Author : Ramanath Jha

Published on Jun 11, 2022 Updated 0 Hours ago

शहरी भारत में अवैध निर्माण के क्या प्रतिफल हैं?

भारतीय शहरों में अवैध निर्माण: क्या हमारे पास उनसे निपटने के लिये प्रभावशाली तरीके मौजूद हैं?

अप्रैल 2022 के मध्य में, दिल्ली के जहांगीरपुरी में इमारतों का विध्वंस, और उसके बाद सुप्रीम कोर्ट द्वारा आगे के विध्वंस को रोकने के लिये जारी की गई अधिसूचना’, और उस वजह से उपजने वाली आगामी राजनैतिक हंगामे ने अवैध निर्माण पर बहस को एक राष्ट्रीय एजेंडा के शीर्ष पर पहुंचा दिया है. इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया द्वारा इस मुद्दे के पक्ष और नगरपालिका द्वारा की गए कार्यवाही के विरोध पर बहस करते हुए, इस ख़बर को विशेष प्राथमिकता दी गई. इस लेख का मक़सद उस घटना के बाबत विचार-विमर्श करना नहीं है, जिसका बड़े विस्तार से हरके पहलू पर पहले से ही विश्लेषण हो चुका है. चूंकि, ये मुद्दा अब भी विचाराधीन है, सुप्रीम कोर्ट में ये गहन पूछताछ से गुज़रेगी और फिर ऐपेक्स कोर्ट अंततःकानूनी तरीकों से इस मुद्दे का निपटारण करेगी. 

सारे देश में, नगरपालिका कानून, अवैध निर्माण के संदर्भ में ज्य़ादातर इसी तरह की कार्यवाही करती हैं. हाई कोर्ट एवं सुप्रीम कोर्ट ने इस मुद्दे के संदर्भ में काफी बड़ी संख्या में अपने निर्णय सुनाए हैं. हाल ही में, भारत की न्यायपालिका ने शहरों में हो रहे अवैध निर्माण को लेकर अपनी चिंता व्यक्त की है

यहाँ पर उद्देश्य शहरी अवैध निर्माण को परिप्रेक्ष्य में रखना है. सारे देश में, नगरपालिका कानून, अवैध निर्माण के संदर्भ में ज्य़ादातर इसी तरह की कार्यवाही करती हैं. हाई कोर्ट एवं सुप्रीम कोर्ट ने इस मुद्दे के संदर्भ में काफी बड़ी संख्या में अपने निर्णय सुनाए हैं. हाल ही में, भारत की न्यायपालिका ने शहरों में हो रहे अवैध निर्माण को लेकर अपनी चिंता व्यक्त की है, और राज्य के सभी शहरों में, बड़ी संख्या में ऐसे सभी अवैध इमारतों के विध्वंस का आदेश पारित किया है. दुर्भाग्यवश, हमें ईमानदारी पूर्वक ये मानना होगा कि शहरों में अवैध निर्माण के प्रसार पर समूची रोकथाम नहीं लगाया जा सका है. इनके सतत् बढ़त के पीछे कई वज़ह हैं. इन पर काबू कर पाना इतना आसान नहीं हैं और जैसे-जैसे हम बढ़ते हैं और घेरा बनाते जाते हैं, ये शहर अपने साथ-साथ समस्याओं में और भी जटिलताएं लाते हैं. 

शहर में अवैध निर्माणों की श्रृंखला काफी विशाल है. शहर जैसे-जैसे विस्तृत होता है, उनमें निर्माण की भूख और बढ़ जाती है, और उनमें से काफी अवैध होते हैं. वे विभिन्न मामलों में अवैधता को आकर्षित करते हैं. सरकारी स्थलों पर निर्माण करके या शहरी योजना कानून द्वारा अनुमोदित ज़मीन से ज्य़ादा में निर्माण करके नगरपालिका कानून का उल्लंघन करते हैं. वे कई स्तरों पर अवैध हो सकते हैं, जिसमें पर्यावरण कानून का उल्लंघन, तटीय और जलीय क्षेत्र में बसे शहरों में तटीय ज़ोन नियामक का उल्लंघन, छोटी-छोटी नदियां, तालाब और पानी के स्रोत वाले स्थानों पर भी हो सकता है. इसके अलावा स्वास्थ्य के शर्तों, अग्नि नियम, पार्किंग नियम, ऊंचाई पर पाबंदी, सीढ़ी संबंधी नियम और कई अन्य नियमों का भी उल्लंघन हो सकता है. हालांकि, विभिनन्न तरह के उल्लंघनों की इस विस्तृत सूची को दो सामान्य प्रकार में बांटा जा सकता है – सरकारी ज़मीन पर अवैध निर्माण और निजी ज़मीन पर अवैध निर्माण. 

