस पर पहली बार 1972 में हस्ताक्षर किए गए उसमें साल 2015 में एक क्लॉज़ जोड़ा गया है जिसके मुताबिक यह हर पांच साल में स्वत: नवीनीकृत हो कर लागू हो जाएगा. दोनों देश इन क्षेत्रों से गुज़रने वाले निर्दिष्ट जलमार्गों का इस्तेमाल कर माल की ढुलाई करते हैं.[15] ऐसे पांच जलमार्ग हैं (यानी 10 मार्ग, क्योंकि इससे जुड़े पारस्परिक मार्ग को अलग संख्या माना जाता है).[16],[17] साल 2018 में, भारत और बांग्लादेश ने असम की ब्रह्मपुत्र घाटी में जोगीघोपा को हब या ट्रांस शिपमेंट टर्मिनल के रूप में विकसित करने पर सहमति जताई ताकि असम, अरुणाचल प्रदेश, नागालैंड और भूटान में कार्गो की आवाजाही को सुनिश्चित किया जा सके.[18] साल 2020 में, ढाका और नई दिल्ली ने गुमटी नदी पर नौवें और 10वें प्रोटोकॉल मार्गों यानी दाउदकंडी (बांग्लादेश) से सोनमुरा (त्रिपुरा) मार्ग पर आवाजाही यानी परिचालन शुरु किया. यह बांग्लादेश से त्रिपुरा पहुंचने वाली सीमेंट की पहली निर्यात खेप थी.[19]
लैंडलॉक यानी चारों तरफ भूमि से घिरे हुए एनईआर इलाक़े के लिए समुद्री या नदी से संपर्क के स्पष्ट लाभ हैं, और मल्टीमॉडल से जुड़ाव के इस पहलू को मज़बूत करना इस क्षेत्र के लिए नई शुरुआत कर सकता है. भारत का पूर्वोत्तर इलाक़ा भारत की “एक्ट ईस्ट निति” के लिए महत्वपूर्ण है, न केवल इसलिए कि यह दक्षिणपूर्व एशिया के देशों और भारत के बीच एक पुल का काम करता है, बल्कि इसलिए भी कि यह दक्षिण-पूर्व एशिया के साथ एक समुद्री पड़ोस का भी हिस्सा है, जो बंगाल की खाड़ी से जुड़ा हुआ है. यह खाड़ी कभी अपने आप में एक क्षेत्र थी जो सांस्कृतिक और व्यावसायिक संबंधों के साथ विश्व से जुड़ी थी.[20]
उत्तर पूर्व कई नदियां हो कर गुज़रती हैं. इसमें अनुमानित रूप से 1800 किलोमीटर का नदी मार्ग शामिल है, जो स्टीमर और बड़ी देशी नौकाओं के लिए आवाजाही का ज़रिया बन सकता है. इन मार्गों से ले जाए जाने वाले कार्गो में चाय, सीमेंट, कोयला, फ्लाई ऐश, चूना पत्थर, पेट्रोलियम, कोलतार और खाद्यान्न शामिल हैं.[21] अरुणाचल प्रदेश में, लोहित, सुबनसिरी, बूरही दिहिंग, नोआ दिहिंग और तिरप नदियों का उपयोग उन हिस्सों के साथ छोटी देशी नौकाओं द्वारा आवाजाही के लिए किया जाता है जहां रैपिड नहीं होते हैं. इसी तरह सुविधाजनक हिस्सों पर मिज़ोरम में ढलेश्वरी, सोनाई, तुइलियनपुई और चिमटुईपुई नदियों का भी आवाजाही के लिए उपयोग किया जाता है. मणिपुर में, मणिपुर नदी, अपनी तीन मुख्य सहायक नदियों, इरिल, इंफाल और थौबल का इस्तेमाल देशी नावों के ज़रिए कम मात्रा में माल के परिवहन के लिए किया जाता है. हालाँकि, इस क्षेत्र की मुख्य नदियां ब्रह्मपुत्र, तीस्ता और बराक हैं. ब्रह्मपुत्र में कई छोटे नदी बंदरगाह हैं, साथ ही 30 जोड़े से अधिक नौका घाट (क्रॉसिंग पॉइंट) हैं. बराक में करीमगंज, बदरपुर और सिलचर में छोटे बंदरगाह भी हैं और कई स्थानों पर नौका सेवाएं हैं.[22] जबकि ब्रह्मपुत्र और बराक बांग्लादेश में प्रवाहित होते हैं, तटीय म्यांमार बराक नदी बेसिन का हिस्सा है.[23] इस मायने में इस क्षेत्र में नदियों के संपर्क तंत्र में सुधार एनईआर को समूची बंगाल की खाड़ी के लिए खोल देता है.
मलक्का जलडमरूमध्य या जलसंधि के माध्यम से हिंद-प्रशांत के व्यापक जल में विलय होने से पहले परिवहन व संचार के महत्वपूर्ण समुद्री मार्ग, बंगाल की खाड़ी और उससे सटे अंडमान सागर को पार करते हैं. खाड़ी के विशाल हाइड्रोकार्बन भंडार के आकर्षण के अलावा चीन के बढ़ते दबाव और प्रभुत्व से पैदा हुई चिंताओं के मद्देनज़र इन शिपिंग मार्गों की स्वायत्तता को संरक्षित करने की ज़रूरत बढ़ी है और यही वजह है कि हाल के वर्षों में अलग-अलग हितधारक इस जल-क्षेत्र की ओर आकर्षित हुए हैं. खाड़ी अपने तटवर्ती देशों और जापान, अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया जैसे उन देशों के बीच प्रतिस्पर्धा और सहयोग के क्षेत्र के रूप में उभरी है, जो इस इलाक़े को महत्वपूर्ण मानते हैं और इसपर नज़र रखते हैं. यदि पूर्वोत्तर क्षेत्र में नदी संपर्क को मज़बूत किया जाता है, जिससे खाड़ी तक इस की पहुंच आसान हो जाए, तो ऐसे सहयोग इसके विकास के लिए फ़ायदेमंद साबित हो सकते हैं.
