इस साल जून में रिलायंस इंडस्ट्रीज ने हाइड्रोजन (H2) के उत्पादन और इस्तेमाल के लिए 10 अरब डॉलर के निवेश का ऐलान किया. H2 का यूं तो कोई रंग नहीं होता, लेकिन आज जब दुनिया के सामने ‘नेट जीरो कार्बन’ तक पहुंचने की चुनौती है तो यह कई रंगों में आ रही है और इनमें से हरेक का खास मकसद है.
H2 के कई रंग
ग्रे कलर की हाइड्रोजन सबसे सस्ती है. इसकी कीमत 1-1.5 डॉलर प्रति किलो (2020) है. यह सबसे कम ग्रीन है यानी दूसरे रंगों की हाइड्रोजन की तुलना में इससे अधिक प्रदूषण फैलता है. इसे कुदरती गैस से निकाला जाता है और इस प्रक्रिया में कार्बन डायॉक्साइड (CO2) निकलता है. ब्लू H2 इसके मुकाबले अधिक साफ होती है. इसे बनाने की प्रक्रिया में निकलने वाले CO2 को अलग अस्थायी तौर पर स्टोर किया जाता है. इसकी लागत 4.55 किलो प्रति डॉलर (2020) है. फिरोजी H2 कार्बन को ठोस बनाता है, लेकिन इसे लेकर तकनीकी परेशानियां बनी हुई हैं. लाल H2 को पानी से अलग करने के लिए परमाणु ऊर्जा का सहारा लेना पड़ता है, फुकुशिमा हादसे के बाद इसकी सुरक्षा पर सवालिया निशान भी लग गया. इनमें सबसे अधिक संभावना जीरो कार्बन ग्रीन H2 में दिखी है. यहां अक्षय ऊर्जा की मदद से पानी से हाइड्रोजन को अलग किया जाता है. इसके लिए जिस प्रक्रिया की मदद ली जाती है, उसे इलेक्ट्रोलिसिस कहते हैं. अभी ऐसा एक किलो हाइड्रोजन 6 डॉलर का पड़ता है. इंडस्ट्री का मानना है कि 2030 तक इसकी कीमत घटकर 2.5 डॉलर रह जाएगी.
ग्रीन H2 को इस्तेमाल करने की दिशा में अभी काम चल रहा है. करीब 30 देशों ने (एशिया-प्रशांत क्षेत्र में जापान, दक्षिण कोरिया, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड सहित) कैलिफोर्निया ने इसके लिए अपनी रणनीति का ऐलान कर दिया है. उन्होंने हाइड्रोजन पर आधारित अर्थव्यवस्था के लिए विजन डॉक्युमेंट और रोडमैप भी तैयार कर लिया है.
H2 में 38 अरब डॉलर के निवेश का वादा
ग्रीन H2 को इस्तेमाल करने की दिशा में अभी काम चल रहा है. करीब 30 देशों ने (एशिया-प्रशांत क्षेत्र में जापान, दक्षिण कोरिया, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड सहित) कैलिफोर्निया ने इसके लिए अपनी रणनीति का ऐलान कर दिया है. उन्होंने हाइड्रोजन पर आधारित अर्थव्यवस्था के लिए विजन डॉक्युमेंट और रोडमैप भी तैयार कर लिया है. आपको जानकर हैरानी होगी कि पहली बार ‘हाइड्रोजन इकॉनमी’ शब्द का इस्तेमाल 1970 में मिशिगन यूनिवर्सिटी के लॉरेंस डब्ल्यू जोंस की तकनीकी रिपोर्ट में हुआ था. हाइड्रोजन इकॉनमी की तरफ चीन ने आदतन तेजी से कदम बढ़ाए हैं. वहां इस पर अनुसंधान का काम बहुत तेजी से चल रहा है. और तो और चीन हाइड्रोजन का ईंधन के रूप में इस्तेमाल करके गाड़ियों का भी परीक्षण कर रहा है. आपको शायद ही पता हो कि 2017 में हाइड्रोजन परिषद नाम की औद्योगिक संस्था बनी थी. इसमें भारत से रिलायंस इंडस्ट्रीज और पब्लिक सेक्टर की इंडियन ऑयल कॉरपोरेशन (आईओसी) दोनों ही सदस्य हैं. अभी तक 262 परियोजनाओं का ऐलान किया गया है, जिनमें 2030 तक 300 अरब डॉलर का संभावित निवेश हो सकता है. इनमें से 38 अरब डॉलर के लिए इंजीनियरिंग और इन्वेस्टमेंट मंजूरियां मिल चुकी हैं.
