जिस वक़्त मालदीव को संसद के स्पीकर मोहम्मद ‘अन्नी’ नाशीद पर आतंकवादी हमले के बाद आतंकवाद के सामने एकजुट होना चाहिए, उस वक़्त सत्ताधारी मालदीवियन डेमोक्रेटिक पार्टी (एमडीपी) और गठबंधन सरकार में सबसे ज़्यादा बंटवारा है. एमडीपी के अध्यक्ष हसन लतीफ़ ने इस बंटवारे को कबूल भी किया है और इसकी वजह से पार्टी की छवि और स्थायित्व को पहले ही नुक़सान हो चुका है. गठबंधन के साझेदार, सरकार की धर्म पर केंद्रित ‘नफ़रती अपराध’ बिल को रोकना चाहते हैं जो कि नाशीद गुट से जुड़ा माना जाता है और सीधे तौर पर 6 मई को नाशीद पर बम हमले की वजह से लाया गया है. इस वजह से भविष्य में एमडीपी की चुनावी संभावना पहले से भी ज़्यादा ख़राब हो सकती है.
एमडीपी की अगली पंक्ति की महिला सांसद हिसान हुसैन द्वारा लाए गए इस बिल में दूसरी बातों के अलावा उन लोगों को भी दंडित करने का प्रावधान है जो किसी अन्य व्यक्ति को ‘काफ़िर’ कह कर उन पर निशान साधते हैं. आलोचकों ने बिल के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद करने में समय नहीं गंवाया. एमडीपी की गठबंधन की सहयोगी अदालत पार्टी, जो धर्म पर केंद्रित पार्टी है, ने पहला निशाना साधा. इस तरह के मतभेदों ने गठबंधन के साझेदारों, जिनमें दो और पार्टी शामिल हैं, के बीच बिल लाने से पहले सलाह-मशविरा की कमी का भी पर्दाफ़ाश किया.
एमडीपी की अगली पंक्ति की महिला सांसद हिसान हुसैन द्वारा लाए गए इस बिल में दूसरी बातों के अलावा उन लोगों को भी दंडित करने का प्रावधान है जो किसी अन्य व्यक्ति को ‘काफ़िर’ कह कर उन पर निशान साधते हैं.
गृह मंत्री शेख़ इमरान अब्दुल्ला की अगुवाई में अदालत पार्टी ने कहा कि बिल में जिन अपराधों का ज़िक्र किया गया है, वो नफ़रती अपराध की ओर ले जाने के लिए ज़रूरी अंतर्राष्ट्रीय शर्तों का पालन नहीं करते हैं. अदालत पार्टी ने चिंता जताते हुए कहा कि ये बिल लोगों के बीच नफ़रत को और बढ़ा सकता है और सरकार से अपील की कि बिल पर सावधानी से पेश आने के लिए अंतर्राष्ट्रीय समितियों का पालन करना चाहिए.
अदालत पार्टी से अलग 101 धार्मिक विद्वानों ने एक याचिका दायर करते हुए राष्ट्रपति इब्राहिम मोहम्मद सोलिह से अनुरोध किया कि इस बिल को फेंक दें. उन्होंने दावा किया कि प्रस्तावित संशोधन इस्लामिक समाज के लिए फ़ायदेमंद नहीं होगा लेकिन बिल लाने का जो नतीजा होगा उसकी भरपाई नहीं की जा सकती.
एक अलग घटनाक्रम में माले सिटी काउंसिल, जो राजधानी के प्रशासन की देखरेख करने वाली स्थानीय संस्था है और जिस पर जेल में बंद पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन की पीपीएम-पीएनसी गठबंधन का कब्ज़ा है, ने भी संशोधन को लेकर असहमति जताई. काउंसिल ने बयान दिया कि बिल ने क़ानून के तहत लोगों को इस्लाम धर्म और पैग़ंबर का मज़ाक़ उड़ाने का मौक़ा दे दिया है और सरकार ऐसा होने की इजाज़त दे रही है.