वास्तव में, एनईआर क्षेत्र पहले ही जापान के लिए विकास के महत्वपूर्ण क्षेत्र के रूप में उभरा है. भारत-प्रशांत क्षेत्र में चीन के विस्तार, उसके हिंसक अर्थशास्त्र और उसके बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) के संबंध में अस्पष्टता को देखते हुए, इस क्षेत्र में साझेदारी, टोक्यो और नई दिल्ली दोनों के लिए भू-राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण हो गई है. यूरेशिया और प्रशांत के महाद्वीपीय और समुद्री क्षेत्र में, बीजिंग की प्रगति के ख़िलाफ़ लामबंद होने की भावना बढ़ी है- इसके चलते देशों के अनौपचारिक समूह के साथ-साथ मौजूदा संस्थागत तंत्र को भी मज़बूत किया गया है. भारत और जापान के बीच सहयोग, हालांकि पूरी तरह से इन मजबूरियों से पैदा नहीं हुआ है, फिर भी साझा हितों की एक अभिव्यक्ति हर हाल में है. जापान और भारत ने एक स्वतंत्र और खुले इंडो-पैसिफिक क्षेत्र को लेकर अपने-अपने दृष्टिकोण से नीतियों को अपनाया है और जापान की “फ्री एंड ओपन इंडो-पैसिफिक स्ट्रैटेजी” के साथ भारत की “एक्ट ईस्ट नीति” के तालमेल के लिए “जापान-इंडिया एक्ट ईस्ट फोरम” की स्थापना की है. भारत के लिए, ये उपक्रम पहले की ‘लुक ईस्ट’ नीति से मौजूदा ‘एक्ट ईस्ट’ नीति की की ओर एक निश्चित बदलाव का हिस्सा हैं.[24]
इस पहल के हिस्से के रूप में, भारत को पहले ही जापान से सड़क संपर्क, बिजली और पानी की आपूर्ति में सुधार व कौशल संबंधी विकास में मदद मिल चुकी है.[25] इस के तहत शुरू की जाने वाली कुछ बुनियादी-ढांचा संबंधी परियोजनाओं में शिलांग और दावकी के बीच राष्ट्रीय राजमार्ग 40, तुरा और डालू के बीच राष्ट्रीय राजमार्ग 51 जो चारों मेघालय के शहर हैं, और मिज़ोरम में आइज़ॉल और तुईपांग के बीच राष्ट्रीय राजमार्ग 54 में सुधार करना शामिल है. एशियाई विकास बैंक (एडीबी) के सहयोग से, नई दिल्ली और टोक्यो भी असम-भूटान सीमा पर गेलेफू और मेघालय-बांग्लादेश सीमा पर दलू को जोड़ने वाले गलियारे की संभावना तलाश रहे हैं. ये मार्ग एनईआर में मल्टीमॉडल लिंकेज में योगदान देंगे जिससे समुद्री संपर्क सुगम बनेगा. इसलिए, भारत चूंकि खाड़ी को भारत-प्रशांत क्षेत्र में अपनी मौजूदगी के रूप में इस्तेमाल करने की मंशा रखता है, एनईआर, बंदरगाहों और जलमार्गों के एक बेहतर ढंग से जुड़े नेटवर्क के साथ, विकास के इस कथानक का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बनने की क्षमता रखता है.
पूर्वोत्तर के आंतरिक इलाकों को समुद्र मार्ग से जोड़ना
ये सुनिश्चित करने के लिए कि सभी उत्तर-पूर्वी राज्य समुद्री मार्ग से जुड़ सके, ये ज़रूरी है कि हम भारत से लेकर उसके पड़ोसी देशों बांग्लादेश और म्यांमार के उन बंदरगाहों को पहचान लें जिनके जरिए हम समुद्री संपर्क को तत्काल स्थापित कर सकते हैं. ऐसे तीन बंदरगाह हैं: भारत में कोलकाता-हल्दिया, बांग्लादेश में चटगांव[26], और म्यांमार में सित्तवे बंदरगाह. (इस लेख में कोलकाता बंदरगाह का मतलब कोलकाता डॉक सिस्टम और हल्दिया से अर्थ हल्दिया डॉक कॉम्प्लेक्स से है. दोनों ही कोलकाता पोर्ट ट्रस्ट के अधीन हैं.) हालांकि ये नदी बंदरगाह हैं, लेकिन इनकी पहुंच समुद्री मार्ग तक है. अगर इन्हें पूर्वोत्तर के आंतरिक क्षेत्रों से जोड़ दिया जाए तो न सिर्फ इनकी पहुंच दक्षिणपूर्व एशिया तक हो जाएगी बल्कि ये शेष भारत से भी जुड़ जाएंगे. इसलिए इनकी क्षमता का मूल्यांकन ज़रूरी है.