ग्रीन H2 पर रिलायंस का प्लान
आपके मन में यह सवाल आ सकता है कि अगर हाइड्रोजन प्रोजेक्ट्स को लेकर दुनिया इतनी आगे बढ़ चुकी है तो फिर रिलायंस इसमें क्या करेगी? पहली बात तो यह है कि रिलायंस ने एक दशक के अंदर एक किलो ग्रीन H2 को 1 डॉलर में बनाने का लक्ष्य रखा है, जो बहुत ही आक्रामक है. इसी के लिए इंडस्ट्री ने 2.5 डॉलर प्रति किलो का अनुमान लगाया है. यानी रिलायंस का इरादा इंडस्ट्री के अनुमान से 60 प्रतिशत कम पर ग्रीन H2 के उत्पादन का है. दूसरी बात यह है कि कंपनी ने इस क्षेत्र में 10 अरब डॉलर के निवेश की योजना बनाई है. इनमें से 25 प्रतिशत निवेश वह वैश्विक स्तर पर करेगी. तीसरा, कंपनी ने एंड टु एंड बिजनेस स्ट्रैटिजी यानी इस परियोजना से जुड़े कई काम ख़ुद करने का फैसला किया है. वह ख़ुद 100 गिगावॉट की नई सौर और पवन ऊर्जा परियोजनाएं लगाएगी. भारत ने 2030 तक जितनी अक्षय ऊर्जा की क्षमता तैयार करने का लक्ष्य रखा है, यह उसका 22 प्रतिशत होगा. कंपनी स्टैटिक और ट्रांसपोर्ट डिमांड को देखते हुए इलेक्ट्रोलाइजर मैन्युफैक्चरिंग और फ्यूल सेल डिवेलपमेंट का काम भी ख़ुद ही करेगी. रिलायंस इंडस्ट्रीज के चेयरमैन और एमडी 64 साल के मुकेश अंबानी हैं. वह एशिया के सबसे अमीर इंसान हैं. वह बड़े सपने देख सकते हैं और उनके अंदर उन्हें पूरा करने का दमखम भी है.
जिस तरह से कंपनियां हाइड्रोजन इकॉनमी में निवेश कर रही हैं, उससे यह भी लगता है कि वे कहीं ज्यादा गंभीर हैं. ऐसा लग रहा है कि इस दिशा में एक बड़ा बदलाव होने जा रहा है. यह जलवायु परिवर्तन को रोकने और पर्यावरण की रक्षा के नाम पर शोशेबाजी नहीं है.
यहां सवाल यह उठता है कि क्या ये सब नवंबर में हुए COP26 के नेट जीरो की उम्मीदों के कारण हो रहा है और कहीं यह ख्याली पुलाव तो नहीं? जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र का सम्मेलन ग्लासगो में इसी साल होगा, जिसे COP26 कहा जाता है. उससे पहले बेशक पर्यावरण की रक्षा करने को लेकर पहल तेज हुई है, लेकिन जिस तरह से कंपनियां हाइड्रोजन इकॉनमी में निवेश कर रही हैं, उससे यह भी लगता है कि वे कहीं ज्यादा गंभीर हैं. ऐसा लग रहा है कि इस दिशा में एक बड़ा बदलाव होने जा रहा है. यह जलवायु परिवर्तन को रोकने और पर्यावरण की रक्षा के नाम पर शोशेबाजी नहीं है.
ग्रीन H2 की लागत कम करने की जो योजना बनाई गई है, वह दो बातों पर निर्भर करती है. अगर अक्षय ऊर्जा की लागत कम हो और उसके साथ बड़े स्तर पर इलेक्ट्रोलाइजर्स का इस्तेमाल किया जाए तो उससे H2 की लागत 75 प्रतिशत तक कम हो सकती है. ग्रीन परियोजनाओं के लिए सस्ते कर्ज से भी इस क्षेत्र को बड़ी मदद मिलेगी. ग्रीन बॉन्ड बेचकर कंपनियां यह पैसा जुटा सकती हैं. इस साल इस रास्ते से 2 लाख करोड़ डॉलर की रकम जुटाए जाने की उम्मीद है, जो 2030 तक बढ़कर 50 लाख करोड़ डॉलर तक पहुंच सकती है. कंपनियों को सस्ते कर्ज के साथ ग्रीन इकॉनमी की ओर बढ़ने के लिए सरकारों से भी रियायत मिलेगी. इसलिए रिलायंस का यह सपना पूरा हो सकता है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 15 अगस्त 2021 को नेशनल हाइड्रोजन मिशन का ऐलान किया था. उन्होंने कहा था कि इसका मकसद 2047 तक भारत को ग्रीन हाइड्रोजन के उत्पादन और निर्यात के क्षेत्र में दुनिया का गढ़ बनाना है. 2047 महत्वपूर्ण साल है क्योंकि तब देश की आजादी के 100 बरस पूरे होंगे.
