Author : Amish Raj Mulmi

Published on Jul 25, 2023 Updated 0 Hours ago
नेपाल का नागरिकता विधेयक: महिलाओं के अधिकारों पर भय और भेदभाव का साया

फिजीकरण और सिक्किमीकरण – ये वे दो शब्द हैं जो नेपाली राष्ट्रवादियों में, भारत और नेपाल के प्रति उनकी मंशा को लेकर भय को दर्शाती है. ये शब्द नेपाल के पंचायत काल में उत्पन्न हुए थे, जब राज-परिवार और नेपाल के शासक वर्ग द्वारा भारत-विरोधी भावनाओं को बढ़ावा दिया गया था. फिजीकरण एक ऐसी बदलती जनसंख्या की ओर इशारा करता है जैसा कि फिजी के द्वीपों में देखा गया था, जहां भारतीय मज़दूरों को पहले इंग्लिश कॉलोनी द्वारा गन्ने के खेतों में नज़रबंद रखा जाता था, और उसके बाद पीढ़ी दर पीढ़ी से वहां रह रहे भारतीयों की मदद से राजनीतिक सत्ता हासिल की गई. वहीं दूसरी तरफ, सिक्किमीकरण, 1975 के दौरान, एक वक्त में, हिमालयन किंगडम ऑफ सिक्किम के तौर पर जाने जाने वाले सिक्किम का भारत के साथ हुए विलय के लिये कहा गया था. 

नेपाल की रुढ़ीवादी जनता को डर है कि नेपाल और भारत के बीच खुली हुई सीमा या बॉर्डर और दोनों तरफ के सीमांत जिलों के बीच स्थापित पारिवारिक संबंधों के कारण, नेपाल की जनसांख्यकी, और वहां की राजनीतिक शक्ति – मधेस के इलाकों में भारतीय प्रवासियों की ओर विस्तारित हो जाएगी

नेपाल की रुढ़ीवादी जनता को डर है कि नेपाल और भारत के बीच खुली हुई सीमा या बॉर्डर और दोनों तरफ के सीमांत जिलों के बीच स्थापित पारिवारिक संबंधों के कारण, नेपाल की जनसांख्यकी, और वहां की राजनीतिक शक्ति – मधेस के इलाकों में भारतीय प्रवासियों की ओर विस्तारित हो जाएगी, जिससे दिल्ली को नेपाल को एक और भारतीय राज्य बनाने में सफलता मिल जायेगी, जैसा कि इसने सिक्किम के साथ किया था. यहां सिक्किम या फिजी की जनसंख्या इतिहास के बारे में काफी कम सोचा गया है. वो ब्रिटिश शासकों का अधिग्रहण या कोलोनाइलेजशन ही था जिसने फ़िजी में बसने वाले भारतीय नागरिकों को बिल्कुल उसी तरह से प्रोत्साहित किया था जिस तरह से पूर्वी हिमालय में बसने के लिए, नेपाली आप्रवासियों को प्रेरित किया जिसके कारण वहां की डेमोग्राफी या जनसांख्यकी में परिवर्तन हुआ. इस परिवर्तन ने, नेपाली मूल के राजनेता काजी ल्हेनदुप दोर्जे को केंद्र में ला दिया, जिसके फलस्वरूप उन्होंने चोग्याल से  अधिक संसदीय अधिकारों और प्रतिनिधित्व की मांग की – जिसके परिणामस्वरूप सिक्किम को अंततः एक भारतीय राज्य में बदल दिया गया.

आजकल नेपाली राष्ट्रवादियों के बीच दोर्जे का नाम विश्वासघात का पर्याय बन चुका है, जिसमें मधेस के हितों के साथ-साथ भारत के हितों से संबद्ध किसी भी नेपाली व्यक्ति को ऐसे नाम दिया जाता है. हाल ही में, प्रधानमंत्री पुष्प कमल दहाल ‘प्रचंड’ की भारत यात्रा के दौरान विवादास्पद नागरिकता संशोधन विधेयक पर हस्ताक्षर करने के बाद राष्ट्रपति रामचन्द्र पॉडेल को पूर्व बॉलीवुड अभिनेत्री मनीषा कोइराला ने यह कहते हुए इस तमगे से सुशोभित किया कि, “यह कुर्सी आखिर उन्हें क्यूँ मिली है, यह सोचना कोई मुश्किल बात नहीं है.” – जिससे ये मतलब निकाला गया कि उनके राष्ट्रपति चुने जाने पर आखिर क्यों भारत ने उनका समर्थन किया.    कोइराला के सोशल मीडिया पर जताये गुस्से ने साफ कर दिया कि इन वहां के कंज़र्वेटिव दल इन संशोधनों के खिलाफ़ हैं.