कोलकाता पोर्ट ट्रस्ट के तहत कोलकाता बंदरगाह पश्चिम बंगाल में हुगली नदी पर स्थित है और भौगोलिक दृष्टि से ये पूर्वोत्तर में भारत का निकटतम बंदरगाह है. फिर भी, यह अभी भी सिक्किम की सीमा से लगभग 700 किमी और असम की सीमा से 1,100 किमी से अधिक दूर है. समुद्र से 223 किलोमीटर दूर ये बंदरगाह व्यापारिक रूप से लाभ की स्थिति में है, और पूर्वी भारत, नेपाल, भूटान एवं बांग्लादेश[27] के साथ आंतरिक जुड़ाव रखता है, अगर इसे उत्तर-पूर्वी के साथ जोड़ दिया जाता है तो इसका फ़ायदा अन्य राज्यों को भी हो सकता है. भारत-बांग्लादेश समझौता मार्गों के जरिए, ख़ासकर मार्ग बराक नदी से होकर जाने वाले मार्गों (राष्ट्रीय जलमार्ग 16) के जरिए पूर्वोत्तर राज्यों की बंदरगाहों से दूरी को काफ़ी कम किया जा सकता है. पश्चिम बंगाल में धुलियन से लेकर बांग्लादेश में राजशाही, अरिचा और ढाका तक नदी मार्ग का विस्तार करने पर कोलकाता और उत्तर-पूर्वी राज्यों के बीच दूरी भी कम होती है, और यात्रा का समय भी बचता है.[28] ब्रिटिश शासन के दौरान, ब्रह्मपुत्र और बराक-सूरमा[29] नदियों का उपयोग उत्तर-पूर्वी राज्यों और कोलकाता के बीच परिवहन और व्यापार के लिए बड़े पैमाने पर किया जाता था.
2018 में, असम की बराक घाटी में स्थित बदरपुर बदरगाह को करीमगंज जैसे बड़े शहर से जोड़ा गया, ये दोनों क्षेत्र बराक नदी के किनारे एक दूसरे से लगभग 25 किमी दूर स्थित हैं. इसी तरह से बांग्लादेश में घोरसल को आशुगंज से जोड़ा गया है. भारत ने प्रस्तावित किया है कि बांग्लादेश से लेकर कोलकाता, सिलचर (असम की बराक घाटी) तक बंदरगाहों को समझौता मार्गों के विस्तार के जरिए जोड़ा जाए. इन अतिरिक्त नवीकृत बंदरगाहों और समझौता मार्गों के विस्तार के ज़रिए हम उम्मीद कर सकते हैं कि आंतरिक जलमार्गों के ज़रिए माल ढुलाई में वृद्धि और परिवहन में आसानी होगी. पूर्वोत्तर राज्य जलमार्ग के माध्यम से बांग्लादेश में कोलकाता-हल्दिया और मोंगला के बंदरगाहों से सीधे जुड़ सकते हैं. इससे बांग्लादेश से आयातित और निर्यातित मालों की ढुलाई और परिवहन में सुविधा होगी, और उसकी लागत भी कम होगी.[30]
दुर्भाग्य से, अपनी सारी खूबियों जैसे रेल और सड़क मार्ग से बेहतर जुड़ाव और अत्यधिक यातायात के बावजूद कोलकाता बंदरगाह का ड्रॉफ्ट बेहद कम है (सिर्फ 7.2 मीटर), और इसके कारण बड़े जहाज़ों को जगह नहीं दे सकता है. इसके अलावा इसे समय समय पर ड्रेजिंग (तलछट की सफ़ाई) की ज़रूरत पड़ती है, इसके कारण भी यहां बड़े जहाज़ों का आवागमन कठिन हो जाता है.[31] समुद्र से 75 किमी दूर स्थित हल्दिया डॉक कॉम्प्लेक्स[32] के साथ भी यही समस्या है. इन समस्याओं के चलते भारत पश्चिम बंगाल के ताजपुर और सागर में अधिक ड्रॉफ्ट वाले बंदरगाह बनाने पर विचार कर रहा है. जब इनका निर्माण पूरा हो जाएगा तो ये बंदरगाह भी पूर्वोत्तर राज्यों को समुद्र मार्ग से जोड़ देंगे.
हल्दिया बंदरगाह की सीमितताओं के बावजूद, भारत इसे सित्तवे बंदरगाह (म्यांमार के रखाइन राज्य में स्थित) के जरिए मिजोरम से भी जोड़ना चाहता है, चूंकि ये कलादान नदी के मुहाने पर स्थित है, जो कि बंगाल की खाड़ी में आकर गिरती है. कलादान मल्टी मॉडल ट्रांसिट ट्रांसपोर्ट प्रोजेक्ट (केएमएमटीटीपी) सड़क परिवहन के ज़रिये मिज़ोरम से म्यांमार के पलेटवा तक, नदी जलमार्ग के जरिए कलादान नदी से सित्तवे और आखिरकार सित्तवे को समुद्री मार्ग के जरिए हल्दिया बंदरगाह से जोड़कर व्यापार को बढ़ावा देना चाहता है. सित्तवे बंदरगाह और अंतर्देशीय जल परिवहन पलेटवा जेट्टी अप्रैल 2107 में शुरू हो गई थी.[33] संबंधित देशों ने इस परियोजना को 2008 में ही मंजूरी दे दी थी, लेकिन तबसे लेकर इसमें काफी देरी हुई.[34],[35] सित्तवे बंदरगाह अंततः मार्च 2021 में चालू हो गया[36] और कोलकाता से सित्तवे पहुंचने में अब लगभग दो दिन लगते हैं.