बिल के ख़िलाफ़ आलोचना की आवाज़ और रफ़्तार तेज़ होने के साथ संसद की न्यायिक समिति ने इस पर विचार करने का फ़ैसला किया है. वो इस्लामिक मंत्रालय समेत अलग-अलग संस्थाओं और लोगों से राय ले रही है. उम्मीद के मुताबिक़ इस्लामिक मंत्रालय की अगुवाई करने वाले अदालत पार्टी के विद्वान डॉ. अहमद ज़ाहिर अली की मांग है कि बिल के तहत ‘इस्लाम के ख़िलाफ़ कार्रवाई’ को अपराध की श्रेणी में शामिल किया जाना चाहिए. वास्तव में, ऐसा करना संशोधन के मक़सद को ही ख़त्म कर देता है.
धार्मिक विद्वानों और वक़ीलों से चर्चा के बाद जारी मंत्रालय के बयान में तीन मुख्य पहलुओं पर ग़ौर किया गया है. पहला, इस्लाम के ख़िलाफ़ कार्रवाई को नफ़रती अपराध के दायरे में शामिल करना. दूसरा, किसी व्यक्ति की प्रतिष्ठा, संपत्ति और शख़्सियत को चोट पहुंचाने वाली कार्रवाई को मना करना. तीसरा, ख़ुद संशोधन बिल में ही बारीकी से संशोधन करना.
धार्मिक विद्वानों और वक़ीलों से चर्चा के बाद जारी मंत्रालय के बयान में तीन मुख्य पहलुओं पर ग़ौर किया गया है. पहला, इस्लाम के ख़िलाफ़ कार्रवाई को नफ़रती अपराध के दायरे में शामिल करना. दूसरा, किसी व्यक्ति की प्रतिष्ठा, संपत्ति और शख़्सियत को चोट पहुंचाने वाली कार्रवाई को मना करना. तीसरा, ख़ुद संशोधन बिल में ही बारीकी से संशोधन करना. ये संशोधन इस तरह से किए जाने चाहिए कि इससे किसी मुसलमान को उसका जायज़ फ़र्ज़ निभाने में रुकावट आने पर (अगर मंत्रालय को ऐसा लगता है) किसी तरह का अदालती हुक़्मनामा जारी न हो. मुसलमानों के जायज़ फ़र्ज़ में शामिल हैं, “इस्लाम का प्रसार करने की ज़िम्मेदारी, लोगों को क़ानून के मुताबिक़ काम करने के लिए कहना, और लोगों को ग़ैर-इस्लामिक रास्ते पर चलने से रोकने का काम.”
किसी व्यक्ति, पार्टी या ख़ास तौर पर देश का नाम लिए बिना मंत्रालय ने कहा कि जिस वक़्त नफ़रत फैलाई जा रही है और धर्म के ख़िलाफ़ नफ़रती काम हो रहे हैं, उस वक़्त “ये महत्वपूर्ण है कि ऐसे क़ानून में इस्लाम के ख़िलाफ़ नफ़रत के अपराधीकरण को स्पष्ट किया जाए.” इसके बावजूद मंत्रालय सहमत हुआ कि लोगों के बीच नफ़रत फैलाना और विपरीत विचार वाले हर मुसलमान को अधार्मिक या काफ़िर बताना साफ़ तौर पर ग़लत है, ठीक उसी तरह जैसे इस्लाम के विद्वानों या मुसलमानों पर नफ़रत फैलाने का बेबुनियाद आरोप ग़लत है.
आलोचकों के लिए ग़ैर-क़ानूनी
परंपरागत तौर पर मालदीव एक इस्लामिक देश रहा है. केवल सुन्नी मुसलमान ही यहां के नागरिक बन सकते हैं. 2008 के लोकतांत्रिक संविधान ने राजनीतिक उदारवाद और स्वतंत्रता का वादा तो किया लेकिन उसमें भी इस्लामिक देश होने की तस्दीक की गई. ऐसे में इस्लामिक मंत्रालय ने बताया कि कैसे इस्लाम उन लोगों के ख़िलाफ़ खड़ा है जो धर्म को नहीं मानते हैं. इसके लिए उन्हें ‘काफ़िर’ कहा जाता है.