प्राकृतिक गैस कभी अगली मंजिल नहीं रही
सच यह भी है कि हाइड्रोजन अभी अक्षय ऊर्जा से भी मुकाबला करने की स्थिति में नहीं आया है. अक्षय ऊर्जा की छोड़िए, अभी तो यह उद्योग कोयले से बनने वाली बिजली और प्राकृतिक गैस के आगे भी खड़ा नहीं हो सकता. इसके बावजूद देश में इस पर चर्चा तेज हो गई है. प्राकृतिक गैस कम कार्बन का एक अहम जरिया है लेकिन देश की कुल प्राथमिक ऊर्जा ख़पत में इसका योगदान सिर्फ 7 प्रतिशत है. यह सरकार के 15 प्रतिशत के लक्ष्य से काफी कम है. प्राकृतिक गैस का इस्तेमाल अगर नहीं बढ़ पा रहा है तो उसके दो प्रमुख कारण हैं. पहला तो यह डर है कि अगर बड़े पैमाने पर प्राकृतिक गैस विदेश से खरीदी गई तो हमारा विदेशी मुद्रा का भंडार कम हो जाएगा. ऐसी दलील देने वाले लोग भूल जाते हैं कि अगर प्राकृतिक गैस के आयात से कम लागत, कम प्रदूषण के साथ बेहतर चीजें देश में बनती हैं तो उससे हमें निर्यात बढ़ाने में मदद मिलेगी. असल में, जो लोग ये दलील देते हैं, वे देश से निर्यात बढ़ने को लेकर बहुत आशावादी रुख़ नहीं रखते. दूसरा तर्क यह दिया जाता है कि बिजली उत्पादन के लिए प्राकृतिक गैस का इस्तेमाल करना फायदेमंद नहीं है. बताया जाता है कि देश में अपार कोयला है. इसलिए प्राकृतिक गैस खरीदने के बजाय इस सस्ते कोयले का इस्तेमाल करना चाहिए. अक्षय ऊर्जा से तुलना करते वक्त भी प्राकृतिक गैस के संदर्भ में ऐसी ही बातें कही जाती हैं. दलील यह दी जाती है कि अगर अक्षय ऊर्जा के स्टोरेज की लागत कम हो जाए तो वह प्राकृतिक गैस की तुलना में कहीं अधिक फायदेमंद हो सकती है.
भारत ने मजबूरी में अपनी अर्थव्यवस्था को दुनिया के लिए खोला था. आज भी हम हर चीज में आत्मनिर्भर बनने के बारे में सबसे पहले सोचते हैं. आप वैश्विक व्यापार पर हमारे रुख से इस बात को अच्छी तरह समझ सकते हैं. एक तो हम निर्यात बढ़ाना चाहते हैं, लेकिन इसके साथ आयात बढ़ाने को तैयार नहीं हैं.
एक नई किताब आई है, जिसका नाम है- द नेक्स्ट स्टॉप. इसे गैस इंडस्ट्री के दिग्गज विक्रम सिंह मेहता ने संपादित किया है. वह पहले शेल इंडिया के सीईओ, ब्रुकिंग्स इंडिया के एग्जिक्यूटिव चेयरपर्सन रह चुके हैं और अब सेंटर फॉर सोशल एंड इकॉनमिक प्रोग्रेस के चेयरपर्सन हैं. इस किताब में कई जाने-माने लोगों ने कोयले की मेच्योर टेक्नोलॉजी के मुकाबले पर्यावरण के लिए बेहतर माने जाने वाली प्राकृतिक गैस की उपेक्षा के द्वंद्व को ख़त्म करने की कोशिश की है. एक तरह से इन लोगों ने इस कोयले के इस्तेमाल के हक में दिए जाने वाले तर्क की बखिया उधेड़ दी है. हाइड्रोजन टेक्नोलॉजी को लेकर एक डर है, जिसे खुलकर बताया नहीं जा रहा है. अभी H2 तकनीक और बिजनेस में उसके इस्तेमाल को लेकर जो उम्मीद है, वह राजनीतिक स्वार्थों से निर्देशित होने वाली नीतियों के कारण दम न तोड़ दे. कुछ उसी तरह से, जिस तरह से बेहतर होने के बावजूद प्राकृतिक गैस का इस्तेमाल आज भी देश में बहुत सीमित स्तर पर हो पा रहा है.