 

2015 में जब से नेपाली संसद में संविधान को विचार के लिये प्रस्तुत किया गया, तब से नेपाली नागरिकता का मुद्दा विवादास्पद ही रहा है, और विरोधों के बावजूद संसद में प्रमुख तौर पर विधायिका के द्वारा प्रचारित होने की वजह से प्रश्नों के दायरे में रहे है. नागरिकों के एक बड़े समूह का असंतोष, जो मौजूदा कानून के कारण राज्यहीन हो गए थे और पहाड़ी कुलीन और मैदानों में बसे मधेसियों के बीच गहरी खाई के कारण, ज्य़ादातर बहस, नागरिकता कानून और उसमें किये जाने वाले सुधार और भारत के विरुद्ध राजनीतिक उन्माद के इर्दगिर्द ही घूमती रही है. माना गया था कि, कानून में संशोधन से इन मुद्दों का समाधान होगा, लेकिन संशोधित कानून भी नेपाली महिलाओं के प्रति भेदभाव जारी रखता है – जिससे नेपाल की गिनती दुर्भाग्यवश विश्व में उन 27 देशों में से एक होती है, जो आधिकारिक तौर पर महिलाओं को अपने परिवार में नागरिकता का प्रसार अगली पीढ़ी तक करने में सीमित अथवा प्रतिबंधित करती है. 

नागरिकता कानून में सुधार की ज़रूरत क्यों?

नेपाल मुख्य रूप से तीन प्रावधानों के तहत नागरिकता प्रदान करती है: जन्म के आधार पर; वंश के आधार पर; और प्राकृतिकीकरण के आधार पर. वर्ष 2006 के नागरिकता अधिनियम ने जन्म के आधार पर नागरिकता प्रदान करने का प्रावधान प्रस्तुत किया, जिसके तहत जो व्यक्ति 12 अप्रैल 1990 से पहले नेपाल में पैदा हुआ हो और अप्रैल 2008 में संसदीय सभा चुनावों से पहले नागरिकता के लिए आवेदन किया हो वो नेपाल का नागरिक होगा. इसके पीछे की मंशा, मधेस क्षेत्र में ऐतिहासिक रूप से नागरिकता के अभाव को सुधारने की थी. इसी तरह से, उन नागरिकों के बच्चे जिनके माता-पिता के पास जन्म के आधार पर नागरिकता थी उनको, प्रावधानुसार वंश के आधार पर नागरिकता प्रदान की जा सकती थी. “हालांकि, मुख्य ज़िला अधिकारियों ने एक अलग कानून  अनुपस्थिति का उद्धरण देकर ऐसे लोगों के बच्चों को नागरिकता प्रदान करना बंद कर दिया.” गृह मंत्रालय ने इन नियमों के कारण लगभग 4,00,000 लोगों को नागरिकता से वंचित होने का अनुमान लगाया है.

उसी अधिनियम ने इस बात का भी निर्धारण किया कि वो व्यक्ति, जिनके माता/पिता में से कोई एक भी जन्म के वक्त से नेपाली नागरिक है, उसे वंश के आधार पर नागरिकता प्रदान की जाएगी. हालांकि, एक और धारा ने यह कहते हुए इस धारा को रद्द कर दिया कि ‘नेपाली माताओं और विदेशी पिताओं के बच्चे केवल एक ‘प्रकृतिकृत नागरिकता प्रमाणपत्र’ प्राप्त कर सकते थे’, जिससे एकल माताओं के बच्चों और उन लोगों को, जिनके पिताओं ने उनकी माता के साथ के संबंध को स्वीकार करने से इनकार किया दिया हो, उन्हें नागरिकता दस्तावेज़ प्राप्त करने से रोक दिया गया. 