भारत द्वारा वित्तपोषित सित्तवे बंदरगाह भूराजनीतिक रूप से चीन द्वारा निर्मित म्यांमार के क्युकप्यु बंदरगाह[37] के समकक्ष है, जो कि चीन की सिल्क रोड परियोजना (बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव) के तहत बनाया गया है. दक्षिण एशियाई देशों में म्यांमार भारत का निकटतम पड़ोसी देश है, जो आसियान देशों में भी शामिल है, इसलिए भारत की “एक्ट ईस्ट नीति” के लिए बेहद अहम देश है. सित्तवे परियोजना के साथ-साथ, भारत, म्यांमार और थाईलैंड द्वारा बनाए जा रहा 1,360 किलोमीटर का त्रिपक्षीय राजमार्ग (जो मणिपुर की पूर्वी सीमा पर मोरेह से लेकर म्यांमार होते हुए थाईलैंड के माई सॉट तक फैली हुई है) आसियान-भारत मुक्त व्यापार समझौते के तहत इस क्षेत्र में व्यापार को बढ़ावा देगा. नई दिल्ली ने प्रस्ताव दिया है कि राजमार्ग को कंबोडिया, लाओस और वियतनाम तक बढ़ाया जाए. बांग्लादेश भी इस परियोजना में शामिल होने का इच्छुक है.[38]
केएमएमटीटीपी के एक कठिन उपक्रम साबित होने के कारण बांग्लादेश में चटगांव बंदरगाह प्राधिकरण ने आशुगंज के जरिए उत्तर-पूर्वी क्षेत्र में व्यापार हेतु सित्तवे के विकल्प के रूप बांग्लादेश ने चटगांव को मुख्य बंदरगाह घोषित करने का विचार सामने रखा है.[39] आशुगंज नदी बंदरगाह त्रिपुरा से काफी नज़दीक है, और इसका उपयोग उस राज्य में चावल ढोने में किया जाता है. अगरतला-अखौरा (बांग्लादेश में) रेल लिंक के संचालन के साथ इसके और भी अधिक लाभदायक होने की उम्मीद है. अंतर्देशीय जलमार्गों का उपयोग करते हुए आशुगंज से उत्तर पूर्वी राज्यों में चटगांव जैसे बंदरगाहों से आने वाले सामानों का परिवहन दोनों देशों की अर्थव्यवस्थाओं को बढ़ावा देने में मदद करेगा.[40]
चटगांव बंदरगाह बांग्लादेश का प्रमुख बंदरगाह है और दुनिया के 100 सबसे व्यस्त बंदरगाहों में 76-वें स्थान पर है. यह समुद्र से 15-16 किमी दूर कर्णफुली नदी पर स्थित है. 2015 में भारत और बांग्लादेश के बीच हुए तटीय नौवहन समझौते का विस्तार करके भारत को अनुमति दी गई है ताकि भारत चटगांव और मोंगला के बंदरगाहों का उपयोग उत्तर-पूर्वी क्षेत्रों तक माल पहुंचाने के लिए कर सके.[41]
हल्दिया बंदरगाह को बांग्लादेश-असम मार्ग के जरिए चटगांव बंदरगाह से जोड़ा जा सकता है और दोनों के बीच संपर्क को त्रिपुरा[42] के दक्षिणी हिस्से तक बढ़ाया जा सकता है. ये शेष भारत के साथ उत्तर पूर्वी राज्यों के संपर्क साधन की एक और कड़ी साबित होगी और दक्षिण-पूर्व एशिया के साथ संबंधों को और बढ़ावा देगी.
हालांकि, चटगांव बंदरगाह के सामने भीड़-भाड़ की समस्या के अतिरिक्त कई अन्य चुनौतियां भी हैं. एक नदी बंदरगाह होने के साथ-साथ ये अपने संचालन के लिए समुद्र के ज्वार पर निर्भर करता है. पोर्ट ऑफ सिंगापुर अथॉरिटी (पीएसए) इंटरनेशनल द्वारा एक बे-कंटेनर टर्मिनल का निर्माण किया जा रहा है – इससे बंदरगाह की संचालन क्षमता में वृद्धि होगी.[43]
भारत ने बांग्लादेश, म्यांमार और थाईलैंड के साथ द्विपक्षीय तटीय नौवहन समझौते किए हैं.[44] अगर बांग्लादेश और म्यांमार के साथ एक समान समझौता स्थापित होता है और पूर्वी तटरेखा को तटीय नौवहन के लिए जोड़ा जाता है, तो इससे उत्तर-पूर्वी राज्यों को विशेष लाभ होगा. हालांकि, इस क्षेत्र में आधारभूत ढांचे को और अधिक विकसित करने की ज़रूरत है अगर उत्तर-पूर्वी राज्य अंतराष्ट्रीय व्यापार में माध्यम होने की अपनी मौजूदा भूमिका से इतर सक्रिय भागीदार की भूमिका में आना चाहते हैं.