सरकारी संपत्ति पर अवैध निर्माण

सरकारी जमीन के संबंध में, सड़क और फूटपाथ पर होने वाले निर्माण (जिन्हें नगरपालिका नियम के अंतर्गत सड़क का एक अंग माना गया है) म्यूनिसिपल कमिश्नर के पास ऐसी शक्तियां हैं कि वो इसे अंजाम देने वाले अपराधियों को न सिर्फ़ उनकी संपत्ति से बेदख़ल कर सकता है बल्कि बिना किसी सूचना के उस इमारत को ध्वस्त भी कर सकता है. हालांकि, निजी संपत्तियों में अवैध निर्माण के संबंध में, एक नोटिस दिया जाना आवश्यक है और उसके पश्चात ही अगली कार्यवाही की जानी चाहिए. व्यवहारिक स्तर पर नगरपालिका कानून जो कहती है वो ये कि अगर कोई  व्यक्ति किसी सरकारी संपत्ति का अतिक्रमण करता है या फिर अपनी निजी संपत्ति को सरकारी संपत्ति तक ले जाकर उसका अतिक्रमण करता है, तो उस व्यक्ति को अतिक्रमण की आरोपी मानते हुए, बिना किसी सूचना के बेदख़ली के योग्य माना जायेगा और अतिक्रमण का दोषी माना जायेगा. हालांकि, अगर किसी व्यक्ति के पास ज़मीन या संपत्ति है और उसने बिना अनुमति के या उससे अधिक स्थान पर निर्माण किया है, तो उस व्यक्ति को सुनवाई का मौका दिया जायेगा और उचित प्रक्रिया का पालन करने के बाद ही कार्रवाई की जा सकती है. यहां निर्माण कानूनों की अनुमति के निर्णय के भीतर कुछ मात्रा में नियमितीकरण की संभावना होती है. हालांकि, अतिक्रमण करने वाले की आर्थिक रूपरेखा और उसकी ताकत, शक्ति और समर्थन से परिदृश्य जटिल हो जाता है जो उल्लंघनकर्ता को उसके अपराध से बचने में सहयोग करता है.

एक तरफ जहां कानून निर्धन वर्ग को शहर से बाहर ही रोक देने का काम करती है, स्थानीय काउंसिलर उन लोगों के लिए एक स्थान सुनिश्चित करने को काफी आतुर रहते हैं और किसी भी उपलब्ध स्थान अथवा जमीन पर उन्हे बसा देते हैं, जो कि समय के साथ-साथ गंदी बस्तियों या झुग्गी-झोपड़ी में तब्दील हो जाते हैं.

चलिये, इस मसले को हम ग़रीब व्यक्ति की ओर देखते हुए इसकी शुरुआत करते हैं. इनमें से ज्य़ादा लोग वे प्रवासी हैं, जिन्होंने अपनी रोजी रोटी, और आजीविका की तलाश में, अपने वास्तविक घरों को छोड़ दिया है. ये पुरुष और महिलायें ज़मीन खरीद पाने में और घर बना पाने में असमर्थ होते हैं या फिर किसी वैध बने हुए फ्लैट को नहीं खरीद पाते हैं, क्योंकि दोनों ही विकल्प उनकी क्षमता के बाहर हैं. वे मकान किराये पर नहीं ले सकते हैं क्योंकि, शहरी किराया कानून अफोर्डेबल रेंटल हाउसिंग या टिकाऊ कीमत में किराये का मकान दिये जाने की प्रक्रिया को प्रोत्साहन नहीं देता है. हालांकि, प्रवासियों को वैध तरीके से मकान नहीं मिल सकते हैं, पर शहरी अर्थशास्त्र बहुदा उन्हीं पर निर्भर करती है. उनके श्रम के बग़ैर शहर जीवित भी नहीं रह सकती है. 