लेकिन इसके साथ-साथ मंत्रालय ने संविधान के अनुच्छेद 27 का ज़िक्र करते हुए ज़ोर दिया, “हर किसी को विचारों और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार है और अपनी राय और अभिव्यक्ति को जताने की स्वतंत्रता है लेकिन इस ढंग से कि वो इस्लाम की सीख के ख़िलाफ़ न हो.” इस तरह मंत्रालय ने ज़ोर दिया कि इस्लाम की आलोचना करना या इस्लामिक मूल्यों के ख़िलाफ़ बोलना पहले से ही ग़ैर-क़ानूनी है.
आलोचकों ने ‘इस्लामी विरोधी’ राजनीति के लिए आम तौर पर एमडीपी पर और पार्टी के नेता नाशीद पर ख़ास तौर पर निशाना साधा है. नाशीद पर ग़ुस्से की एक और वजह अमेरिका और इज़रायल के लिए कभी-कभी की उनकी हमदर्दी भी है क्योंकि इन दोनों देशों का समर्थन करना दुनिया भर के इस्लामिक देशों के लिए मना है.
लेकिन उसी वक़्त और ‘नफ़रती अपराध’ पर चर्चा से अलग, मालदीव मानवाधिकार आयोग (एचआरसीएम) ने एक धार्मिक परंपरा ‘रुक़्या’ के प्रदर्शन में कई चीज़ें ग़ैर-इस्लामिक मानी हैं. ‘रुक़्या’ के तहत कुछ बीमारियों के रूहानी इलाज के लिए पाक क़ुरान और हदीस को पढ़ना शामिल है. लेकिन मानवाधिकार आयोग ने ऐसे उदाहरण दिए जहां बच्चों और महिलाओं के साथ बदसलूकी की गई और कब्रों को नापाक किया गया.
आयोग ने कहा कि मानक नियमों को बनाने और लागू करने से सरकार संभवत: ग़लत रिवाज़ों से होने वाले नुक़सान और छल-कपट को कम कर सकती है. भले ही ये नफ़रती अपराध की चर्चा से नहीं जुड़ा हो लेकिन मालदीव मानवाधिकार आयोग की खोजबीन और मीडिया में अक्सर राजनीतिक विरोधियों समेत दूसरे विरोधियों के ख़िलाफ़ ‘काला जादू’ करने की ख़बरों ने साफ़ तौर पर ज़मीनी हक़ीक़त साबित कर दी है.
एक सांसद ने संसद में बिल पेश किया है जिसका उद्देश्य ‘देश भर में मस्जिदों की सुरक्षा को सुनिश्चित’ करना है. सांसद ने महामारी के दौरान मस्जिदों को अपवित्र करने पर बयान दिया. उनके मुताबिक़ आवारा, अवैध कब्ज़ा करके रहने वालों और ड्रग्स की तस्करी करने वाले इस्लाम की इबादत की जगह का बेज़ा इस्तेमाल कर रहे हैं. लेकिन इस शिकायत पर न तो धार्मिक विद्वानों और न ही इस्लामिक मंत्रालय ने ध्यान दिया है.
हस्ताक्षर अभियान
इसके विपरीत एमडीपी ने भी बिल के समर्थन में हस्ताक्षर अभियान शुरू किया है. इस अभियान में इस्लाम को शांति का धर्म बताया गया है. ये भी जोड़ा गया है, “हम शांत, आधुनिक और उदारवादी इस्लामिक देश बनना चाहते हैं.” मालदीव जैसे छोटे देश में इस अभियान पर दस्तख़त करने वालों की संख्या बिल की लोकप्रियता या बिल के ख़िलाफ़ ग़ुस्से का संकेत देगी और इस तरह एमडीपी को लेकर भी लोगों की राय सामने आएगी.