उत्तर-पूर्व में अवसर
पूर्वोत्तर रेलवे का जाल फैलाने का फ़ायदा दो स्तरों पर होगा: एक, ये इस क्षेत्र में सामाजिक-आर्थिक लाभों को बढ़ावा देगा, दूसरा, ये कि देश का पूर्वी हिस्सा भारतीय विदेश नीति से जुड़ जायेगा. इस बहुस्तरीय आंतरिक संपर्क बिंदुओं के जरिए उत्तर-पूर्वी क्षेत्र को राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय परिवहन सुविधाओं से जोड़ा जाएगा, जिससे न सिर्फ़ म्यांमार और बांग्लादेश जैसी उभरती अर्थव्यवस्थाओं के साथ व्यापार संबंध बेहतर होंगे बल्कि इस क्षेत्र में आर्थिक विकास की गतिविधियों को बढ़ावा मिलेगा.[45]
दरअसल, जैसा कि भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कहते हैं, उत्तर-पूर्वी राज्य “भारत का विकास इंजन बनने की क्षमता रखते हैं.”[46] हालांकि अब तक भारत ने पूर्वोत्तर में व्यापार के विकास के लिए लगभग 700-800 मिलियन अमरीकी डॉलर के निवेश की प्रतिबद्धता जताई है, लेकिन इस क्षेत्र में बहुत कम उत्पादक परिवर्तन हुए हैं. यहां की अर्थव्यवस्था में मामूली सुधार हुआ है, जबकि इन राज्यों में कई परियोजनाओं जैसे त्रिपक्षीय राजमार्ग, भारत-बांग्लादेश समझौता मार्ग, उड़ान (उड़े देश का आम नागरिक) योजना के तरह वायुमार्ग का विस्तार और ब्रह्मपुत्र नदी के तलछट की सफाई आदि को पिछले कुछ वर्षों में लागू किया गया है.[47]
अपने संसाधनों के बावजूद, उत्तर-पूर्वी राज्यों में निवेश की दर काफ़ी कम है क्योंकि यहां जनसंख्या कम है, अर्थव्यवस्था नाज़ुक है, भौगोलिक क्षेत्र कठिन है और राजनीतिक अशांति है. यह समझा जाता है कि इन राज्यों में संपर्क सुविधाओं के विस्तार से इन कमियों की भरपाई होगी और इस तरह से पड़ोसी देशों के साथ व्यापार और अन्य आर्थिक गतिविधियों को बढ़ावा मिलेगा. स्थानीय प्रशासन की मज़बूती और क्षेत्रीय बाज़ारों को बढ़ावा देने से सीमा पार जातीय समूहों के साथ सहयोग और सहयोग को प्रोत्साहन मिलेगा, जिससे इस क्षेत्र में शांति और स्थिरता कायम करने में मदद मिलेगी.
मल्टीमॉडल लिंकेज योजना मौजूदा सड़क मार्गों में सुधार करने के साथ साथ नए सड़क मार्गों के निर्माण पर जोर देगी, को राज्यों के आंतरिक इलाकों से संपर्क को और बेहतर बनाएगा. आंतरिक संपर्क को बढ़ाने से एक तरफ़ राज्य के स्थानीय सड़क मार्गों एवं जलमार्गों को शेष भारत से जोड़ा जा सकेगा, वहीं दूसरी तरफ़ ये क्षेत्र पूर्वी देशों के साथ भी अपना संपर्क स्थापित कर सकेंगे. संसाधनों से धनी इस क्षेत्र में, एक सक्रिय आंतरिक परिवहन मार्ग, जो समुद्र मार्ग से जुड़ता हो, कृषि उत्पादों एवं विनिर्मित उत्पादों, दोनों का ही व्यापार मजबूत करेगा.
संसाधनों का भंडार होने के बावजूद[48], इस क्षेत्र की पैदावार काफी कम है क्योंकि यहां अभी भी कृषि की पुरानी तकनीकों का चलन है. इसके अलावा संसाधनों का दोहन भी पुरानी तकनीकों पर ही निर्भर है.[49] बेहतर जलमार्ग, सड़क और रेल परिवहन के साथ-साथ क्षेत्र में बेहतर दूरसंचार और डिजिटल संपर्क साधनों की मौजूदगी तकनीकी ज्ञान, विशेषज्ञता और अन्य सुविधाओं के आदान-प्रदान को बढ़ावा देगी, जो इस क्षेत्र में विदेशी व्यापार को बढ़ाने के लिए जरूरी हैं. क्षेत्रीय कृषि उत्पादों की गुणवत्ता सुनिश्चित करने और उसका व्यापार बढ़ाने के लिए भी इस क्षेत्र में निवेश जरूरी है.
संपर्क सुविधाओं के विस्तार से रोज़गार-अवसरों में भी बढ़ोत्तरी होगी, जिससे इस क्षेत्र में उग्रवादी संगठनों की अपील की लोकप्रियता में कमी आयेगी.[50]
सुरक्षा ख़तरे
आज़ादी के बाद कई दशकों तक उत्तर-पूर्वी क्षेत्र में विकास परियोजनाओं की गति काफी धीमी रही क्योंकि इसका सीधा जुड़ाव देश की कथित सुरक्षा संबंधी रणनीतियों और ख़तरों से था. इसके अलावा दशकों से इस क्षेत्र में राजनैतिक अशांति के माहौल ने आधारभूत ढांचे के निर्माण को अवरूद्ध रखा, जबकि भारत सरकार ने इन राज्यों में कई परियोजनाओं की नींव रखी और वित्तीय सहायता प्रदान की. क्षेत्र की अन्य देशों जैसे बांग्लादेश, म्यांमार, नेपाल और भूटान के साथ अंतरराष्ट्रीय सीमाएं काफ़ी दुर्गम हैं, जो नशीली दवाओं की तस्करी, कालाबाजारी और मानवीय घुसपैठ जैसी गतिविधियों पर किसी कार्रवाई को मुश्किल बनाती हैं. क्षेत्र में सुचारू व्यापार केवल तभी संभव होगा जब इन राज्यों में कानून-व्यवस्था की स्थिति में सुधार हो.