ऐसी सभी स्थितियों में भी कुछ लोगों को अवसर की बू आती हैं. एक तरफ जहां कानून निर्धन वर्ग को शहर से बाहर ही रोक देने का काम करती है, स्थानीय काउंसिलर उन लोगों के लिए एक स्थान सुनिश्चित करने को काफी आतुर रहते हैं और किसी भी उपलब्ध स्थान अथवा जमीन पर उन्हे बसा देते हैं, जो कि समय के साथ-साथ गंदी बस्तियों या झुग्गी-झोपड़ी में तब्दील हो जाते हैं. पहले तो इन अवैध बस्तियों में किसी प्रकार की सार्वजनिक सुविधाएं नहीं होती हैं, परंतु समय के साथ-साथ वहाँ पर जल, बिजली, स्ट्रीट लाइट, और बाकी अन्य सुविधाएं मुहैया करा दी जाती हैं. ऐसे अवैध निर्माणों में अक्सर ग़रीबी और उच्च मानवीय मूल्यों का समावेश होता है. प्रवासी मज़दूरों को शहरों का स्थानीय समाज और राजनीतिक वर्ग काफी जल्दी स्वीकार कर लेता है, और इसकी वजह कहीं न कहीं उन्हें इनसे मिलने वाला सस्ता श्रम और राजनीतिज्ञों को बड़ी ही आसानी से मिलने वाला वोट बैंक है. हालांकि, इससे इस अवैध निर्माण का दृश्य काफी जटिल हो जाता है. ये निर्माण का एक वर्ग तैयार करते है जो कि अवैध है, परंतु नियमितीकरण की ये पूरी प्रक्रिया, सजग राजनैतिक सहयोग से ही फलने-फूलने लगती है, और होता ये है कि अवैध निर्माण की परिभाषा जटिल होती जाती है.  

जटिल और अव्यवस्थित समस्या

इनमें से काफी प्रवासी, अपनी आजीविका के लिए, किसी गैर-पारंपरिक क्षेत्रों में नौकरी कर लेते हैं अथवा वे खुद का छोटा-मोटा व्यापार करने लगते हैं. इनमें सबसे ज्य़ादा दिखने वाले हैं स्ट्रीट वेंडर्स अथवा सड़क विक्रेता ही हैं. सन 2014 में, संसद ने ‘The Street Vendors(Protection of Livelihood and Regulation of Street Vending) कानून’ को पारित किया, जिसके तहत स्थानीय प्रशासन को वेंडिंग ज़ोन को परिभाषित करना और विक्रेता लाइसेंस निर्गत करने का अधिकार है. चूंकि शहरों में अपनी ज़मीनों के इस्तेमाल, पर ऐसी किसी गतिविधि को प्लान नहीं किया गया है, इसलिए ये वेंडिंग गतिविधि सड़कों तक पहुँच जाती है, रेलवे स्टेशनों, बस अड्डा, और चंद ऐसे ज़मीनी क्षेत्रों में जहां उन्हें तैयार खरीदार मिल सकते हैं. वे पैदल राह चलने वालों के लिए और शहरों के गतिशीलता में एक बाधा बन जाते हैं. हालांकि, ये उन्ही शहरों में रहने वाले लोग हैं, जो सुविधा के मद्देनज़र उन विक्रेताओं द्वारा दी जाने वाली सुविधाओं की वजह से अपनी जरूरत के सामान उन्ही से खरीदना पसंद करते हैं.