संविधान ने 2015 में नागरिकता कानूनों में कई परिवर्तन किए जिनमें से कुछ 2006 के अधिनियम से अधिक प्रतिगामी थे. एक नई ड्राफ्ट तैयार की गई जिसके अंतर्गत एक व्यक्ति को वंश के आधार पर नागरिकता प्राप्त करने के लिए दोनों माता-पिता का नेपाली नागरिक होना आवश्यक था. संविधान ने नेपाली महिलाओं के प्रति भेदभावपूर्ण दृष्टिकोण की भी योजना बनाई. जब संविधान को प्रस्तावित किया गया था, तो नेपाली लेखिका मंजुश्री थापा ने लिखा था, ‘महिलाएं स्वतंत्र रूप से अपने बच्चों को नागरिकता देने में समर्थ नहीं हैं, नेपाली महिलाओं के और विदेशी पुरुषों के बच्चे उच्च पद से वंचित रहेंगे. नेपाली पुरुषों के बच्चों के लिए ऐसा कोई प्रतिबंध नहीं है जो विदेशी महिलाओं से विवाहित नेपाली पुरुषों के बच्चों पर लगाया जाए, और नेपाली पुरुष, हमेशा की तरह, अपने बच्चों को स्वतंत्र रूप से नागरिकता प्रदान कर सकते हैं.’

स्त्री-पुरुषों और एक बड़ी संख्या में राष्ट्रहीन लोगों के बीच, खासकर मधेस लोगों के बीच इस प्रकार की स्पष्ट असमानता के साथ, यह बिल्कुल भी आश्चर्यजनक नहीं है कि नेपाल ने मौजूदा नागरिकता नियमों के खिलाफ विरोध देखा. इसलिए, 2018 में संसद में अधिनियमों में संशोधन हेतु प्रस्ताव पेश किए गए, लेकिन प्रस्तावित संशोधन बाद में उस व्यक्त विवादास्पद हो गया था, जब तत्कालीन नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्यों ने नेपाली पुरुष से विवाह करने के बाद विदेशी महिलाओं के लिए सात वर्ष का प्रतीक्षा काल डाल दिया था. संशोधन प्रस्ताव के खिलाफ नेपाल कांग्रेस और मधेस केंद्रित पार्टियों द्वारा प्रदर्शनों के बाद बिल को वापस लिया गया. जुलाई 2022 में संसद में एक संशोधित बिल प्रस्तुत किया गया, जिसमें महिलाओं के लिए वैवाहिक प्राकृतिकीकृत नागरिकता के लिए प्रतीक्षा काल को हटा दिया गया

स्त्री-पुरुषों और एक बड़ी संख्या में राष्ट्रहीन लोगों के बीच, खासकर मधेस लोगों के बीच इस प्रकार की स्पष्ट असमानता के साथ, यह बिल्कुल भी आश्चर्यजनक नहीं है कि नेपाल ने मौजूदा नागरिकता नियमों के खिलाफ विरोध देखा.

संशोधित बिल को संसद के दोनों सदनों द्वारा पारित किया गया था, लेकिन तब राष्ट्रपति विद्या भंडारी ने इसे दो बार अनुमोदित करने से इंकार कर दिया था. वर्ष 2022 के आम चुनाव के बाद, मंत्रिमंडल के सिफारिश के पश्चात, राष्ट्रपति राम चन्द्र पॉडेल ने बिल को उसकी मौजूदा स्वरूप में अनुमोदित किया. हालांकि, सुप्रीम कोर्ट के एक अंतरिम आदेश के तहत, संशोधित अधिनियम को लागू न करने का निर्देश जारी किया गया, जिसके परिणामस्वरूप विरोध की नई लहर शुरू हो गई, जिसमें एक राष्ट्रहीन व्यक्ति ने आत्मदाह करने का प्रयास किया. बाद में एक अन्य बेंच ने इस अंतरिम आदेश को खारिज घोषित किया, ताकि उन राष्ट्रहीन नेपाली नागरिकों को नागरिकता प्राप्त करने के मार्ग प्रशस्त हो सकें. 