इसके अलावा कई राज्यों के बीच लंबे समय से सीमा विवाद भी जारी रहे हैं, जिसके चलते किसी न किसी राज्य ने सड़क परिवहन को अवरूद्ध किया हुआ है, जैसा कि हाल में असम-मिज़ोरम[51] और असम-नागालैंड[52] मामले में देखा गया. इसने न केवल विकास को बाधित किया है बल्कि बहुपक्षीय या द्विपक्षीय सहयोग के लिए किसी पहल की संभावना को भी कमज़ोर किया है. इसका परिणाम ये है कि क्षेत्र में लगातार राजनीतिक सामाजिक अस्थिरता बनी हुई है, जिसने द्विपक्षीय और बहुपक्षीय पहलों में रुकावट पैदा की है, परियोजनाओं का संपादन धीमा किया है और बाह्य निवेश की संभावनाओं को कमज़ोर किया है.
भारत के लिए पूर्वोत्तर की क्षमता का दोहन करने के लिए क्षेत्र में दशकों से जारी अंतर-क्षेत्रीय संघर्षों को जल्द से जल्द हल करने की आवश्यकता है. उदाहरण के लिए नागा संघर्ष चार राज्यों में फैला हुआ है, जिनमें से तीन राज्यों की सीमा म्यांमार से लगती है[53] और म्यांमार भारत की बंगाल की खाड़ी रणनीति से जुड़ा एक महत्त्वपूर्ण देश है. चीन द्वारा म्यांमार में क्युकप्यु बंदरगाह के निर्माण के बाद ही यह महत्व बढ़ा है. रोहिंग्या संकट एक और चिंता का विषय है.[54] बांग्लादेश के कॉक्स बाजार से अन्य दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों में रोहिंग्या शरणार्थियों की मानव तस्करी इस क्षेत्र की सुरक्षा के लिए एक गंभीर ख़तरा है. बांग्लादेश सरकार ने म्यांमार के साथ अपनी सीमा की पहचान देश में नशीली दवाओं की तस्करी के एक प्रमुख प्रवेश बिंदु के रूप में की है.[55]
यहां स्पष्ट करना जरूरी है कि हाल के वर्षों में क्षेत्र में राजनीतिक स्थिरता की स्थिति बेहतर हुई है. 2019 का तीसरा बोडो समझौता असम के बोडो जनजाति[56] के उग्रवादी संगठनों के साथ किया गया शांति समझौता है, जिसके जरिए ये उम्मीद है कि असम के निचले क्षेत्र में शांति की बहाली होगी और बोडो विद्रोह का ख़ात्मा होगा. इसके अलावा, असम के कार्बी आंगलोंग जिले (जो ब्रह्मपुत्र और बराक घाटियों के बीच स्थित है) में पांच आतंकवादी समूहों का आत्मसमर्पण भी आंतरिक सुरक्षा में सुधार का संकेत है. हालांकि, इस क्षेत्र में तनाव बना हुआ है, और विद्रोही समूह अभी भी नागालैंड, मणिपुर और असम में फैले हुए हैं. अभी भी इन संघर्षों के चलते राज्यों का विकास बाधित होने की संभावना है. सीमा पार हलचलों की बेहतर निगरानी, सीमा पर मुस्तैद पहरेदारी और खुफ़िया जानकारियों की साझेदारी के ज़रिये ही ये सुनिश्चित किया जा सकेगा कि इन क्षेत्रों से जुड़े आंतरिक संपर्क चैनल बेहतर तरीके से काम करें.
भविष्योन्मुखी नीतियां: पूर्वोत्तर से बंगाल की खाड़ी तक जलमार्गों का विकास
पूर्वोत्तर के आंतरिक जलमार्गों को सुचारू रूप से जारी रखने और सालाना परिवहन के लिए ड्रॉफ्ट और नदी की चौड़ाई को बनाए रखना ज़रूरी है. जलमार्गों में तलछट जमा होने के कारण जहाज़ बार-बार फंस जाते हैं, जिससे उनके ईंधन का ख़र्च बढ़ जाता है. इसके चलते जलमार्गों का परिवहन असुरक्षित और अनिश्चित हो जाता है. नदियों के तल का अप्रत्याशित छिछलापन भी जहाज़ों के आवागमन में बाधा खड़ी करता है. सिंचाई पद्धतियों में सुधार और समय-समय पर तलछटों की सफ़ाई से नदियों के प्रवाह को बेहतर किया जा सकता है. नदी मार्गों पर रात्रि नौवहन सुविधाएं सुनिश्चित करना भी महत्वपूर्ण है. बांग्लादेशी मार्गों पर चलने वाले भारतीय जहाज़ों के लिए ऐसी सुविधाएं कम ही उपलब्ध हैं.[57] अंतर्देशीय जलमार्गों के समावेशी विकास से पूर्वोत्तर क्षेत्र के लोगों को अधिक रोज़गार मिलेगा.
एक अन्य समस्या पूर्वी और पूर्वोत्तर भारत में अंतर्देशीय जल परिवहन के लिए जहाज़ों की कमी है. ज्यादातर जहाज़ केंद्रीय अंतर्देशीय जलमार्ग परिवहन निगम, पश्चिम बंगाल परिवहन निगम, विवाडा परिवहन निगम और अंतर्देशीय जलमार्ग परिवहन और विकास प्राधिकरण के अधीन हैं.[58] जहाज़ों की अपर्याप्तता पूर्वोत्तर राज्यों के भीतर आंतरिक संपर्क नेटवर्क के विकास में बाधा खड़ी कर सकता है. हालांकि, जहाज़ों की संख्या तभी बढ़ सकती है जब आंतरिक जलमार्ग आधारित परिवहन की मांग में वृद्धि हो.