शहरी योजना कानून के तहत ये लोग अतिक्रमण करने वाले तत्व हैं किन्तु इन्हें अस्थायी रूप से सड़क विक्रेता अधिनियम के तौर पर नियमित कर दिया जाता है. इन वेंडरों की बड़ी संख्या और जगह की कमी शहरों में एक चूहे-बिल्ली के खेल को जन्म दे देती है. नगर-पालिका प्रशासन समय-समय पर इन अवैध बस्तियों को गिराने का भी काम करती है, जिसकी वजह से वहां विरोध-प्रदर्शन, विवाद और राजनीतिक हस्तक्षेप किया जाता है और कुछ समय बाद फिर से स्थिती पहले से हो जाती है और इन अस्थायी विक्रेताओं की उस जगह पर फिर से वापसी हो जाती है, जिस जगह से उन्हें हटाया गया था. आख़िरकार- खुला और अस्थायी बाज़ार शहरों में फलने-फूलने वाला व्यापार है. स्थानीय नेता वे कवच होते हैं, जो इन झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले लोगों की प्रशासन से रक्षा करते हैं, वे इन बस्तियों में रहने वाले परिवारों और स्ट्रीट वेंडर्स या खुले विक्रताओं की मदद करते हैं, बदले में उन्हें इनका वोट-बैंक हासिल होता है, जो चुनावों में इनकी जीत का कारण बनता है. ये तालमेल या लेन-देन की राजनीति एक अदने से जूनियर म्यूनिसिपल के अधिकारी के स्तर पर, हैंडल नहीं किया जा सकता है. अगर वो इन अवैध बस्तियों के खिलाफ़ किसी तरह का कोई एक्शन लेता है तो उस यहां की ग़रीब जनता के गुस्से का सामना करना पड़ता है, और उन स्थानीय नेताओं की भी आखों की किरकिरी बन जाता है जिनका वोट बैंक उसके इस प्रशासनिक क़दम से प्रभावित होते हैं.  

ये साफ़ तौर पर देखा जा सकता है कि अवैध निर्माण का मुद्दा बिल्कुल ही अव्यवस्थित है. क्या नगरपालिका प्रशासन के पास इससे निपटने की क्षमता है? सैद्धांतिक तौर पर हाँ; परंतु जैसा कि हमने देखा है, ये कार्य काफी व्यापक होने के साथ-साथ काफी जटिल भी है.

भारतीय शहरों की घनी आबादी और ज़मीनों की ऊंची कीमत भी निम्न मध्यम वर्गीय लोगों को, जिन्होंने किसी तरह से खुद के लिए छोटे मकान का बंदोबस्त किया है, वे ही अतिरिक्त निर्माण के लिए बाध्य हैं, हालांकि- जैसे-जैसे परिवार बड़ा होता जाता है, वो परिवार उस बिल्डिंग में एक्स्टेंशन के तौर पर एक अतिरिक्त कमरा जोड़ देता है, या फिर बालकॉनी को ढक देता है. ऐसे सभी निर्माण, योजना कानूनों को धराशायी कर देते हैं. उन्हें स्थानीय निकायों के तरफ से नोटिस भी दिया जाता है, परंतु आमतौर पर ऐसे हालातों में स्थानीय प्रबंधन का सहारा ले लिया जाता है, ताकि इन्हें नज़रअंदाज कर दिया जाए. कई धनाढ्य लोगों के लिए, कानून के कोई मायने नहीं होते हैं. उनमें से कई लोग बेशर्मी पूर्वक अनाधिकृत निर्माण में लिप्त होते हैं और राजनीतिक रसूख़ अथवा पैसों की मदद से अपने विरोधियों का मुह बंद कर देते हैं.   

ये साफ़ तौर पर देखा जा सकता है कि अवैध निर्माण का मुद्दा बिल्कुल ही अव्यवस्थित है. क्या नगरपालिका प्रशासन के पास इससे निपटने की क्षमता है? सैद्धांतिक तौर पर हाँ; परंतु जैसा कि हमने देखा है, ये कार्य काफी व्यापक होने के साथ-साथ काफी जटिल भी है. स्थानीय कर्ताओं की पूरी जमात कानून के खिलाफ़ एकमत हो कर खड़ी हैं और ज्य़ादातर नगरपालिका कर्मचारियों के पास इतनी ताक़त नहीं होती है कि वो इन सब से निपटने के लिए हिम्मत जुटा पाये. फ़लस्वरूप इसके नतीजे भी किसी से छुपे न होकर सभी के सामने हैं. 

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