भारत ने मजबूरी में अपनी अर्थव्यवस्था को दुनिया के लिए खोला था. आज भी हम हर चीज में आत्मनिर्भर बनने के बारे में सबसे पहले सोचते हैं. आप वैश्विक व्यापार पर हमारे रुख से इस बात को अच्छी तरह समझ सकते हैं. एक तो हम निर्यात बढ़ाना चाहते हैं, लेकिन इसके साथ आयात बढ़ाने को तैयार नहीं हैं. हमने सीमा पार ऊर्जा के व्यापार के लिए बहुत जोर नहीं लगाया, जबकि हमारे पड़ोस में बिजली की कमी है. हम कच्चे तेल का आयात इसलिए करते हैं क्योंकि इसका हमारे पास कोई विकल्प नहीं है. हालांकि, जब देश में सौर ऊर्जा एक स्तर तक पहुंच गई तो सरकार ने इंटरनेशनल सोलर अलायंस को यहां लाने के लिए लॉबिंग की. सौर ऊर्जा के क्षेत्र में भारत में असीम संभावना है. कुछ उसी तरह से जैसे कि लौह अयस्क या कुशल कामगारों की देश में कोई कमी नहीं है. भारत अब पश्चिम एशिया से दक्षिण पूर्व एशिया होते हुए ऑस्ट्रेलिया तक के लिए सोलर ग्रिड का हब बन गया है.
ब्रुकिंग्स के राहुल टोंगिया कहते हैं कि जब तक हम भारत में बनने वाली हाइड्रोजन गैस को लेकर आत्मनिर्भर होने का इंतजार कर रहे हैं, तब तक इन क्षेत्रों में प्राकृतिक गैस के इस्तेमाल में मामूली ही सही, बढ़ोतरी की जानी चाहिए.
आपको बता दें कि ग्रीन H2 का उत्पादन सौर और पवन ऊर्जा से किया जाता है, लेकिन इसके लिए जिस तकनीक का प्रयोग होता है, वह अभी शुरुआती दौर में है. यह बात बहुत मायने रखती है. यह भारत के नीति-निर्माताओं की सोच के मुताबिक है. इसमें हम कम लागत के साथ आत्मनिर्भर हो सकते हैं. इसलिए हमने इस क्षेत्र में वैश्विक केंद्र बनने का सपना देखा है. वैसे, अभी वैश्विक स्तर पर कंपनियों का ध्यान इस क्षेत्र में चिली, पश्चिम एशिया, उत्तर अफ्रीका और ऑस्ट्रेलिया पर है क्योंकि इन देशों में अक्षय ऊर्जा के उत्पादन की लागत सबसे कम है.
बड़ी चुनौतियां
मेहता और उनके सह-लेखकों ने जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों को ध्यान में रखते हुए तय समय में कदम उठाने की अपील की है. ग्रीन हाइड्रोजन के व्यावसायिक इस्तेमाल का इंतजार अनुमान से लंबा हो सकता है. यह बात सही है कि इसकी लागत घटने से आकार बड़ा होने, इन परियोजनाओं के लिए सस्ता कर्ज मिलने और वैश्विक स्तर पर हाइड्रोजन के क्षेत्र में तकनीकी सहयोग की संभावनाएं हैं. लेकिन इसके साथ हाइड्रोजन गैस की स्टोरेज और ट्रांसपोर्ट को लेकर कई चुनौतियां हैं. ये चुनौतियां काफी बड़ी भी हैं.
ऐसे में क्या यह अच्छा नहीं होगा कि भारत तुरंत प्राकृतिक गैस के इस्तेमाल को बढ़ावा दे. यहां भी यह किफायती लगे, वहां इसका इस्तेमाल किया जाए. उदाहरण के लिए, खाना पकाने के ईंधन के तौर पर, शहर के अंदर यातायात और दूर तक ट्रकों की आवाजाही के लिए. इसके साथ शहरों में बिजली के बैकअप की खातिर भी इसका इस्तेमाल किया जाना चाहिए. ब्रुकिंग्स के राहुल टोंगिया कहते हैं कि जब तक हम भारत में बनने वाली हाइड्रोजन गैस को लेकर आत्मनिर्भर होने का इंतजार कर रहे हैं, तब तक इन क्षेत्रों में प्राकृतिक गैस के इस्तेमाल में मामूली ही सही, बढ़ोतरी की जानी चाहिए.