व्यापार के अलावा, नदी-मार्गों का उपयोग पूर्वोत्तर में पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए किया जा सकता है, जो इसकी अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण योगदान देगा. भारत और बांग्लादेश के बीच 2015 में एक समझौता हुआ, जिसमें नदीमार्ग के ज़रिये सीमा पार पर्यटन, तटीय और आधिकारिक मार्ग संबंधी समझौते शामिल थे[59]. 2018 में, अंतर्देशीय आधिकारिक मार्गों और तटीय शिपिंग मार्गों पर यात्रियों और क्रूज़ जहाज़ों की आवाजाही के लिए एक मानक संचालन प्रक्रिया को भी अंतिम रूप दिया गया था. नदी परिवहन मार्ग के कोलकाता से लेकर ढाका, गुवाहाटी और जोरहट तक संचालित होने की संभावना है.[60] अगर इस आधिकारिक मार्ग का विस्तार पूर्वोत्तर राज्यों तक होता है और इसे नेपाल, भूटान और म्यांमार की नदियों से जोड़ दिया जाता है तो इस क्षेत्र के पर्यटन में काफ़ी हद तक सुधार होने की संभावना है.[61]
इसके अलावा भारत, बांग्लादेश और म्यांमार के बीच एक त्रिपक्षीय बहुस्तरीय समझौते की आवश्यकता है ताकि ऐसी किसी महत्त्वाकांक्षी परियोजना को साकार किया जा सके. हालांकि भारत ने अपनी “एक्ट ईस्ट नीति” को ध्यान में रखते हुए पूर्वोत्तर में विकास की गतिविधियों पर ज़ोर दिया है लेकिन इस दिशा में अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है. जैसा कि इस रिपोर्ट में पहले ही कहा जा चुका है कि पूर्वोत्तर के विकास में जापान की भूमिका महत्त्वपूर्ण है.
पूर्वोत्तर के सामने कई तरह की चुनौतियां हैं, जिसमें भौगोलिक चुनौतियों से लेकर सामाजिक-आर्थिक समस्याएं एवं राजनीतिक अस्थिरता के हालात शामिल हैं. फिर भी, अंतर्देशीय जलमार्गों का पुनरुद्धार एवं विस्तार, और उन्हें मल्टीमॉडल नेटवर्क के जरिए राष्ट्रीय सीमाओं से जोड़ना उत्तर-पूर्वी राज्यों के विकास के लिए आवश्यक है. पूर्वोत्तर में विकास की संभावना इस बात पर निर्भर करती है कि विभिन्न नीतिगत परियोजनाएं अबाधित रूप से संचालित हों, और नदी मार्गों की समुद्री मार्गों तक पहुंच सुनिश्चित हो.
स्वीकृति
इस रिपोर्ट के कुछ अंश 6 मार्च 2021 को आयोजित ओआरएफ के अंतरराष्ट्रीय वेबिनार, बंगाल की खाड़ी में कनेक्टिविटी की खोज: भारत के उत्तर पूर्व का महत्व, के अंतर्गत शामिल किए गए सत्र, बंगाल की खाड़ी, व्यापक भारत-प्रशांत क्षेत्र में पहले क़दम के रूप में, पर वक्ताओं द्वारा पेश किए बिंदुओं से तैयार किए गए हैं. इस सत्र की अध्यक्षता हर्ष वी. पंत, प्रमुख, सामरिक अध्ययन, ओआरएफ, नई दिल्ली, भारत ने की. सत्र में वक्ता निम्नलिखित थे:
एलेक्स वाटरमैन, रिसर्च फेलो इन सिक्योरिटी, टेररिज्म़ एंड इंसर्जेंसी, यूनिवर्सिटी ऑफ लीड्स, इंग्लैंड.
गौतम मुखोपाध्याय, राजदूत (सेवानिवृत्त), सीनियर विजिटिंग फेलो, सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च, नई दिल्ली, भारत.
मधुचंद घोष, सहायक प्रोफेसर, प्रेसीडेंसी विश्वविद्यालय, कोलकाता, भारत.
इंद्राणी बागची, राजनयिक संपादक, द टाइम्स ऑफ इंडिया, नई दिल्ली, भारत.
मसामी इशिदा, प्रोफेसर, अंतरराष्ट्रीय विकास अध्ययन विभाग, जैव-संसाधन कॉलेज, निहोन विश्वविद्यालय, जापान.
लेखकों का परिचय
सोहिनी बोस जूनियर फेलो हैं, और प्रत्नाश्री बसु ओआरएफ, कोलकाता में एसोसिएट फेलो हैं
(वैष्णवी भास्कर, ओआरएफ कोलकाता में रिसर्च इंटर्न द्वारा अतिरिक्त शोध)
Endnotes
[1] Sikkim is west of Siliguri, and not connected to India through the ‘chicken neck’. Historically, too, Sikkim was not counted among the North Eastern states (which were ‘seven sisters’) until 2002.
[2] Takema Sakamoto, “India-Japan Partnership for Economic Development in the Northeast”, Japan International Cooperation Agency, March 20, 2018.
[3] Pratim Ranjan Bose, “Connectivity is No Panacea for an Unprepared Northeast India,” Strategic Analysis 43, no.4 (June 9, 2019): 336.
[4] Madhuri Saikia, “Trade and Urbanisation- India’s North East in the ancient Silk Route,” International Journal of Humanities and Social Science Invention 9, no. 8 (August 2020): 2.