संशोधित नागरिकता बिल का प्रभाव?

इस संशोधन ने पूर्व-स्थापित नियमों की वजह से लाखों ऐसे राज्यविहीन नेपालियों के लिए पुनः नागरिकता के कागज़ात प्राप्त करने की राह प्रशस्त कर दी है. नए प्रावधान नें दक्षिण एशिया में रह रहे लोगों से अलग, अब राष्ट्रहीन नेपालियों को मत के अधिकार के बिना दोहरी नागरिकता प्राप्त करने की अनुमति प्रदान कर दी गई है. नेपाली पुरुष से ब्याही गई विदेशी युवती, अपने जन्म के देश की नागरिकता को त्यागने के तुरंत बाद प्रकृतिकृत नागरिकता प्राप्त कर सकती है. परंतु ऐसा ही नियम या धारा उन विदेशी पुरुषों के लिए अस्तित्व में नहीं है, जो नेपाली महिला से शादी रचाते हैं.    

अब एकल नेपाली माताओं से पैदा हुए बच्चे वंश के आधार पर नेपाली नागरिकता प्राप्त कर सकते हैं, लेकिन केवल तब, जब उनकी माताएं, पिता की पहचान नहीं किये जा सकने की घोषणा पर हस्ताक्षर करती हैं. इस घोषणा होने की स्थिति में, मां को दण्डित किये जा सकने का भी प्रावधान है. हालांकि, ये नियम एकल नेपाली पिताओं के ऊपर लागू नहीं होते. ‘नेपाली पुरुष से विवाहित विदेशी महिला से जन्मे बच्चे वंश के आधार पर नागरिकता प्राप्त कर सकते हैं, लेकिन नेपाली माता और विदेशी पिता के पैदा हुए बच्चे केवल प्राकृतिकीकरण नागरिकता के योग्य होंगे, जिन्हे सरकार वैध मानती है.’ प्राकृतिकीकरण के अंतर्गत आने वाले नागरिक राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री, मुख्य न्यायाधीश, संसद और प्रांतीय सभा के अध्यक्ष, सुरक्षा निकायों के प्रमुख जैसे सभी उच्चतम निर्वाचित या नियुक्त सार्वजनिक पदों के लिए पात्र नहीं माने जाते हैं. 

लिंग पर आधारित इस भेदभाव के खिलाफ़ व्यापक विरोध के बावजूद, यह ध्यान देने योग्य है कि इस मसले पर अधिकांश राजनीतिक विरोध मुख्य रूप से विवाहित नागरिकता धारा के इर्द-गिर्द घूमती है, और लैंगिक संरचनात्मक असमानता के चारों ओर नहीं.

इस बात की भी चिंता व्यक्त की गई है कि क्या राष्ट्रपति राम चंद्र पॉडेल, पूर्व संसद द्वारा सहमति प्राप्त करने वाले बिल को अनुमोदित करने में अपने संवैधानिक अधिकारों के दायरे में थे, इस सुधार से संबंधित एक धारा पर काफी विरोध के स्वर गुंजायमान है कि वैवाहिक प्रकृतिकृत नागरिकता प्राप्त करने के लिए विदेशी महिला को अपनी वास्तविक नागरिकता को पहले त्यागना पड़ेगा. यूएमएल, राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी (आरपीपी) और राष्ट्रीय स्वतंत्र पार्टी (आरएसपी) जैसी पार्टियों के द्वारा संसद में, इस प्रस्तावित विधेयक के प्रति विरोध की मुख्य वजह वह बिंदु है, जहां वे विश्वास करते है कि ऐसी कोई भी धारा, नेपाल में फिजीकरन (या बाद में सिक्किमीकरण) के रास्ते को खोल देगी. इस धारा की वजह से ही कोइराला और उनके जैसे कई अन्य लोग ऐसा मानते हैं कि राष्ट्रपति पॉडेल ने ऐसा भारत को खुश करने के लिए किया है.    