भारत में बमुश्किल 16 हजार किलोमीटर की गैस पाइपलाइन है. वहीं, और 15 हजार किलोमीटर की गैस पाइपलाइन पर अभी काम चल रहा है. आईसीएफ के गुरप्रीत चुघ कहते हैं कि इस मामले में आप भारत की तुलना जरा चीन से करिए. चीन में 76 हजार किलोमीटर की गैस पाइपलाइन तैयार है, जिसकी आबादी भारत जितनी ही है.
तकनीक की दुनिया पल-पल बदल रही है. इसमें कल क्या हो, आज शायद ही किसी को पता होता है. ऐसे में हाइड्रोजन जैसे ग्रीन फ्यूल के लिए जिंदगी के लिए जो चीजें जरूरी हैं, हम उनकी खरीदारी अनिश्चितकाल के लिए नहीं टाल सकते. जिस तरह से आप कोविड-19 वैक्सीन के बारे में सोचते हैं, उसी तरह से आपको ऊर्जा के बारे में भी सोचना चाहिए. आप तय बजट में बेहतरीन तकनीक हासिल करिए. उसका इस्तेमाल अर्थव्यवस्था को बढ़ाने में करिए. इससे आपकी आमदनी में जो बढ़ोतरी होगी, उससे आप नई और बेहतर तकनीक हासिल कर पाएंगे. प्राकृतिक गैस में हम अभी ही 15 प्रतिशत H2 मिला सकते हैं. यह हमारी अंतरिम रणनीति होनी चाहिए. इसके साथ यह सवाल खड़ा होता है कि क्या हमारे पास गैस इकॉनमी को सहारा देने के लिए पाइपलाइन इंफ्रास्ट्रक्चर है? भारत में बमुश्किल 16 हजार किलोमीटर की गैस पाइपलाइन है. वहीं, और 15 हजार किलोमीटर की गैस पाइपलाइन पर अभी काम चल रहा है. आईसीएफ के गुरप्रीत चुघ कहते हैं कि इस मामले में आप भारत की तुलना जरा चीन से करिए. चीन में 76 हजार किलोमीटर की गैस पाइपलाइन तैयार है, जिसकी आबादी भारत जितनी ही है. और तो और इस मामले में हमसे आगे अर्जेंटीना भी है जिसका क्षेत्रफल भारत की तुलना में एक तिहाई है. अर्जेंटीना में 30 हजार किलोमीटर की गैस पाइपलाइन है.
घरेलू गैस से नियंत्रण हटाए सरकार
आत्मनिर्भरता के मंत्र का मतलब है कि गैस उत्पादन के लिए भी माकूल नीतियां होनी चाहिए. हमें कुदरती संसाधनों के उत्खनन के लिए उदार नीतियां बनानी होंगी. भारत में अभी घरेलू गैस की राशनिंग की जाती है. यानी कई क्षेत्रों को प्राथमिकता के आधार पर इसकी सप्लाई होती है. इससे घरेलू गैस की यहां दोहरी कीमत व्यवस्था लागू है. इससे गैस का उत्पादन करने वाली कंपनियों के मुनाफे में कमी आती है. दूसरे, अगर सरकार बीच में कीमत या दूसरी नीतियों में बदलाव कर दे तो उससे भी कंपनियों पर असर पड़ता है.
गैस को अभी तक जीएसटी के दायरे में नहीं लाया गया है. इसलिए इस इंडस्ट्री को इनपुट पर मिलने वाली टैक्स छूट का लाभ नहीं मिल पाता. अगर आज सरकार तेल की जगह गैस को बढ़ावा नहीं दे रही है तो उसकी वजह यह भी हो सकती है कि उसे तेल पर टैक्स से भारी आमदनी होती है. केंद्र की आमदनी में इसका 24 प्रतिशत तो राज्यों की आमदनी में 14 प्रतिशत का योगदान है. यह कदम जलवायु परिवर्तन पर पहल से भी मेल खाता है क्योंकि तेल पर सरकार सब्सिडी नहीं देती. एक तरह से ऊंची कीमत के जरिये वह इसके इस्तेमाल को हतोत्साहित कर रही है.