[5] Government of India, “Prime Minister’s Keynote Address at Shangri La Dialogue,” Media Centre, Ministry of External Affairs, June 1, 2018.
[6] Prabir De, “India’s Act East policy is slowly becoming Act Indo-Pacific policy under Modi government,” The Print, March 27, 2020.
[7] Government of India, “Prime Minister’s Keynote Address at Shangri La Dialogue”
[8] Government of India, “Brief Status of SARDP-NE,” Ministry of Development of North Eastern Region, March 2012.
[9] Anisha Dutta, “Funding for NE road development increased,” Hindustan Times, October 7, 2020.
[10] Government of India, “Road and rail connectivity in North Eastern Region”, Press Information Bureau, Ministry of the Development of the North-East Region, July 17, 2019.
[11] The distance between the inner sides of two tracks on any railway route is known as railway gauge. In a meter gauge the distance between the two tracks is 1,000 mm and it costs less. In a broad gauge, in contrast, there is a distance of 1676 mm between the two tracks—it offers more stability and is better than thinner gauges.
[12] Government of India, “Road and rail connectivity in North Eastern Region”
[13] Anasua Basu Ray Chaudhury, “Connectivity and Sub-regional cooperation in the East of South Asia: Importance of India’s North-East Revisited,”159
[14] Anasua Basu Ray Chaudhury, “Connectivity and Sub-regional cooperation in the East of South Asia: Importance of India’s North-East Revisited,” 160
[15] Only Indian and Bangladeshi vessels are allowed to use them.
[16] The routes connect West Bengal to Bangladesh, Tripura to Bangladesh, West Bengal to Assam’s Brahmaputra Valley, West Bengal to Assam’s Barak Valley, and Assam’s Brahmaputra Valley to its Barak Valley. The last three all pass through Bangladesh.
[17] Government of India, “Second addendum to the protocol on inland water transit and trade between the government of the republic of India and the government of the people’s republic of Bangladesh,” Ministry of Shipping.
[18] Dipanjan Roy Chaudhury, “India, Bangladesh launch new initiative to connect landlocked North East”, The Economic Times, September 03, 2020.
[19] Varun Nayar, “Reframing Migration: A Conversation With Historian Sunil Amrith,” Pacific Standard, December 1, 2017.
[20] Government of India, “Inland Waterways in NER”, Ministry of Development of North Eastern Region.
[21] Government of India, “Inland Waterways in NER”
[22] Rajeev Bhatia, “Japan in India’s North East”, Gateway House, August 22, 2019.
[23] However, these routes are seasonal, and alternative rail and road arrangements are also necessary.
[24] “The North East is key for India’s ties with Asean”
[25] Aroonim Bhuyan, “Why Northeast matters for India-Japan collaboration in Indo-Pacific”, Business Standard, October 31, 2018.
[26] Bangladesh has allowed the use of the following routes: Chittagong/Mongla to Agartala (Tripura), Chittagong/Mongla to Dawki (Meghalaya) and Chittagong/Mongla to Sutarkandi (Assam).
[27] Anil Wadhwa, “The North East is key for India’s ties with Asean,” LiveMint, March 9, 2018.
[28] “Why Northeast matters for India-Japan collaboration in Indo-Pacific”
[29] The Barak River is called the Surma in Bangladesh.
[30] Government of India, “India and Bangladesh Sign Agreements for Enhancing Inland and Coastal Waterways Connectivity,” Press Information Bureau, Ministry of Shipping and Waterways, October 25, 2018.
[31] “India’s Maritime Connectivity: Importance of the Bay of Bengal,” 20
[32] “India’s Maritime Connectivity: Importance of the Bay of Bengal,” 13
[33] “India’s Maritime Connectivity: Importance of the Bay of Bengal,” 17
[34] “India’s Maritime Connectivity: Importance of the Bay of Bengal,” 82
[35] “India, Myanmar working to operationaliseSittwe port in early 2021,” Hindustan Times, October 1, 2020.
[36] Manoj Anand, “Steps on to complete India-Mayanamr-Thailand Trilateral Highways”, Deccan Chronicle, October 6, 2020.
[37] C Christine Fair, “As Smart as Sittwe: Going North-East by South-East”, Firstpost, April 19, 2019.
[38] Aakriti Sharma, “Bangladesh Keen To Join India’s ‘Trilateral Highway’ That Includes Myanmar & Thailand”, The Eurasian Times, December 19, 2020.
[39] “India’s Maritime Connectivity: Importance of the Bay of Bengal,” 46
[40] “India’s Maritime Connectivity: Importance of the Bay of Bengal,” 73
[41] Government of India, “India and Bangladesh Sign Agreements for Enhancing Inland and Coastal Waterways Connectivity”, Press Information Bureau, Ministry of Shipping and Waterways, October 25, 2018.
[42] “India’s Maritime Connectivity: Importance of the Bay of Bengal,” 73
[43] “Bangladesh Port Boom Begins,” Port Strategy, November 27, 2020.
[44] “India’s coastal shipping agreement with Myanmar,” Maritime Gateway, October 7, 2020.
[45] Prakash Tulsiani, “Uncorking The Logistic Competencies Of India’s North-East”, Business World, August 4, 2018.
[46] “Northeast has potential to become India’s growth engine: PM Modi”, Hindustan Times, July 23, 2020.
[47] K. K. Dwivedi, “Assam’s story: Making Geography History by Acting East”, Economic Times, March 15, 2021.
[48] The main agricultural products of the NER are tea, rice, bamboo, black rice, pork and ginger. Some areas also have oil and mineral reserves.
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