एक तरफ से यह विचार किया जा रहा है कि, चूंकि भारत में विदेशी पत्नियों के लिए एक प्रकृतिकृत नागरिक बनने के लिए सात वर्ष का प्रतीक्षा काल होता है, इसलिए नेपाल में भी उसी प्रकार के नियम लागू किए जाने चाहिए. लेकिन जैसे कि टिप्पणीकारों ने इशारा किया है, भारत नेपाल की तरह विदेशी पत्नियों के बीच भेदभाव नहीं करता है. किसी भी सूरत में, भारत के साथ हो रही ये तुलना, ये साफ करती है कि मधेस में रह रहे परिवारों और सीमा के समीप के भारत के क्षेत्रों में, राजनैतिक सत्ता प्राप्त करने के लिये भेदभावपूर्ण नागरिकता कानून, ऐतिहासिक परिवारिक संबंधों को लक्ष्य बनाता है जो मधेस के परिवारों और सीमा के भारतीयों के बीच लंबे सयम से होते आये हैं, और स्पष्ट रूप से इसका उद्देश्य है मधेस समुदाय के लोगों को राजनीतिक शक्ति प्राप्त करने से रोकना है. नागरिकता कानूनों में संशोधनों की कोशिश के कारण नेपाली राष्ट्रवादियों ऐसा लगने लगा है कि इसका असर आगे होने वाले जनसांख्यिकी परिवर्तन पर पड़ेगा.

संशोधित नागरिकता अधिनियम में और भी अधिक कुटिल पहलू ये है कि यह नेपाली महिलाओं के परिप्रेक्ष्य में, उनको दूसरे श्रेणी के नागरिक के रूप में देखना जारी रखता है. पहला, नेपाली महिलाएं केवल तभी अपने बच्चों को नागरिकता दे सकती हैं जब वे इन चार शर्तों को पूरा करें: “वे नेपाल में पैदा होने चाहिए; वे नेपाल में निवास कर रहे हों; उनके बच्चे के पिता या तो ‘अज्ञात’ है या ‘अनुसरणीय नहीं है’; और उन्हे आधिकारिक रूप से घोषित करना हैं कि पिता ‘अज्ञात’ है या ‘अनुसरणीय नहीं है’.” दूसरा, एक विदेशी पुरुष जो नेपाली महिला से विवाहित है, किसी भी तरीके से नेपाली नागरिकता प्राप्त नहीं कर सकता – और नेपाली राज्य द्वारा व्यक्ति भेदभाव का एक और क्रूर सत्य सामने लाता है. अंत में, ‘नेपाली महिला और विदेशी पुरुष से उत्पन्न बच्चे ही केवल प्राकृतिकीकृत नागरिकता प्राप्त करने के अधिकारी है… यह वहां रह रहे नेपाली पुरुषों के बच्चों पर लागू नहीं होता है. वे लोग स्वत:  वंश के आधार पर देश की नागरिकता प्राप्त कर लेंगे. ‘

इस भेदभाव के बीज को, शिक्षाविदों ने नेपाली राज्य की पितृसत्तात्मक प्रकृति में खोज निकाला है, जो महिलाओं के, ‘राष्ट्र की जाति और संस्कृति की शुद्धता को ख़तरे में डालने के’ भय पर आधारित है.” लिंग पर आधारित इस भेदभाव के खिलाफ़ व्यापक विरोध के बावजूद, यह ध्यान देने योग्य है कि इस मसले पर अधिकांश राजनीतिक विरोध मुख्य रूप से विवाहित नागरिकता धारा के इर्द-गिर्द घूमती है, और लैंगिक संरचनात्मक असमानता के चारों ओर नहीं. जब तक नेपाल की शक्ति संरचनाएँ इन तंग नागरिकता धाराओं के कारण मधेसियों को लेकर अपनी सोच नहीं बदलती है, उन्हें सत्ता में भागीदार नहीं बनाती हैं, तब तक नेपाली राष्ट्रवादियों द्वारा महिलाओं को दोयम दर्जे की नागरिक का दर्जा दिया जाता रहेगा. दुर्भाग्यवश, ये एक कड़वी सच्चाई है. 

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Amish Raj Mulmi

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Amish Raj Mulmi is the author of All Roads Lead North: Nepal's Turn to China (Context/Hurst/Oxford University Press). He has written for Carnegie Endowment for ...

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