अगर वह घरेलू गैस की दोहरी कीमत वाली व्यवस्था को ख़त्म कर देती है और उर्वरक उत्पादन और इसके आयात से नियंत्रण हटा लेती है तो सरकार को तिहरा फायदा होगा.
घरेलू गैस की कीमत सरकार ने तय की हुई है. यह कीमत विदेश से मंगाई जाने वाली गैस से कम है. ऐसा इसलिए किया गया है ताकि घरेलू गैस के इस्तेमाल से बनने वाले यूरिया की लागत कम रखी जा सके. ICRIER के अशोक गुलाटी और प्रिथा बनर्जी का सुझाव है कि सरकार को इस मामले में आर्थिक तर्क पर ध्यान देना चाहिए. अगर वह घरेलू गैस की दोहरी कीमत वाली व्यवस्था को ख़त्म कर देती है और उर्वरक उत्पादन और इसके आयात से नियंत्रण हटा लेती है तो सरकार को तिहरा फायदा होगा. पहली बात तो यह कि इससे घरेलू गैस उत्पादन क्षेत्र आकर्षक हो जाएगा. इससे उर्वरक उद्योग वैश्विक स्तर पर मुकाबले के लिए खड़ा हो पाएगा. तीसरा, इससे पानी को प्रदूषित करने वाले उर्वरकों की खपत घटेगी. इस कदम से किसानों पर जो आर्थिक बोझ बढ़ेगा, उसकी भरपाई की जा सकती है. किसानों को सीधे कैश ट्रांसफर के जरिये यह काम हो सकता है. क्या सरकार इस सुझाव को मानेगी? क्या उसका यह डर ख़त्म होगा कि एक कच्चे माल पर कीमतों की बंदिशें हटाने से उवर्रक की लागत बढ़ सकती है, जिसका असर आखिरकार फूड सप्लाई पर पड़ेगा. हमारे पास अभी इस सवाल का जवाब नहीं है.
चलिए, फिर से जलवायु परिवर्तन की ओर लौटते हैं. रूढ़िवादी सोच भी रखें तो पर्यावरण की खातिर फॉसिल फ्यूल (कच्चे तेल) के वैश्विक उत्पादन में 2050 तक कम से कम 3 प्रतिशत सालाना की कमी आनी चाहिए, तभी धरती के तापमान के 1.5 डिग्री सेल्सियस वाली संभावना 50 प्रतिशत बनी रहेगी. जब तक ग्रीन फ्यूल राजनीतिक हितों, ग्रोथ और आमदनी के स्तर पर संतुलन नहीं कायम कर पाता तो भी हमें उसकी ओर कदम बढ़ाना होगा. उसकी वजह यह है कि ऐसा नहीं करने पर समूची धरती को जो कीमत अदा करनी पड़ेगी, वह इन सबसे कहीं ज्यादा होगी.
लंबी अवधि में कार्बन मुक्त प्राकृतिक गैस का विकल्प हाइड्रोजन हो सकता है. हमें सिर्फ़ इसे राजनीतिक स्तर पर स्वीकार्य बनाना होगा. यह पक्का करना पड़ेगा कि हाइड्रोजन को जब अपनाया जाया तो उससे इकॉनमी पर बहुत बुरा असर न पड़े. पर्यावरण की रक्षा के लिए एमिशन में कमी लानी होगी और उसके लिए तय रास्ते पर आगे बढ़ना होगा.
लंबी अवधि में कार्बन मुक्त प्राकृतिक गैस का विकल्प हाइड्रोजन हो सकता है. हमें सिर्फ़ इसे राजनीतिक स्तर पर स्वीकार्य बनाना होगा. यह पक्का करना पड़ेगा कि हाइड्रोजन को जब अपनाया जाया तो उससे इकॉनमी पर बहुत बुरा असर न पड़े. पर्यावरण की रक्षा के लिए एमिशन में कमी लानी होगी और उसके लिए तय रास्ते पर आगे बढ़ना होगा. अगर हम ये काम करते हैं तो नेट जीरो कार्बन फ्यूचर का लक्ष्य हासिल कर पाएंगे. इसमें कोई शक नहीं है कि संयुक्त राष्ट्र के ग्लासगो सम्मेलन से इसमें मदद मिल सकती है, जहां इसके लिए इस रास्ते पर चलने के लिए बराबरी और कायदे के विकल्पों पर विचार किया जाएगा. खासतौर पर उनके लिए जो ईंधन का ज्यादा इस्तेमाल करते हैं.
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