इस हस्ताक्षर अभियान में याद दिलाया गया है कि कट्टरता की वजह से किस तरह पिछले 10 वर्षों में राजधानी माले की सड़कों पर ख़ूनखराबा हुआ है और नाशीद के ऊपर बम हमला भी इसकी (सिर्फ़) एक मिसाल है, ये दिखाता है कि देश में चरमपंथ और असहिष्णुता किस तरह काबू से बाहर हो रही है. अभियान में बताया गया है कि लोगों को ‘काफ़िर’ या ‘लाधीनी’ बताना चरमपंथियों का अपने एजेंडे के लिए समर्थन जुटाने का सबसे बड़ा हथियार है.
राष्ट्रपति सोलिह ने इन भावनाओं को एक पत्रकार सम्मेलन में ज़ाहिर किया. उन्होंने वादा किया कि बिल किसी समूह को निशाना नहीं बनाता. राष्ट्रपति सोलिह के मुताबिक़ किसी व्यक्ति के द्वारा व्यक्त राय दूसरों के लिए नफ़रत या असहिष्णुता की वजह नहीं बननी चाहिए. सोलिह ने ध्यान दिलाया कि नफ़रती अपराध हिंसा और शारीरिक नुक़सान की वजह बन सकता है और संशोधन बिल का मुख्य उद्देश्य वो सभी क़दम उठाना है जिससे ये सुनिश्चित किया जा सके कि मामला हिंसा तक नहीं पहुंचे. उन्होंने ये सफ़ाई भी दी कि संशोधन भाषण या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में रुकावट नहीं है.
मंत्रालय ने संविधान के अनुच्छेद 27 का ज़िक्र करते हुए ज़ोर दिया, “हर किसी को विचारों और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार है और अपनी राय और अभिव्यक्ति को जताने की स्वतंत्रता है लेकिन इस ढंग से कि वो इस्लाम की सीख के ख़िलाफ़ न हो.”
नाशीद, जो 6 मई के बम हमले के बाद अपने इलाज के सिलसिले में अभी भी जर्मनी में हैं, ने सभी नागरिकों से हस्ताक्षर अभियान का साथ देने की अपील की जिसका मक़सद एक-दूसरे को ‘काफ़िर’ या ‘लाधीनी’ कहने से रोकना है.
इस्लामिक राष्ट्रवाद
बिल को लेकर धार्मिक और विधायी चर्चा के अलावा इसको लेकर राजनीतिक झगड़ा भी महत्वपूर्ण है, ख़ास तौर पर चुनावी नज़रिए से. आलोचकों ने ‘इस्लामी विरोधी’ राजनीति के लिए आम तौर पर एमडीपी पर और पार्टी के नेता नाशीद पर ख़ास तौर पर निशाना साधा है. नाशीद पर ग़ुस्से की एक और वजह अमेरिका और इज़रायल के लिए कभी-कभी की उनकी हमदर्दी भी है क्योंकि इन दोनों देशों का समर्थन करना दुनिया भर के इस्लामिक देशों के लिए मना है. इसकी सबसे बड़ी वजह फिलिस्तीन का मुद्दा है और फिर पिछले कुछ वर्षों के दौरान अफ़ग़ानिस्तान और इराक़ का युद्ध.
मालदीव में राष्ट्रपति चुनाव 2023 में होने हैं और एमडीपी पहले से भ्रष्टाचार, कुशासन, गुटबाज़ी और अहम के टकराव की वजह से बंटी हुई है. इसकी वजह से एक बार फिर कट्टरपंथ का लोगों के दिल-दिमाग़ पर कब्ज़ा करना पार्टी के लिए ठीक नहीं है. इस्लाम और ‘इस्लामिक राष्ट्रवाद’ 2011-12 में विपक्ष की अगुवाई में, धर्म केंद्रित ‘23 दिसंबर आंदोलन’ के केंद्र में रहा था जिसका नतीजा नाशीद के कुर्सी छोड़ने के रूप में आया था. इसकी वजह से देश के पहले लोकतांत्रिक रूप से चुने गए राष्ट्रपति को अपना पांच साल का कार्यकाल पूरा किए बिना ही अपना पद छोड़ना पड़ा.
इस पृष्ठभूमि में एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम के तहत, जिसको स्वतंत्र विश्लेषक नाशीद पर बम हमले की पुलिस छानबीन और संसदीय समिति की जांच पर असर के रूप में देखते हैं, एमडीपी ने एक ‘6 मई कमेटी बनाई है जो दोनों तफ़्तीश पर नज़र रखेगी’. संवैधानिक रूप से गठित सुरक्षा समिति, जिसको ‘241 समिति’ भी कहते हैं, के एमडीपी सदस्य पार्टी के उस कॉन्क्लेव में मौजूद थे जहां भाषण देने वालों ने बार-बार सरकार पर निशाना साधा और धमाके को करोड़ों डॉलर के ‘एमपीपीआरसी घोटाले’ से जोड़ने की कोशिश की. ये घोटाला पूर्ववर्ती यामीन शासन में हुआ था और सोलिह के राष्ट्रपति रहने के दौरान भी इस पर पर्दा डालने की कथित कोशिश हुई थी.
अभियान में बताया गया है कि लोगों को ‘काफ़िर’ या ‘लाधीनी’ बताना चरमपंथियों का अपने एजेंडे के लिए समर्थन जुटाने का सबसे बड़ा हथियार है. राष्ट्रपति सोलिह ने इन भावनाओं को एक पत्रकार सम्मेलन में ज़ाहिर किया. उन्होंने वादा किया कि बिल किसी समूह को निशाना नहीं बनाता.
कॉन्क्लेव में पार्टी के अध्यक्ष हसन लतीफ़ ने नाशीद के एक संदेश को सुनाया जिसमें खुले तौर पर राष्ट्रपति सोलिह पर इस केस में एमएनडीएफ (मालदीव नेशनल डिफेंस फोर्स) की जांच को प्रभावित करने और संसदीय समिति की जांच में दखल देने की कोशिश का आरोप लगाया गया. उन्होंने माना कि पार्टी दो टुकड़ों में बंट गई है क्योंकि सरकार स्पीकर नाशीद के बिना देश को चलाना चाहती है.
इसका मतलब ये हुआ कि पार्टी के कुछ नेता चाहते हैं कि राष्ट्रपति ‘सरकार की खुफ़िया जानकारी’ ऐसे व्यक्ति से साझा करें जो संविधान या दूसरे क़ानूनों के द्वारा उन्हें हासिल करने या अपने पास रखने के लिए अधिकृत नहीं हैं. ये अप्रत्यक्ष रूप से राष्ट्रपति सोलिह से ये कहना भी है कि वो हर बात पर नाशीद से सलाह करें या उनके आगे झुक जाएं, वो भी विधायिका के प्रतिनिधि के तौर पर नहीं- जिसकी भूमिका और शक्ति का भी संविधान में ज़िक्र है- बल्कि सत्ताधारी पार्टी के नेता के तौर पर.
सुनियोजित चुप्पी
हालांकि पूरी तरह साफ़ नहीं है लेकिन एमडीपी की स्थिति तेज़ी से एक पार्टी वाले देश की तरफ़ झुकती जा रही है, जैसा कि 2008 से पहले मालदीव में था. यामीन कैंप, जिसकी आलोचना अभी भी निरंकुश शासन (2013-18) के लिए की जाती है, के द्वारा राजनीतिक तौर पर इसका फ़ायदा उठाने की उम्मीद की जा सकती है. अगर वो नफ़रती अपराध बिल से बहुत ज़्यादा फ़ायदा नहीं उठा रही है तो इसकी वजह है कि लोग उसके वैचारिक विरोध को महत्व नहीं देते हैं.
इससे भी बढ़कर, सुनियोजित चुप्पी साधकर लगता है कि यामीन कैंप एमडीपी के अंदरुनी मतभेदों को और भी बढ़ने देना चाहता है. इसकी वजह ये है कि अगर किसी ‘इस्लाम से जुड़े मुद्दे’ पर सरकार की विश्वसनीय राजनीतिक आलोचना होती है तो इस बात की पूरी संभावना है कि एमडीपी के अलग-अलग गुटों में समझदारी आ जाए और 2023 के राष्ट्रपति चुनाव से पहले वो अपने मतभेदों को दूर कर लें.
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